Sunday 27 December 2015

40 बाबा की क्लास (संस्कार)

40 बाबा की क्लास (संस्कार)
नन्दू- बाबा! आपने अनेक बार अपनी वार्ता में ‘संस्कार‘ शब्द का उच्चारण किया है यह क्या है? क्या अन्य लोग जिन संस्कारों की बात करते हैं उनसे यह भिन्न होते हैं?

बाबा- नन्दू! अन्य लोग जिन संस्कारों के संबंध में बातें करते हैं वे केवल अच्छी आदतें और व्यवहार अर्थात् आचरण के अर्थ में ही होते हैं परंतु योगविज्ञान में संस्कार, प्रत्येक व्यक्ति के मन पर प्रत्येक क्षण उसके विचारों और क्रियाओं के द्वारा अंकित किये जा रहे प्रभावों अर्थात् (reactive momenta) को कहा गया है। चूंकि मन एक लगातार परिवर्तनशील क्रियात्मक अवयव है इसलिये उसमें इसके पूर्व की स्थितियों के सभी परिवर्तनों के परिणाम संचित रहते हैं क्योंकि प्रत्येक स्थिति अपने पूर्व की स्थितियों का परिणाम होती है। इन्हें ही संस्कार कहते हैं जो इकाई मन को संवेग (momentum) प्रदान कर आगे सक्रिय रखते हैं। 

रवि- फिर तो हम  आजीवन संस्कारों का ही निर्माण और भोग करते है?

बाबा- हाॅं! जिन संस्कारों के भोगने का अवसर आ जाता है तो उन्हें भोगना ही पड़ता है और जो नहीं भोग पाते उन्हें भोगने के लिये हमारा मन उचित अवसर तलाशता रहता है चाहे इसके लिये कितने ही जन्म क्यों न लेना पड़ें।

राजू- इनका प्रारंभ कब से होता है और ये कब समाप्त होते हैं, समाप्त होते भी हैं या नहीं क्योंकि आपके अनुसार यह तो जन्म जन्मान्तर तक चलने वाली प्रक्रिया है?

बाबा- चूॅंकि सभी प्रकार के पूर्व परिणामों, ब्रह्मचक्र अर्थात् संचर और प्रतिसंचर के लिये ब्राह्मिक मन  (cosmic mind) ही कारण होता है अतः इकाई मन को उसी का आकर्षण और अधिक त्वरित करता जाता है।  प्रकृति के सक्रिय होने के प्रथम विंदु से संचर क्रिया के अंतिम अर्थात् जड़ पदार्थों के निर्माण होने तक यह संवेग ब्रह्म मन के द्वारा ही दिया गया है। जिस प्रथम अवस्था में इकाई मन में  अहम तत्व और महत्तत्व नहीं था वहाॅं कोई संस्कार भी नहीं था और वह ब्रह्म चक्र के केन्द्र की ओर बढ़ता जा रहा था। पर  आगे की स्थितियों में जीव इकाई मन, पौधों और प्राणियों के रूपमें अपने में क्रमशः  अहं को विकसित करता गया जो उसकी मानसिक क्रियाओं को नियंत्रित करता रहा और इस प्रकार उसके संस्कार बनने लगे। इसी के उन्नत क्रम में मनुष्य आया जो प्रतिसंचर में बढ़ते हुए अपने दिव्य लक्ष्य परमपुरुष की ओर जाने के साथ साथ वापस विपरीत प्रतिसंचर और संचर मार्ग को भी अपना सकता है और मनुष्य से नीचे के प्राणी या निर्जीव के संस्कारों को भी अपने मन में ग्रहण कर संचित रख सकता है। इस प्रकार सामान्य जीव प्रकृति के सहारे प्रतिसंचर में आगे ही बढ़ता है क्योंकि उसका अहं बहुत कम होता है, पर मनुष्य का अहं अधिक होने के कारण वह आगे पीछे कहीं भी जा सकता है। 

रवि- तो क्या हमसब अपने पूर्व संस्कारों को भोगने के लिये ही जन्में हैं? यदि हाॅं, तो फिर हमारी भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति की चेष्टायें व्यर्थ ही हैं?

बाबा- पेड़ पौधे और पशु  अपनी प्रगति में प्रकृति के अनुसार ही चलते हैं उनका अपना स्वतंत्र इच्छायें या मत कुछ नहीं होता परंतु मनुष्य के स्तर पर जीव अपना स्वतंत्र विचार और इच्छायें रख सकते हैं इसीलिये वे अपने संस्कार निर्मित करते हैं और क्षय भी कर सकते हैं। आध्यात्मिक चेष्टायें सभी प्रकार के संस्कारों को क्षय करने और नये संस्कार जन्म न ले पायें इसीलिये ही की जाती हैं। 

इंदु- बाबा! यह सब कैसे होता रहता है?

बाबा-   प्रतिसंचर गति में इकाई संरचना को किसी वस्तु के साथ अपना साम्य स्थापित करने के लिये मानसिक और भौतिक तरंगों में संतुलन के साथ साथ प्राणों में संतुलन स्थापित होना अनिवार्य होता है इस संतुलन के अभाव में इनमें इकाई संरचना का स्थायित्व नहीं रह सकेगा। अतः इन मानसिक और भौतिक तरंगों के साम्य अथवा असाम्य होने पर संचर क्रिया में आगे उन्नति या पीछे की ओर अवनति होती है। जैसे किसी कुत्ते का मनुष्यों का सामीप्य पाने पर उसकी मानसिक तरंग दैर्घ्य  में बृद्धि होते  जाने पर एक स्तर पर वह अपने कुत्ते वाले शरीर के साथ संतुलन नहीं बिठा पायेगा और उसे उस शरीर को छोड़कर अन्य उपयुक्त और उन्नत तरंगदैर्घ्य  वाले शरीर को पाने की तलाश  करना होगी। इस प्रकार कुत्ता को उसके मन में उन्नत तरंग के स्थायी हो जाने पर मरना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि किसी मनुष्य की मानसिक तरंगे उसकी भौतिक देह के साथ संतुलन नहीं बना पाती तो उसका मानसिक शरीर भौतिक शरीर को त्याग कर उस शरीर को खोजने लगेगा जिसके साथ उसकी मानसिक तरंगों का संतुलन हो सके अतः वह अपनी मानसिक तरंगों के अनुसार आगे उन्नत मानव या नीचे अवनत पशु  या पेड़ के शरीर को पा सकता है।

राजू- तो क्या हम इस विज्ञान का जनसामान्य के लाभ के लिये भी उपयोग कर सकते हैं?

बाबा- बिलकुल, इसके लिये बहुत अभ्यास की आवश्यकता होती है। कहने का अर्थ यह है कि संस्कार जनित उन्नत तरंग दैर्घ्य  का अनुसरण, निम्न स्तर के जीव को उच्च स्तर पर और निम्न तरंगदैर्घ्य  के अनुसरण से उच्च स्तर का मनुष्य, निम्न स्तर के प्राणी की देह में चला जाता है। इस तरह एक डाक्टर यदि इस विज्ञान को जान कर किसी व्यक्ति को दवाओें के आधार पर उसकी भौतिक तरंगदैर्घ्यों  को संतुलन में लाकर बढ़ा दे तो उसका जीवन काल बढ़ा सकता है पर यदि उसने व्यक्ति की मानसिक शरीर की तरंगदैर्घ्य   में बृद्धि कर दी तो फिर वह उस मनुष्य को किसी और मनुष्य में बदल डालेगा। मिस्टर ‘‘एक्स‘‘ मिस्टर ‘‘वाय‘‘ हो जावेंगे। इसलिये शरीर के उचित संचालन के लिये मानसिक शरीर, भौतिक शरीर और प्राण इन तीनों में सुसंतुलन होना अनिवार्य है।

रवि- यह तो बड़ा ही विचित्र है! मुझे तो यही समझ में नहीं आ रहा कि यह सब जानकर अब हमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं?

बाबा- तुम लोगों को यह तो स्पष्ट हो गया है कि यह ब्रह्माॅंड सगुण ब्रह्म की मानसिक तरंगों का प्रवाह है जो संचर और प्रतिसंचर गतियों में लगातार गतिशील रह कर ब्रह्मचक्र (cosmic cycle) कहलाता है। हमारा जीवन केवल इसी जन्म और मृत्यु तक सीमित नहीं है वरन् वह ब्रह्मचक्र  के सभी स्तरों की पूर्वोक्त तरंगों अर्थात् स्पेस टाइम में बंधकर गेेलेक्सियों तारों और पंचभूतों के साथ पौधों और प्राणियों में से होता हुआ अभी इस मनुष्य स्तर पर आ पाया है और उसे अपने मूल उद्गम (origin) तक पहुॅंचना है तभी उसकी यह यात्रा पूरी होगी। मनुष्य के स्तर पर आकर यह स्वतंत्रता है कि या तो बचा हुआ रास्ता आगे बढ़कर पूरा करे या पीछे लौट कर इन्हीं जीवजंतुओं और पेड़पौधों में से होकर फिर से लाखों वर्षों तक ठोस द्रव गैस और प्लाज्मा अवस्थाओं में भटकता रहे। चूंकि यह जन्म पिछले लाखों जन्मों का परिणाम है अतः स्वाभाविक रूप से उन सबके अभुक्त संस्कारों (unrequited reactive momenta)  का बोझ हमें ढोते जाना होगा जब तक कि वे समग्रतः समाप्त नहीं हो जाते। यह संस्कार हमारे सोच विचार और कर्मों के अनुसार लगातार प्रत्येक क्षण बनते और क्षय होते रहते हैं। इन संस्कारों से मुक्त होना तभी संभव हो सकता है जब नये संस्कार बन ही न पायें और पुराने जल्दी से जल्दी समाप्त हो जायें। मृत्यु के समय जिस प्रकार के संस्कारों का समूह भोगने के लिये बचा रहेगा उसी के अनुसार अनुकूल अवसर आने पर ही प्रकृति हमें उस प्रकार का शरीर उपलब्ध करायेगी और तब तक हमें अपने संस्कारों का बोझ लादकर मानसिक शरीर या सूक्ष्म शरीर (luminous body) में रहते हुए ही आकाश (space) में भटकते रहना होगा। साधना ही वह प्रक्रिया है जिसका अनुसरण कर हम नये संस्कारों को जन्म लेने से रोक सकते हैं और पुराने संस्कारों को शीघ्रातिशीघ्र  समाप्त कर सकते हैं। संस्कारों के शून्य हो जाने पर हम वापस अपने असली घर में पहुंच जाते हैं जो देश , काल ( time and space) से मुक्त परमानन्द अवस्था है। साधना क्या है और कैसे की जाती है यह कौल गुरु ही सिखा सकते हैं वे बताते हैं कि किस प्रकार व्यक्ति विशेष के द्वारा, ब्राह्मिक भाव लेकर कार्य करने से नये संस्कार जन्म नहीं  ले पाते , किस प्रकार के इष्टमंत्र से पिछले सभी संस्कारों को अभ्यास द्वारा क्षय किया जाता है और हमारे इस मानव शरीर में प्रसुप्त देवत्व को जाग्रत कर हम कैसे अपने चिदानन्द स्वरूप को पा सकते हैं।

Sunday 20 December 2015

39 बाबा की क्लास (माया)

39
बाबा की क्लास (माया)
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रवि- बाबा! कुछ विद्वान लोग कहते हैं कि यह संसार ही मिथ्या है ये जो कुछ दिखाई देता है वह सब माया है, इसका क्या अर्थ है?

बाबा- जिन विद्वानों ने जगत को मिथ्या कहा है वे यह तब कह पाये जब उन्होंने आत्मसाक्षात्कार कर लिया। उन्होंने  इस अवस्था को  अनुभव किया और यह कहा कि ‘ब्रह्म सत्यम जगद्मिथ्या‘ अर्थात् ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या। इसे दर्शनशास्त्र  में मायावाद कहा गया है।

नन्दू- मेरी तो समझ के बाहर है, जो स्पष्ट दिखाई दे रहा है , जिसके अस्तित्व का हम आप और सभी अनुभव करते हैं उसे मिथ्या कैसे कहा जा सकता है?

बाबा- नन्दू ! तुम्हारा कहना गलत नहीं है। हमें पहले ‘सत्य‘ की परिभाषा को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये तभी तो असत्य या मिथ्या को समझ सकेंगे, ठीक है? सत्य क्या है, बताओ? नहीं जानते?

रवि- सत्य माने जो जैसा है वैसा ही और मिथ्या माने जो अपने मूलस्वरूप से भिन्न हो वह।

बाबा- ठीक कहा, ‘सत्य‘ अपरिवर्तनशील होता है, प्रत्येक स्थिति में एक सा, एकरस। परंतु ‘असत्य या मिथ्या‘ परिवर्तनशील होता है। जो अपरिर्विर्तत रहता है उसे निर्पेक्ष सत्य और जो परिवर्तित होता है उसे सापेक्षिक सत्य कहते हैं। तुम लोग जानते हो कि यह ब्रह्माॅंड उस एक ही 'परमसत्ता' के परम मन अर्थात् कास्मिक माइंड की विचार तरंगों के अलावा कुछ नहीं है अतः निर्पेक्ष या परमसत्य तो केवल परमपुरुष ही हैं अन्य सब का अस्तित्व उनके सापेक्ष ही है इसलिये यह जगत सापेक्षिक सत्य है परंतु अज्ञानवश  हम इसे निर्पेक्ष सत्य मानकर उसके स्वाभाविक परिवर्तनों से प्रभावित होकर सुख दुख का अनुभव करते हैं और मैं- मेरा तथा तू - तेरा के चक्कर में पड़ जाते हैं।

राजू- बाबा! परंतु विद्वान महापुरुषों  ने तो इसे स्पष्टतः मिथ्या कहा है और ‘माया‘ अर्थात् इल्यूजन कहकर दूर रहने का संदेश  बार बार दिया है।

बाबा- श्रुति में माया के सम्बन्ध में कहा गया  है ‘ घातना अघातना पतीयसी माया‘ अर्थात् ‘‘जो है, वह न होने और जो नहीं है, उसे होने जैसा अनुभव कराने वाली  सत्ता माया कहलाती है।" इस संसार में सभी कुछ निश्चित  समय के लिये ही अस्तित्व में रह पाता है परंतु हमें अनुभव यही होता है कि यह सब हमारे साथ सदा ही रहेगा यही भ्रम माया के नाम से जाना जाता है।

चंदू- बड़ी विचित्र बात है! हम हैं भी और नहीं भी, इसे कैसे समझें? इस जगत और माया को हम किस प्रकार समझ सकते हैं?

बाबा- इसीलिये तो निर्पेक्ष अवस्था का अनुभव करने वाले महापुरुष इसे मिथ्या कहने लगते हैं। जगत को दार्शनिकगण  ‘सापेक्षिक सत्य‘ कहते हैं जो विद्यामाया और अविद्या माया के द्वारा अपना अस्तित्व बनाये रखता है। यह वैसा ही है जैसे वृत्ताकार गति करने वाले किसी पिंड पर संतुलन बनाये रखने के लिये तुरंत दो बल सक्रिय हो जाते हैं एक केन्द्र की ओर अर्थात् सेन्ट्रीपीटल और दूसरा केन्द्र के बाहर की ओर अर्थात् सेन्ट्रीफ्यूगल। ब्रह्माॅंड के केन्द्र में परमपुरुष की ओर विद्यामाया और बाहर की ओर अविद्यामाया सक्रिय रहती है। हमें यह अष्ट पाषों और षडरिपुओं के जाल में उलझाकर अपने अस्तित्व को बनाये रखती है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य  इन आठों बंधनों और छहों शत्रुओं से लगातार संघर्ष करते हुए अपने मूल स्वरूप अर्थात् केन्द्र स्थित परमपुरुष की ओर लौट जाना है जहाॅं से कभी हम उनकी विचार तरंगों के रूप में  अर्थात् ब्रह्म चक्र में आये और सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म रूपों में लगातार चक्कर लगा रहे हैं।

इंदु- हमारे  छह शत्रु और आठ बंधन कौन कौन से हैं बाबा?

बाबा- शायद  तुम पिछली क्लासों में उपस्थित नहीं थीं , इसे पहले बताया जा चुका है ,फिर से समझ लो। मनुष्य का जीवन आठ प्रकार के बंधनों और छः प्रकार के शत्रुओं से घिरा रहता है ।  काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, और मात्सर्य ये षडरिपु और भय, लज्जा, घृणा, शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ये अष्ट पाश  है। षड रिपु का अर्थ है छै शत्रु, इन्हें शत्रु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता की ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्ट पाश  का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश  जैसे लज्जा, घृणा और भय ..  आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं।

रवि- जब इतने प्रबल शत्रु और बंधन सब के साथ हैं तो उन से कहाॅं तक संघर्ष किया जाये? अपने मूलस्वरूप में वापस हो पाना संभव ही नहीं है?

बाबा- ऐसा नहीं है रवि! इन से किया जाने वाला यही संघर्ष ही साधना करना या पूजा करना कहलाता है। अविद्या माया, विरोधात्मक बल उपरोक्त प्रकार से लगाती अवश्य है  परंतु वह हमारी आध्यात्मिक अग्रगति में सहायता करने के लिये ही यह करती है।  जैसे, धरती पर चलते समय घर्षण बल हमारी गति का विरोध करता है परंतु जब हम फिर भी आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं तो यही सहायक बन जाता है, यदि यह विरोध न हो तो हम आगे चल ही नहीं सकते । चिकने तल पर चलकर देखना यह तथ्य समझ में आ जायेगा। 

नन्दू- तो क्या हमें विद्यामाया का ही सहारा लेना चाहिये और अविद्यामाया से दूर रहना चाहिये?

बाबा- नहीं, केवल एक किसी के सहारे हमें अपने संघर्ष में सफलता नहीं मिल सकती । हमें सम्यक रूपसे अविद्यामाया की मदद लेते हुए विद्यामाया का साथ देना चाहिये। यदि हम  केवल विद्या की उपासना करेंगे तो जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें भोजन, वस्त्र ,आवास आदि कौन जुटायेगा? इन्हें आवश्यकतानुसार प्राप्त करने के लिये ही अविद्या का सहारा लेना पड़ता है । यदि केवल अविद्या की उपासना करेंगे तो यहीं फंसे रहेंगे । श्रुतियों में कहा गया है ‘‘ अंधं तमः प्रविश्यन्ति ये अविद्यामुपासते, ततो भूय ऐव ते तमो य उ विद्यायांरताः ।‘‘ अर्थात् जो केवल अविद्या की उपासना करते हैं वे अंधे कुए में ही अपने को फेकते हैं और जो केवल विद्या की उपासना करते हैं वे उससे भी अधिक गहरे अंधे कुए में अपने को फेक देते हैं। अतः स्पष्ट है कि सम्यक  अविद्या का उपयोग कर विद्या की उपासना करने से ही हम अपनी आध्यात्मिक प्रगति कर सकते हैं। इसलिये यह जगत मिथ्या नहीं सापेक्षिक सत्य है।

Wednesday 16 December 2015

38 संकल्प

संकल्प
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  ‘‘ अभी तक जितनी लड़कियाॅं देखीं हैं उनमें से जिसे कल देख कर आये हैं मुझे तो वह सबसे अच्छी व सुंदर लगी, अपने ‘हर्ष‘ को भी पसंद आई, दोनों इंजीनियर हैं एक ही कंपनी में काम भी करते हैं, एक सी सेलरी भी है, मैं तो कहती हॅूं आज ही लड़की वालों से आगे की बात कर  शुभ लग्न देखकर विवाह सम्पन्न कर दो, देरी करना उचित नहीं है‘‘
‘‘ मैं भी यही सोचता हॅूं।  यदि ‘हर्ष‘ का भी यही विचार है तो फिर मैं बात आगे बढ़ाता हॅूं।‘‘

‘‘ हेलो, पाॅंडे जी ! मैं त्रिपाठी,  हमें लड़की पसंद है, अब आगे की रूपरेखा के संबंध में बात करना है, यदि आप यहाॅं आ जायें तो अच्छा होगा‘‘
‘‘ ओहो, नमस्कार त्रिपाठी जी!, मैं आपके आदेश  का पालन करनें हेतु अभी आपके पास हाजिर होता हॅूं । ... ... ...

‘‘   आइये, आइये पाॅंडे जी! यहाँ  बैठिये।  - - -  वास्तव में, मैं यह जानना चाह रहा था कि आपका संकल्प क्या है?‘‘
‘‘ आदरणीय! मेरा संकल्प तो यह है कि, भगवान ने मुझे लड़कियाॅं ही दी हैं इसलिये उन्हें लड़कों के समान ही शिक्षित कर आत्मनिर्भर बना दॅूं, बस, धीरे धीरे वही पूरा करता जा रहा  हॅूं।‘‘
‘‘ अरे पाॅंडे जी! वह तो सभी करते हैं, मैं तो इस विवाह के संबंध में किये गये आपके संकल्प के बारे में पूछ रहा था अर्थात् कितना खर्च करने का विचार है?‘‘
‘‘आप ही बता दें कि आप कम से कम कितना खर्च करना चाहते हैं‘‘
‘‘  इस जमाने में दस से पन्द्रह लाख तो साधारण लोग भी खर्च कर देते हैं फिर हमारा स्तर तो,,, आप जानते ही हैं‘‘
‘‘ महोदय! जहाॅं तक मैं जानता हॅूं, ‘संबंध‘ का अर्थ है ‘सम प्लस बंध‘, अर्थात् दोनों परिवारों की ओर से प्रेम और आकर्षण के एक समान बंधन, इक्वल बाॅडस् आफ लव एन्ड अफेक्शन , इसलिये आप जो भी खर्च निर्धारित करेंगे हम दोनों परिवार बराबर बराबर बाॅंट लेंगे, ठीक है?‘‘
‘‘ अच्छा, पाॅंडे जी! फिर तो हमें इस विकल्प पर विचार करना पड़ेगा, नमस्कार!‘‘

Sunday 13 December 2015

37 बाबा की क्लास (उपवास)

बाबा की क्लास (उपवास)
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रवि-  बाबा! आज हमें उपवास के संबंध में बताईये यह क्या है, और इसका महत्व भी है या केवल प्रदर्शन  ही करते हैं लोग? 

बाबा- उपवास का अर्थ है निकट बैठना,( उप= निकट, वास = बैठना) । किसके निकट बैठना, ईश्वर  के निकट बैठना। समझे? परंतु , अधिकाॅंश  लोग उपवास का अर्थ निकालते हैं भोजन का त्याग करना और फलफूल खाना, या दिन भर भोजन त्याग कर रात में मन चाहा सुस्वादु भोजन करना। लेकिन इसे उपवास नहीं कह सकते क्योंकि केवल भोजन का त्याग करने को संस्कृत में कहते हैं ‘अनशन‘ या ‘निराहार‘, और भोजन त्याग कर केवल फलफूल खाने को कहते हैं ‘फलाहार‘।

नन्दू-  जब उपवास का अर्थ है ईश्वर  के निकट वैठना, तो भोजन के त्याग करने का कोई औचित्य ही नहीं है?

बाबा-  उपवास का सीधा संबंध स्वास्थ्य से है, मानव शरीर जीववैज्ञानिक मशीन है उसके प्रत्येक अंग को समय समय पर विश्राम देने के लिये भोजन का त्याग कर शरीर के पाचन तंत्र की सफाई करना आवश्यक होता  है। भोजन न करने पर अन्य सभी अंग आराम करते हैं और मन सक्रिय रहता है इसलिये उसे उचित आराम देने के लिये ईश्वर के  चिंतन में लगाकर उनके निकट बैठाना पड़ता है । इसलिये उपवासों के दिन ही  ईश्वर  चिंतन के लिये सर्वोत्तम दिन होते हैं। वास्तव में हम जो भोजन प्रतिदिन करते हैं उसका, पाचनतंत्र के विभिन्न अवयवों के द्वारा परिमार्जन किया जाकर मस्तिष्क के लिये उचित भोजन तैयार किया जाता है जो लसिका  या लिम्फ  कहलाता है। हमारे मस्तिष्क के ‘एक्टोप्लाज्मिक सैल‘ इसी से सक्रिय होते  हैं, इनकी संख्या पूरे ब्रह्माॅंड के कुल तारों की संख्या से अधिक होती है। इनकी आधी संख्या के बराबर न्यूरान होते हैं जो सोचने विचारने के लिये तथा आधे ‘ग्लायल सैल‘ कहलाते हैं जो न्यूरान्स को सक्रिय बनाये रखने में सहायता करते हैं। आधुनिक शोधों से पता चला है कि आइंस्टीन के स्तर के विद्वानों के ब्रेन सैल भी अधिकतम 9 से 10 प्रतिशत ही सक्रिय पाये गये हैं शेष उदासीन। इससे ही अंदाज लगाया जा सकता है कि जिनके शतप्रतिशत ब्रेनसैल सक्रिय होंगे वे इस दुनियाॅ में किस स्तर पर कहलायेंगे। इससे यह स्पष्ट होता है कि वह लिंफ ही है जिसका सदुपयोग कर हम अपने ब्रेन सैलों को अधिकाधिक संख्या में सक्रिय बना सकते हैं।

राजू-  तो बाबा! इसका अर्थ क्या यह नहीं है कि हमें अधिकाधिक भोजन करना चाहिये जिससे हमारे अधिक से अधिक ब्रेन सैल सक्रिय हो जायें ? भोजन आखिर क्यों त्यागा जाये?

बाबा- ऋषियों ने इस संबंध में एक और रहस्योद्घाटन किया है वह यह कि एक माह में जो भोजन हम करते हैं  उससे बनने वाले लिंफ को ये क्रमशः सक्रिय होते जाने वाले सैल पूरा उपयोग में नहीं ला पाते और चार दिन के भोजन से बनने वाले लिंफ के बराबर लिंफ अतिशेष हो जाता है जो पुरुषों में ‘सीमेन‘ के रूप में और महिलाओं में ‘ ओवा‘ के रूप में बदलकर नष्ट होता रहता है। इसी अतिशेष लिंफ को पूर्ण रूपेण लाभदायी बनाने के लिये माह में चार दिन उपवास करने का उपाय निकाला गया । इसके लिये प्रत्येक माह की दोनों एकादशियाॅं और अमावश्या  तथा पूर्णिमा को उपवासों के लिये उपयुक्त दिन माना गया है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक पक्ष की इन तिथियों के बीच चंद्रमा, पृथ्वी के अधिक निकट आ जाता है जो जलीयतत्व अर्थात  एक्वस फेक्टर  को आकर्षित करता है जिससे हमारे मन पर ज्वार भाटे जैसे उत्तेजक विचार आने लगते हैं। अतः उन दिनों यदि निर्जल उपवास रखा जाता है तो अतिशेष लिंफ सीमेन में नहीं बदल पायेगा और नष्ट होने से बच जायेगा तथा अन्य लिंफ सक्रिय ब्रेन सैल्स के द्वारा पूर्ववत  अवशोषित किया जाकर उपयोग में ले लिया जायेगा। नैष्ठिक ब्रह्मचारियों और संन्यासियों के लिये लिंफ की एक भी बूंद नष्ट नहीं होनें देनें के निर्देशों  का पालन करना होता है। ग्रहस्थों अर्थात् प्राजापत्य ब्रह्मचारियों को  इस अतिशेष लिंफ का ही उपयोग केवल संतानोत्पत्ति के लिये करने के निर्देश  हैं। वर्तमान युग के लोगों में विशेषतः युवा वर्ग में लिंफ के महत्व की जानकारी नहीं होती अतः अवांछित उत्तेजक विचारों के आने पर वे अनियंत्रित होकर अनैतिक और समाज विरोधी गतिविधियों में लग जाते हैं जिससे अपना जीवन तो नष्ट करते ही हैं वे समाज का भी अनेक प्रकार से अहित करते हैं।

चंदू-  बाबा! क्या उपवास करने के लिये किसी विशेष विधि का पालन करना भी निर्धारित है या नहीं?

बाबा- उपवास प्रारंभ करने और समाप्त करने के लिये भी विहित प्रक्रिया का पालन करना चाहिये, इसमें सूर्योदय से सूर्योदय तक भोजन और पानी का त्याग करना चाहिये परंतु यदि कोई बीमारी हो तो बीच बीच में  केवल जल पिया जा सकता है। जिस दिन उपवास करना हो उसकी पूर्व संध्या को आधा भोजन ही करना चाहिये। उपवास का पूरा दिन साधना और ईश्वर प्रणिधान में लगाना चाहिये जिसमें स्वाध्याय, चिंतन, मनन और निदिद्यासन भी बीच बीच में करते रहना चाहिये क्योंकि यही विधियाॅं हैं जो मन को ईश्वर  के अधिक निकट ले जाती हैं। उपवास तोड़ते समय दो या तीन नीबू हल्के गर्म, एक लिटर पानी में निचोड़ कर दो चम्मच नमक डालकर गुनगुने पानी को धीरे धीरे पूरा पी चुकने के आधे घंटे बाद फिर आधा लिटर सादा पानी पीने पर यदि टायलेट जाने की इच्छा न हो तो कुछ मिनटों में आधा लिटर सादा पानी और पीना चाहिये और टायलेट के आसपास ही चलते फिरते रहना चाहिये, अगले आधे घंटे में रुक रुक कर  तीन या चार बार टायलेट जाना पड़ सकता है जिसमें पेट का रुका हुआ सभी दूषित पदार्थ पानी की तरह पतला होकर बाहर हो जायेगा।  इसे डायरिया मानकर डरें नहीं।  जब स्वच्छ पानी की तरह यूरिन/शौच आने लगे  तब इसके बाद फिर टायलेट नहीं जाना पड़ेगा । स्नान कर दो या तीन केले खा लेना चाहिये और आधे घंटे के बाद हल्का भोजन खिचड़ी आदि ही लेना चाहिये, इसके एक दो घंटे बाद पूरा भोजन करना चाहिये। इस प्रकार पेट की सफाई हो जायेगी और ईश्वर  चिंतन भी , जो कि उपवास की परिभाषा के अनुकूल है।
इस प्रकार उपवास में लगभग 36 घंटे तक निराहार रहना पड़ता है परंतु जो इतनी लंबी अवधि तक नहीं रह सकते हैं वे कम सम कम 24 घंटे के अनुसार इस विधि को व्यवस्थित कर सकते हैं। 
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Sunday 6 December 2015

36 बाबा की क्लास (इष्ट मंत्र)

36 बाबा की क्लास (इष्ट मंत्र)
रवि- बाबा! आपने अनेक बार ‘मंत्र‘ और ‘इष्टमंत्र‘ इन शब्दों का उल्लेख अपनी चर्चाओं में किया है, क्या ये दोनों अलग अलग हैं? वास्तव में ये हैं क्या?

बाबा-  यह समग्र ब्रह्माॅंड विराट मन (cosmic mind)  की विचार तरंगों का प्रवाह है। इसलिये इसका प्रत्येक छोटा बड़ा घटक कंपनकारी है। इसके घटकों में स्वाभाविक विभिन्नता प्रकट करती है कि वे सब अपनी अपनी पृथक आवृत्तियाॅं (frequencies) अथवा तरंग लम्बाइयां  (wave lengths)  रखते हैं । प्रत्येक इकाई अस्तित्व की आवृत्ति उसकी मूल आवृत्ति  (fundamental frequency) या बीज मंत्र या इष्टमंत्र कहलाती है। यदि किसी इकाई मन  (unit mind)  को उसकी मूल आवृत्ति ज्ञात करा दी जाये और विराट मन की मूलआवृत्ति के साथ अनुनाद (resonance) स्थापित करने को कहा जाये तो वह समग्र ब्रह्माॅंड के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेगा और उस परमसत्ता के साथ अपना एक्य स्थापित कर लेगा। योगविज्ञान (spiritual science) इसी सिद्धान्त पर आधारित है। मंत्र वह है जिसके मनन करने से मुक्ति मिले, ‘‘मननात् तारयेत यस्तु सः मंत्रः प्रकीर्तितः‘ ।

चंदू- तो साधना करना क्या है? और आत्मसाक्षात्कार करना क्या है?

बाबा- कोई व्यक्ति जो परम सत्ता से साक्षात्कार करने का अभिलाषी होता है  उसे सक्षम गुरु द्वारा उसकी मूल आवृत्ति से परिचय कराया जाता है जिसे इष्टमंत्र कहते हैं, इष्टमंत्र की सहायता से अपने लक्ष्य और अभीष्ट को पाने के लिये किया जाने वाला प्रयास साधना करना कहलाता है और अपनी मूल आवृत्ति को विराटमन की आवृत्ति के साथ अनुनादित कर लेना आत्मसाक्षात्कार कहलाता है।

नन्दू- क्या इष्टमंत्र को विशेष प्रकार से बनाया जाता है या कोई निर्धारित विधि होती है?

बाबा- सक्षम गुरु किसी सुपात्र का चयन कर ही उसके संस्कारों के अनुकूल ऐंसा इष्टमंत्र चुनते हैं जिससे लक्ष्य की ओर जाने का स्पष्ट अर्थ निकलता हो , जो केवल दो अक्षरों का हो और उसे श्वाश प्रश्वाश   के साथ सरलता से जाप क्रिया में प्रयुक्त किया जा सकता हो। इसके बाद उसे शक्तिसंपन्न कर शिष्य को प्रदान करते हैं। इष्टमंत्र प्राप्त करने की यह क्रिया दीक्षा प्राप्त करना कहलाती है। इसके प्राप्त होते ही पिछले सभी जन्मों के संस्कार क्षय होना प्रारंभ हो जाते हैं ।

रवि- इष्टमंत्र की पहचान करना और उसे शक्तिसम्पन्न करना यह तो विरले गुरु ही कर पाते होंगे?

बाबा-  हाॅं, साधक के लिये सबसे महत्वपूर्ण उसका इष्टमंत्र ही है, उसी के चिंतन, मनन और निदिध्यासन से वह परम प्रकाश  पाता है। इष्टमंत्र प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता है जो उसके संस्कारों के अनुसार चयन किया जाकर सद्गुरु की कृपा से प्राप्त होता है। यह कार्य कौलगुरु ही करते हैं क्योंकि वे ही पुरश्चरण की क्रिया में प्रवीण होते हैं। पुरश्चरण का अर्थ है शब्दों को शक्ति सम्पन्न करने की क्षमता होना। अपने अपने इष्टमंत्र का  श्वाश प्रश्वाश  की सहायता से नियमित रूपसे जाप करते रहने का इतना अभ्यास करना होता है कि यह जाप नींद में भी चलता रहे। इस स्थिति को प्राप्त होने पर ओंकार (cosmic sound)  के साथ अनुनाद स्थापित करने में कठिनाई नहीं होती। अनुनाद की यही स्थिति जब स्थिर या स्थायी हो जाती है तो इसे ही समाधि कहते हैं। शक्तिमान शब्द  ही मंत्र कहलाते हैं जो कौलगुरु साधक को उसके संस्कारों के अनुसार इष्टमंत्र के रूप में कृपापूर्वक देते हैं और मंत्रचैतन्य हो जाने पर अर्थात् उपरोक्तानुसार ओंकार के साथ अनुनाद स्थापित हो जाने पर, उन्हीं की कृपा से परमपुरुष से साक्षात्कार होता है। जिसे सक्षम गुरु से इष्टमंत्र मिल गया वही धन्य है उसी का जीवन सफल है। अन्य सब तो प्रदर्शन मात्र है।