Sunday 24 July 2016

75 बाबा की क्लास (संख्यात्मक तथ्य)

मित्रो! आपने विद्वानों के प्रवचनों में प्रायः उन तथ्यों को अवश्य सुना होगा जिनके साथ कुछ न कुछ अंक अर्थात् संख्याएं जुड़ी होती हैं । एक जिज्ञासु के लिये इन संख्याओं के संबंध में कोई समाधानकारक उत्तर नहीं मिल पाता और वे कहानियों में उलझकर भ्रमित बने रहते हैं। इस क्लास में हमने कुछ इसी प्रकार के महत्वपूर्ण  तथ्यों को लेकर समाधान जुटाया है कृपया पढ़कर चिंतन करें और फिर भी शंका हो तो पूछना न भूलें।

75 बाबा की क्लास (संख्यात्मक तथ्य)

राजू- बाबा! आध्यात्म के अनेक विद्वानों द्वारा कुछ ऐंसे संख्यात्मक तथ्यों के उदाहरण दिये जाते हैं जिन्हें व्यावहारिक रूप से सहज नहीं कहा जा सकता ?
बाबा- कौन से ?
राजू- जैसे ‘पंचाग्नि‘ अर्थात् पाॅंच प्रकार की अग्नि का ताप सहन करने को तपस्या करना कहा जाता है?
बाबा- यह तो आडम्बर ही है। वास्तव में मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार की ग्रंथियाॅं पाई जाती हैं जो जीवन के संचालन के लिये आवश्यक  ग्रंथि रसों का स्राव करती रहती हैं। ये ग्रंथियाॅं एक नियत ताप पर ही अपनी पूरी क्षमता से कार्य कर शरीर को अधिकतम लाभ पहुंचाती हैं। प्रधानतः पाॅंच प्रकार की ग्रंथियाॅं शरीर के संतुलन को बनाये रखती हैं ये क्रमशः  सिर, दाढ़ीमूछों, कंधों के नीचे संधियों पर, और जननेद्रिय तथा पैरों के संधिस्थल पर रहती हैं । प्रकृति ने ही इस तापक्रम को उचित बनाये रखने के लिये इन स्थानों पर बालों का समूह स्थापित किया है अतः वाह्य वातावरण में होने वाले तापीय परिवर्तनों को ये बाल ऊष्मा के संग्राहक और विकिरक दोनों प्रकार से कार्य करते हुए शरीर के ताप को नियत बनाये रखते हैं। इन स्थानों के इन बालों को स्वच्छ रखना और उनका संरक्षण करना ही पंचाग्नि का तापना कहलाता है। आध्यात्मिक राह पर चलने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इन्हें स्वच्छ रखते हुए संरक्षण करना चाहिये। यदि ऐंसा नहीं किया जाता तो ग्रंथियों की क्रियाशीलता प्रभावित होती है और शरीर तथा मन पर नियंत्रण कर पाना संभव नहीं होता । 

नन्दू- इसी प्रकार ‘ त्रिलोकों ‘ के बारे में भी अनेक व्याख्यान उपलब्ध हैं?
बाबा- तुम लोग यह जानते हो कि परम ज्ञानात्मक सत्ता एक ही है जो अपने मन में ही विचार तरंगों द्वारा इस भौतिक जगत का निर्माण पालन और लय करता है। उस परम सत्ता की मानसिक तरंगों से निर्मित भौतिक जगत में हमारा भौतिक शरीर ही पहला लोक है। इसमें हमारा मन और मानसिक संसार दूसरा लोक है, याद रखना! तुम लोग मन नहीं, मन के धारक हो। भौतिक शरीर में ‘मैं‘ का अपना अहं चारों ओर बना रहता है और जब यह केन्द्रीकृत हो जाता है तो वह आत्मलोक में कहलाता है, यही तीसरा लोक है। इस प्रकार भौतिक, मानसिक और आत्मिक ये ही तीन लोक होते हैं जो उस परम सत्ता के मन में ही स्थित होते हैं अन्यत्र नहीं। 

इंदु- ‘‘ षोडश कलायें ‘‘ क्या होती हैं बार ,बार इनकी चर्चा भी आ ही जाती है?
बाबा- इन्हें अच्छी तरह समझ लो! मनुष्य का अस्तित्व षोडश  कला युक्त कैसे है, और वह कौन सी हैं। जब तक मनुष्यों की वृत्ति वर्हिमुखी रहती है तब तक वे भौतिक जगत से सुख की सामग्री खोजते रहते हैं और तब तक उन्हें इन सोलह कलाओं से  बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है। इनके अंतर्गत, पाॅंच ज्ञानेन्द्रियाॅं (चक्षु, कर्ण, नासिका, जिव्हा और त्वक्,) पाॅंच कर्मेंद्रियाॅं (वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ,) पॅंच प्राण, (प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान,) (पंच वर्हिवायु नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनन्जय, कला में सम्मिलित नहीं हैं, क्योंकि वे अंतर्वायु समूह के परिणाम हैं)  और अहंतत्व। ये ही षोडश  कलायें हैं। तद्गत भाव से साधक की पंचदश  कलाओं का भाव उन सबके मूल कारण में मिल जाता है। देवता अर्थात् इंद्रियां अपने अपने प्रतिदेवता अर्थात् नियंत्रक शक्ति में, अंत में, लीन हो जातीं हैं।

चंदू- लेकिन देवता तो करोड़ों की संख्या में बताये जाते हैं, यह भी बड़ा कन्फ्यूजन है?
बाबा- अनेक विद्वानों के विभिन्न मतों का अधिकाॅंशतः साराॅंश यह माना जाता है कि मनुष्य के शरीर में तेतीस करोड़ नाड़ियाॅं होती हैं अतः देवता भी तेतीस करोड़ हैं। वस्तुतः मनुष्यों के शरीर नियंत्रक स्नायु तथा नाड़ीपुॅंज ही अविद्या और अंधविश्वास  के कारण तेतीस करोड़ देवताओं में परिणित हो गये हैं।
देवता के संबंध में शंकराचार्य का कहना है, ‘‘सर्वद्योत्नात्मक अखंडचिदैकरस।" और याज्ञवल्क्य का कहना है, ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मादुद्यते द्योतते दिवि, तस्माद्देव इतिप्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।" निष्कर्ष यह है कि देवता दो प्रकार के हैं 1. आत्मा का प्रकाश  इंद्रियों द्वारा होता है अतः इंद्रिय समूह को दैहिक देवता कहा जाता है, 2. विश्व ब्रह्माण्ड  का प्रकाश   और नियंत्रण जिस देवता समूह के द्वारा होता है उन्हें ब्राह्मी देवता कहा जाता है। दोनों की सॅंख्या तेतीस है क्योंकि ब्राह्मी देवतागण प्रत्येक देहिक देवता गण के प्रतिदेवता हैं। दैहिक देवतागण प्रतिदेवता में लय होते हैं और प्रतिदेवता ब्रह्म में मिल जाते हैं, इसलिये मोक्ष प्राप्त साधक ब्रह्म ही हो जाता है।

रवि- तो वे तेतीस देवता कौन से हैं और वे कहाॅं रहते हैं?
बाबा- मनुष्य के शरीर की असंख्य नाड़ियों में से तेतीस ही प्रधान हैं इन्हीं की नियंत्रक सत्ता को तेतीस देवता कहा जाता है। ये हैं, एकादश  रुद्र, द्वादश  आदित्य, अष्टवसु, इंद्र, और प्रजापति। ब्रह्मशक्ति के प्रधान विकास को इंद्र कहा जाता है, यही देवता मनुष्य शरीर का पूर्णरूप से नियंत्रण करता है।

चंदू- ये एकादश अर्थात् ग्यारह ‘रुद्र‘ कौन से हैं?
बाबा- एकादश  रुद्र कहीें दूर नहीं हैं ये हैं हमारी दस इंद्रियां और मन। रुद्र का अर्थ है जो रुलाता है। मृत्यु के समय जब प्रत्येक इंद्रिय अपने प्रतिदेवता में मिल जाती है, मन निष्क्रिय हो जाता है, शरीर अचल और अस्पंद हो जाता है तब उसके आत्मीय गण कातर भाव से रोने लगते हैं। चॅंॅूकि ये ग्यारह देवता मनुष्य को रुलाते हैं अतः ये रुद्र कहलाते हैं।

राजू- और ‘‘ अष्टवसुओं ‘‘ का क्या अर्थ है?
बाबा- वसु का अर्थ है जीवों का वास स्थान अर्थात् जो इंद्रियों के वास स्थान, आश्रय स्थल या विषय हैं वही वसु हैं। सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, अन्तरिक्ष, व्योम, वायु ,तेज, और धरती ये आठ वसु हैं।

इन्दु- ‘द्वादश आदित्य‘ भी क्या हमारे भीतर ही हैं?
बाबा- आदित्य का अर्थ है लेने वाला। यहां पर अर्थ है जो कर्मफल और आयु को ले लेता है। प्रत्येक क्षण आयु क्षीण होती रहती है, और कर्मफल भोग के लिये मनुष्य को एक शरीर छोड़कर दूसरा लेना पड़ता है, यह सब काल प्रवाह के कारण ही होता है अतः समय ही आदित्य है इसलिये वर्ष के ‘बारह मास‘ ही द्वादश  आदित्य हैं।

नन्दू - अब तक तो केवल इकतीस देवता ही हुए शेष दो कौन से हैं?
बाबा- वे हैं इंद्र और प्रजापति।  ‘‘इंद्र‘‘ शब्द का  अर्थ विद्द्युत  , वज्र या कर्मशक्ति है। और ‘‘प्रजापति‘‘ इस शब्द का अर्थ है यज्ञ या कर्म।

रवि- बाबा! कुछ शब्द और हैं जो बार बार सभी लोग उच्चारित करते हैं, परंतु उनका सही अर्थ स्पष्ट नहीं कर पाते, जैसे ‘‘हरि, हर, और ईश्वर‘‘?
बाबा-   हरति पापान् इत्यर्थे हरिः। अर्थात् जो दूसरों के पापों को हर लेता है वह हरि।
        हरति बंधानम् इत्यर्थे हरः। अर्थात् जो बंधनों को काट देता है वह हर।
  क्लेशकर्मविपाकाशयैर्परामिष्ट सः पुरुषविशेष ईश्वरः । अर्थात्, वह पुरुष, जो क्लेशों  से प्रभावित नहीं होता, कर्मबंधन में नहीं बंधता, प्रतिक्रियाओं में नहीं उलझता, और संस्कारों से मुक्त रहता है वह ईश्वर  कहलाता है।

राजू- आध्यात्म की हर क्रिया में ‘‘भाव‘‘ को ही महत्व दिया गया है वास्तव में यह क्या है?
बाबा- शुद्धसत्वविशेषाद्वा प्रेमसूर्यां्षुसम्यभाक् रुचिभिष्चित्तमाश्रन्य क्रदासौ भाव उच्यते। 
अर्थात्, वह जो परम शुद्ध  और सात्विक बनाता है, जो प्रेम के सूर्य को चमकाता है, जो मन को भक्ति की किरणों से चमकदार और चिकना बनाता है उसे भाव कहते हैं। भावार्थ यह कि मन की वह एकान्तिक सूक्ष्मतम अवस्था जो विचारों को व्यावहारिक उत्प्रेरण देकर व्यक्तित्व का  विकास करती है भाव कहलाती है। 

Monday 18 July 2016

74 बाबा की क्लास (दैवी कृपा)

74 बाबा की क्लास (दैवी कृपा)

राजू- कुछ लोग कहते हैं कि किसी मंदिर विशेष में पूजा करने से वाॅंछित फल की प्राप्ती होती है, यह कितना सत्य हो सकता है?
बाबा- किसी स्थान या मंदिर के संबंध में जिन लोगों द्वारा जिस स्तर का प्रचार किया जाता है उसी के आधार पर अन्य लोग अपने मन में भावना बना लेते हैं। वास्तव में जाग्रित अवस्था में कभी कभी अचेतन मन में भरा हुआ ज्ञान अवचेतन मन में बह आता है और अधिकांशतः वह वहाॅं स्थायी रूपसे रह भी जाता है और सरलता से वापस अचेतन मन में चला भी जाता है। अनेक बार बीमार या व्यथित व्यक्ति मंदिरों में मूर्तियों के सामने साष्टाॅंग प्रणाम कर अपने दुखों के समाधान के लिये गिड़गिड़ाते हैं। इस दशा में वे अपने दुखों या बीमारियों  को दूर करने के उपाय का गहराई से चिंतन कर रहे होते हैं । इस प्रकार अस्थायी रूपसे उनका मन केन्द्रित हो जाता है और कुछ क्षणों तक इस अवस्था में स्थिर रहने के बाद उनका मन शक्तिहीन हो जाता है अतः सर्वज्ञाता अचेतन मन से, उनकी समस्या का समाधान अवचेतन मन में प्रवेश कर जाता है। चूंकि यह, न तो नींद की अवस्था होती है और न जागने की और न ही स्वप्न की, अतः समस्या का समाधान सरलता से अवचेतन में और अवचेतन से चेतन मन में प्रवेश कर जाता है।  इस प्रकार वे समझते हैं कि उनके कष्टों को अमुक अमुक  देवी या देवता की कृपा या वरदान से दूर हो गया जबकि इस प्रकार  का कुछ होता ही नहीं है।

नन्दू- तो फिर क्या ये देवी देवता किसी काम के नहीं हैं?
बाबा- सच्चाई तो यह है कि जहाॅं जहाॅं लोगों को जिस   किसी से  भय लगा उन्होंने उससे बिना प्रयास बचने के लिये उसमें ही देवता की कल्पना कर ली। हाथी  से, शेर से, जंगल से, बंदर से, साॅंप से भयभीत होकर उनमें देवों की कल्पना कर पूजा की जाने लगी। इतना ही नहीं धन के लोभियों ने धन की देवी और पढ़ाई  में कमजोर छात्रों ने विद्या की देवी की रचना कर डाली। इन से अपने इच्छित परिणाम पाने के लिये फूल चंदन  फल और कुछ संस्कृत के श्लोकों के साथ पूजा करने का विधान भी बना लिया । इस तरह बिना कठिन परिश्रम किये फलदायी इन देवताओं का व्यापार बढ़ता जा रहा है। सम्पूर्ण सृष्टि परमपुरुष की कल्पना है अतः मनुष्य भी उन्हीं की कल्पना है और मनुष्यों ने उनकी इस कल्पना में भी कल्पना कर डाली , कितना आश्चर्य है। इस तरह जैसे ये अकर्मण्य लोग धोखा देकर या किसी को मूर्ख बनाकर भौतिक जगत में लाभ लेने के अभ्यस्थ हो जाते हैं उसी प्रकार की विधियों का उपयोग कर वे मुक्ति और मोक्ष को पाने के भी  उपाय करते देखे गये हैं जबकि मुक्ति या मोक्ष बिलकुल अलग चीज है।

रवि- कुछ लोग स्वप्नों में भी अपनी समस्याओं का समाधान पाते देखे गये हैं वह क्या है?
बाबा- सोते समय जब पेटदर्द के कारण या नाड़ियों के व्यवधान से गैस ऊपर की ओर आकर मस्तिष्क और अवचेतन मन को झकझोरती है तब हमारे पूर्व कल्पित या अनुभवित विचार या वस्तुएं अवचेतन मन में टुकड़ों टुकड़ों में फिर से प्रकट होने लगते हैं इसे ही हम स्वप्न कहते हैं । स्पष्टतः इस प्रकार के स्वप्नों का कोई परिणाम नहीं होता। इतना ही नहीं उनमें निहित कहानी भी व्यवस्थित नहीं होती क्योंकि वे केवल हमारे मस्तिष्क के विभिन्न भागों में संचित पुराने विचारों का पुनः प्रकट होना, ही होते हैं। परंतु मन का वह भाग जिसे अतिमानस कोश कहते हैं वह सभी प्रकार के ज्ञान का संग्राहक होता है उससे कभी कभी किसी बहुत बड़े दुख या प्रसन्नता की पूर्वसूचना देने वाला स्वप्न, गहरी नींद में किसी व्यक्ति विशेष को जो उससे गहराई से संबंधित होता है, के अवचेतन मन में आता है। इस प्रकार के स्वप्न हमेशा नहीं आते और न ही इनसे शतप्रतिशत पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।

चंदू- हम लोगों ने पढ़ा है कि मैंडलीफ नामक रसायनशास्त्री ने आवर्तसारणी की रचना स्वप्न के आधार पर की थी?
बाबा- जैसा हमने अभी कहा है कि किसी विषय पर गंभीर चिंतन करने पर सर्वज्ञाता अचेतन मन से, समस्या का समाधान अवचेतन में और वहाॅं से चेतन मन में आ जाता है। परंतु इस प्रकार की घटना किसी के जीवन में एक या दो बार से अधिक नहीं हो सकती। उचित तो यही है कि हम अपने इष्ट का ही गंभीरता से चिंतन करें ।

राजू- कुछ लोगों का मत है कि चरणस्पर्श  प्रणाम करने से आशीर्वाद मिलता है, क्या यह फलीभूत होता है?
बाबा- चरणस्पर्श  प्रणाम उन महापुरुषों को ही किया जाता है जिनका उन्नत बौद्धिक स्तर और आचरण शुद्ध होता है तथा संसार के कल्याण के लिये ही सांसारिक कार्य करते हुए आत्मसाक्षात्कार की ओर बढ़ रहे होते हैं या आत्मसाक्षात्कार कर चुके होते हैं। चॅूंकि इनकी पहचान कर पाना बड़ा ही कठिन होता है अतः इस मामले में सावधान रहना चाहिये, सामान्यतः ये लोग किसी को भी अपने पैरों को ही क्या किसी भी अंग को स्पर्श नहीं करने देते। सबसे अच्छा तो यह है कि सभी को अपनी शुद्ध मनोभावना से हाथ जोड़कर विना प्रत्युत्तर की अपेक्षा किये पहले से ही ‘नमस्कार‘ यह कहना चाहिये चाहे वह छोटा हो या बड़ा। नमस्कार शब्द ‘‘नमः करोमि‘‘ का संक्षिप्त रूप है जिसका अर्थ है ‘‘ प्रणाम करता हॅूं ‘‘ परंतु किसको, यह स्पष्ट नहीं रहता है । इसके पीछे भावना यह रखना चाहिये कि हम किसी के नाम, शरीर , आकार प्रकार या वेश भूषा को नहीं उसके भीतर बैठे परमपुरुष के स्वरूप को प्रणाम कर रहे हैं। अतः न तो जिस चाहे को चरणस्पर्शप्रणाम करना चाहिये और न ही जिस चाहे को आशीर्वाद देना चाहिये। अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर जिसके प्रति गहरी श्रद्धा हो उन्हें प्रणाम करने पर, उनके मौखिक आशीर्वाद कहने या सिर पर हाथ रखकर आशीर्वचन कहने का धनात्मक प्रभाव पड़ता है।

इंदु- आशीर्वचन तो अनेक प्रकार के होते हैं तो क्या सभी प्रकार के लोगों को उन्हें देने का अधिकार होता है?
बाबा- सामान्यतः प्रणाम करने वाले लोग अपने से वरिष्ठों या आदरणीयों को ही प्रणाम करते हैं और वे प्रायः प्रसन्न रहने या सुखी रहने का आशीर्वाद देते देखे गये हैं क्योंकि वे केवल भौतिक जगत तक ही अपना बौद्धिक स्तर रखते हैं। यदि किसी आध्यात्मिक रूप से उन्नत व्यक्ति को प्रणाम करने पर उनके द्वारा ‘कल्याणमस्तु‘ कहा जाता है तो  इसका अर्थ है भौतिक और मानसिक  क्षेत्र में प्रगति होने का आशीष, यदि वे कहते हैं ‘शुभमस्तु‘ तो इसका अर्थ होता है भौतिक ,मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर प्रगति होने का आशीष।

नन्दू- लेकिन वर्तमान में तो ‘नमस्ते‘ कहने या फिर हाथ मिलाने की पृथा का पालन जोर शोर से किया जाता है?
बाबा- ‘नमस्ते‘ का अर्थ है ‘तुमको प्रणाम‘ जिसमें व्यक्ति विशेष को इंगित किया जाता है इसलिये भावना उसके आकार प्रकार और शरीर पर सीमित हो जाती है इसलिये नमस्ते की तुलना में नमस्कार करना ही उचित है। यौगिक विज्ञान के अनुसार ‘नमस्ते या नमस्तुभ्यं‘ केवल ‘‘परमपुरुष‘‘ के लिये ही कहना चाहिये क्योंकि वे ही हमारे सर्वाधिक अपने हैं और उनका कोई आकार नहीं है तथा वे सर्वव्याप्त हैं। हाथ मिलाने से बचना चाहिये क्योंकि हाथों के संपर्क में आने से उनमें चिपके वेक्टेरिया और संस्कार एक दूसरे में हस्तान्तरित हो जाते हैं और शारीरिक तथा मानसिक रूप से अपना धनात्मक या ऋणात्मक प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं।

रवि- तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि सब कुछ अपने मन के केन्द्रित होने और निहित भावना पर ही निर्भर होता है?
बाबा- हाॅं, इसीलिये मैं बार बार तुम लोगों को अपने अपने मन को उन्नत विंदु पर केन्द्रित करने और अपने इष्ट का चिंतन करते रहने की सलाह देता रहता हॅूं। यह होते रहने पर न तो किसी के आशीर्वाद और वरदान की आवश्यकता होगी और न ही किसी के अभिशाप का भय।

Sunday 3 July 2016

73 बाबा की क्लास ( अर्थ और अनर्थ )

मित्रो! आपलोग जानते हैं कि एक ही शब्द का, उसके उपयोग के अनुसार अर्थ बदल जाता है परंतु समाज में कुछ लोग ऐसे भी  होते हैं जो अपने हित के लिये उनका वास्तविक अर्थ बदल कर अनर्थ ही कर देते हैं । कुछ मित्रों ने इस विषय को बाबा की क्लास में लेने का सुझाव दिया था अतः आज की क्लास में कुछ इसी प्रकार के शब्दों पर चर्चा की जा रही है जिन पर प्रायः व्यर्थ ही विवाद होते रहते हैं। इन्हें जानिये और इनकी वास्तविकता से दूसरों को भी परिचय कराइये जिससे समाज में स्वार्थी लोग अनर्थ न कर सकें।

73 बाबा की क्लास ( अर्थ और अनर्थ )

रवि- प्रायः देखा गया है कि हमारे देश में कुछ लोग किसी शब्द विशेष को खीच तान कर अनेक प्रकार के अर्थ निकालते हैं जो जनसामान्य में वैमन्यता के कारण बनते है। जैसे कुछ नेता लोग ‘हिंदु‘ शब्द को ही जाति, धर्म, और स्थानीयता के अर्थों में हमेशा उलझाये रहते हैं , इसका क्या कारण है?
बाबा- इसका कारण है, जन सामान्य में यथार्थ ज्ञान का अभाव जिसका लाभ उठाकर कुछ लोग निहित स्वार्थ वश शब्दों के अर्थ का अनर्थ करते हुए अपने अपने समूहों में बृद्धि करने की राजनीति करते हैं। राजनीति की इस विधा को ‘‘सोसियो सेन्टीमेंट‘‘ कहते हैं। जब इसी विधा का उपयोग किसी स्थान विशेष, भूमि या देश विशेष के नाम पर किया जाता है तो उसे ‘ज्यो सेंटीमेंट‘ कहते हैं । इनके पीछे रहस्य यही होता है कि जाति, स्थान, देश या धर्म के आधार पर लोगों को अपने अपने पक्ष में किया जाना।

रवि- तो ‘हिंदु‘ या ‘हिंदुस्तान‘ या ‘भारत‘ जैसे शब्दों के मनमाने अर्थ ज्योसेंटीमेंट हैं या सोसियो?
बाबा- पहले इन शब्दों के उद्गम से संबंधित सही सही ज्ञान प्राप्त कर लो, उसके बाद अपने आप समझ जाओगे कि ये क्या हैं। मध्य एशिया से भारत के पश्चिमी क्षेत्र में जब आर्य लोग प्रविष्ट हुए तब सिंधु सहित सात नदियों से घिरे होने के कारण इस भू भाग को उन्होंने सप्तसिंधु या सप्तनद देश  कहा बाद में  और आगे जाने पर पांच नदियों से घिरे क्षेत्र को पंच +अप = पञ्चाप  कहा ( वैदिक संस्कृत में अप =जल ) जो बिगड़कर पंजाब हो गया , आगे बढ़े तो कश्मीर की ओर पहाड़ियों पर छोटे छोटे नीले गोल पत्थरों की भरमार पाई जिनका आकार जामुन के फल से मिलता जुलता था।  संस्कृत में जामुन फल को जम्बुफलम्  कहते हैं।  इस क्षेत्र में असंख्य जम्बु शिलायें  बिखरी होने के कारण इसे उन्होंने जम्बुद्वीप  नाम दिया।  इसी प्राचीन जम्बुद्वीप नाम में से अब केवल ‘जम्मू‘ ही बचा है। उस युग  में इस जम्बुद्वीप का विस्तार अफगानिस्तान से फिलिपीन तक (अर्थात सम्पूर्ण दक्षिण-पूर्व एशिया ) था। यहाँ की भूमि बहुत उपजाऊ होने के कारण सहज ही खाद्य पदार्थ मिल जाया करते थे। प्रचुर खाद्यान्न देने के कारण  इसे दो क्रियाओं,  ‘‘भर‘‘ ( भरण के अर्थ में ) औऱ ‘‘तन‘‘ (विस्तार के अर्थ में ) संयोजित कर ‘भारत‘ नाम दिया गया ।  ‘भर‘ का अर्थ है भरण पोषण करने वाला और ‘तन‘ का अर्थ है क्रमशः विस्तार पाने वाला  या बढ़ने वाला,  ( मनुष्य का शरीर भी 49  वर्ष तक धीरे धीरे बढ़ता है इसीलिए तनु कहलाता है  इसके बाद शीर्ण होने लगता है अतः शरीर कहलाता है)। वर्ष का अर्थ है देश या भूमि। इस प्रकार इस भूभाग का भारतवर्ष नाम अत्यंत सार्थक है। आर्य इस क्षेत्र में अल्प श्रम से जीवनोपयोगी सामग्रियाँ उपजा लेते थे और बचा हुआ समय शारीरिक ,मानसिक , और आध्यात्मिक उन्नति में लगाते थे फलतः आगंतुक आर्यों का बौद्धिक स्तर उच्च कोटि का हो गया था जिसकी चर्चा तत्कालीन साहित्य में बिखरी हुई है। इसी प्रकार मुगल कालीन राजाओं ने सिंधुनदी को पार कर यहाॅं प्रवेश  किया और इस क्षेत्र को सिंधुस्तान कहा, इस प्रकार कहते  कहते हिंदुस्तान नाम हो गया। इसके बाद अंग्रेजों ने इसे इंडिया कहा क्योंकि वे अंगे्रजी में सिंधुनदी को ‘इंडस रिवर‘ कहते थे। इसी आधार पर यहाॅं पर रहने वाले लोग ‘भारतीय‘, ‘हिंदुस्तानी‘ या संक्षेप में ‘हिंदु‘ और ‘इंडियन‘ कहे जाने लगे।

इंदु- जब हिंदुस्तान में रहने वाले हिंदु कहलाते हैं तो यहाॅं कुछ लोेग यह क्यों कहते पाये जाते हैं कि वे हिंदु नहीं वे तो सनातन, शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई या मुसलमान हैं?
बाबा- प्रत्येक मनुष्य के पास मन है, वह मनन कर सकता है इसीलिये मनुष्य कहलाता है, जब मनन करता है तो कुछ विचारधारायें सामने आती हैं और कुछ लोग उनमें अपनी आस्था और विश्वास करने लगते हैं। जैसे जैसे इन विचारधाराओं और मान्यताओं के पालनकर्ता बढ़ते जाते हैं वे अपने आप को पृथक और अन्यों से श्रेष्ठ समूह का मानने लगते हैं, और कोई कारण नहीं है।

नन्दू- परंतु वे लोग तो इसे अपना अपना धर्म कहते हैं?
बाबा- किसी को भी अपने आप को कुछ भी कहने से हम रोक तो नहीं सकते, परंतु सच्चाई यही है कि यह सभी मतवाद ही हैं जो स्वार्थवश अपने अपने को अन्य दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में जुटे हैं और अपने वास्तविक धर्म को भूलते जा रहे हैं। सभी मतावलम्बी पहले मनुष्य हैं बाद में विभिन्न नामधारी मतवादी। इसलिये सभी का धर्म तो मानव धर्म ही हुआ कि नहीं?

चंदू- परंतु यह तो आप कहते हैं वे लोग इसे धर्म कहाॅं मानते हैं?
बाबा- जब वे अपने मन से सही सही मनन करेंगे तब वे अवश्य मानेंगे। तुम लोग यह जानते हो कि धर्म का अर्थ है ‘ जो धारण किया है‘ अर्थात् आभ्यान्तरिक लक्षण। जैसे, आग धारण किये है अपने ज्वलन करने के गुणों को , पानी धारण किये है अपनी शीतल करने के गुणों को परंतु यदि ये अपने गुणों को त्याग दें तो क्या आग और पानी कहला सकते हैं? नहीं। इसी प्रकार मनुष्य धारण किये है अपने मानवीय गुणों को न कि पशुपक्षी अथवा वनस्पति के गुणों को । अतः यदि वह अपने मानवीय गुणों को त्याग देता है तो क्या उसे मानव कह सकते हैं ? नहीं। अतः मनुष्यों का धर्म है मानव धर्म । इस मानव धर्म के अन्तर्गत ही यह भावना स्थापित है कि हमसब के पिता एक ही परमपुरुष और एक ही माता परमाप्रकृति हैं तथा यह त्रिभुवन हमारा घर। इसलिये जिन्होंने इस रहस्य को अच्छी तरह समझ लिया है उनका हर प्रयत्न यही होना चाहिये कि वे मनुष्य को मनुष्य बनाने में जुट जायें। एक बात और ध्यान में रखना कि अंगे्रजी में जिसे ‘रिलीजन‘ कहते हैं वह ‘धर्म‘ का समानार्थी नहीं है। सच्चाई यह है कि अंग्रेजी में धर्म का समानार्थी शब्द है ही नहीं। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि विचार धारायें और मतवाद समय के अनुसार बदलते रहते हैं परंतु धर्म प्रत्येक समय अपरिवर्तित रहता है।

राजू- हम ,सभी लोगों के  नाम के आगे श्री लगाते हैं, यह केवल सम्मान का ही द्योतक है या और कुछ?
बाबा- ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। कीर्ति और यश  का बीजमंत्र है ‘‘श‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः कीर्ति और यश  के प्रेरक ‘‘श‘‘के साथ ऊर्जा की क्रियाशीलता के प्रेरक ‘‘र‘‘ को जोड़ने पर श +र = श्र  प्राप्त होता है और स्त्रींलिंग  में यह हो जाता है श्री। इसे ही आधार मानकर भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में ‘श्री‘ किसी के पास नहीं है परंतु सभी को इसे प्राप्त करने का प्रयास करते रहना चाहिये। सभी अपने नाम से पूर्व श्री भले लगायें परंतु इस प्रकार के कार्य न करें कि विश्री (अर्थात् श्री विहीन) हो जायें।

राजू- कुछ लोग स्वदेशी और विदेशी वस्तुओं में भेद करते देखे गये हैं , मानव धर्म के अनुसार तो सम्पूर्ण धरती ही हमसब का घर है तो विदेशी का अर्थ ही कहाॅं रहा?
बाबा- वर्तमान में, भाषाओं और विचारधाराओं के अनुसार बनायी गयी भौगोलिक सीमाओं को बाॅंध कर हम इन्हें देश विदेश कहने लगे हैं परंतु लाखों वर्ष पहले धरती पर आये मनुष्य ने ही सम्पूर्ण धरती पर पर्यटन करते हुए आवश्यक वस्तुओं को एक भूभाग से दूसरे भूभाग तक पहुंचाया है। अब इतने लम्बे अन्तराल में उनका उद्गम सभी भूल चुके हैं और उन्हें अपना अपना कहकर व्यर्थ ही विद्वेश  फैलाते हैं। जैसे,
अथर्ववेद काल में आर्य ईरान होते हुए भारत में आये। इसके पहले वे चावल नहीं जानते थे। मध्य एशिया से बाहर  निकलने के समय वे केवल जौ का व्यवहार करते थे। ईरान में उन्होंने गेंहू देखा। ( ईरान को वैदिक भाषा में ‘आर्यन्य ब्रज‘ कहते हैं बिगड़ते बिगड़ते  ‘ईरान बज‘  हो गया , सरकारी रूप में आज भी ‘ईरान  बेज‘ ही  कहलाता है।) ईरान में आर्यों ने गेहूं का स्वाद चखा जो , जौ से अधिक अच्छा था ,जीभ पर पहुँचते ही उसके विलक्षण स्वाद होने के कारण उसका नाम दिया गया ‘गोधूम‘ , गो = जीभ , धूम = आनंद देने वाला।  (जैसे जब कोई समारोह बहुत आनंद देता  है तो कहा जाता है कि समारोह बड़ी धूम धाम से मनाया गया )  इसलिए, गोधूम= जीभ को आनंद देने वाला ।  गोधूम संस्कृत शब्द है, यह प्राकृत में हो गया ‘गहूम‘ और बाद में प्रचलित भाषाओं में हो गया ‘गेंहूँ‘ इस प्रकार ईरान से आर्यों द्वारा गेहूं भारत लाया गया।  यहाँ  उन्होंने गेंहू दिया और चावल देखा, जिसे नाम दिया ‘ब्रीहि‘ । भारत में गेंहूँ का प्रचलन सबसे पहले पंजाब में हुआ जहाँ गेंहूँ का स्थानीय नाम नहीं है। चूँकि गेंहूँ का रंग सुनहला चमकीला होता है अतः वहां कहीं  कहीं इसे कनक कहते हैं , (कनक =सोना) .... इसी प्रकार , भारत में बैगन चीन से, मूली जापान से, भिन्डी अफ्रीका से, कुम्हड़ा या कद्दू यूरोप से और आलू अमेरिका से आया।  आजकल भारत में ये सब्जियां बहुत होती हैं और लगता है कि वे इसी  देश की हैं , पर सच्चाई यही है कि वे अन्य भूभागों से भारत में आई हैं। इनके लिए संस्कृत में कोई शब्द नहीं है, प्राचीन वैदक में तो गेंहू और चावल के लिए भी शब्द नहीं है।

नन्दू- कुछ समय से ‘सहिष्णुता‘ और ‘असहिष्णुता‘ इन शब्दों को लेकर बड़ी खींचतान चल रही है, इस पर आप क्या कहेंगे?
बाबा- ये शब्द पारस्परिक सापेक्षिक अर्थ रखते हैं जिसे स्वार्थी तत्व अपने अपने हित में मनमाना अर्थ देते पाये जाते हैं। वर्तमान प्रौद्योगिकी के इस उन्नत युग में, समाज हित में सूचना प्रदाता तन्त्र अर्थात् मीडिया को अपना सात्विक और संतुलनकारी कर्तव्य, निर्पेक्षता और निर्भीकता से निभाना चाहिये और शब्दों के मनमाने अर्थों को अपने स्वार्थ के लिये भुनाने वालों के प्रति अपनी सहिष्णुता प्रदर्शित  नहीं करना चहिये। परंतु सहिष्णुता  का यह अर्थ भी नहीं है कि हम अपराध , अन्याय, अशिक्षा, अत्याचार और  हर प्रकार के शोषण के प्रति भी सहिष्णुता दर्शाएं । समाज के कल्याण के लिये हमें समाज में व्याप्त इन बुराइयों के प्रति असहिष्णुता ही प्रदर्शित  करना होगी।
हमें स्पष्टतः अपने में  इस प्रकार की भावना जाग्रित करना होगी कि हम अपने आत्मोन्नति के पथ अर्थात् ‘पाथ आफ ब्लिस‘ पर चलते हुए समाज हित में अपने कर्तव्यों की  परवाह न करने वालों, परिश्रम से जी चुराने वालों, अपनी सेवा या उत्पाद की गुणवत्ता पर ध्यान न देने वालों, और छोटी बड़ी सभी समस्याओं के समाधान के लिये बार बार सरकार को पुकारने वालों, आदि के लिये असहिष्णुता प्रदर्शित  करें।
विश्व  में अनेक प्रकार के मत और संप्रदाय प्रचलित हैं। हम, सत्य की खोज करने और उसमें उनके समर्पण के प्रति अपनी सहिष्णुता प्रकट करेंगे, परंतु किसी भी प्रकार की भावजड़ता अर्थात् अंधानुकरण, अवैज्ञानिकता, अतार्किकता और अविवेकपूर्ण सिद्धान्तों के पोषण करने पर उनके प्रति असहिष्णुता प्रकट करेंगे।
हम संसार के सभी पेड़ पौधों सहित प्राणियों के हित संवर्धन में, पर्यावरण की शुद्धता के संरक्षण करने में, मानव समाज में सभी मानवीय गुणों और मानवता के आदर्शों  को मूर्त रूप देने में सहिष्णुता का व्यवहार करेंगे। परंतु मानव समाज और पर्यावरण के व्यापक हितों की कीमत पर व्यक्तिगत हितों में संलग्न लोगों के प्रति असहिष्णु रहेंगे। समाज के उन तत्वों के प्रति असहिष्णुता ही प्रकट करना होगी जो समाज को ऊंचनीच के भेदभाव, सुपीरियरिटी या इनफीरियरिटी या फीयर काम्प्लेक्स के आधार पर विभाजित करने का कार्य करते हैं।
इसलिये सच्चाई यही है कि सहिष्णुता और असहिष्णुता पारस्परिक सापेक्षिक मानवीय गुण हैं जो समाज के व्यापक हितों को आधार मानते हुए और जनकल्याण की भावना को द्रष्टिगत रखते हुए ही पारिभाषित और प्रयुक्त किये जाना चाहिये। इसमें वर्तमान प्रचार माध्यमों की निर्णायक भूमिका है जिसे, इस पुनीत कर्म से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को पूरी ईमानदारी से निभाना चाहिये।