Monday 24 September 2018

214 ब्राह्मण

214 ब्राह्मण
सभ्यता के उद्गम के साथ ही ज्ञान की खोज बढ़ने लगी और जो भी व्यक्ति कुछ नया करता या कहता उसके सार्वजनिक महत्व का पाये जाने पर वह व्यक्ति समाज में अधिक महत्व पाने लगता। तात्कालिक इन्हीं महत्वपूर्ण अनुसंधानकर्ता व्यक्तियों को "ऋषि" कहा जाने लगा। ऋषियों के द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान कालान्तर में बढ़ने लगा और समयानुसार उनकी आयु समाप्त होने के बाद दूसरों के आने और प्राप्त ज्ञान को संग्रहित कर आगामी समाज को हस्तान्तरित करने का उपाय खोजा गया। उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हो पाया था अतः ऋषियों के द्वारा संग्रहित किए गए छन्दबद्ध ज्ञान को याद रखकर एक दूसरे में हस्तान्तरित करने के लिए एक ही छन्द को अनेक बार जोर जोर से उच्चारित कर दूसरे को सुनाया जाता जिसे सुनने वाला भी अनेक बार दुहराता और कुछ देर में उसे वह छन्द याद हो जाता। ये सत्य के वचन थे, ज्ञान के वचन थे अतः उन्हें जानकर तत्कालीन असंस्कृत लोग संस्कृति के प्रकाश की ओर बढ़ने लगे इसलिए उन्हें ‘वेद’ या ‘ज्ञान’ कहा गया।
वैदिक क्रिया ‘विद’ का अर्थ है ‘‘जानना’’ इस में ‘अल’ प्रत्यय जोड़ने से ‘वेद’ शब्द बनता है जिसका अर्थ है ‘‘ज्ञान’’। (शब्द ‘वेद’ का लिखित रूप देखकर कुछ स्वरविज्ञानियों का विचार है कि इसे ‘घञ’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है; तो भी, यही सही है कि उसे ‘अल’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है और वह पुल्लिंग है।) चूँकि लिपि के अभाव में उसे गुरु से मौखिक सुनकर याद रखा जाता था इसलिए उसका दूसरा नाम ‘श्रुति’ है। (श्रु + क्तिन = श्रुति; क्रिया ‘श्रु’ का अर्थ है सुनना, इसलिए श्रुति का एक अर्थ है ‘कान’  और इसीलिए कहा गया है कि जो कान से सुनकर याद रखा गया है वह है ‘वेद’) वेदों के सबसे पुराने भाग के प्रत्येक श्लोक को ‘ऋक’ कहा गया है, (ऋक् + क्विप =ऋक) । वैदिक क्रिया ‘ऋक’ का अर्थ है ‘ महिमामंडन करना ’ (गीत से या सामान्य भाषा में) ‘‘ऋक’’ का संस्कृत में अर्थ है ‘स्तवन’ करना। जब अनेक श्लोकों (ऋकों) को एक साथ रखकर किसी विचार को प्रदर्शित किया जाता, तो उसे कहा गया ‘सूक्त’ और अनेक सूक्तों को संग्रहित कर बनाया गया ‘मंडल’ ।

इस ज्ञान के लगातार बढ़ते जाने के कारण उसे  कालान्तर में यथावत संग्रहित बनाए रखने के लिए यह मान्यता बनायी गयी कि ‘‘ आवृत्तिः सर्वशास्त्राणां बोधादपि गरीयसी’’ अर्थात् समझ में आए या नहीं बार बार दुहराकर याद करना ही उचित है। अतः जिन्होंने वेदों के सभी छः अंगों, छन्द , कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, आयुर्वेद या धनुर्वेद को याद कर लिया वे ‘‘षडांगी’’ कहलाए। पहले केवल  एक ही वेद था ‘ऋग्वेद’ जिसमें ‘पण्डा’ प्राप्त करने को प्रोत्साहित किया गया है, ( ‘‘ पण्डा ’’ = अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिः सा पण्डा, अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिर्तामितः प्राप्तः पण्डितः।’’ अर्थात् ‘ मैं ब्रह्म हॅूं ’ इस प्रकार की बुद्धि कहलाती है पण्डा; जिसकी इस प्रकार की बुद्धि हो चुकती है वह कहलाता है पण्डित, और जो इस प्रकार की बुद्धि को पाने का जी जान से प्रयास करता है वह है "पाण्डेय, अपभ्रंश पांड़े "।) इस एक वेद को याद कर लेने वाले पण्डा या ‘पाण्डेय’, दो वेदों (ऋक, और यजुः) को याद कर लेने वाले ‘द्विवेदी’ या दुबे, तीन वेदों (ऋक, यजुः, अथर्व) को याद कर लेने वाले ‘त्रिवेदी’ या तिवारी और चारों वेदों (ऋक, यजुः, अथर्व और साम ) को कण्ठाग्र कर लेने वाले ‘चतुर्वेदी’ या चौबे  कहलाने लगे। ऋग्वेद के बाद यजुर्वेद की ऋचाएं भी कालक्रम से अधिक हो गईं अतः उसे दो भागों (कृष्ण और शुक्ल) में बाॅंट दिया गया । वास्तव में कृष्ण यजुर्वेद का विवरण अस्त व्यस्त था इस कारण उसे पुनः व्यवस्थित किया गया जिसे शुक्ल यजुर्वेद कहा गया । शुक्ल यजुर्वेद के ज्ञाता ‘शुक्ल’ कहलाए। आगे चलकर यह समस्या आई कि वेदों को याद कर लेने वालों की संख्या तो बहुत बढ़ गयी परन्तु उन्हें सही अर्थ देकर समझाने वाले नहीं बचे। अतः व्याकरण विशेषज्ञ, जो पाॅंडे, दुबे आदि से वेदपाठ सुनकर उसकी विस्त्रित व्याख्या करते वे "त्रिपाठी" कहलाए।

वेदों में ‘यज्ञ’ करना शुभ कर्म माना जाता था। यज्ञ का उद्भव कर्म से होता है, यज् + न =यज्ञ, अर्थात् क्रियाएं । इसलिए, हम जो भी करते हैं वह यज्ञ है। इन शुभ कर्मों को सम्पन्नता, प्रभाव और प्रकाण्डता से संबद्ध करते हुए कालान्तर में इन्हें अनेक प्रकार के नामों से जाना गया जैसे, अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ, वाजपेय यज्ञ आदि। ये यज्ञ, धन और बल सम्पन्न लोगों अर्थात् राजाओं के द्वारा किये जाते थे जिससे वे अपने धन और पराक्रम की प्रतिष्ठा को जनसामान्य में स्थापित किया करते थे। जो वेदज्ञ  जितने प्रकार से यज्ञ कराया करते उन्हें भी वैसा ही सामाजिक महत्व प्राप्त होता। कोई समृद्धिशाली व्यक्ति चतुर्दिक कीर्ति और यश की कामना करता तो वह अश्वमेध यज्ञ करके चक्रवर्ती सम्राट कहलाता, अन्य अपेक्षाकृत कम सामर्थ्य  और क्षेत्र के प्रतिनिधित्व वाला होता परन्तु वह अपने क्षेत्र में अपनी प्रतिष्ठा और यशकीर्ति को बनाए रखने और राज्य का विस्तार करने के लिए राजसूय यज्ञ या वाजपेय यज्ञ करता । यज्ञों को करने के समय और  बाद में जनसाधारण को अन्न, धन और अन्य वाॅंछित सामग्री भेंट की जाती थी जिससे राजसिक और गैरराजसिक सभी प्रकार के लोग आनन्द मनाया करते । अपनी अपनी सामर्थ्य  के अनुसार ये यज्ञ एक वर्ष, आधे वर्ष या एक माह तक किए जाते। राजाओं के यज्ञ सम्पन्न कराने वाले "राजपुरोहित", वाजपेय यज्ञ करने और कराने वाले "वाजपेयी", और जो सभी प्रकार के यज्ञ सम्पन्न कराते थे वे "मिश्र" कहलाए। इन विशेषज्ञों से अपने अपने क्षेत्र में प्रशिक्षण प्राप्त कर दक्ष हुए विद्वान "दीक्षित" कहलाए। प्रशिक्षण देने वाले विशेषज्ञ "आचार्य" और जो आचार्यों के मार्गदर्शन में अन्य जिज्ञासुओं को सिखाया करते वे "उपाध्याय " कहलाए। वेदों में प्रधानतः जिस शिक्षा पर बल दिया गया है वह है आत्मोपलब्धि अर्थात् अपने आप को जानना, अर्थात् ‘पण्डा’ को प्राप्त करना, अनुभव करना । जिन्हें यह पण्डायुक्त बुद्धि प्राप्त हो जाती वे तो पण्डित कहलाते और जो प्राप्त करने के लिए अभ्यास करते रहते वे पाण्डेय; परन्तु वे जो इनके बीच की किसी विशेष उन्नत अवस्था को पाकर ही आनन्दित होते उन्हें "अवस्थी" कहा जाता। कालान्तर में साधना जगत में आगे बढ़ रहे ऋषियों और गुरुओं ने अपने अपने आश्रम या गुरुकुल जिन्हें उस समय चतुष्पाठी कहा जाता था, बनाकर शिक्षा देना प्रारम्भ की, तब उनसे शिक्षा प्राप्त कर निकले विद्वान आपने को अपने गुरुओं के नाम से ही परिचय देने लगे। इस तरह, गर्ग, गौतम, कात्यायन, शाण्डिल्य, वशिष्ठ, भरद्वाज, भृगु या भार्गव, आदि अनेक प्रकार के ब्राह्मण या तो अपने गुरुओं या फिर निवास स्थानों के नाम से भी अपनी पहचान बताने लगे।
ज्ञान की उच्चतम अवस्था में सभी ने एक मत से स्वीकार किया कि इस समस्त दृश्य या अदृश्य प्रपंच का निर्माणकर्ता एक अद्वितीय परमचैतन्यसत्ता है, जिसे ‘‘ ब्रह्म’’ (अर्थात् जो बहुत बड़ा है तथा उसके सम्पर्क में आने वालों को भी बड़ा बना देता है) नाम से उच्चारित किया गया और यह भी कि जब वह परमसत्ता इस प्रपंच को रचने लगता है तब उसे ‘ब्रह्मा’ तथा रचित प्रपंच को ‘ब्रह्माण्ड’ कहा गया। इसीलिए वे शोधकर्ता ऋषिगण जो ब्रह्म का साक्षात्कार करने का प्रयत्न करने लगे वही "ब्राह्मण" कहलाए। वेदान्त के प्रवर्तक प्रकाण्ड विद्वान  शंकराचार्य (788-820) ने ब्राह्मण कौन है इस सम्बंध में लिखा है:-
‘‘ यं न सन्तं न चासन्तं न श्रुतं न वहुश्रुतं, न सुबृत्तं न दुर्बृत्तं वेद कश्चित स ब्राह्मणः।
 गूढ़ धर्माश्रितो विद्वान अज्ञात चरितं चरेत्, अन्धवत् जड़वत् चापि मूकवत् च महिं चरेत्।’’
(अर्थात् , जो न तो सन्त है और न ही असन्त है, न अज्ञानी है और न ही बहुत ज्ञानी है, न ही बहुत ही अच्छी वृत्तियों वाला है और न ही बुरी वृत्तियों वाला है उसे ब्राह्मण कहा जा सकता है । वह गम्भीरता से आडम्बर रहित धर्माचरण करता है और धरती पर चलते समय मौन रहकर अन्धे व्यक्ति जैसा रहता है।)

परन्तु आज, मुख्यतः विचारणीय बात यह है कि अपने को वेदों के ज्ञान, ऋषियों की संतान , यज्ञों और गुरुओं के नाम से प्रसिद्ध उपनाम देते हुए ‘पण्डित और ब्राह्मण’ कहने वाले कितने लोग अपने आचरण और ज्ञान से यथार्थतः पूर्वोक्त व्याख्या के अनुसार सही सिद्ध होते हैं ? 

Monday 17 September 2018

213 यज्ञ

213 यज्ञ
श्रीमद्भग्वदगीता में कहा गया है ‘‘ यज्ञः कर्म समुद्भवः (3/14)’’ अर्थात् यज्ञ का उद्भव कर्म से होता है। यज् + न = यज्ञ, अर्थात् क्रियाएं। हम जो भी करते हैं वह यज्ञ है। क्रिया का उद्गम कहाॅं से होता है? मन से। मन ही सभी कार्य करता है, ज्योंही मन में कोई विचार आता है उसके संवेदन ही बाहरी संसार में कार्य के रूप में प्रकट होते हैं। जब भी कोई कार्य होता है उससे पहले उसके सम्बन्ध में विचार मन के भीतर आते हैं इसीलिए कर्म या यज्ञ को मनोभौतिक कहा जाता है। कोई व्यक्ति कर्म के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। ‘मुक्ति’ का इसीलिए मतलब है सभी प्रकार के यज्ञ या कर्म से छुटकारा पाना। सामान्यतः चार प्रकार के यज्ञ होते हैं, भूतयज्ञ, नृयज्ञ, पितृयज्ञ और आध्यात्म यज्ञ। इनमें से प्रथम तीन मनोभौतिक होते हैं क्योंकि इनके स्पन्दन पहले मन में आते हैं और फिर भौतिक जगत में कर्म के रूप में दिखाई देते हैं। चौथा  अर्थात् ‘आध्यात्मिक यज्ञ’ पूर्णतः आन्तरिक होता है। जैसे, किसी को कुछ भी दान देने के पहले विचार मन में आते हैं फिर, हाथ उसे देने के लिए आगे बढ़ते हैं ; अतः, मनोआत्मिक यज्ञ का क्षेत्र मन के भीतर होता है जबकि आध्यात्मिक यज्ञ का उद्गम क्षेत्र आत्मा से होता है और आत्मा के भीतर ही समाप्त हो जाता है।
(1) भूतयज्ञ- इसका अर्थ है इस संसार में आकार लेने वाले प्रत्येक अस्तित्व की सेवा करना। जैसे, पेड़ पौधों को पानी देना, पशुओं की सेवा करना, सबके कल्याण करने हेतु वैज्ञानिक अनुसन्धान करना। भूत का अर्थ होता है इस संसार का प्रत्येक अस्तित्व। अॅग्रेजी में जिसे ‘घोस्ट’ या ‘स्प्रिट’ कहते हैं उसका संस्कृत में समानार्थी है ‘‘प्रेत’’। ( यहाॅं ध्यान रखने की बात यह है कि ‘घोस्ट’ या ‘प्रेत’ का कोई अस्तित्व नहीं होता वह पूर्णतः मन की भावना को मन पर अध्यारोपण करने का बाहरी प्रक्षेप होता है, ‘अभिभावनात् चित्ताणुसृष्ट प्रेतदर्शनम्।’)

(2) नृयज्ञ- मनुष्यों के लिए किए गए सेवा कार्य इसके अन्तर्गत आते हैं। यह भूतयज्ञ का ही भाग है। ये चार प्रकार के होते हैं, शूद्रोचित, वैश्योचित, क्षत्रियोचित और विप्रोचित। संसार की सेवा इस भौतिक शरीर से करना शूद्रोचित सेवा के अन्तर्गत आता है जैसे, अपने सुखों का त्याग कर दूसरों को सुख पहॅुचाना, दूसरों के दुखों को दूर करना, रोगियों की सेवा करना इसी के अन्तर्गत आता है। किसी को भोजन, रुपया पैसा, आदि देकर सहायता करना वैश्योचित सेवा कहलाती है। अपने जीवन को भी कष्ट में डालकर दूसरों के जीवन की रक्षा करने का कार्य क्षत्रियोचित सेवा के अन्तर्गत आता है। विप्रोचित सेवा वह है जिसमें अपने आध्यात्मिक ज्ञान के अनुभवों से दूसरों को लाभान्वित करते हुए उन्हें वह ज्ञान देकर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

स्पष्ट है कि शूद्रोचित सेवा समाज की रीढ़ की हड्डी है। जो शूद्रोचित सेवा को कमतर आॅंकते हैं वे न तो वैश्योचित, न ही क्षत्रियोचित और न ही विप्रोचित सेवा कर सकते हैं। इसलिए यदि कोई अपने को विप्र कहता है तो उसमें ये चारों गुण होना चाहिए। यद्यपि सभी प्रकार की सेवाओं का एकसमान महत्व है फिर भी विप्रोचित सेवा की भव्यता विशेष मानी जाती है क्योंकि वह सीधे आध्यात्म यज्ञ से जुड़ी होती है। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी सेवा हो वह समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार ही महत्व पाती है। मानलो कोई पथिक कष्ट में पड़कर अकेले स्थान में मरने की स्थिति में आ पहुॅंचा हो तो उस समय विप्रोचित सेवा करना व्यर्थ होगा, इस अवस्था में शूद्रोचित सेवा (अर्थात् देखरेख और चिकित्सा की व्यवस्था) करना ही उत्तम होगी। भूख से मरने वाले को क्या करोगे? भाषण दोगे? या चिकित्सा करोगे? नहीं। उसे भोजन देकर उसके जीवन को बचाया जा सकता है अतः वैश्योचित सेवा का ही यहाॅं अधिक महत्व होगा। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि किसी असहाय व्यक्ति को किसी दुष्ट के द्वारा प्रताड़ना दी जा रही है तो न तो उसे ज्ञानोपदेश, न ही भोजन और न ही सुश्रुषा काम आयेगी, उसे तो क्षत्रियोचित सेवा के द्वारा बचाया जाना ही अधिक महत्वपूर्ण होगा। दूसरी ओर, किसी शराबी की शूद्रोचित सेवा करना या रुपया देकर वैश्योचित सेवा करना किसी मतलब का नहीं होगा क्योंकि इससे वह और प्रोत्साहित होगा और शराब पीना नहीं छोड़ सकेगा। उसे मारना पीटना भी बेकार जाएगा क्योंकि वह उस स्थान को छोड़कर कहीं और जाकर शराब पिएगा। उसे दृढ़तापूर्वक क्षत्रियोचित सेवा के साथ साथ विप्रोचित सेवा (नीतिवचन या वाक्य दंड) दिया जाना ही सार्थक होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अलग अलग परिस्थितियों में अलग अलग सेवाओं का महत्व है परन्तु अन्य तीन की तुलना में विप्रोचित सेवा का प्रभाव स्थायी होता है। परिस्थितियाॅं चाहे जो भी हों सेवा करते समय हमें दूसरों को धोखा देने से बचना चाहिए । यह तभी हो सकता है जब हम सेवा किए जाने वाले प्रत्येक प्राणी को नारायण का ही रूप मानकर सेवा करेंगे। इसके लिए सेवा करने से पहले सच्चाई से मन में यह विचार लाना होता है कि ‘ हे नारायण ! मेरी सेवा को स्वीकार कर कृतार्थ करें ; आपने कृपापूर्वक मुझे इस रूप में सेवा करने का मूल्यवान अवसर प्रदान किया है।’ इस भावना से किए गए सेवा कार्य से कर्मबन्धन भी नहीं होगा और धोखा देने का विचार भी नहीं आएगा। कर्मबन्धन में बँधने का मुख्य कारण होता है धोखा देना और यश कीर्ति पाने के लिए लालायित होना। मानलो किसी व्यक्ति ने किसी संस्था को दस हजार रुपए दान दिए, अगले ही दिन से वह न्यूज पेपर में अपना नाम छपे होने की प्रतीक्षा उत्सुकता से करने लगेगा, जब उसका नाम पेपर में नहीं दिखेगा तो अपने सम्बँधियों सहित दूसरों से कहने लगेगा ‘‘ मैंने दस हजार रुपए दान में दिये परन्तु मैं कोई प्रचार नहीं करना चाहता था इसलिए पेपर वालों को नाम छापने से मना कर दिया था ’’; यह क्या है? यह सेवा भावना से की गई सेवा नहीं है उल्टे स्वयं को धोखा देना ही है। अतः इसका कर्मबन्धन होगा और फल भोगना ही पड़ेगा।

(3) पितृयज्ञ- इसका अर्थ है पूर्वजों, ऋषियों और सन्तों का स्मरण करना। जब तक कोई भी मनुष्य अपना शरीर धारण किए रहता है वह अपने पूर्वजों का ऋणी रहता है। वे जो सन्तों और ज्ञानियों से उचित शिक्षा पाकर अपने और समाज को मुक्ति के मार्ग पर ले जाने का कार्य करते हैं वे उनके ऋण से मुक्त हो जाते  हैं। ऋषि वे हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता और  अनुसन्धानों से समाज को अनेक प्रकार से भौतिक और आध्यात्मिक लाभ और सुविधाएं प्राप्त हुई हैं। जो विध्वंसात्मक हथियारों का निर्माण और अनुसन्धान करते हैं उन्हें ऋषि नहीं कहा जा सकता। इन कल्याणपरक पूर्वजों को  आदर सहित स्मरण करना ही पितृयज्ञ कहलाता है।

(4) आध्यात्मिक यज्ञ- यह आन्तरिक क्षेत्र से जुड़ा होता है जिसके करने की ऊर्जा आत्मा के क्षेत्र से निकलकर मानसिक क्षेत्र में आती है और मन साधना कर्म करने लगता है । ये सब अन्ततः आत्मा में ही समाप्त होते हैं। आध्यात्मिक यज्ञ निवृत्ति से तथा भूत, नृ और पितृ यज्ञ निवृत्ति/प्रवृत्ति दोनों से जुड़े होते हैं । आध्यात्मिक यज्ञ में, परमात्मा के प्रति निस्पृह प्रेम और समर्पण के साथ ईश्वर प्रणिधान करते हुए अपना ‘‘मैंपन’’ उन्हें अर्पित करना होता है, किसी बाहरी वस्तुओं जैसे फूल, चन्दन, घी या अन्य कीमती वस्तुओं को अग्नि में जलाने का कोई महत्व नहीं है। उत्तम खाद्य पदार्थों को अग्नि में जलाने के स्थान पर उन्हें, उन कमजोर और भूखे लोगों में बाँट देना अधिक उचित होता है जिन्हें सचमुच उनकी आवश्यकता होती है अन्यथा दुरुपयोग ही माना जाएगा। जहाँ तक यज्ञ में घी जलाकर वर्षा उत्पन्न करने का प्रश्न है वह भ्रामक है, सही बात यह है कि वैज्ञानिक शोध ‘भूतयज्ञ’ के अन्तर्गत आते हैं अतः नये शोध कर वाॅंछित स्थानों पर कित्रिम वर्षा कर लाभ उठाया जा सकता है। आध्यात्मिक यज्ञ पूर्णतः आन्तरिक होता है उसमें धन सम्पदा का कोई महत्व नहीं है, इनका उपयोग केवल भूत, नृ और पित्रयज्ञ में ही होता है । प्रत्येक स्तर पर निस्वार्थ प्रेम का होना अनिवार्य होता है अन्यथा सभी प्रकार के यज्ञ निरर्थक हो जाते हैं। कुछ लोग त्याग करने या बलिदान करने को यज्ञ कहते हैं परन्तु त्याग या बलिदान करने का सही अर्थ यह है कि दूसरों की सेवा करने के लिए अपने सुख सुविधाओं का त्याग करना न कि पशुओं की हत्या करना। इस प्रकार परमात्मा में एकीभाव होकर ब्रह्म रूपी अग्नि में, ब्रह्म रूपी हविः को, ब्रह्म  रूपी कर्ता द्वारा जो हवन किया जाता है वह सभी कुछ ब्रह्म ही है, आध्यात्म यज्ञ यही है ; यह भावना ही ब्रह्मोपलब्धि कराती है जो मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। इस विवरण से स्पष्ट है कि विभिन्न सांसारिक भौतिक वस्तुओं से सम्पन्न किए जाने वाले भूतयज्ञों की तुलना में ज्ञानयज्ञ ही श्रेष्ठ है । अतः ज्ञानयज्ञ के द्वारा सभी संशयों से मुक्त होकर परमात्मा का साक्षात्कार सम्भव हो पाता है अन्य सब केवल आडम्बर की श्रेणी में आता है।

Sunday 9 September 2018

212 श्रीमद्भग्वद्गीता का प्रथम श्लोक

212 श्रीमद्भग्वद्गीता का प्रथम श्लोक
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे  कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।
सामान्यतः इसका अर्थ ‘‘ धृतराष्ट्र बोले, हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?’’ किया जाता है।
परन्तु हमारे पितामह (अर्थात् बाबा) ने हम लोगों को इसे इस प्रकार समझाया है:-
(1) धृतराष्ट्र = धृत + राष्ट्र । धृत = धारण करना। राष्ट्र = संरचना अर्थात् स्ट्रक्चर। अर्थात् जो आपकी संरचना को धारण किए हुए है वह धृतराष्ट्र । धृतराष्ट्र कैसा था? जन्माॅंध। आपकी शारीरिक संरचना को धारण करने वाला कौन है ? आपका मन। मन कैसा है अन्धा, वह इन्द्रियों की सहायता बिना कुछ भी अनुभव नहीं कर सकता। उवाच = बोलना, पूछना । तो ‘धृतराष्ट्र उवाच’ का अर्थ हुआ ‘‘ मन ने पूछा’’ ।
(2) धर्मक्षेत्र = धर्म = लाक्षणिता अर्थात् केरेक्टरिस्टिक्स और क्षेत्र = मैदान, एरिया। इसलिए धर्मक्षेत्र का अर्थ हुआ जो सभी प्रकार के लक्षणों से भरा हुआ है वह एरिया अर्थात् यह शरीर, यह आन्तरिक मानसिक संसार।
(3) कुरुक्षेत्र = कुरु = करना और क्षेत्र = मैदान । इसलिए कुरुक्षेत्र का अर्थ हुआ वह मैदान जो कह रहा है कि कुछ करो, कुछ करो अर्थात् सम्पूर्ण धरती, यह कर्म संसार।
(4) समवेता = एकत्रित हुए ।
(5) युयुत्सवः = युद्ध की इच्छा से।
(6) मामकाः = मेरे पुत्रों । अर्थात् जन्माॅंध धृतराष्ट्र के 100 पुत्रों; यहाॅं जन्माॅंध धृतराष्ट्र कौन है? ‘मन’। मन के एकसौ पुत्र कौन से हैं? मन, पाॅच ज्ञानेन्द्रियों ( आॅंख , कान , नाक , जीभ और त्वचा) और पाॅंच कर्मेद्रियों ( हाथ, पैर, वाक्, उपस्थ और पायुः) की सहायता से दसों दिशाओं ( पूर्व, पश्चिम , उत्तर दक्षिण, ऊर्ध्व  और अधः ये छः दिशायें और ईषान, आग्नेय, वायव्य, और नैऋत्य ये चार अनुदिशायें ) में कार्य करता है इसलिए 10 गुणित 10 बराबर 100 , ये धृतराष्ट्र के पुत्र हैं।
(7) पाण्वाश्चैव = पाण्डवाः + च + इव अर्थात् और पाण्डु के पुत्रोें ने ही। पॅडु = पॅंडा = अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिः सा पॅंडा, अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिर्तामितः प्राप्तः पंडितः । अर्थात् ‘ मैं ब्रह्म हॅूं ’ इस प्रकार की बुद्धि कहलाती है पॅडा; जिसकी इस प्रकार की बुद्धि हो चुकती है वह कहलाता है पंडित, और जो इस प्रकार की बुद्धि को पाने का जी जान से प्रयास करता है वह है पाॅंडेय, अपभ्रंश पांड़े या पाॅडु। अब, पाॅंडु के पुत्र पाण्डव कौन हैं? शरीर की रचना करने वाले पँच तत्व पाॅंडव हैं। सहदेव, ठोस अवस्था या पृथ्वी तत्व (अर्थात्, मूलाधार चक्र) जो कि सभी को अपने साथ रखता है। नकुल, ‘यस्य कुलं नास्ति’ (स्वाधिष्ठान चक्र) अर्थात् जलतत्व । अर्जुन, अग्नितत्व अर्थात् ऊर्जा को प्रदर्शित  करते हैं अर्थात् (मनीपुर चक्र्)। भीम, पवनपुत्र, वायुतत्व अर्थात् (अनाहत चक्र) । और, विशुद्ध चक्र या व्योमतत्व को युधिष्ठिर प्रदर्शित  करते हैं। विशुद्ध चक्र तक भौतिक संसार समाप्त हो जाता है और आध्यात्मिक संसार प्रारंभ हो जाता है। इसलिये भौतिकवादियों और आध्यात्मवादियों अर्थात् स्थूल और सूक्ष्म के बीच में होने वाले झगड़े में युधिष्ठिर स्थिर रहते हैं। युद्धे स्थिरः यः सः युधिष्ठिरः।
(8) किमकुर्वत = किम् + अकुर्वत् = क्या किया ?
(9) संजय = विवेक (अर्थात् कन्साइंस)। अँधा मन विवेक की सहायता के बिना कुछ निर्णय नहीं कर सकता।

अब देखिए, ‘परमपुरुष कृष्ण’ अर्थात् ‘‘कास्मिक काॅन्ससनैस’’ सहस्त्रार में  बैठे हैं और ‘जीवात्मा’ अर्थात् ‘‘यूनिट काॅन्ससनैस’’ मूलाधार में कुन्डलनी के आकार में हैं। यह इकाई चेतना अर्थात् जीवात्मा, पाॅंडवों की सहायता से कृष्ण तक पहुॅंचना चाहता है परन्तु अँधे मन धृतराष्ट्र के सौ पुत्र उन्हें रोककर इसी बाहरी संसार में फॅसाए रखना चाहते हैं। इसलिए इनका युद्ध धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के साथ लगातार चल रहा है। जिन्होंने विवेक का उपयोग कर अपना इष्टमंत्र जानकर, रास्ता पहचान लिया है वे पंचतत्वों की सहायता से उचित रास्ता पाकर, राजमार्ग ( सुसुम्ना मार्ग) का अनुसरण करते हुए सहस्त्रार पर स्थित कृष्ण के पास जा पहुँचते हैं और उन्हें ही विजयी माना जाता है। अन्यथा, महाभारत तो सब के साथ रोज ही चल रहा है। महाभारत का असली रहस्य यही है।
इसलिए, श्लोक में अंधे धृतराष्ट्र, विवेकी संजय से पूछते हैं कि मेरे और पाण्डु के पुत्रों के बीच होने वाले युद्ध में क्या हुआ?

Sunday 2 September 2018

211 महासम्भूति कृष्ण और कुन्डलनी साधना

211 महासम्भूति कृष्ण और कुन्डलनी साधना

श्रीकृष्ण वास्तव में आध्यात्मिक सत्ता हैं परन्तु साधारण जनता उन्हें मानव शरीर में देखती है क्योंकि वह भौतिक सत्ताओं को भी नियंत्रित करते हैं। ब्रह्माॅंड में विभिन्न संरचनाओं केे अलग अलग उपकेन्द्र होते हैं परन्तु मूल केन्द्र एक ही होता है । मानव अस्तित्व का बड़ा भाग मानसिक होता है और अल्प भाग शारीरिक। अविकसित मनुष्य तो स्वयं एक समस्या होता है। मनुष्य शरीर होने से ही कोई मनुष्य नहीं कहला सकता उसे मन से भी यथार्थ  मनुष्य होना चाहिए। सभी उपकेन्द्र और विश्व के प्राणकेन्द्र का नियंत्रण और परिचालन स्वयं श्रीकृष्ण के द्वारा होता है परन्तु प्रत्येक उपकेन्द्र में वह स्वयं नहीं होते। मनुष्य के सम्पूर्ण शरीर का नियंत्रक है सहस्त्रार चक्र। चाहे एक कोशीय जीव हो या बहुकोशीय , प्रत्येक का उपकेन्द्र उसके भावात्मक चक्रों के केन्द्र में  होता है और उसके स्नायु तन्तुओं और स्नायु कोशों को प्रस्तुत करता है। यह स्नायु तन्तु और स्नायुकोश क्रमशः मन को प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार स्थूल मन, सूक्ष्म मन को प्रस्तुत करता है।

कभी कभी व्यक्ति के मन के साथ आत्मा अर्थात् काॅस्मिक कान्शसनैस का संज्ञान सम्पर्क  स्थापित हो जाता है, जितना अधिक यह संज्ञान संपर्क होता है उतना ही अधिक उसमें आध्यात्मिक साधना के प्रति निष्ठा जमती है। साधक और असाधक में यही अन्तर है। भूमा चैतन्य अर्थात् कॅास्मिक कान्शसनैस के साथ मन के इसी संयोग को अधिकाधिक दृढ़ करने की प्रचेष्टा को ही ‘‘योग’’ कहते हैं। चूँकि  विभिन्न चक्रों के नियंत्रण बिन्दु अलग अलग होते हैं अतः साधना की दो दिशाएं हैं, पहली हार्मोन के निःसरण  की सहायता से नियंत्रण बिन्दुओं को दृढ़ करना । यह पूर्ण रूप से देह को केन्द्र बना कर उसी पर आश्रित होती है इसलिए इस पद्धति को हठ योग कहते हैं। दूसरी है मन को कृष्णार्पण करना। यह शारीरिक नहीं भावात्मक है, अन्तर्मुखी है अतः विद्यातन्त्र  में मानी जाती है। सच्ची साधना यही है इसमें शारीरिक और मानसिक सत्ता को परमपुरुष को पूर्णतया समर्पित करना होता है। परमपुरुष और जीवात्मा का संयोग बिन्दु है सहस्त्रार के नीचे के बिन्दु में। प्रत्येक केन्द्र परिवर्ती केन्द्र के साथ इसी प्रकार संबंधित रहता है। नीचे के चक्र क्रमशः स्थूल होते हैं। प्रत्येक चक्र का भौतिक नियंत्रण उसी के द्वारा होता है परन्तु भावात्मक नियंत्रण ठीक ऊपर वाले चक्र के नियंत्रक बिन्दु से होता है। जैसे, स्वाधिष्ठान चक्र का नियंत्रण भौतिक रूप से उसी के नियंत्रक बिन्दु से होगा परन्तु भावात्मक नियंत्रण उसके ऊपर स्थित मणिपुर चक्र के नियंत्रक बिन्दु से होगा। सहस्त्रार चक्र कोई स्थूल भौतिक क्षेत्र नहीं है यह पूर्णतः आध्यात्मिक क्षेत्र है। इसका नियंत्रक बिन्दु सूक्ष्मतम मानस बिन्दु है जहाॅं परमशिव का पीठस्थान होता है। परमशिव हैं लघुतम बिन्दु, विशुद्ध अहंबोध अर्थात् ‘मैं हॅूं’ बोध । कुंडलिनी शक्ति, मूलाधार चक्र के भीतर होती है जो आद्याशक्ति, या राधा शक्ति भी कहलाती है। वैज्ञानिक शब्दावली  में सहस्त्रार में परम शिव या परमपुरुष कृष्ण की स्थिति ‘फंडामेंटल पाजीटिविटी’ और मूलाधार में स्थित कुंडलिनी शक्ति या राधाशक्ति ‘फंडामेंटल नेगेटिविटी’ कहलाती है। साधना के द्वारा राधाशक्ति को परमपुरुष कृष्ण से संस्पर्श कराना होता है।
अब, चूंकि अहंबोध का पीठ है आज्ञाचक्र और उसका भावात्मक नियंत्रण होता है सहस्त्रार में स्थित परमपुरुष श्रीकृष्ण से। अतः श्रीकृष्ण जिसके शुद्ध अहंबोध के पीठ आज्ञाचक्र को अपने काम के लिए चुन लेते हैं वह परमपुरुष के प्रत्यक्ष संयोग द्वारा शक्ति और मुक्ति प्राप्त कर लेता है। अतः परमपुरुष की प्राप्ति के लिए प्रत्येक चक्र को शुद्ध करना होगा। परमपुरुष श्रीकृष्ण प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मूलकेन्द्र और उपकेन्द्रों का नियंत्रण करते हैं। परमात्म कृष्ण स्वयं विशुद्ध आध्यात्मभाव का नियंत्रण करते हैं और जीवात्म कृष्ण मानसाध्यात्मिक भावों को नियंत्रित करते हैं। साधक के लिए एक ही व्रत है कि अपने सभी उपकेन्द्रों को शुद्ध और दृढ़ करके अपने मूल केन्द्र को परमात्म कृष्ण के चरणों में समर्पित करना । वे स्वयं व्यक्ति विशेष के साथ संयोग संबंध बनाए रखते हें महासम्भूति या विश्व के केन्द्र बिन्दु के रूप में।