Monday, 30 November 2015

35 बाबा की क्लास (कुछ भ्रान्तियाॅ- 2)

35 बाबा की क्लास (कुछ भ्रान्तियाॅ- 2)
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नन्दु- अनेक विशेषज्ञों का यह कहना कितना सार्थक है कि आध्यात्मिक साधना के लिये ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य है?

बाबा- जो लोग ब्रह्मचर्य पालन करने के भय से साधना नहीं करते, उन्हें समझना चाहिये कि मन को वाह्य जड़ात्मक चिंतन से आन्तरिक सूक्ष्म चिंतन की ओर ले जाने का प्रयास करना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना है। प्रकृति के प्रभाव से ही मन जड़ता की ओर जाता है और उसके प्रभाव को कम करने से वह सूक्ष्मता की ओर जाता है। मुक्ति का अर्थ है प्रकृति के प्रभाव को कम करके जड़ता से सूक्ष्मता की ओर जाना। ब्रह्म स्वभाव से सूक्ष्म हैं अतः यदि मन जड़ता की ओर होगा तो वह ब्रह्म को नहीं पा सकता इसलिये मन को साॅंसारिक जड़ पदार्थो से दूर करने का उपाय है ‘‘ ब्रह्म का चिंतन करना‘‘ जो प्रकृति का मन पर प्रभाव कम करते हुए ही किया जा सकता है क्योंकि प्रकृति ही उसे चारों ओर के जड़ पदार्थों की ओर खींचती रहती है। इसलिये ब्रह्मचर्य वह कार्य है जो प्रकृति के प्रभावों से मन को ब्रह्म की ओर ले जाने का प्रयत्न करे और ब्रह्मचारी वह है जो हमेशा  ब्रह्म चिंतन में डूॅबा रहे। यह कार्य साधना का अभ्यास करने पर ही संभव है। साधारणरतः वीर्य संरक्षण को ही ब्रह्मचर्य माना जाता है पर वास्तव में अष्ट पाश  और षडरिपु मन को बाहरी ओर के संसार में ही बाॅंधते हैं, इन चौदह में से ‘काम‘  केवल एक है अतः जब तक यह सभी चौदह नियंत्रण में नहीं आते केवल ‘काम‘ को नियंत्रित करने  से ब्रह्मचर्य का पालन करना नहीं कहला सकता। अविद्यामाया जो इन चौदह प्रकारों से मन को इतना जकड़े रहती है उससे तब तक नहीं छूटा जा सकता जबतक साधना न की जावे। इस साधना के सहारे धीरे धीरे मन अविद्या के प्रभाव से दूर होता जाता है और वही ब्रह्मचारी कहलाता है जो अविद्या के प्रभाव से मुक्त हो गया। जो साधना का अभ्यास किये बिना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं वे केवल समय को ही नष्ट करते हैं। इसलिये ब्रह्मचर्य पालन करने के लिये पारिवारिक जीवन को त्यागने की आवश्यकता नहीं हैं। साधना का बल प्रकृति के बल से अधिक होता है अतः इसकी सहायता से कोई भी ब्रह्मचारी हो सकता है, वीर्य का रक्षण कर सकता है और बुद्धि को तीक्ष्ण बना सकता है।

रवि- बाबा! आपने अनेक बार षडरिपुओं और अष्टपाशों  का संदर्भ दिया है, वे क्या हैं?

बाबा- मनुष्य का जीवन आठ प्रकार के बंधनों और छः प्रकार के शत्रुओं से घिरा रहता है ।  काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, और मात्सर्य ये षडरिपु और भय, लज्जा, घृणा, शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ये अष्ट पाश  है। षड रिपु का अर्थ है छै शत्रु, इन्हें शत्रु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता की ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्ट पाश  का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश  जैसे लज्जा घृणा और भय आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं।

राजू- लेकिन कुछ लोग तो यह सलाह देते हैं कि साधना करना, भजन पूजन करना तो बुढ़ापे के काम हैं छोटी अवस्था से इनमें लगना बेकार है?
बाबा- कुछ लोग मानते हैं कि बुढ़ापे के लिये ही भजन कीर्तन ठीक हैं, इसलिये युवावस्था में इससे दूर ही रहते हैं पर वे यह नहीं जानते कि उनके जीवन में बुढ़ापा आयेगा भी या नहीं यह निश्चित  नहीं है। बृद्धावस्था में जब शरीर कमजोर हो जाता है, नजरें कमजोर हो जातीं हैं, बीमारियाॅं घेरे रहती हैं, स्मरणशक्ति कमजोर पड़ जाती है, कर्मों का फल भोगते हुए मन कुछ भी नया करने का साहस नहीं करता, ऐसी दशा  में ईश्वर  को केवल इसलिये पुकारना कि कष्ट से मुक्ति मिले कितना उचित है? इतना ही नहीं, जब इन झंझटों के कारण मन स्थिर नहीं हो पायेगा तो भगवान को पुकारने का कोई मूल्य नहीं । इस अवस्था में शरीर की कमजोरियों और पूर्वकाल की यादों के चिंतन में ही मन को फुरसत नहीं मिल पाती फिर ईश्वर  का चिंतन कहाॅं संभव होगा। यही कारण है कि बुढ़ापे में साधना का अभ्यास कर पाना संभव ही नहीं हो पाता यदि प्रारंभ से ही उस ओर मन को लगाने का अभ्यास न किया जाये। बांस के पेड़ को उसकी युवावस्था में इच्छानुसार मोड़ना सरल होता है, बहुत पुराना हो जाने पर मोड़ने से वह टूट जाता है, यही हाल साधना का होता है प्रारंभ से ही अभ्यास करना सफलता देता है बुढ़ापे में नहीं।

रवि- यह सुख और दुख क्या हैं?

बाबा- साॅंसारिक भोगों को पाकर मन बड़ा प्रसन्न होता है और न पाने पर दुखी । पर, जब मन उन्हें चाहे ही नहीं तो उनके पाने या न पाने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इच्छा होने पर भी जब वह प्राप्त न हो तो और अधिक दुख होता है और मन को विचलित करता है। जैसे शराबी को यदि शराब न मिले तो उसे अपार कष्ट अनुभव होगा पर गैरशराबी पर इसके मिलने या न मिलने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । साधना करने की प्रणाली का अभ्यास सक्षम गुरु के द्वारा इस प्रकार कराया जाता है कि वह अतीन्द्रिय रूप से मन को जड़ पदार्थों की ओर जाने से रोक देता है और भौतिक पदार्थों की चाह समाप्त हो जाती है। कुछ लोग सोचते हैं कि साधना करने पर भौतिक आनन्द और सुख सुविधाएं छिन जायेंगी उनका यह विचार अविवेकपूर्ण है और वे जो इन सुख सुविधाओं को जीवन का आवश्यक  अंग मानते हैं वे भी गलती करते हैं।

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