212 श्रीमद्भग्वद्गीता का प्रथम श्लोक
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।
सामान्यतः इसका अर्थ ‘‘ धृतराष्ट्र बोले, हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?’’ किया जाता है।
परन्तु हमारे पितामह (अर्थात् बाबा) ने हम लोगों को इसे इस प्रकार समझाया है:-
(1) धृतराष्ट्र = धृत + राष्ट्र । धृत = धारण करना। राष्ट्र = संरचना अर्थात् स्ट्रक्चर। अर्थात् जो आपकी संरचना को धारण किए हुए है वह धृतराष्ट्र । धृतराष्ट्र कैसा था? जन्माॅंध। आपकी शारीरिक संरचना को धारण करने वाला कौन है ? आपका मन। मन कैसा है अन्धा, वह इन्द्रियों की सहायता बिना कुछ भी अनुभव नहीं कर सकता। उवाच = बोलना, पूछना । तो ‘धृतराष्ट्र उवाच’ का अर्थ हुआ ‘‘ मन ने पूछा’’ ।
(2) धर्मक्षेत्र = धर्म = लाक्षणिता अर्थात् केरेक्टरिस्टिक्स और क्षेत्र = मैदान, एरिया। इसलिए धर्मक्षेत्र का अर्थ हुआ जो सभी प्रकार के लक्षणों से भरा हुआ है वह एरिया अर्थात् यह शरीर, यह आन्तरिक मानसिक संसार।
(3) कुरुक्षेत्र = कुरु = करना और क्षेत्र = मैदान । इसलिए कुरुक्षेत्र का अर्थ हुआ वह मैदान जो कह रहा है कि कुछ करो, कुछ करो अर्थात् सम्पूर्ण धरती, यह कर्म संसार।
(4) समवेता = एकत्रित हुए ।
(5) युयुत्सवः = युद्ध की इच्छा से।
(6) मामकाः = मेरे पुत्रों । अर्थात् जन्माॅंध धृतराष्ट्र के 100 पुत्रों; यहाॅं जन्माॅंध धृतराष्ट्र कौन है? ‘मन’। मन के एकसौ पुत्र कौन से हैं? मन, पाॅच ज्ञानेन्द्रियों ( आॅंख , कान , नाक , जीभ और त्वचा) और पाॅंच कर्मेद्रियों ( हाथ, पैर, वाक्, उपस्थ और पायुः) की सहायता से दसों दिशाओं ( पूर्व, पश्चिम , उत्तर दक्षिण, ऊर्ध्व और अधः ये छः दिशायें और ईषान, आग्नेय, वायव्य, और नैऋत्य ये चार अनुदिशायें ) में कार्य करता है इसलिए 10 गुणित 10 बराबर 100 , ये धृतराष्ट्र के पुत्र हैं।
(7) पाण्वाश्चैव = पाण्डवाः + च + इव अर्थात् और पाण्डु के पुत्रोें ने ही। पॅडु = पॅंडा = अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिः सा पॅंडा, अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिर्तामितः प्राप्तः पंडितः । अर्थात् ‘ मैं ब्रह्म हॅूं ’ इस प्रकार की बुद्धि कहलाती है पॅडा; जिसकी इस प्रकार की बुद्धि हो चुकती है वह कहलाता है पंडित, और जो इस प्रकार की बुद्धि को पाने का जी जान से प्रयास करता है वह है पाॅंडेय, अपभ्रंश पांड़े या पाॅडु। अब, पाॅंडु के पुत्र पाण्डव कौन हैं? शरीर की रचना करने वाले पँच तत्व पाॅंडव हैं। सहदेव, ठोस अवस्था या पृथ्वी तत्व (अर्थात्, मूलाधार चक्र) जो कि सभी को अपने साथ रखता है। नकुल, ‘यस्य कुलं नास्ति’ (स्वाधिष्ठान चक्र) अर्थात् जलतत्व । अर्जुन, अग्नितत्व अर्थात् ऊर्जा को प्रदर्शित करते हैं अर्थात् (मनीपुर चक्र्)। भीम, पवनपुत्र, वायुतत्व अर्थात् (अनाहत चक्र) । और, विशुद्ध चक्र या व्योमतत्व को युधिष्ठिर प्रदर्शित करते हैं। विशुद्ध चक्र तक भौतिक संसार समाप्त हो जाता है और आध्यात्मिक संसार प्रारंभ हो जाता है। इसलिये भौतिकवादियों और आध्यात्मवादियों अर्थात् स्थूल और सूक्ष्म के बीच में होने वाले झगड़े में युधिष्ठिर स्थिर रहते हैं। युद्धे स्थिरः यः सः युधिष्ठिरः।
(8) किमकुर्वत = किम् + अकुर्वत् = क्या किया ?
(9) संजय = विवेक (अर्थात् कन्साइंस)। अँधा मन विवेक की सहायता के बिना कुछ निर्णय नहीं कर सकता।
अब देखिए, ‘परमपुरुष कृष्ण’ अर्थात् ‘‘कास्मिक काॅन्ससनैस’’ सहस्त्रार में बैठे हैं और ‘जीवात्मा’ अर्थात् ‘‘यूनिट काॅन्ससनैस’’ मूलाधार में कुन्डलनी के आकार में हैं। यह इकाई चेतना अर्थात् जीवात्मा, पाॅंडवों की सहायता से कृष्ण तक पहुॅंचना चाहता है परन्तु अँधे मन धृतराष्ट्र के सौ पुत्र उन्हें रोककर इसी बाहरी संसार में फॅसाए रखना चाहते हैं। इसलिए इनका युद्ध धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के साथ लगातार चल रहा है। जिन्होंने विवेक का उपयोग कर अपना इष्टमंत्र जानकर, रास्ता पहचान लिया है वे पंचतत्वों की सहायता से उचित रास्ता पाकर, राजमार्ग ( सुसुम्ना मार्ग) का अनुसरण करते हुए सहस्त्रार पर स्थित कृष्ण के पास जा पहुँचते हैं और उन्हें ही विजयी माना जाता है। अन्यथा, महाभारत तो सब के साथ रोज ही चल रहा है। महाभारत का असली रहस्य यही है।
इसलिए, श्लोक में अंधे धृतराष्ट्र, विवेकी संजय से पूछते हैं कि मेरे और पाण्डु के पुत्रों के बीच होने वाले युद्ध में क्या हुआ?
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