36 बाबा की क्लास (इष्ट मंत्र)
रवि- बाबा! आपने अनेक बार ‘मंत्र‘ और ‘इष्टमंत्र‘ इन शब्दों का उल्लेख अपनी चर्चाओं में किया है, क्या ये दोनों अलग अलग हैं? वास्तव में ये हैं क्या?
बाबा- यह समग्र ब्रह्माॅंड विराट मन (cosmic mind) की विचार तरंगों का प्रवाह है। इसलिये इसका प्रत्येक छोटा बड़ा घटक कंपनकारी है। इसके घटकों में स्वाभाविक विभिन्नता प्रकट करती है कि वे सब अपनी अपनी पृथक आवृत्तियाॅं (frequencies) अथवा तरंग लम्बाइयां (wave lengths) रखते हैं । प्रत्येक इकाई अस्तित्व की आवृत्ति उसकी मूल आवृत्ति (fundamental frequency) या बीज मंत्र या इष्टमंत्र कहलाती है। यदि किसी इकाई मन (unit mind) को उसकी मूल आवृत्ति ज्ञात करा दी जाये और विराट मन की मूलआवृत्ति के साथ अनुनाद (resonance) स्थापित करने को कहा जाये तो वह समग्र ब्रह्माॅंड के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेगा और उस परमसत्ता के साथ अपना एक्य स्थापित कर लेगा। योगविज्ञान (spiritual science) इसी सिद्धान्त पर आधारित है। मंत्र वह है जिसके मनन करने से मुक्ति मिले, ‘‘मननात् तारयेत यस्तु सः मंत्रः प्रकीर्तितः‘ ।
चंदू- तो साधना करना क्या है? और आत्मसाक्षात्कार करना क्या है?
बाबा- कोई व्यक्ति जो परम सत्ता से साक्षात्कार करने का अभिलाषी होता है उसे सक्षम गुरु द्वारा उसकी मूल आवृत्ति से परिचय कराया जाता है जिसे इष्टमंत्र कहते हैं, इष्टमंत्र की सहायता से अपने लक्ष्य और अभीष्ट को पाने के लिये किया जाने वाला प्रयास साधना करना कहलाता है और अपनी मूल आवृत्ति को विराटमन की आवृत्ति के साथ अनुनादित कर लेना आत्मसाक्षात्कार कहलाता है।
नन्दू- क्या इष्टमंत्र को विशेष प्रकार से बनाया जाता है या कोई निर्धारित विधि होती है?
बाबा- सक्षम गुरु किसी सुपात्र का चयन कर ही उसके संस्कारों के अनुकूल ऐंसा इष्टमंत्र चुनते हैं जिससे लक्ष्य की ओर जाने का स्पष्ट अर्थ निकलता हो , जो केवल दो अक्षरों का हो और उसे श्वाश प्रश्वाश के साथ सरलता से जाप क्रिया में प्रयुक्त किया जा सकता हो। इसके बाद उसे शक्तिसंपन्न कर शिष्य को प्रदान करते हैं। इष्टमंत्र प्राप्त करने की यह क्रिया दीक्षा प्राप्त करना कहलाती है। इसके प्राप्त होते ही पिछले सभी जन्मों के संस्कार क्षय होना प्रारंभ हो जाते हैं ।
रवि- इष्टमंत्र की पहचान करना और उसे शक्तिसम्पन्न करना यह तो विरले गुरु ही कर पाते होंगे?
बाबा- हाॅं, साधक के लिये सबसे महत्वपूर्ण उसका इष्टमंत्र ही है, उसी के चिंतन, मनन और निदिध्यासन से वह परम प्रकाश पाता है। इष्टमंत्र प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता है जो उसके संस्कारों के अनुसार चयन किया जाकर सद्गुरु की कृपा से प्राप्त होता है। यह कार्य कौलगुरु ही करते हैं क्योंकि वे ही पुरश्चरण की क्रिया में प्रवीण होते हैं। पुरश्चरण का अर्थ है शब्दों को शक्ति सम्पन्न करने की क्षमता होना। अपने अपने इष्टमंत्र का श्वाश प्रश्वाश की सहायता से नियमित रूपसे जाप करते रहने का इतना अभ्यास करना होता है कि यह जाप नींद में भी चलता रहे। इस स्थिति को प्राप्त होने पर ओंकार (cosmic sound) के साथ अनुनाद स्थापित करने में कठिनाई नहीं होती। अनुनाद की यही स्थिति जब स्थिर या स्थायी हो जाती है तो इसे ही समाधि कहते हैं। शक्तिमान शब्द ही मंत्र कहलाते हैं जो कौलगुरु साधक को उसके संस्कारों के अनुसार इष्टमंत्र के रूप में कृपापूर्वक देते हैं और मंत्रचैतन्य हो जाने पर अर्थात् उपरोक्तानुसार ओंकार के साथ अनुनाद स्थापित हो जाने पर, उन्हीं की कृपा से परमपुरुष से साक्षात्कार होता है। जिसे सक्षम गुरु से इष्टमंत्र मिल गया वही धन्य है उसी का जीवन सफल है। अन्य सब तो प्रदर्शन मात्र है।
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