Monday 18 July 2016

74 बाबा की क्लास (दैवी कृपा)

74 बाबा की क्लास (दैवी कृपा)

राजू- कुछ लोग कहते हैं कि किसी मंदिर विशेष में पूजा करने से वाॅंछित फल की प्राप्ती होती है, यह कितना सत्य हो सकता है?
बाबा- किसी स्थान या मंदिर के संबंध में जिन लोगों द्वारा जिस स्तर का प्रचार किया जाता है उसी के आधार पर अन्य लोग अपने मन में भावना बना लेते हैं। वास्तव में जाग्रित अवस्था में कभी कभी अचेतन मन में भरा हुआ ज्ञान अवचेतन मन में बह आता है और अधिकांशतः वह वहाॅं स्थायी रूपसे रह भी जाता है और सरलता से वापस अचेतन मन में चला भी जाता है। अनेक बार बीमार या व्यथित व्यक्ति मंदिरों में मूर्तियों के सामने साष्टाॅंग प्रणाम कर अपने दुखों के समाधान के लिये गिड़गिड़ाते हैं। इस दशा में वे अपने दुखों या बीमारियों  को दूर करने के उपाय का गहराई से चिंतन कर रहे होते हैं । इस प्रकार अस्थायी रूपसे उनका मन केन्द्रित हो जाता है और कुछ क्षणों तक इस अवस्था में स्थिर रहने के बाद उनका मन शक्तिहीन हो जाता है अतः सर्वज्ञाता अचेतन मन से, उनकी समस्या का समाधान अवचेतन मन में प्रवेश कर जाता है। चूंकि यह, न तो नींद की अवस्था होती है और न जागने की और न ही स्वप्न की, अतः समस्या का समाधान सरलता से अवचेतन में और अवचेतन से चेतन मन में प्रवेश कर जाता है।  इस प्रकार वे समझते हैं कि उनके कष्टों को अमुक अमुक  देवी या देवता की कृपा या वरदान से दूर हो गया जबकि इस प्रकार  का कुछ होता ही नहीं है।

नन्दू- तो फिर क्या ये देवी देवता किसी काम के नहीं हैं?
बाबा- सच्चाई तो यह है कि जहाॅं जहाॅं लोगों को जिस   किसी से  भय लगा उन्होंने उससे बिना प्रयास बचने के लिये उसमें ही देवता की कल्पना कर ली। हाथी  से, शेर से, जंगल से, बंदर से, साॅंप से भयभीत होकर उनमें देवों की कल्पना कर पूजा की जाने लगी। इतना ही नहीं धन के लोभियों ने धन की देवी और पढ़ाई  में कमजोर छात्रों ने विद्या की देवी की रचना कर डाली। इन से अपने इच्छित परिणाम पाने के लिये फूल चंदन  फल और कुछ संस्कृत के श्लोकों के साथ पूजा करने का विधान भी बना लिया । इस तरह बिना कठिन परिश्रम किये फलदायी इन देवताओं का व्यापार बढ़ता जा रहा है। सम्पूर्ण सृष्टि परमपुरुष की कल्पना है अतः मनुष्य भी उन्हीं की कल्पना है और मनुष्यों ने उनकी इस कल्पना में भी कल्पना कर डाली , कितना आश्चर्य है। इस तरह जैसे ये अकर्मण्य लोग धोखा देकर या किसी को मूर्ख बनाकर भौतिक जगत में लाभ लेने के अभ्यस्थ हो जाते हैं उसी प्रकार की विधियों का उपयोग कर वे मुक्ति और मोक्ष को पाने के भी  उपाय करते देखे गये हैं जबकि मुक्ति या मोक्ष बिलकुल अलग चीज है।

रवि- कुछ लोग स्वप्नों में भी अपनी समस्याओं का समाधान पाते देखे गये हैं वह क्या है?
बाबा- सोते समय जब पेटदर्द के कारण या नाड़ियों के व्यवधान से गैस ऊपर की ओर आकर मस्तिष्क और अवचेतन मन को झकझोरती है तब हमारे पूर्व कल्पित या अनुभवित विचार या वस्तुएं अवचेतन मन में टुकड़ों टुकड़ों में फिर से प्रकट होने लगते हैं इसे ही हम स्वप्न कहते हैं । स्पष्टतः इस प्रकार के स्वप्नों का कोई परिणाम नहीं होता। इतना ही नहीं उनमें निहित कहानी भी व्यवस्थित नहीं होती क्योंकि वे केवल हमारे मस्तिष्क के विभिन्न भागों में संचित पुराने विचारों का पुनः प्रकट होना, ही होते हैं। परंतु मन का वह भाग जिसे अतिमानस कोश कहते हैं वह सभी प्रकार के ज्ञान का संग्राहक होता है उससे कभी कभी किसी बहुत बड़े दुख या प्रसन्नता की पूर्वसूचना देने वाला स्वप्न, गहरी नींद में किसी व्यक्ति विशेष को जो उससे गहराई से संबंधित होता है, के अवचेतन मन में आता है। इस प्रकार के स्वप्न हमेशा नहीं आते और न ही इनसे शतप्रतिशत पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।

चंदू- हम लोगों ने पढ़ा है कि मैंडलीफ नामक रसायनशास्त्री ने आवर्तसारणी की रचना स्वप्न के आधार पर की थी?
बाबा- जैसा हमने अभी कहा है कि किसी विषय पर गंभीर चिंतन करने पर सर्वज्ञाता अचेतन मन से, समस्या का समाधान अवचेतन में और वहाॅं से चेतन मन में आ जाता है। परंतु इस प्रकार की घटना किसी के जीवन में एक या दो बार से अधिक नहीं हो सकती। उचित तो यही है कि हम अपने इष्ट का ही गंभीरता से चिंतन करें ।

राजू- कुछ लोगों का मत है कि चरणस्पर्श  प्रणाम करने से आशीर्वाद मिलता है, क्या यह फलीभूत होता है?
बाबा- चरणस्पर्श  प्रणाम उन महापुरुषों को ही किया जाता है जिनका उन्नत बौद्धिक स्तर और आचरण शुद्ध होता है तथा संसार के कल्याण के लिये ही सांसारिक कार्य करते हुए आत्मसाक्षात्कार की ओर बढ़ रहे होते हैं या आत्मसाक्षात्कार कर चुके होते हैं। चॅूंकि इनकी पहचान कर पाना बड़ा ही कठिन होता है अतः इस मामले में सावधान रहना चाहिये, सामान्यतः ये लोग किसी को भी अपने पैरों को ही क्या किसी भी अंग को स्पर्श नहीं करने देते। सबसे अच्छा तो यह है कि सभी को अपनी शुद्ध मनोभावना से हाथ जोड़कर विना प्रत्युत्तर की अपेक्षा किये पहले से ही ‘नमस्कार‘ यह कहना चाहिये चाहे वह छोटा हो या बड़ा। नमस्कार शब्द ‘‘नमः करोमि‘‘ का संक्षिप्त रूप है जिसका अर्थ है ‘‘ प्रणाम करता हॅूं ‘‘ परंतु किसको, यह स्पष्ट नहीं रहता है । इसके पीछे भावना यह रखना चाहिये कि हम किसी के नाम, शरीर , आकार प्रकार या वेश भूषा को नहीं उसके भीतर बैठे परमपुरुष के स्वरूप को प्रणाम कर रहे हैं। अतः न तो जिस चाहे को चरणस्पर्शप्रणाम करना चाहिये और न ही जिस चाहे को आशीर्वाद देना चाहिये। अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर जिसके प्रति गहरी श्रद्धा हो उन्हें प्रणाम करने पर, उनके मौखिक आशीर्वाद कहने या सिर पर हाथ रखकर आशीर्वचन कहने का धनात्मक प्रभाव पड़ता है।

इंदु- आशीर्वचन तो अनेक प्रकार के होते हैं तो क्या सभी प्रकार के लोगों को उन्हें देने का अधिकार होता है?
बाबा- सामान्यतः प्रणाम करने वाले लोग अपने से वरिष्ठों या आदरणीयों को ही प्रणाम करते हैं और वे प्रायः प्रसन्न रहने या सुखी रहने का आशीर्वाद देते देखे गये हैं क्योंकि वे केवल भौतिक जगत तक ही अपना बौद्धिक स्तर रखते हैं। यदि किसी आध्यात्मिक रूप से उन्नत व्यक्ति को प्रणाम करने पर उनके द्वारा ‘कल्याणमस्तु‘ कहा जाता है तो  इसका अर्थ है भौतिक और मानसिक  क्षेत्र में प्रगति होने का आशीष, यदि वे कहते हैं ‘शुभमस्तु‘ तो इसका अर्थ होता है भौतिक ,मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर प्रगति होने का आशीष।

नन्दू- लेकिन वर्तमान में तो ‘नमस्ते‘ कहने या फिर हाथ मिलाने की पृथा का पालन जोर शोर से किया जाता है?
बाबा- ‘नमस्ते‘ का अर्थ है ‘तुमको प्रणाम‘ जिसमें व्यक्ति विशेष को इंगित किया जाता है इसलिये भावना उसके आकार प्रकार और शरीर पर सीमित हो जाती है इसलिये नमस्ते की तुलना में नमस्कार करना ही उचित है। यौगिक विज्ञान के अनुसार ‘नमस्ते या नमस्तुभ्यं‘ केवल ‘‘परमपुरुष‘‘ के लिये ही कहना चाहिये क्योंकि वे ही हमारे सर्वाधिक अपने हैं और उनका कोई आकार नहीं है तथा वे सर्वव्याप्त हैं। हाथ मिलाने से बचना चाहिये क्योंकि हाथों के संपर्क में आने से उनमें चिपके वेक्टेरिया और संस्कार एक दूसरे में हस्तान्तरित हो जाते हैं और शारीरिक तथा मानसिक रूप से अपना धनात्मक या ऋणात्मक प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं।

रवि- तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि सब कुछ अपने मन के केन्द्रित होने और निहित भावना पर ही निर्भर होता है?
बाबा- हाॅं, इसीलिये मैं बार बार तुम लोगों को अपने अपने मन को उन्नत विंदु पर केन्द्रित करने और अपने इष्ट का चिंतन करते रहने की सलाह देता रहता हॅूं। यह होते रहने पर न तो किसी के आशीर्वाद और वरदान की आवश्यकता होगी और न ही किसी के अभिशाप का भय।

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