Sunday, 27 December 2015

40 बाबा की क्लास (संस्कार)

40 बाबा की क्लास (संस्कार)
नन्दू- बाबा! आपने अनेक बार अपनी वार्ता में ‘संस्कार‘ शब्द का उच्चारण किया है यह क्या है? क्या अन्य लोग जिन संस्कारों की बात करते हैं उनसे यह भिन्न होते हैं?

बाबा- नन्दू! अन्य लोग जिन संस्कारों के संबंध में बातें करते हैं वे केवल अच्छी आदतें और व्यवहार अर्थात् आचरण के अर्थ में ही होते हैं परंतु योगविज्ञान में संस्कार, प्रत्येक व्यक्ति के मन पर प्रत्येक क्षण उसके विचारों और क्रियाओं के द्वारा अंकित किये जा रहे प्रभावों अर्थात् (reactive momenta) को कहा गया है। चूंकि मन एक लगातार परिवर्तनशील क्रियात्मक अवयव है इसलिये उसमें इसके पूर्व की स्थितियों के सभी परिवर्तनों के परिणाम संचित रहते हैं क्योंकि प्रत्येक स्थिति अपने पूर्व की स्थितियों का परिणाम होती है। इन्हें ही संस्कार कहते हैं जो इकाई मन को संवेग (momentum) प्रदान कर आगे सक्रिय रखते हैं। 

रवि- फिर तो हम  आजीवन संस्कारों का ही निर्माण और भोग करते है?

बाबा- हाॅं! जिन संस्कारों के भोगने का अवसर आ जाता है तो उन्हें भोगना ही पड़ता है और जो नहीं भोग पाते उन्हें भोगने के लिये हमारा मन उचित अवसर तलाशता रहता है चाहे इसके लिये कितने ही जन्म क्यों न लेना पड़ें।

राजू- इनका प्रारंभ कब से होता है और ये कब समाप्त होते हैं, समाप्त होते भी हैं या नहीं क्योंकि आपके अनुसार यह तो जन्म जन्मान्तर तक चलने वाली प्रक्रिया है?

बाबा- चूॅंकि सभी प्रकार के पूर्व परिणामों, ब्रह्मचक्र अर्थात् संचर और प्रतिसंचर के लिये ब्राह्मिक मन  (cosmic mind) ही कारण होता है अतः इकाई मन को उसी का आकर्षण और अधिक त्वरित करता जाता है।  प्रकृति के सक्रिय होने के प्रथम विंदु से संचर क्रिया के अंतिम अर्थात् जड़ पदार्थों के निर्माण होने तक यह संवेग ब्रह्म मन के द्वारा ही दिया गया है। जिस प्रथम अवस्था में इकाई मन में  अहम तत्व और महत्तत्व नहीं था वहाॅं कोई संस्कार भी नहीं था और वह ब्रह्म चक्र के केन्द्र की ओर बढ़ता जा रहा था। पर  आगे की स्थितियों में जीव इकाई मन, पौधों और प्राणियों के रूपमें अपने में क्रमशः  अहं को विकसित करता गया जो उसकी मानसिक क्रियाओं को नियंत्रित करता रहा और इस प्रकार उसके संस्कार बनने लगे। इसी के उन्नत क्रम में मनुष्य आया जो प्रतिसंचर में बढ़ते हुए अपने दिव्य लक्ष्य परमपुरुष की ओर जाने के साथ साथ वापस विपरीत प्रतिसंचर और संचर मार्ग को भी अपना सकता है और मनुष्य से नीचे के प्राणी या निर्जीव के संस्कारों को भी अपने मन में ग्रहण कर संचित रख सकता है। इस प्रकार सामान्य जीव प्रकृति के सहारे प्रतिसंचर में आगे ही बढ़ता है क्योंकि उसका अहं बहुत कम होता है, पर मनुष्य का अहं अधिक होने के कारण वह आगे पीछे कहीं भी जा सकता है। 

रवि- तो क्या हमसब अपने पूर्व संस्कारों को भोगने के लिये ही जन्में हैं? यदि हाॅं, तो फिर हमारी भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति की चेष्टायें व्यर्थ ही हैं?

बाबा- पेड़ पौधे और पशु  अपनी प्रगति में प्रकृति के अनुसार ही चलते हैं उनका अपना स्वतंत्र इच्छायें या मत कुछ नहीं होता परंतु मनुष्य के स्तर पर जीव अपना स्वतंत्र विचार और इच्छायें रख सकते हैं इसीलिये वे अपने संस्कार निर्मित करते हैं और क्षय भी कर सकते हैं। आध्यात्मिक चेष्टायें सभी प्रकार के संस्कारों को क्षय करने और नये संस्कार जन्म न ले पायें इसीलिये ही की जाती हैं। 

इंदु- बाबा! यह सब कैसे होता रहता है?

बाबा-   प्रतिसंचर गति में इकाई संरचना को किसी वस्तु के साथ अपना साम्य स्थापित करने के लिये मानसिक और भौतिक तरंगों में संतुलन के साथ साथ प्राणों में संतुलन स्थापित होना अनिवार्य होता है इस संतुलन के अभाव में इनमें इकाई संरचना का स्थायित्व नहीं रह सकेगा। अतः इन मानसिक और भौतिक तरंगों के साम्य अथवा असाम्य होने पर संचर क्रिया में आगे उन्नति या पीछे की ओर अवनति होती है। जैसे किसी कुत्ते का मनुष्यों का सामीप्य पाने पर उसकी मानसिक तरंग दैर्घ्य  में बृद्धि होते  जाने पर एक स्तर पर वह अपने कुत्ते वाले शरीर के साथ संतुलन नहीं बिठा पायेगा और उसे उस शरीर को छोड़कर अन्य उपयुक्त और उन्नत तरंगदैर्घ्य  वाले शरीर को पाने की तलाश  करना होगी। इस प्रकार कुत्ता को उसके मन में उन्नत तरंग के स्थायी हो जाने पर मरना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि किसी मनुष्य की मानसिक तरंगे उसकी भौतिक देह के साथ संतुलन नहीं बना पाती तो उसका मानसिक शरीर भौतिक शरीर को त्याग कर उस शरीर को खोजने लगेगा जिसके साथ उसकी मानसिक तरंगों का संतुलन हो सके अतः वह अपनी मानसिक तरंगों के अनुसार आगे उन्नत मानव या नीचे अवनत पशु  या पेड़ के शरीर को पा सकता है।

राजू- तो क्या हम इस विज्ञान का जनसामान्य के लाभ के लिये भी उपयोग कर सकते हैं?

बाबा- बिलकुल, इसके लिये बहुत अभ्यास की आवश्यकता होती है। कहने का अर्थ यह है कि संस्कार जनित उन्नत तरंग दैर्घ्य  का अनुसरण, निम्न स्तर के जीव को उच्च स्तर पर और निम्न तरंगदैर्घ्य  के अनुसरण से उच्च स्तर का मनुष्य, निम्न स्तर के प्राणी की देह में चला जाता है। इस तरह एक डाक्टर यदि इस विज्ञान को जान कर किसी व्यक्ति को दवाओें के आधार पर उसकी भौतिक तरंगदैर्घ्यों  को संतुलन में लाकर बढ़ा दे तो उसका जीवन काल बढ़ा सकता है पर यदि उसने व्यक्ति की मानसिक शरीर की तरंगदैर्घ्य   में बृद्धि कर दी तो फिर वह उस मनुष्य को किसी और मनुष्य में बदल डालेगा। मिस्टर ‘‘एक्स‘‘ मिस्टर ‘‘वाय‘‘ हो जावेंगे। इसलिये शरीर के उचित संचालन के लिये मानसिक शरीर, भौतिक शरीर और प्राण इन तीनों में सुसंतुलन होना अनिवार्य है।

रवि- यह तो बड़ा ही विचित्र है! मुझे तो यही समझ में नहीं आ रहा कि यह सब जानकर अब हमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं?

बाबा- तुम लोगों को यह तो स्पष्ट हो गया है कि यह ब्रह्माॅंड सगुण ब्रह्म की मानसिक तरंगों का प्रवाह है जो संचर और प्रतिसंचर गतियों में लगातार गतिशील रह कर ब्रह्मचक्र (cosmic cycle) कहलाता है। हमारा जीवन केवल इसी जन्म और मृत्यु तक सीमित नहीं है वरन् वह ब्रह्मचक्र  के सभी स्तरों की पूर्वोक्त तरंगों अर्थात् स्पेस टाइम में बंधकर गेेलेक्सियों तारों और पंचभूतों के साथ पौधों और प्राणियों में से होता हुआ अभी इस मनुष्य स्तर पर आ पाया है और उसे अपने मूल उद्गम (origin) तक पहुॅंचना है तभी उसकी यह यात्रा पूरी होगी। मनुष्य के स्तर पर आकर यह स्वतंत्रता है कि या तो बचा हुआ रास्ता आगे बढ़कर पूरा करे या पीछे लौट कर इन्हीं जीवजंतुओं और पेड़पौधों में से होकर फिर से लाखों वर्षों तक ठोस द्रव गैस और प्लाज्मा अवस्थाओं में भटकता रहे। चूंकि यह जन्म पिछले लाखों जन्मों का परिणाम है अतः स्वाभाविक रूप से उन सबके अभुक्त संस्कारों (unrequited reactive momenta)  का बोझ हमें ढोते जाना होगा जब तक कि वे समग्रतः समाप्त नहीं हो जाते। यह संस्कार हमारे सोच विचार और कर्मों के अनुसार लगातार प्रत्येक क्षण बनते और क्षय होते रहते हैं। इन संस्कारों से मुक्त होना तभी संभव हो सकता है जब नये संस्कार बन ही न पायें और पुराने जल्दी से जल्दी समाप्त हो जायें। मृत्यु के समय जिस प्रकार के संस्कारों का समूह भोगने के लिये बचा रहेगा उसी के अनुसार अनुकूल अवसर आने पर ही प्रकृति हमें उस प्रकार का शरीर उपलब्ध करायेगी और तब तक हमें अपने संस्कारों का बोझ लादकर मानसिक शरीर या सूक्ष्म शरीर (luminous body) में रहते हुए ही आकाश (space) में भटकते रहना होगा। साधना ही वह प्रक्रिया है जिसका अनुसरण कर हम नये संस्कारों को जन्म लेने से रोक सकते हैं और पुराने संस्कारों को शीघ्रातिशीघ्र  समाप्त कर सकते हैं। संस्कारों के शून्य हो जाने पर हम वापस अपने असली घर में पहुंच जाते हैं जो देश , काल ( time and space) से मुक्त परमानन्द अवस्था है। साधना क्या है और कैसे की जाती है यह कौल गुरु ही सिखा सकते हैं वे बताते हैं कि किस प्रकार व्यक्ति विशेष के द्वारा, ब्राह्मिक भाव लेकर कार्य करने से नये संस्कार जन्म नहीं  ले पाते , किस प्रकार के इष्टमंत्र से पिछले सभी संस्कारों को अभ्यास द्वारा क्षय किया जाता है और हमारे इस मानव शरीर में प्रसुप्त देवत्व को जाग्रत कर हम कैसे अपने चिदानन्द स्वरूप को पा सकते हैं।

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