Sunday 13 December 2015

37 बाबा की क्लास (उपवास)

बाबा की क्लास (उपवास)
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रवि-  बाबा! आज हमें उपवास के संबंध में बताईये यह क्या है, और इसका महत्व भी है या केवल प्रदर्शन  ही करते हैं लोग? 

बाबा- उपवास का अर्थ है निकट बैठना,( उप= निकट, वास = बैठना) । किसके निकट बैठना, ईश्वर  के निकट बैठना। समझे? परंतु , अधिकाॅंश  लोग उपवास का अर्थ निकालते हैं भोजन का त्याग करना और फलफूल खाना, या दिन भर भोजन त्याग कर रात में मन चाहा सुस्वादु भोजन करना। लेकिन इसे उपवास नहीं कह सकते क्योंकि केवल भोजन का त्याग करने को संस्कृत में कहते हैं ‘अनशन‘ या ‘निराहार‘, और भोजन त्याग कर केवल फलफूल खाने को कहते हैं ‘फलाहार‘।

नन्दू-  जब उपवास का अर्थ है ईश्वर  के निकट वैठना, तो भोजन के त्याग करने का कोई औचित्य ही नहीं है?

बाबा-  उपवास का सीधा संबंध स्वास्थ्य से है, मानव शरीर जीववैज्ञानिक मशीन है उसके प्रत्येक अंग को समय समय पर विश्राम देने के लिये भोजन का त्याग कर शरीर के पाचन तंत्र की सफाई करना आवश्यक होता  है। भोजन न करने पर अन्य सभी अंग आराम करते हैं और मन सक्रिय रहता है इसलिये उसे उचित आराम देने के लिये ईश्वर के  चिंतन में लगाकर उनके निकट बैठाना पड़ता है । इसलिये उपवासों के दिन ही  ईश्वर  चिंतन के लिये सर्वोत्तम दिन होते हैं। वास्तव में हम जो भोजन प्रतिदिन करते हैं उसका, पाचनतंत्र के विभिन्न अवयवों के द्वारा परिमार्जन किया जाकर मस्तिष्क के लिये उचित भोजन तैयार किया जाता है जो लसिका  या लिम्फ  कहलाता है। हमारे मस्तिष्क के ‘एक्टोप्लाज्मिक सैल‘ इसी से सक्रिय होते  हैं, इनकी संख्या पूरे ब्रह्माॅंड के कुल तारों की संख्या से अधिक होती है। इनकी आधी संख्या के बराबर न्यूरान होते हैं जो सोचने विचारने के लिये तथा आधे ‘ग्लायल सैल‘ कहलाते हैं जो न्यूरान्स को सक्रिय बनाये रखने में सहायता करते हैं। आधुनिक शोधों से पता चला है कि आइंस्टीन के स्तर के विद्वानों के ब्रेन सैल भी अधिकतम 9 से 10 प्रतिशत ही सक्रिय पाये गये हैं शेष उदासीन। इससे ही अंदाज लगाया जा सकता है कि जिनके शतप्रतिशत ब्रेनसैल सक्रिय होंगे वे इस दुनियाॅ में किस स्तर पर कहलायेंगे। इससे यह स्पष्ट होता है कि वह लिंफ ही है जिसका सदुपयोग कर हम अपने ब्रेन सैलों को अधिकाधिक संख्या में सक्रिय बना सकते हैं।

राजू-  तो बाबा! इसका अर्थ क्या यह नहीं है कि हमें अधिकाधिक भोजन करना चाहिये जिससे हमारे अधिक से अधिक ब्रेन सैल सक्रिय हो जायें ? भोजन आखिर क्यों त्यागा जाये?

बाबा- ऋषियों ने इस संबंध में एक और रहस्योद्घाटन किया है वह यह कि एक माह में जो भोजन हम करते हैं  उससे बनने वाले लिंफ को ये क्रमशः सक्रिय होते जाने वाले सैल पूरा उपयोग में नहीं ला पाते और चार दिन के भोजन से बनने वाले लिंफ के बराबर लिंफ अतिशेष हो जाता है जो पुरुषों में ‘सीमेन‘ के रूप में और महिलाओं में ‘ ओवा‘ के रूप में बदलकर नष्ट होता रहता है। इसी अतिशेष लिंफ को पूर्ण रूपेण लाभदायी बनाने के लिये माह में चार दिन उपवास करने का उपाय निकाला गया । इसके लिये प्रत्येक माह की दोनों एकादशियाॅं और अमावश्या  तथा पूर्णिमा को उपवासों के लिये उपयुक्त दिन माना गया है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक पक्ष की इन तिथियों के बीच चंद्रमा, पृथ्वी के अधिक निकट आ जाता है जो जलीयतत्व अर्थात  एक्वस फेक्टर  को आकर्षित करता है जिससे हमारे मन पर ज्वार भाटे जैसे उत्तेजक विचार आने लगते हैं। अतः उन दिनों यदि निर्जल उपवास रखा जाता है तो अतिशेष लिंफ सीमेन में नहीं बदल पायेगा और नष्ट होने से बच जायेगा तथा अन्य लिंफ सक्रिय ब्रेन सैल्स के द्वारा पूर्ववत  अवशोषित किया जाकर उपयोग में ले लिया जायेगा। नैष्ठिक ब्रह्मचारियों और संन्यासियों के लिये लिंफ की एक भी बूंद नष्ट नहीं होनें देनें के निर्देशों  का पालन करना होता है। ग्रहस्थों अर्थात् प्राजापत्य ब्रह्मचारियों को  इस अतिशेष लिंफ का ही उपयोग केवल संतानोत्पत्ति के लिये करने के निर्देश  हैं। वर्तमान युग के लोगों में विशेषतः युवा वर्ग में लिंफ के महत्व की जानकारी नहीं होती अतः अवांछित उत्तेजक विचारों के आने पर वे अनियंत्रित होकर अनैतिक और समाज विरोधी गतिविधियों में लग जाते हैं जिससे अपना जीवन तो नष्ट करते ही हैं वे समाज का भी अनेक प्रकार से अहित करते हैं।

चंदू-  बाबा! क्या उपवास करने के लिये किसी विशेष विधि का पालन करना भी निर्धारित है या नहीं?

बाबा- उपवास प्रारंभ करने और समाप्त करने के लिये भी विहित प्रक्रिया का पालन करना चाहिये, इसमें सूर्योदय से सूर्योदय तक भोजन और पानी का त्याग करना चाहिये परंतु यदि कोई बीमारी हो तो बीच बीच में  केवल जल पिया जा सकता है। जिस दिन उपवास करना हो उसकी पूर्व संध्या को आधा भोजन ही करना चाहिये। उपवास का पूरा दिन साधना और ईश्वर प्रणिधान में लगाना चाहिये जिसमें स्वाध्याय, चिंतन, मनन और निदिद्यासन भी बीच बीच में करते रहना चाहिये क्योंकि यही विधियाॅं हैं जो मन को ईश्वर  के अधिक निकट ले जाती हैं। उपवास तोड़ते समय दो या तीन नीबू हल्के गर्म, एक लिटर पानी में निचोड़ कर दो चम्मच नमक डालकर गुनगुने पानी को धीरे धीरे पूरा पी चुकने के आधे घंटे बाद फिर आधा लिटर सादा पानी पीने पर यदि टायलेट जाने की इच्छा न हो तो कुछ मिनटों में आधा लिटर सादा पानी और पीना चाहिये और टायलेट के आसपास ही चलते फिरते रहना चाहिये, अगले आधे घंटे में रुक रुक कर  तीन या चार बार टायलेट जाना पड़ सकता है जिसमें पेट का रुका हुआ सभी दूषित पदार्थ पानी की तरह पतला होकर बाहर हो जायेगा।  इसे डायरिया मानकर डरें नहीं।  जब स्वच्छ पानी की तरह यूरिन/शौच आने लगे  तब इसके बाद फिर टायलेट नहीं जाना पड़ेगा । स्नान कर दो या तीन केले खा लेना चाहिये और आधे घंटे के बाद हल्का भोजन खिचड़ी आदि ही लेना चाहिये, इसके एक दो घंटे बाद पूरा भोजन करना चाहिये। इस प्रकार पेट की सफाई हो जायेगी और ईश्वर  चिंतन भी , जो कि उपवास की परिभाषा के अनुकूल है।
इस प्रकार उपवास में लगभग 36 घंटे तक निराहार रहना पड़ता है परंतु जो इतनी लंबी अवधि तक नहीं रह सकते हैं वे कम सम कम 24 घंटे के अनुसार इस विधि को व्यवस्थित कर सकते हैं। 
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2 comments:

  1. Thanks for your appreciation. pl continue your interest in this blog and get real knowledge of science of living human life .

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