Monday, 17 September 2018

213 यज्ञ

213 यज्ञ
श्रीमद्भग्वदगीता में कहा गया है ‘‘ यज्ञः कर्म समुद्भवः (3/14)’’ अर्थात् यज्ञ का उद्भव कर्म से होता है। यज् + न = यज्ञ, अर्थात् क्रियाएं। हम जो भी करते हैं वह यज्ञ है। क्रिया का उद्गम कहाॅं से होता है? मन से। मन ही सभी कार्य करता है, ज्योंही मन में कोई विचार आता है उसके संवेदन ही बाहरी संसार में कार्य के रूप में प्रकट होते हैं। जब भी कोई कार्य होता है उससे पहले उसके सम्बन्ध में विचार मन के भीतर आते हैं इसीलिए कर्म या यज्ञ को मनोभौतिक कहा जाता है। कोई व्यक्ति कर्म के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। ‘मुक्ति’ का इसीलिए मतलब है सभी प्रकार के यज्ञ या कर्म से छुटकारा पाना। सामान्यतः चार प्रकार के यज्ञ होते हैं, भूतयज्ञ, नृयज्ञ, पितृयज्ञ और आध्यात्म यज्ञ। इनमें से प्रथम तीन मनोभौतिक होते हैं क्योंकि इनके स्पन्दन पहले मन में आते हैं और फिर भौतिक जगत में कर्म के रूप में दिखाई देते हैं। चौथा  अर्थात् ‘आध्यात्मिक यज्ञ’ पूर्णतः आन्तरिक होता है। जैसे, किसी को कुछ भी दान देने के पहले विचार मन में आते हैं फिर, हाथ उसे देने के लिए आगे बढ़ते हैं ; अतः, मनोआत्मिक यज्ञ का क्षेत्र मन के भीतर होता है जबकि आध्यात्मिक यज्ञ का उद्गम क्षेत्र आत्मा से होता है और आत्मा के भीतर ही समाप्त हो जाता है।
(1) भूतयज्ञ- इसका अर्थ है इस संसार में आकार लेने वाले प्रत्येक अस्तित्व की सेवा करना। जैसे, पेड़ पौधों को पानी देना, पशुओं की सेवा करना, सबके कल्याण करने हेतु वैज्ञानिक अनुसन्धान करना। भूत का अर्थ होता है इस संसार का प्रत्येक अस्तित्व। अॅग्रेजी में जिसे ‘घोस्ट’ या ‘स्प्रिट’ कहते हैं उसका संस्कृत में समानार्थी है ‘‘प्रेत’’। ( यहाॅं ध्यान रखने की बात यह है कि ‘घोस्ट’ या ‘प्रेत’ का कोई अस्तित्व नहीं होता वह पूर्णतः मन की भावना को मन पर अध्यारोपण करने का बाहरी प्रक्षेप होता है, ‘अभिभावनात् चित्ताणुसृष्ट प्रेतदर्शनम्।’)

(2) नृयज्ञ- मनुष्यों के लिए किए गए सेवा कार्य इसके अन्तर्गत आते हैं। यह भूतयज्ञ का ही भाग है। ये चार प्रकार के होते हैं, शूद्रोचित, वैश्योचित, क्षत्रियोचित और विप्रोचित। संसार की सेवा इस भौतिक शरीर से करना शूद्रोचित सेवा के अन्तर्गत आता है जैसे, अपने सुखों का त्याग कर दूसरों को सुख पहॅुचाना, दूसरों के दुखों को दूर करना, रोगियों की सेवा करना इसी के अन्तर्गत आता है। किसी को भोजन, रुपया पैसा, आदि देकर सहायता करना वैश्योचित सेवा कहलाती है। अपने जीवन को भी कष्ट में डालकर दूसरों के जीवन की रक्षा करने का कार्य क्षत्रियोचित सेवा के अन्तर्गत आता है। विप्रोचित सेवा वह है जिसमें अपने आध्यात्मिक ज्ञान के अनुभवों से दूसरों को लाभान्वित करते हुए उन्हें वह ज्ञान देकर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

स्पष्ट है कि शूद्रोचित सेवा समाज की रीढ़ की हड्डी है। जो शूद्रोचित सेवा को कमतर आॅंकते हैं वे न तो वैश्योचित, न ही क्षत्रियोचित और न ही विप्रोचित सेवा कर सकते हैं। इसलिए यदि कोई अपने को विप्र कहता है तो उसमें ये चारों गुण होना चाहिए। यद्यपि सभी प्रकार की सेवाओं का एकसमान महत्व है फिर भी विप्रोचित सेवा की भव्यता विशेष मानी जाती है क्योंकि वह सीधे आध्यात्म यज्ञ से जुड़ी होती है। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी सेवा हो वह समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार ही महत्व पाती है। मानलो कोई पथिक कष्ट में पड़कर अकेले स्थान में मरने की स्थिति में आ पहुॅंचा हो तो उस समय विप्रोचित सेवा करना व्यर्थ होगा, इस अवस्था में शूद्रोचित सेवा (अर्थात् देखरेख और चिकित्सा की व्यवस्था) करना ही उत्तम होगी। भूख से मरने वाले को क्या करोगे? भाषण दोगे? या चिकित्सा करोगे? नहीं। उसे भोजन देकर उसके जीवन को बचाया जा सकता है अतः वैश्योचित सेवा का ही यहाॅं अधिक महत्व होगा। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि किसी असहाय व्यक्ति को किसी दुष्ट के द्वारा प्रताड़ना दी जा रही है तो न तो उसे ज्ञानोपदेश, न ही भोजन और न ही सुश्रुषा काम आयेगी, उसे तो क्षत्रियोचित सेवा के द्वारा बचाया जाना ही अधिक महत्वपूर्ण होगा। दूसरी ओर, किसी शराबी की शूद्रोचित सेवा करना या रुपया देकर वैश्योचित सेवा करना किसी मतलब का नहीं होगा क्योंकि इससे वह और प्रोत्साहित होगा और शराब पीना नहीं छोड़ सकेगा। उसे मारना पीटना भी बेकार जाएगा क्योंकि वह उस स्थान को छोड़कर कहीं और जाकर शराब पिएगा। उसे दृढ़तापूर्वक क्षत्रियोचित सेवा के साथ साथ विप्रोचित सेवा (नीतिवचन या वाक्य दंड) दिया जाना ही सार्थक होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अलग अलग परिस्थितियों में अलग अलग सेवाओं का महत्व है परन्तु अन्य तीन की तुलना में विप्रोचित सेवा का प्रभाव स्थायी होता है। परिस्थितियाॅं चाहे जो भी हों सेवा करते समय हमें दूसरों को धोखा देने से बचना चाहिए । यह तभी हो सकता है जब हम सेवा किए जाने वाले प्रत्येक प्राणी को नारायण का ही रूप मानकर सेवा करेंगे। इसके लिए सेवा करने से पहले सच्चाई से मन में यह विचार लाना होता है कि ‘ हे नारायण ! मेरी सेवा को स्वीकार कर कृतार्थ करें ; आपने कृपापूर्वक मुझे इस रूप में सेवा करने का मूल्यवान अवसर प्रदान किया है।’ इस भावना से किए गए सेवा कार्य से कर्मबन्धन भी नहीं होगा और धोखा देने का विचार भी नहीं आएगा। कर्मबन्धन में बँधने का मुख्य कारण होता है धोखा देना और यश कीर्ति पाने के लिए लालायित होना। मानलो किसी व्यक्ति ने किसी संस्था को दस हजार रुपए दान दिए, अगले ही दिन से वह न्यूज पेपर में अपना नाम छपे होने की प्रतीक्षा उत्सुकता से करने लगेगा, जब उसका नाम पेपर में नहीं दिखेगा तो अपने सम्बँधियों सहित दूसरों से कहने लगेगा ‘‘ मैंने दस हजार रुपए दान में दिये परन्तु मैं कोई प्रचार नहीं करना चाहता था इसलिए पेपर वालों को नाम छापने से मना कर दिया था ’’; यह क्या है? यह सेवा भावना से की गई सेवा नहीं है उल्टे स्वयं को धोखा देना ही है। अतः इसका कर्मबन्धन होगा और फल भोगना ही पड़ेगा।

(3) पितृयज्ञ- इसका अर्थ है पूर्वजों, ऋषियों और सन्तों का स्मरण करना। जब तक कोई भी मनुष्य अपना शरीर धारण किए रहता है वह अपने पूर्वजों का ऋणी रहता है। वे जो सन्तों और ज्ञानियों से उचित शिक्षा पाकर अपने और समाज को मुक्ति के मार्ग पर ले जाने का कार्य करते हैं वे उनके ऋण से मुक्त हो जाते  हैं। ऋषि वे हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता और  अनुसन्धानों से समाज को अनेक प्रकार से भौतिक और आध्यात्मिक लाभ और सुविधाएं प्राप्त हुई हैं। जो विध्वंसात्मक हथियारों का निर्माण और अनुसन्धान करते हैं उन्हें ऋषि नहीं कहा जा सकता। इन कल्याणपरक पूर्वजों को  आदर सहित स्मरण करना ही पितृयज्ञ कहलाता है।

(4) आध्यात्मिक यज्ञ- यह आन्तरिक क्षेत्र से जुड़ा होता है जिसके करने की ऊर्जा आत्मा के क्षेत्र से निकलकर मानसिक क्षेत्र में आती है और मन साधना कर्म करने लगता है । ये सब अन्ततः आत्मा में ही समाप्त होते हैं। आध्यात्मिक यज्ञ निवृत्ति से तथा भूत, नृ और पितृ यज्ञ निवृत्ति/प्रवृत्ति दोनों से जुड़े होते हैं । आध्यात्मिक यज्ञ में, परमात्मा के प्रति निस्पृह प्रेम और समर्पण के साथ ईश्वर प्रणिधान करते हुए अपना ‘‘मैंपन’’ उन्हें अर्पित करना होता है, किसी बाहरी वस्तुओं जैसे फूल, चन्दन, घी या अन्य कीमती वस्तुओं को अग्नि में जलाने का कोई महत्व नहीं है। उत्तम खाद्य पदार्थों को अग्नि में जलाने के स्थान पर उन्हें, उन कमजोर और भूखे लोगों में बाँट देना अधिक उचित होता है जिन्हें सचमुच उनकी आवश्यकता होती है अन्यथा दुरुपयोग ही माना जाएगा। जहाँ तक यज्ञ में घी जलाकर वर्षा उत्पन्न करने का प्रश्न है वह भ्रामक है, सही बात यह है कि वैज्ञानिक शोध ‘भूतयज्ञ’ के अन्तर्गत आते हैं अतः नये शोध कर वाॅंछित स्थानों पर कित्रिम वर्षा कर लाभ उठाया जा सकता है। आध्यात्मिक यज्ञ पूर्णतः आन्तरिक होता है उसमें धन सम्पदा का कोई महत्व नहीं है, इनका उपयोग केवल भूत, नृ और पित्रयज्ञ में ही होता है । प्रत्येक स्तर पर निस्वार्थ प्रेम का होना अनिवार्य होता है अन्यथा सभी प्रकार के यज्ञ निरर्थक हो जाते हैं। कुछ लोग त्याग करने या बलिदान करने को यज्ञ कहते हैं परन्तु त्याग या बलिदान करने का सही अर्थ यह है कि दूसरों की सेवा करने के लिए अपने सुख सुविधाओं का त्याग करना न कि पशुओं की हत्या करना। इस प्रकार परमात्मा में एकीभाव होकर ब्रह्म रूपी अग्नि में, ब्रह्म रूपी हविः को, ब्रह्म  रूपी कर्ता द्वारा जो हवन किया जाता है वह सभी कुछ ब्रह्म ही है, आध्यात्म यज्ञ यही है ; यह भावना ही ब्रह्मोपलब्धि कराती है जो मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। इस विवरण से स्पष्ट है कि विभिन्न सांसारिक भौतिक वस्तुओं से सम्पन्न किए जाने वाले भूतयज्ञों की तुलना में ज्ञानयज्ञ ही श्रेष्ठ है । अतः ज्ञानयज्ञ के द्वारा सभी संशयों से मुक्त होकर परमात्मा का साक्षात्कार सम्भव हो पाता है अन्य सब केवल आडम्बर की श्रेणी में आता है।

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