मित्रो! आपलोग जानते हैं कि एक ही शब्द का, उसके उपयोग के अनुसार अर्थ बदल जाता है परंतु समाज में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने हित के लिये उनका वास्तविक अर्थ बदल कर अनर्थ ही कर देते हैं । कुछ मित्रों ने इस विषय को बाबा की क्लास में लेने का सुझाव दिया था अतः आज की क्लास में कुछ इसी प्रकार के शब्दों पर चर्चा की जा रही है जिन पर प्रायः व्यर्थ ही विवाद होते रहते हैं। इन्हें जानिये और इनकी वास्तविकता से दूसरों को भी परिचय कराइये जिससे समाज में स्वार्थी लोग अनर्थ न कर सकें।
73 बाबा की क्लास ( अर्थ और अनर्थ )
रवि- प्रायः देखा गया है कि हमारे देश में कुछ लोग किसी शब्द विशेष को खीच तान कर अनेक प्रकार के अर्थ निकालते हैं जो जनसामान्य में वैमन्यता के कारण बनते है। जैसे कुछ नेता लोग ‘हिंदु‘ शब्द को ही जाति, धर्म, और स्थानीयता के अर्थों में हमेशा उलझाये रहते हैं , इसका क्या कारण है?
बाबा- इसका कारण है, जन सामान्य में यथार्थ ज्ञान का अभाव जिसका लाभ उठाकर कुछ लोग निहित स्वार्थ वश शब्दों के अर्थ का अनर्थ करते हुए अपने अपने समूहों में बृद्धि करने की राजनीति करते हैं। राजनीति की इस विधा को ‘‘सोसियो सेन्टीमेंट‘‘ कहते हैं। जब इसी विधा का उपयोग किसी स्थान विशेष, भूमि या देश विशेष के नाम पर किया जाता है तो उसे ‘ज्यो सेंटीमेंट‘ कहते हैं । इनके पीछे रहस्य यही होता है कि जाति, स्थान, देश या धर्म के आधार पर लोगों को अपने अपने पक्ष में किया जाना।
रवि- तो ‘हिंदु‘ या ‘हिंदुस्तान‘ या ‘भारत‘ जैसे शब्दों के मनमाने अर्थ ज्योसेंटीमेंट हैं या सोसियो?
बाबा- पहले इन शब्दों के उद्गम से संबंधित सही सही ज्ञान प्राप्त कर लो, उसके बाद अपने आप समझ जाओगे कि ये क्या हैं। मध्य एशिया से भारत के पश्चिमी क्षेत्र में जब आर्य लोग प्रविष्ट हुए तब सिंधु सहित सात नदियों से घिरे होने के कारण इस भू भाग को उन्होंने सप्तसिंधु या सप्तनद देश कहा बाद में और आगे जाने पर पांच नदियों से घिरे क्षेत्र को पंच +अप = पञ्चाप कहा ( वैदिक संस्कृत में अप =जल ) जो बिगड़कर पंजाब हो गया , आगे बढ़े तो कश्मीर की ओर पहाड़ियों पर छोटे छोटे नीले गोल पत्थरों की भरमार पाई जिनका आकार जामुन के फल से मिलता जुलता था। संस्कृत में जामुन फल को जम्बुफलम् कहते हैं। इस क्षेत्र में असंख्य जम्बु शिलायें बिखरी होने के कारण इसे उन्होंने जम्बुद्वीप नाम दिया। इसी प्राचीन जम्बुद्वीप नाम में से अब केवल ‘जम्मू‘ ही बचा है। उस युग में इस जम्बुद्वीप का विस्तार अफगानिस्तान से फिलिपीन तक (अर्थात सम्पूर्ण दक्षिण-पूर्व एशिया ) था। यहाँ की भूमि बहुत उपजाऊ होने के कारण सहज ही खाद्य पदार्थ मिल जाया करते थे। प्रचुर खाद्यान्न देने के कारण इसे दो क्रियाओं, ‘‘भर‘‘ ( भरण के अर्थ में ) औऱ ‘‘तन‘‘ (विस्तार के अर्थ में ) संयोजित कर ‘भारत‘ नाम दिया गया । ‘भर‘ का अर्थ है भरण पोषण करने वाला और ‘तन‘ का अर्थ है क्रमशः विस्तार पाने वाला या बढ़ने वाला, ( मनुष्य का शरीर भी 49 वर्ष तक धीरे धीरे बढ़ता है इसीलिए तनु कहलाता है इसके बाद शीर्ण होने लगता है अतः शरीर कहलाता है)। वर्ष का अर्थ है देश या भूमि। इस प्रकार इस भूभाग का भारतवर्ष नाम अत्यंत सार्थक है। आर्य इस क्षेत्र में अल्प श्रम से जीवनोपयोगी सामग्रियाँ उपजा लेते थे और बचा हुआ समय शारीरिक ,मानसिक , और आध्यात्मिक उन्नति में लगाते थे फलतः आगंतुक आर्यों का बौद्धिक स्तर उच्च कोटि का हो गया था जिसकी चर्चा तत्कालीन साहित्य में बिखरी हुई है। इसी प्रकार मुगल कालीन राजाओं ने सिंधुनदी को पार कर यहाॅं प्रवेश किया और इस क्षेत्र को सिंधुस्तान कहा, इस प्रकार कहते कहते हिंदुस्तान नाम हो गया। इसके बाद अंग्रेजों ने इसे इंडिया कहा क्योंकि वे अंगे्रजी में सिंधुनदी को ‘इंडस रिवर‘ कहते थे। इसी आधार पर यहाॅं पर रहने वाले लोग ‘भारतीय‘, ‘हिंदुस्तानी‘ या संक्षेप में ‘हिंदु‘ और ‘इंडियन‘ कहे जाने लगे।
इंदु- जब हिंदुस्तान में रहने वाले हिंदु कहलाते हैं तो यहाॅं कुछ लोेग यह क्यों कहते पाये जाते हैं कि वे हिंदु नहीं वे तो सनातन, शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई या मुसलमान हैं?
बाबा- प्रत्येक मनुष्य के पास मन है, वह मनन कर सकता है इसीलिये मनुष्य कहलाता है, जब मनन करता है तो कुछ विचारधारायें सामने आती हैं और कुछ लोग उनमें अपनी आस्था और विश्वास करने लगते हैं। जैसे जैसे इन विचारधाराओं और मान्यताओं के पालनकर्ता बढ़ते जाते हैं वे अपने आप को पृथक और अन्यों से श्रेष्ठ समूह का मानने लगते हैं, और कोई कारण नहीं है।
नन्दू- परंतु वे लोग तो इसे अपना अपना धर्म कहते हैं?
बाबा- किसी को भी अपने आप को कुछ भी कहने से हम रोक तो नहीं सकते, परंतु सच्चाई यही है कि यह सभी मतवाद ही हैं जो स्वार्थवश अपने अपने को अन्य दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में जुटे हैं और अपने वास्तविक धर्म को भूलते जा रहे हैं। सभी मतावलम्बी पहले मनुष्य हैं बाद में विभिन्न नामधारी मतवादी। इसलिये सभी का धर्म तो मानव धर्म ही हुआ कि नहीं?
चंदू- परंतु यह तो आप कहते हैं वे लोग इसे धर्म कहाॅं मानते हैं?
बाबा- जब वे अपने मन से सही सही मनन करेंगे तब वे अवश्य मानेंगे। तुम लोग यह जानते हो कि धर्म का अर्थ है ‘ जो धारण किया है‘ अर्थात् आभ्यान्तरिक लक्षण। जैसे, आग धारण किये है अपने ज्वलन करने के गुणों को , पानी धारण किये है अपनी शीतल करने के गुणों को परंतु यदि ये अपने गुणों को त्याग दें तो क्या आग और पानी कहला सकते हैं? नहीं। इसी प्रकार मनुष्य धारण किये है अपने मानवीय गुणों को न कि पशुपक्षी अथवा वनस्पति के गुणों को । अतः यदि वह अपने मानवीय गुणों को त्याग देता है तो क्या उसे मानव कह सकते हैं ? नहीं। अतः मनुष्यों का धर्म है मानव धर्म । इस मानव धर्म के अन्तर्गत ही यह भावना स्थापित है कि हमसब के पिता एक ही परमपुरुष और एक ही माता परमाप्रकृति हैं तथा यह त्रिभुवन हमारा घर। इसलिये जिन्होंने इस रहस्य को अच्छी तरह समझ लिया है उनका हर प्रयत्न यही होना चाहिये कि वे मनुष्य को मनुष्य बनाने में जुट जायें। एक बात और ध्यान में रखना कि अंगे्रजी में जिसे ‘रिलीजन‘ कहते हैं वह ‘धर्म‘ का समानार्थी नहीं है। सच्चाई यह है कि अंग्रेजी में धर्म का समानार्थी शब्द है ही नहीं। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि विचार धारायें और मतवाद समय के अनुसार बदलते रहते हैं परंतु धर्म प्रत्येक समय अपरिवर्तित रहता है।
राजू- हम ,सभी लोगों के नाम के आगे श्री लगाते हैं, यह केवल सम्मान का ही द्योतक है या और कुछ?
बाबा- ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। कीर्ति और यश का बीजमंत्र है ‘‘श‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः कीर्ति और यश के प्रेरक ‘‘श‘‘के साथ ऊर्जा की क्रियाशीलता के प्रेरक ‘‘र‘‘ को जोड़ने पर श +र = श्र प्राप्त होता है और स्त्रींलिंग में यह हो जाता है श्री। इसे ही आधार मानकर भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में ‘श्री‘ किसी के पास नहीं है परंतु सभी को इसे प्राप्त करने का प्रयास करते रहना चाहिये। सभी अपने नाम से पूर्व श्री भले लगायें परंतु इस प्रकार के कार्य न करें कि विश्री (अर्थात् श्री विहीन) हो जायें।
राजू- कुछ लोग स्वदेशी और विदेशी वस्तुओं में भेद करते देखे गये हैं , मानव धर्म के अनुसार तो सम्पूर्ण धरती ही हमसब का घर है तो विदेशी का अर्थ ही कहाॅं रहा?
बाबा- वर्तमान में, भाषाओं और विचारधाराओं के अनुसार बनायी गयी भौगोलिक सीमाओं को बाॅंध कर हम इन्हें देश विदेश कहने लगे हैं परंतु लाखों वर्ष पहले धरती पर आये मनुष्य ने ही सम्पूर्ण धरती पर पर्यटन करते हुए आवश्यक वस्तुओं को एक भूभाग से दूसरे भूभाग तक पहुंचाया है। अब इतने लम्बे अन्तराल में उनका उद्गम सभी भूल चुके हैं और उन्हें अपना अपना कहकर व्यर्थ ही विद्वेश फैलाते हैं। जैसे,
अथर्ववेद काल में आर्य ईरान होते हुए भारत में आये। इसके पहले वे चावल नहीं जानते थे। मध्य एशिया से बाहर निकलने के समय वे केवल जौ का व्यवहार करते थे। ईरान में उन्होंने गेंहू देखा। ( ईरान को वैदिक भाषा में ‘आर्यन्य ब्रज‘ कहते हैं बिगड़ते बिगड़ते ‘ईरान बज‘ हो गया , सरकारी रूप में आज भी ‘ईरान बेज‘ ही कहलाता है।) ईरान में आर्यों ने गेहूं का स्वाद चखा जो , जौ से अधिक अच्छा था ,जीभ पर पहुँचते ही उसके विलक्षण स्वाद होने के कारण उसका नाम दिया गया ‘गोधूम‘ , गो = जीभ , धूम = आनंद देने वाला। (जैसे जब कोई समारोह बहुत आनंद देता है तो कहा जाता है कि समारोह बड़ी धूम धाम से मनाया गया ) इसलिए, गोधूम= जीभ को आनंद देने वाला । गोधूम संस्कृत शब्द है, यह प्राकृत में हो गया ‘गहूम‘ और बाद में प्रचलित भाषाओं में हो गया ‘गेंहूँ‘ इस प्रकार ईरान से आर्यों द्वारा गेहूं भारत लाया गया। यहाँ उन्होंने गेंहू दिया और चावल देखा, जिसे नाम दिया ‘ब्रीहि‘ । भारत में गेंहूँ का प्रचलन सबसे पहले पंजाब में हुआ जहाँ गेंहूँ का स्थानीय नाम नहीं है। चूँकि गेंहूँ का रंग सुनहला चमकीला होता है अतः वहां कहीं कहीं इसे कनक कहते हैं , (कनक =सोना) .... इसी प्रकार , भारत में बैगन चीन से, मूली जापान से, भिन्डी अफ्रीका से, कुम्हड़ा या कद्दू यूरोप से और आलू अमेरिका से आया। आजकल भारत में ये सब्जियां बहुत होती हैं और लगता है कि वे इसी देश की हैं , पर सच्चाई यही है कि वे अन्य भूभागों से भारत में आई हैं। इनके लिए संस्कृत में कोई शब्द नहीं है, प्राचीन वैदक में तो गेंहू और चावल के लिए भी शब्द नहीं है।
नन्दू- कुछ समय से ‘सहिष्णुता‘ और ‘असहिष्णुता‘ इन शब्दों को लेकर बड़ी खींचतान चल रही है, इस पर आप क्या कहेंगे?
बाबा- ये शब्द पारस्परिक सापेक्षिक अर्थ रखते हैं जिसे स्वार्थी तत्व अपने अपने हित में मनमाना अर्थ देते पाये जाते हैं। वर्तमान प्रौद्योगिकी के इस उन्नत युग में, समाज हित में सूचना प्रदाता तन्त्र अर्थात् मीडिया को अपना सात्विक और संतुलनकारी कर्तव्य, निर्पेक्षता और निर्भीकता से निभाना चाहिये और शब्दों के मनमाने अर्थों को अपने स्वार्थ के लिये भुनाने वालों के प्रति अपनी सहिष्णुता प्रदर्शित नहीं करना चहिये। परंतु सहिष्णुता का यह अर्थ भी नहीं है कि हम अपराध , अन्याय, अशिक्षा, अत्याचार और हर प्रकार के शोषण के प्रति भी सहिष्णुता दर्शाएं । समाज के कल्याण के लिये हमें समाज में व्याप्त इन बुराइयों के प्रति असहिष्णुता ही प्रदर्शित करना होगी।
हमें स्पष्टतः अपने में इस प्रकार की भावना जाग्रित करना होगी कि हम अपने आत्मोन्नति के पथ अर्थात् ‘पाथ आफ ब्लिस‘ पर चलते हुए समाज हित में अपने कर्तव्यों की परवाह न करने वालों, परिश्रम से जी चुराने वालों, अपनी सेवा या उत्पाद की गुणवत्ता पर ध्यान न देने वालों, और छोटी बड़ी सभी समस्याओं के समाधान के लिये बार बार सरकार को पुकारने वालों, आदि के लिये असहिष्णुता प्रदर्शित करें।
विश्व में अनेक प्रकार के मत और संप्रदाय प्रचलित हैं। हम, सत्य की खोज करने और उसमें उनके समर्पण के प्रति अपनी सहिष्णुता प्रकट करेंगे, परंतु किसी भी प्रकार की भावजड़ता अर्थात् अंधानुकरण, अवैज्ञानिकता, अतार्किकता और अविवेकपूर्ण सिद्धान्तों के पोषण करने पर उनके प्रति असहिष्णुता प्रकट करेंगे।
हम संसार के सभी पेड़ पौधों सहित प्राणियों के हित संवर्धन में, पर्यावरण की शुद्धता के संरक्षण करने में, मानव समाज में सभी मानवीय गुणों और मानवता के आदर्शों को मूर्त रूप देने में सहिष्णुता का व्यवहार करेंगे। परंतु मानव समाज और पर्यावरण के व्यापक हितों की कीमत पर व्यक्तिगत हितों में संलग्न लोगों के प्रति असहिष्णु रहेंगे। समाज के उन तत्वों के प्रति असहिष्णुता ही प्रकट करना होगी जो समाज को ऊंचनीच के भेदभाव, सुपीरियरिटी या इनफीरियरिटी या फीयर काम्प्लेक्स के आधार पर विभाजित करने का कार्य करते हैं।
इसलिये सच्चाई यही है कि सहिष्णुता और असहिष्णुता पारस्परिक सापेक्षिक मानवीय गुण हैं जो समाज के व्यापक हितों को आधार मानते हुए और जनकल्याण की भावना को द्रष्टिगत रखते हुए ही पारिभाषित और प्रयुक्त किये जाना चाहिये। इसमें वर्तमान प्रचार माध्यमों की निर्णायक भूमिका है जिसे, इस पुनीत कर्म से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को पूरी ईमानदारी से निभाना चाहिये।
73 बाबा की क्लास ( अर्थ और अनर्थ )
रवि- प्रायः देखा गया है कि हमारे देश में कुछ लोग किसी शब्द विशेष को खीच तान कर अनेक प्रकार के अर्थ निकालते हैं जो जनसामान्य में वैमन्यता के कारण बनते है। जैसे कुछ नेता लोग ‘हिंदु‘ शब्द को ही जाति, धर्म, और स्थानीयता के अर्थों में हमेशा उलझाये रहते हैं , इसका क्या कारण है?
बाबा- इसका कारण है, जन सामान्य में यथार्थ ज्ञान का अभाव जिसका लाभ उठाकर कुछ लोग निहित स्वार्थ वश शब्दों के अर्थ का अनर्थ करते हुए अपने अपने समूहों में बृद्धि करने की राजनीति करते हैं। राजनीति की इस विधा को ‘‘सोसियो सेन्टीमेंट‘‘ कहते हैं। जब इसी विधा का उपयोग किसी स्थान विशेष, भूमि या देश विशेष के नाम पर किया जाता है तो उसे ‘ज्यो सेंटीमेंट‘ कहते हैं । इनके पीछे रहस्य यही होता है कि जाति, स्थान, देश या धर्म के आधार पर लोगों को अपने अपने पक्ष में किया जाना।
रवि- तो ‘हिंदु‘ या ‘हिंदुस्तान‘ या ‘भारत‘ जैसे शब्दों के मनमाने अर्थ ज्योसेंटीमेंट हैं या सोसियो?
बाबा- पहले इन शब्दों के उद्गम से संबंधित सही सही ज्ञान प्राप्त कर लो, उसके बाद अपने आप समझ जाओगे कि ये क्या हैं। मध्य एशिया से भारत के पश्चिमी क्षेत्र में जब आर्य लोग प्रविष्ट हुए तब सिंधु सहित सात नदियों से घिरे होने के कारण इस भू भाग को उन्होंने सप्तसिंधु या सप्तनद देश कहा बाद में और आगे जाने पर पांच नदियों से घिरे क्षेत्र को पंच +अप = पञ्चाप कहा ( वैदिक संस्कृत में अप =जल ) जो बिगड़कर पंजाब हो गया , आगे बढ़े तो कश्मीर की ओर पहाड़ियों पर छोटे छोटे नीले गोल पत्थरों की भरमार पाई जिनका आकार जामुन के फल से मिलता जुलता था। संस्कृत में जामुन फल को जम्बुफलम् कहते हैं। इस क्षेत्र में असंख्य जम्बु शिलायें बिखरी होने के कारण इसे उन्होंने जम्बुद्वीप नाम दिया। इसी प्राचीन जम्बुद्वीप नाम में से अब केवल ‘जम्मू‘ ही बचा है। उस युग में इस जम्बुद्वीप का विस्तार अफगानिस्तान से फिलिपीन तक (अर्थात सम्पूर्ण दक्षिण-पूर्व एशिया ) था। यहाँ की भूमि बहुत उपजाऊ होने के कारण सहज ही खाद्य पदार्थ मिल जाया करते थे। प्रचुर खाद्यान्न देने के कारण इसे दो क्रियाओं, ‘‘भर‘‘ ( भरण के अर्थ में ) औऱ ‘‘तन‘‘ (विस्तार के अर्थ में ) संयोजित कर ‘भारत‘ नाम दिया गया । ‘भर‘ का अर्थ है भरण पोषण करने वाला और ‘तन‘ का अर्थ है क्रमशः विस्तार पाने वाला या बढ़ने वाला, ( मनुष्य का शरीर भी 49 वर्ष तक धीरे धीरे बढ़ता है इसीलिए तनु कहलाता है इसके बाद शीर्ण होने लगता है अतः शरीर कहलाता है)। वर्ष का अर्थ है देश या भूमि। इस प्रकार इस भूभाग का भारतवर्ष नाम अत्यंत सार्थक है। आर्य इस क्षेत्र में अल्प श्रम से जीवनोपयोगी सामग्रियाँ उपजा लेते थे और बचा हुआ समय शारीरिक ,मानसिक , और आध्यात्मिक उन्नति में लगाते थे फलतः आगंतुक आर्यों का बौद्धिक स्तर उच्च कोटि का हो गया था जिसकी चर्चा तत्कालीन साहित्य में बिखरी हुई है। इसी प्रकार मुगल कालीन राजाओं ने सिंधुनदी को पार कर यहाॅं प्रवेश किया और इस क्षेत्र को सिंधुस्तान कहा, इस प्रकार कहते कहते हिंदुस्तान नाम हो गया। इसके बाद अंग्रेजों ने इसे इंडिया कहा क्योंकि वे अंगे्रजी में सिंधुनदी को ‘इंडस रिवर‘ कहते थे। इसी आधार पर यहाॅं पर रहने वाले लोग ‘भारतीय‘, ‘हिंदुस्तानी‘ या संक्षेप में ‘हिंदु‘ और ‘इंडियन‘ कहे जाने लगे।
इंदु- जब हिंदुस्तान में रहने वाले हिंदु कहलाते हैं तो यहाॅं कुछ लोेग यह क्यों कहते पाये जाते हैं कि वे हिंदु नहीं वे तो सनातन, शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई या मुसलमान हैं?
बाबा- प्रत्येक मनुष्य के पास मन है, वह मनन कर सकता है इसीलिये मनुष्य कहलाता है, जब मनन करता है तो कुछ विचारधारायें सामने आती हैं और कुछ लोग उनमें अपनी आस्था और विश्वास करने लगते हैं। जैसे जैसे इन विचारधाराओं और मान्यताओं के पालनकर्ता बढ़ते जाते हैं वे अपने आप को पृथक और अन्यों से श्रेष्ठ समूह का मानने लगते हैं, और कोई कारण नहीं है।
नन्दू- परंतु वे लोग तो इसे अपना अपना धर्म कहते हैं?
बाबा- किसी को भी अपने आप को कुछ भी कहने से हम रोक तो नहीं सकते, परंतु सच्चाई यही है कि यह सभी मतवाद ही हैं जो स्वार्थवश अपने अपने को अन्य दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में जुटे हैं और अपने वास्तविक धर्म को भूलते जा रहे हैं। सभी मतावलम्बी पहले मनुष्य हैं बाद में विभिन्न नामधारी मतवादी। इसलिये सभी का धर्म तो मानव धर्म ही हुआ कि नहीं?
चंदू- परंतु यह तो आप कहते हैं वे लोग इसे धर्म कहाॅं मानते हैं?
बाबा- जब वे अपने मन से सही सही मनन करेंगे तब वे अवश्य मानेंगे। तुम लोग यह जानते हो कि धर्म का अर्थ है ‘ जो धारण किया है‘ अर्थात् आभ्यान्तरिक लक्षण। जैसे, आग धारण किये है अपने ज्वलन करने के गुणों को , पानी धारण किये है अपनी शीतल करने के गुणों को परंतु यदि ये अपने गुणों को त्याग दें तो क्या आग और पानी कहला सकते हैं? नहीं। इसी प्रकार मनुष्य धारण किये है अपने मानवीय गुणों को न कि पशुपक्षी अथवा वनस्पति के गुणों को । अतः यदि वह अपने मानवीय गुणों को त्याग देता है तो क्या उसे मानव कह सकते हैं ? नहीं। अतः मनुष्यों का धर्म है मानव धर्म । इस मानव धर्म के अन्तर्गत ही यह भावना स्थापित है कि हमसब के पिता एक ही परमपुरुष और एक ही माता परमाप्रकृति हैं तथा यह त्रिभुवन हमारा घर। इसलिये जिन्होंने इस रहस्य को अच्छी तरह समझ लिया है उनका हर प्रयत्न यही होना चाहिये कि वे मनुष्य को मनुष्य बनाने में जुट जायें। एक बात और ध्यान में रखना कि अंगे्रजी में जिसे ‘रिलीजन‘ कहते हैं वह ‘धर्म‘ का समानार्थी नहीं है। सच्चाई यह है कि अंग्रेजी में धर्म का समानार्थी शब्द है ही नहीं। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि विचार धारायें और मतवाद समय के अनुसार बदलते रहते हैं परंतु धर्म प्रत्येक समय अपरिवर्तित रहता है।
राजू- हम ,सभी लोगों के नाम के आगे श्री लगाते हैं, यह केवल सम्मान का ही द्योतक है या और कुछ?
बाबा- ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। कीर्ति और यश का बीजमंत्र है ‘‘श‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः कीर्ति और यश के प्रेरक ‘‘श‘‘के साथ ऊर्जा की क्रियाशीलता के प्रेरक ‘‘र‘‘ को जोड़ने पर श +र = श्र प्राप्त होता है और स्त्रींलिंग में यह हो जाता है श्री। इसे ही आधार मानकर भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में ‘श्री‘ किसी के पास नहीं है परंतु सभी को इसे प्राप्त करने का प्रयास करते रहना चाहिये। सभी अपने नाम से पूर्व श्री भले लगायें परंतु इस प्रकार के कार्य न करें कि विश्री (अर्थात् श्री विहीन) हो जायें।
राजू- कुछ लोग स्वदेशी और विदेशी वस्तुओं में भेद करते देखे गये हैं , मानव धर्म के अनुसार तो सम्पूर्ण धरती ही हमसब का घर है तो विदेशी का अर्थ ही कहाॅं रहा?
बाबा- वर्तमान में, भाषाओं और विचारधाराओं के अनुसार बनायी गयी भौगोलिक सीमाओं को बाॅंध कर हम इन्हें देश विदेश कहने लगे हैं परंतु लाखों वर्ष पहले धरती पर आये मनुष्य ने ही सम्पूर्ण धरती पर पर्यटन करते हुए आवश्यक वस्तुओं को एक भूभाग से दूसरे भूभाग तक पहुंचाया है। अब इतने लम्बे अन्तराल में उनका उद्गम सभी भूल चुके हैं और उन्हें अपना अपना कहकर व्यर्थ ही विद्वेश फैलाते हैं। जैसे,
अथर्ववेद काल में आर्य ईरान होते हुए भारत में आये। इसके पहले वे चावल नहीं जानते थे। मध्य एशिया से बाहर निकलने के समय वे केवल जौ का व्यवहार करते थे। ईरान में उन्होंने गेंहू देखा। ( ईरान को वैदिक भाषा में ‘आर्यन्य ब्रज‘ कहते हैं बिगड़ते बिगड़ते ‘ईरान बज‘ हो गया , सरकारी रूप में आज भी ‘ईरान बेज‘ ही कहलाता है।) ईरान में आर्यों ने गेहूं का स्वाद चखा जो , जौ से अधिक अच्छा था ,जीभ पर पहुँचते ही उसके विलक्षण स्वाद होने के कारण उसका नाम दिया गया ‘गोधूम‘ , गो = जीभ , धूम = आनंद देने वाला। (जैसे जब कोई समारोह बहुत आनंद देता है तो कहा जाता है कि समारोह बड़ी धूम धाम से मनाया गया ) इसलिए, गोधूम= जीभ को आनंद देने वाला । गोधूम संस्कृत शब्द है, यह प्राकृत में हो गया ‘गहूम‘ और बाद में प्रचलित भाषाओं में हो गया ‘गेंहूँ‘ इस प्रकार ईरान से आर्यों द्वारा गेहूं भारत लाया गया। यहाँ उन्होंने गेंहू दिया और चावल देखा, जिसे नाम दिया ‘ब्रीहि‘ । भारत में गेंहूँ का प्रचलन सबसे पहले पंजाब में हुआ जहाँ गेंहूँ का स्थानीय नाम नहीं है। चूँकि गेंहूँ का रंग सुनहला चमकीला होता है अतः वहां कहीं कहीं इसे कनक कहते हैं , (कनक =सोना) .... इसी प्रकार , भारत में बैगन चीन से, मूली जापान से, भिन्डी अफ्रीका से, कुम्हड़ा या कद्दू यूरोप से और आलू अमेरिका से आया। आजकल भारत में ये सब्जियां बहुत होती हैं और लगता है कि वे इसी देश की हैं , पर सच्चाई यही है कि वे अन्य भूभागों से भारत में आई हैं। इनके लिए संस्कृत में कोई शब्द नहीं है, प्राचीन वैदक में तो गेंहू और चावल के लिए भी शब्द नहीं है।
नन्दू- कुछ समय से ‘सहिष्णुता‘ और ‘असहिष्णुता‘ इन शब्दों को लेकर बड़ी खींचतान चल रही है, इस पर आप क्या कहेंगे?
बाबा- ये शब्द पारस्परिक सापेक्षिक अर्थ रखते हैं जिसे स्वार्थी तत्व अपने अपने हित में मनमाना अर्थ देते पाये जाते हैं। वर्तमान प्रौद्योगिकी के इस उन्नत युग में, समाज हित में सूचना प्रदाता तन्त्र अर्थात् मीडिया को अपना सात्विक और संतुलनकारी कर्तव्य, निर्पेक्षता और निर्भीकता से निभाना चाहिये और शब्दों के मनमाने अर्थों को अपने स्वार्थ के लिये भुनाने वालों के प्रति अपनी सहिष्णुता प्रदर्शित नहीं करना चहिये। परंतु सहिष्णुता का यह अर्थ भी नहीं है कि हम अपराध , अन्याय, अशिक्षा, अत्याचार और हर प्रकार के शोषण के प्रति भी सहिष्णुता दर्शाएं । समाज के कल्याण के लिये हमें समाज में व्याप्त इन बुराइयों के प्रति असहिष्णुता ही प्रदर्शित करना होगी।
हमें स्पष्टतः अपने में इस प्रकार की भावना जाग्रित करना होगी कि हम अपने आत्मोन्नति के पथ अर्थात् ‘पाथ आफ ब्लिस‘ पर चलते हुए समाज हित में अपने कर्तव्यों की परवाह न करने वालों, परिश्रम से जी चुराने वालों, अपनी सेवा या उत्पाद की गुणवत्ता पर ध्यान न देने वालों, और छोटी बड़ी सभी समस्याओं के समाधान के लिये बार बार सरकार को पुकारने वालों, आदि के लिये असहिष्णुता प्रदर्शित करें।
विश्व में अनेक प्रकार के मत और संप्रदाय प्रचलित हैं। हम, सत्य की खोज करने और उसमें उनके समर्पण के प्रति अपनी सहिष्णुता प्रकट करेंगे, परंतु किसी भी प्रकार की भावजड़ता अर्थात् अंधानुकरण, अवैज्ञानिकता, अतार्किकता और अविवेकपूर्ण सिद्धान्तों के पोषण करने पर उनके प्रति असहिष्णुता प्रकट करेंगे।
हम संसार के सभी पेड़ पौधों सहित प्राणियों के हित संवर्धन में, पर्यावरण की शुद्धता के संरक्षण करने में, मानव समाज में सभी मानवीय गुणों और मानवता के आदर्शों को मूर्त रूप देने में सहिष्णुता का व्यवहार करेंगे। परंतु मानव समाज और पर्यावरण के व्यापक हितों की कीमत पर व्यक्तिगत हितों में संलग्न लोगों के प्रति असहिष्णु रहेंगे। समाज के उन तत्वों के प्रति असहिष्णुता ही प्रकट करना होगी जो समाज को ऊंचनीच के भेदभाव, सुपीरियरिटी या इनफीरियरिटी या फीयर काम्प्लेक्स के आधार पर विभाजित करने का कार्य करते हैं।
इसलिये सच्चाई यही है कि सहिष्णुता और असहिष्णुता पारस्परिक सापेक्षिक मानवीय गुण हैं जो समाज के व्यापक हितों को आधार मानते हुए और जनकल्याण की भावना को द्रष्टिगत रखते हुए ही पारिभाषित और प्रयुक्त किये जाना चाहिये। इसमें वर्तमान प्रचार माध्यमों की निर्णायक भूमिका है जिसे, इस पुनीत कर्म से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को पूरी ईमानदारी से निभाना चाहिये।
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