Thursday 30 April 2015

(4) कैसे? ---- से आगे --

(4) कैसे? ----पिछली पोस्ट  से आगे --

इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्शनिक  मान्यता थी और कुछ को नहीं। यह विवरण प्रकट करता है कि तन्त्र और उपनिषदों में वर्णित अद्वितीय, निष्कल, सच्चिदानन्दघन परमपुरुष को पाने के उपायों को तथ्यों सहित कोई भी मत , पूर्णतः सम्मिलित नहीं करता वरन् एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयासों में आडम्बर और परस्पर वैमनस्यता को ही बढ़ावा देता है।
अतः उस निर्विकार परम सत्ता को पाने का रास्ता और उस पर चलने की विधि वही बता सकता है जिसने उसे पा लिया हो और भली भाॅंति अनुभव भी किया हो। ऐंसा महान आत्मा, तन्त्र में महाकौल कहलाता है। महाकौल का अर्थ है जिसमें ये सब गुण होंः-
शान्तोदान्तोकुलीनश्च  विनीतशुद्धवेशवान , शुद्धाचारी सुप्रतिष्ठित शुचिर्दक्ष सुबुद्धिमान।
आश्रमी ध्याननिष्ठश्च  तंत्रमंत्र विशारद निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते।

शान्त. जिन्होंने अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है। दान्त. जिनकी इन्द्रिय समूह की कर्म प्रणाली बहुमुखी है। श्रवण, मनन और निदिध्यासन के कार्य में इन्द्रियोंकी महती भूमिका है, अतः इन तीनों कार्यों को छोड़ इंन्द्रियों की समस्त कर्मधाराओं को जिन्होंने नियंत्रित कर लिया है। कुलीन. जो कुलकुंडलिनी की साधना करते हैं, जो पुरश्चरण में सिद्ध हैं, इन्हें ही कुलगुरु कहते हैं । विनीत, शुद्धवेशवान, आचरण में शुद्ध , शुद्ध  आजीविका युक्त और मन से शुचिता तथा आध्यात्म जगत में दक्षता गुरु के आन्तरिक गुण हैं।

 दक्ष का अर्थ है जो सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञान दोनों में पारंगत हैं। जिन्हें केवल सैद्धान्तिक ज्ञान है उन्हें कहा जाता है विद्वान। गुरु के विद्वान होने से काम नहीं चलेगा उन्हें दक्ष होना पड़ेगा, इसी प्रकार उन्हें बुद्धिमान नहीं सुबुद्धिमान होना पड़ेगा। तंत्र विधानानुसार ग्रही ही ग्रही के गुरु हो सकते हैं अन्य नहीं। केवल ध्यान की विधि सिखाने का काम ही नहीं उन्हें ध्याननिष्ठ होना होगा। मननात् तारयेत्यस्तु सः मंत्रः परिकीर्तितः, अतः किसके लिये कौन मंत्र उपयुक्त है, कौन सिद्धमंत्र है कौन नहीं, कौल गुरु में यह ज्ञान अवश्य  ही होना चाहिये , इसीलिये कहा गया है कि उन्हें तंत्रमंत्र विशारद होना चाहिये। जो एकसाथ दक्ष और विद्वान हैं उन्हें विशारद कहा जाता है। इन सभी गुणों से युक्त बीसवीं सदी में हुए सद्गुरु महासम्भूति और तारक ब्रह्म श्रीश्री आनन्दमूर्ति  ने विश्व  में प्रचलित सभी मतों के निचोड़ को वैज्ञानिक सूत्र में बाॅंध कर बिलकुल नयी विधि से हजारों व्यक्तियों को दीक्षित कर इन सभी रहस्यों से पर्दा हटा दिया है।
     उन्होंने अष्टाॅंग योग पर आधारित छः स्तरों पर प्रयुक्त की जाने वाली पद्धति को सिखाने की व्यवस्था बनाई है, जिसमें पहले स्तर पर संबंधित के संस्कारों के आधार पर उसके बीज मंत्र की सहायता से साधक अपने पूर्व जन्म के संस्कार धीरे धीरे क्षय करता जाता है इसे इष्ट मंत्र कहते हैं। दूसरे स्तर पर नये संस्कारों का जन्म ही न हो पाये  इसकी विधि और मंत्र दिया जाता है इसे गुरुमंत्र कहते हैं। तीसरे स्तर पर शरीर में स्थित पंच तत्वों के मंत्र और उनके उचित स्थान पर चिंतन करना सिखाया जाता है जिसे तत्व धारणा कहते हैं। चौथे स्तर पर मन और प्राणों पर नियंत्रण करने की विधि सिखाई जाती है जिसे प्राणायाम कहते हैं। पाॅंचवे स्तर पर शरीर के ऊर्जा केन्द्रों को इष्ट मंत्र की सहायता से शोधन करना सिखाया जाता है इसे चक्रशोधन कहते हैं। छठवें स्तर पर ध्यान की विधि सिखाकर परमपुरुष के साथ वार्तालाप करना सिखया जाता है। इस प्रकार सभी स्तरों का लगातार अभ्यास करने और नियमित साधना करते रहने पर कुछ ही दिनों में यह समझ में आ जाता है कि अब नये संस्कार नहीं बन रहे हैं तथा पुराने शीघ्रातिशीघ्र  क्षय होते जा रहे हैं। इसी क्रम में जब संस्कार शून्य हो जाते हैं तब आत्मसाक्षात्कार होता है। इस भौतिक मनोआध्यात्मिक विधि से विश्व  के हजारों लोग लाभान्वित हो चुके हैं और होते जा रहे हैं। यह विधि उनके द्वारा प्रवर्तित आध्यात्मिक दर्शन  ‘आनन्दमार्ग‘ के किसी भी आचार्य से निःशुल्क सीखी जा सकती है । इस दर्शन  के मूल्याॅंकन के अनुसार ‘ ब्रह्मसद्भाव‘ सर्वोत्तम, ‘ध्यान धारणा‘ मध्यम, ‘अर्चना प्रार्थना ‘ अधम और ‘मूर्तिपूजा‘ सर्वाधम मानी गई है। 
उत्तमो ब्रह्म सदभावो, मध्यो भावो ध्यान धारणा, अर्चना प्रार्थना अधमो भावो मूर्तिपूजा धमोधमा। 
अतः निराकार ब्रह्म के साथ एक्य स्थापित करने की यह विज्ञान सम्मत पद्धति है।

Wednesday 29 April 2015

(4) कैसे?

(4) कैसे?
  प्रश्न  यह है कि यह सब मानसिक क्रियाएं हैं अतः यह कहना कि ऐंसा करना याहिये , वैसा करना चाहिये यह कहना तो सरल है पर किया कैसे जाय? वह विधि कौनसी है जिसे पालन करने पर ब्रहम् के साथ एकीकरण हो जाता है? इसका उत्तर यह है कि आध्यात्मविज्ञान के पुरोधा ऋषियों ने अपने अनुभवों के आधार पर अष्टाॅंगयोग की विधि को प्रतिपादित कर मनुष्यों को नयी दिशा  दी थी पर कालक्रम में अनेक विद्वानों ने अपने अपने मत और संप्रदायों की अहंकार भरी भावनाओं से उस विधि में अनेक विकृतियाॅं कर डाली और सरलता लाने के प्रयास में खंड खंड में विभाजित कर उसे अप्रभावी कर डाला। कुछ विद्वानों ने वामाचार और कुछ ने दक्षिणाचार को अपनाया। लक्ष्य हो या नहीं अंधकार के विरुद्ध संघर्ष करता जाऊंगा और अंत में माया नष्ट कर सिद्धि लाभ करूंगा इस भावना को वामाचार कहते हैं, इसमें साधक को विपत्ति में पड़ने और अधोगति में जाने की संभवना होती है क्योंकि वामाचारी साधक अपनी अर्जित शक्तियों का दुरुपयोग करने लगता है और पशुत्व  की ओर गति कर बैठता हैं। दक्षिणाचार में साधक प्रकृति से अनुनय विनय कर प्रकृति को वश  में करना चाहते हैं। वे कहते हें कि हे प्रकृति! तुम अपना अंधकार समेट लो और मेरे लिये मार्ग बना दो। इस प्रकार क्या किसी की खुशामद से मुक्ति पाई जा सकती है? खुशामद भीरु का लक्षण है। शक्तिशाली व्यक्ति, भीरु की खुशामद से प्रसन्न हो कुछ सुविधा दे सकता है पर पूरी स्वाधीनता नहीं दे सकता । इन विधियों के दोषों को दूर करने के लिये आया मध्यमाचार। इस के अनुसार विद्या की सहायता से संघर्ष करते हुए अविद्या को हरा कर, फिर विद्या और अविद्या दोनों को त्याग कर ब्रह्म की चरमावस्था में स्थित होना। इन्हीं धारणाओं के आधार पर मुख्यतः निम्नाॅंकित  पद्धतियाॅं प्रचलित  हैंः-
 (1) शैवाचार (2) शाक्ताचार (3) वैष्णवाचार (4) गणपत्याचार (5) सौराचार।
शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘।
शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलानाचाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। 
( भैरवीशक्ति का अर्थ है ऊर्जा की क्रियाशील अवस्था। ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः नाम और यश  के प्रेरक श़ +र=श्र  और स्त्रीलिंग  में यह हुआ श्री, इसे आधार मानकर ही भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में श्री किसी के पास नहीं है फिर भी सभी के नाम में श्री लगाते हैं।) इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकीशक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहां कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक  है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिकाशक्ति  से इसका कोई संबंध नहीं।
वैष्णवाचार में विश्व  की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, 
‘विस्तारः सर्वभूतस्यविष्नोरविश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः।
 गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व  के नेता का भाव दिया गया और इन्हें ही परमपुरुष के रूपमें उपासना हेतु कहा गया है।
 सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे अतः उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व  के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया।

Tuesday 28 April 2015

परमपुरुष को पाने के उपाय विंदू क्र - २ से आगे

परमपुरुष को पाने के उपाय विंदू क्र - २ से आगे 

(3) उपनिषदों के अनुसार
‘‘ सर्वं ह्येतद्ब्रह्म, अयआत्मा ब्रह्म, तमेतमात्मानमोमिति ब्रह्मणैकीकृत्य, ब्रह्मचात्मना ओमित्येकीकृत्य, तदेकमजरममृतमभयमोमित्यनुभूय तम्मिन्निदं सर्वं त्रिशरीरं आरोप्य तन्मयंहि तदेवेति संहरेदोमिति।‘‘
अर्थात् जो कुछ देखने ,सुनने, अनुभव करने में आता है या इन सबके बाहर है, सब कुछ ही सगुण ब्रह्म या ओंकार है। यह आत्मा भी ब्रह्म ही है। तुम्हारा अस्तित्व, यह जगत तथा ब्रह्म और ओंकार के बीच एकीभाव है। तुम्हारा अस्तित्व, जगत या ब्रह्म ये सब पृथक पृथक वस्तुएं नहीं हैं। इस जगत के साथ अपने आत्मिक अस्तित्व को ब्रह्म के साथ एकीभाव कर दो तब केवल अपने को ओंकार स्वरूप ही पाओगे अर्थात् इस अवस्था में तुम्हारा ओंकार के साथ एकीभाव होगा। इस प्रकार के एकीभाव स्थापित हो जाने के बाद एक ही सत्ता बचेगी, विकृति जिसका स्वरूप नहीं है क्योंकि विकृति के लिये दो सत्ताओं की आवश्यकता होती है अतः जहाॅं वे एकमात्र सत्ता हैं वहाॅं विकृति कैसे हो सकती है। इसी प्रकार वहाॅं मृत्यु भी नहीं हो सकती क्यों कि मृत्यु भी तो अवस्था का भेद मात्र है। अतः ओंकार अमृतत्व में प्रतिष्ठित है। इसी प्रकार वहाॅं कार्य कारण,  पृथक भाव से नहीं रहने के कारण वहाॅं भय भी नहीं है। अतः कहा गया है कि इसी अविकृत, अमर, अभय, ओंकार में तुमलोग त्रिशरीर को आरोपित करो। जीवमात्र चार सत्ताओं की समष्टि है- जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और कैवल्य या स्वरूप। यहाॅं पर त्रिशरीर का आशय है जाग्रत , स्वप्न और सुसुप्ति से क्योंकि यही तीनों ‘स्वरूप‘ की विकृतियाॅं हैं जो ब्रह्म से पृथकता का अनुभव कराती हैं। अर्थात् इन विकृतियों को ब्रह्म अर्थात् ओंकार में आरोपित कर दो और तद्भाव में तन्मय हो जाओ। इस अवस्था में यह भावना जागेेगी कि मैं स्वयं ही ओंकारात्मक हॅूं और मैं अपने स्वरूप में ही रहता हॅूं। इससे स्पष्ट है कि जब कभी भी जड़ात्मक विचार मन में उत्पन्न हों तत्काल ब्राह्मिक भावना लेने पर ओंकार से पृथकता नहीं रहेगी और बंधनात्मक संस्कार नहीं बनेगा।

Monday 27 April 2015

(स) परम सत्ता को प्राप्त करने के उपायः

(स) परम सत्ता को प्राप्त करने के उपायः
         आधुनिक वैज्ञानिक अपने अपने ढंग से ब्रह्माॅंड के रहस्यों को समझने के लिये ‘‘लार्ज हैड्रान कोलायडर‘‘ (large hadran collider) जैसे प्रयोग कर रहे हैं और मनोवैज्ञानिक मन के रहस्यों की खोज में जुटे हुए हैं पर अभी किसी प्रकार के परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं। परंतु हमारे देश  के आध्यात्म विज्ञानियों ने बहुत पहले इन रहस्यों को जान लिया था और अपने निष्कर्षों को उपनिषदों और तन्त्र विज्ञान के रूपमें हमे दे गये हैं पर हमने उनका सही दोहन नहीं किया है। भौतिक विज्ञानी और मनोविज्ञानी जब तक अपने प्रयोगों को उपनिषदों में दी गई विधियों के अनुसार आघ्यात्मिक बनाकर प्रयोग नहीं करेंगे उन्हें किसी भी रहस्य का पता नहीं लग सकता है। इनके लिये मनुष्य का शरीर ही प्रयोगशाला है और मन को नियंत्रित करने की तान्त्रिक पद्धतियों के द्वारा अचेतन मन (unconscious mind) जिसे आध्यात्म में अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष कहते हैं, के भीतर घुसने की शक्ति प्राप्त करने के बाद ही समझा जा सकता है। मान्यता प्राप्त ग्रंथों की छानबीन करने पर प्राप्त कुछ विधियाॅं नीचे दी जा रहीं हैं।
(1) श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि वह परम तत्व मनुष्य के हृदय में छिपा है उसे पहचानने के लिये साधना करना होगी।
 ‘‘ उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ताभोक्ता महेश्वरा, परमात्मेति चाप्युक्तो देहेअस्मिन पुरुषः परः‘‘ ।
तथा
‘‘ ईश्वरः सर्वभूतानाम हृद्देशे  अर्जुन तिष्ठति भ्रामयन सर्व भूतानाम यन्त्रारूढ़ानिमायया‘‘।

और इसे समझने और अनुभव करने के लिये कहा गया है कि

  ‘‘ स्पर्शानुकृत्वा वर्हिवाह्याॅं चक्षुष्चैवान्तरे भ्रवोः, प्राणापाणौ समौकृत्वा नासाभ्यान्तर चारिणौ।
    यतीन्द्रिय मनो बुर्द्धिमुनिर्मोक्षपरायणः विगतेच्छा भयक्रोधो च सदामुक्त एव सः।‘‘
अर्थात् मन में आने वाले इंद्रियजन्य सभी बाहरी विचारों को बाहर ही त्यागकर नासिका में प्रवाहित होने वाली प्राण और अपान वायु को नियंत्रित कर साम्यावस्था में लाकर आॅंखों की द्रष्टि को दोनों भौंहों के बीच में स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार का अभ्यास कर जिसने अपनी इंद्रियों , बुद्धि और मन पर नियंत्रण कर लिया है वह इच्छा, भय और क्रोध से दूर रहकर मुक्ति का अनुभव इसी जीवन में कर सकता है।
(2) तन्त्र के अनुसार
‘ यच्छेद्वाॅंगमनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महतो नियच्छेद् तद्यच्छेच्छान्तात्मनि।‘
अर्थात् इंद्रियों को उनके विषयों से हटा कर मन में एकत्रित कर के मन को बुद्धि में और बुद्धि को अहंतत्व में और अहंतत्व को महत्तत्व में एकीकृत करने के बाद उसे आत्मा में मिला देना चाहिये।

Sunday 26 April 2015

(ब) वैज्ञानिक पक्ष:


(ब) वैज्ञानिक पक्ष:

      आधुनिक वैज्ञानिकों ने प्रकृति  को समझने का बहुत प्रयास किया है और पिछले 500 वर्षों में उन्होंने उसके अनेक रहस्यों का पता लगाया है और अभी भी अनेक रहस्य, रहस्य ही बने हुए हैं। उनके सभी प्रयोग विश्लेषण विधियों पर आधारित हैं। पदार्थ को विश्लेषित कर उन्होंने पाया कि यह तो ऊर्जा का ही घना रूप है। पदार्थ का सबसे सूक्ष्म भाग, जिसे उन्होंने परमाणु (atom) कहा, में प्रचंड ऊर्जा भरी पाई और एटमबम बना डाला। उसे तोड़कर इलेक्ट्रान और अन्य आवेशित कणों की खोजों और परमाणु की ऊर्जा से प्राप्त विद्युत, चुंबक, ऊष्मा आदि अन्य ऊर्जाओं की सहायता से न केवल उद्योगों के क्षेत्र में क्रान्ति ले आये हैं वरन् चिकित्सा और अन्तरिक्ष में भी घुसपैठ कर ली है। भौतिक ऊर्जा के साथ साथ जैविक ऊर्जा के संबंध में भी उन्होंने प्रगति की है पर वे यह अभी भी नहीं जान पाये हैं कि इसे किसने उत्पन्न किया है। वे केवल प्रकृति को ही सर्वोपरि मानते हैं उसके नियंता के संबंध में वे मौन हैं। ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के संबंध में वे बिगबेंग ( big bang ) सिद्धान्त को मानते हैं पर यह नहीं बता पाते कि यह बिगबेंग किसने किया। इस सिद्धान्त के अनुसार cosmos अर्थात् ब्रह्माॅड, 13.8 बिलियन वर्ष पहले बिग बेंग के साथ 10-37 सेकेंड में उत्पन्न हुआ जिसका वर्तमान में द्रश्य  व्यास 93 बिलियन प्रकाश  वर्ष है। पूरे ब्रह्माॅंड में पदार्थ का परिमाण  3 से  100x1022 तारों की संख्या बराबर है जो 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित है। वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि बिग बेंग की घटना किसी विस्फोट की तरह नहीं हुई बल्कि 1015 केल्विन ताप के विकिरण के साथ स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया। इसके तत्काल बाद 10&29 सेकेंड में स्पेस का एक्पोनेशियल विस्तार 1027 अथवा अधिक के गुणांक में हुआ। जो कि कास्मिक इन्फ्लेशन कहलाता हैं । ब्रह्माॅड का ताप 10,000 केल्विन से अधिक सैकड़ों हजार वर्ष  रहा जिसे रेसेड्युअल कास्मिक माइक्रोवेव बेकग्राऊंड कहते हैं। यूनीवर्स का कुल घनत्व, अर्थात् डार्क एनर्जी, वर्ष 2013 में की गयी गणना के अनुसार 68.3 प्रतिशत पाया गया है और डार्कमैटर घटक , द्रव्यमान ऊर्जा घनत्व का 26.8 प्रतिशत। शेष 4.9 प्रतिशत में सभी सामान्य पदार्थ, दिखाई देने वाले परमाणु, रासायनिक तत्व गैस और प्लाज्मा , द्रश्य  ग्रह, तारे और गेलेक्सियाॅं हैं। इस ऊर्जा घनत्व में बहुत कम परिमाण  लगभग 0.01 प्रतिशत कास्मिक माइक्रोवेव बेकग्राऊंड रेडियेशन भी होता है और 0.5 प्रतिशत से भी कम रेलिक न्यूट्रिनो होते हैं। अभी इनकी मात्रा भले ही कम हो पर बहुत पिछले काल में ये पदार्थ 3200 से भी अधिक रेड शिफ्ट में अपना अधिकार जमाये थे।
    ब्रह्माॅंड की स्थानिक वक्रता शून्य के निकट है। हमारे मस्तिष्क में पाये जाने वाले न्यूरानों की संख्या ब्रह्मांड के सभी तारों की संख्या से अधिक है। जीवन की उत्पत्ति के संबंध में वैज्ञानिक मानते हैं कि जल के भीतर जीव उत्पन्न हुए पहले एक कोशीय और क्रमागत रूपसे बहुकोशीय जीव। डारविन के सिद्धान्त के अनुसार इसी क्रम में अति उन्नत जीव मनुष्य हुए हैं। पृथ्वी के अलावा अन्य गेलेक्सियों के किन्हीं सौर मंडल के ग्रहों में जीवन की संभावनायें भी बताई गयीं हैं। ये जीव मनुष्य की तरह या मनुष्य से अधिक उन्नत  या अन्य प्रकार के भी हो सकते हैं, यह भी कहा गया है। तारे और गेलेक्सियाॅं मरते हुए ब्लेक होल में लय हो जाते हैं और अंततः ब्लेक होल भी समाप्त हो जाता है , इसी प्रकार जीव भी मनुष्य होकर अंततः मर जाता है, इसके आगे क्या होता है विज्ञान को इसकी कोई जानकारी नहीं है। वैज्ञानिकों का कहना है कि 1040 वर्ष बाद पूरे ब्रह्मांड में केवल ब्लेक होल ही होंगे। वे हाकिंग रेडिएशन के अनुसार धीरे धीरे वाष्पीकृत हो जावेंगे। अपने सूर्य के बराबर द्रव्यमान वाला एक ब्लेक होल नष्ट होने में 2x1066  वर्ष लेता है, परंतु इनमें से अधिकांश  अपनी गेलेक्सी के केेन्द्र में स्थित अपनी तुलना में अत्यधिक द्रव्यमान के ब्लेक होल में सम्मिलित हो जाते हैं। चूंकि ब्लेक होल का जीवनकाल अपने द्रव्यमान पर तीन की घात के समानुपाती होता है इसलिये अधिक द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में बहुत समय लेता है। 100 बिलियन सोलर द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में 2x1099 वर्ष लेगा । ब्रह्मांड, गेलेक्सियों को समेटे ऐंसा गोला है जो लगातार फैलता जा रहा है। सबसे दूरस्थ गेलेक्सी सबसे तेज चलती है अतः उसकी लंबाई की दिशा  में संकुचन हो जाने के कारण केन्द्र में खडे़ अवलोकनकर्ता के लिये वह छोटी दिखाई देती है।

इस प्रकार ब्रह्मांड में पाये जाने वाले आकाशीय पिंडों अर्थात् ग्रहों, सूर्यों, गेलेक्सियों, ब्लेकहोलों या ऊर्जा अर्थात् प्रकाश , विद्युत, रेडियो, और ब्लेकएनर्जी और पृथ्वी जैसे ग्रहों के जीवधारी आदि सभी स्पेस और समय के अत्यंत विस्तारित क्षेत्रों में अपना साम्राज्य जमाये हुए हैं परंतु फिर भी वे अनन्त नहीं हैं अमर नहीं हैं। अपने यूनीवर्स की तरह स्पेस में अन्य यूनीवर्स (universe) हो सकते हैं इसप्रकार मल्टीवर्स सिद्धान्त (multiverse theory) के समर्थन में और उसके विपरीत दोनों प्रकार के वैज्ञानिक वादविवाद कर रहे हैं। यह माना जा रहा है कि बुलबुले के आकार के सात यूनीवर्स हो सकते हैं जिनके स्पेस, टाइम अलग होंगे और उनके भौतिक नियम और स्थिरांक तथा विमायें या टोपोलाजी (topology) भी भिन्न होंगी। परंतु प्रायोगिक प्रमाणों के अभाव में ये विचार अभी एक मत से स्वीकार नहीं किये जा पा रहे हैं पर भविष्य में इस रहस्य से अवश्य  पर्दा उठ सकता है।

स्पष्ट है कि दार्शनिक  और वैज्ञानिक दोनों पक्ष यह मानते हैं कि यह ब्रह्माॅंड अमर नहीं है । इसके पदार्थ और कुछ नहीं ऊर्जा का सघन रूप ही हैं जिसकी सहायता से हमें आत्मोन्नति करना चाहिये। वैज्ञानिक इसकी उत्पत्ति का श्रोत नहीं जानते और न ही यह बता पाते हैं कि अंत में क्या बचेगा, पर दार्शनिक  पक्ष में स्पष्टतः उसके उद्गम और अंत की व्याख्या की गई है, और हमारे भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक तीन प्रकार के विकास स्तरों को मान्यता दी गयी है । वैज्ञानिक अधिकतर भौतिक और कुछ सीमा तक मानसिक विकास की बातें करते हैं पर आध्यात्मिक स्तर पर मौन हो जाते हैं क्योंकि इस क्षेत्र के मान्यता प्राप्त सिद्धान्तों को वे प्रयोगशाला में प्रदर्शित  नहीं कर पाते। आध्यात्मिक जगत में उच्च स्तर प्राप्त विद्वानों का मानना है कि उनके सिद्धान्तों को परखने के लिये भौतिक प्रयोगशालाओं की नहीं मानसिक प्रयोगशालाओं की आवश्यकता होती है । जिन्होंने मानसिक स्तर को ऊंचा बनाकर अपनी मानसिक तरंगों की वक्रता कम करके सरलरेखा जैसी बना ली हैं वे यह आध्यात्मिक  सिद्धान्त सरलता से समझ सकेंगे क्योंकि उस परम सत्ता की मानसिक तरंग  भी सरल रेखा है अर्थात् तरंग दैर्घ्य  अनन्त है और वह हमारे अस्तित्व बोध का साक्षी है। इस प्रकार हमारे मैंपन के पीछे छिपी साक्षी स्वरूप सत्ता का अनुसंधान करना वैज्ञानिकों का लक्ष्य होना चाहिये।

Saturday 25 April 2015

दार्शनिक पक्ष --- विन्दु क्र -2 से आगे ----


दार्शनिक पक्ष --- विन्दु क्र -2 से आगे ----
 (3)  प्रकृति  की अविद्या और विद्या माया परस्पर विरोधी स्वभाव की होती हैं और मनुष्य के मानसिक क्षेत्र में सक्रिय रहकर भौतिक और मानसिक जगत के बीच उसे संघर्षरत रखकर आत्मिक जगत में ले जाने का कार्य करती हैं। इसे उसी प्रकार समझ सकते हैं जैसे आगे कदम बढ़ाने पर घर्षण बल पैरों को आगे बढ़ने से रोकता है तभी हम आगे बढ़ पाते हैं यदि यह विरोधी स्वभाव का घर्षण बल न हो तो हम आगे नहीं बढ़ सकते , चिकने तल पर चलने का प्रयास करने पर इसे अनुभव किया जा सकता है कि इसका कितना महत्व है। इसी प्रकार विद्यामाया जीव को उसके लक्ष्य की ओर ले जाती है और उसी के साथ अविद्यामाया उसे प्रकृति की विविधता की ओर खींचती है। विविधता दिखाई देती है पर लक्ष्य , परमपुरुष या मूलविंदु जहां से यात्रा प्ररंभ हुई थी, सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देता अतः मनुष्य अविद्या के इस सापेक्षिक संसार को ही अपना गन्तव्य मानकर उसी में फंसा रहता है। विद्या माया उसे समय समय पर उचित अवसर देकर वास्तविकता से परिचित कराती है पर यदि इन अवसरों पर उसने विवेक का प्रयोग किया तो विद्या के प्रभाव में आ जाता है पर यदि नहीं तो अविद्या उसे जकड़े रहती है। इस प्रकार विद्या और अविद्या दोनों साथ साथ रह कर कार्य करती हैं। जब विद्या माया अपनी संवित शक्ति के प्रभाव से अविद्या में भूले भटके हुए व्यक्ति को जगाने का काम करती है तो अविद्या तत्काल विक्षेप शक्ति का प्रयोग कर उसका विरोध करती है यदि व्यक्ति ने इस दशा  में स्वविवेक से विद्या के निर्देशों  को समझ लिया तो उसकी आध्यात्मिक प्रगति होने लगती है और अविद्या भी साथ साथ सक्रिय बनी रहती है घर्षण बल की तरह । संवित शक्ति के प्रभाव में अधिक प्रगति कर चुकने के बाद ज्यों ही विद्या की ह्लादनी शक्ति सक्रिय होती है जिससे आगे की प्रगति में और तेजी आ जाये तो तत्काल अविद्या भी अपनी आवरणी शक्ति को सक्रिय कर देती है और व्यक्ति को फिर एक बार सतर्कता से अपने विवेेक का उपयोग करना होता है। विवेकपूर्ण विद्याश्रययी अविद्या की आवरणी शक्ति को पहचान कर आगे बढ़ता जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि अविद्या और विद्या दोनों का ही उचित उपयोग कर लक्ष्य को पाना होगा । अकेले विद्या या अकेले अविद्या के सहारे वास्तविक प्रगति के स्थान पर कार्य कारण सिद्धान्त के अनुसार यहीं भटकना होगा।
     अंधं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यां उपासते,
     ततो भूय एव ते तमो य उ विद्यायां रतः।
अर्थात् केवल अविद्या की उपासना करने वाले गहन अंधकार में फंस जाते हैं और वे उनसे भी गहन अंधकार में पहुंचते हैं जो केवल विद्या की ही उपासना करते हैं।
वास्तव में स्थूल जगत में जब कोई कण किसी बहुत अधिक द्रव्यमान के पास से गति करता है तो उसे इस अधिक द्रव्यमान के गुरुत्वीय क्षेत्र में से जाना होता है अतः वह सरल रेखा में न होकर वक्र हो जाता है और इस वक्र गति में आते ही उस पर एक बल केन्द्र की ओर (centripetal) और दूसरा केन्द्र से बाहर की ओर (centrifugal) सक्रिय हो जाता है और वह कण उस द्रव्यमान के चारों ओर घूमने लगता है, यह एक साधारण भौतिक सिद्धान्त है। सूक्ष्म जगत में भी मनुष्य का इकाईमन , परमब्रह्म के विराटमन के गुरुत्वीय प्रभाव में रहता है अतः वह पूर्वोक्त भौतिक विज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार ब्राह्मिक मन के चारों ओर वृत्ताकार गति करने लगता है और विद्या centripetal  और अविद्या centrifugal बलों की तरह सक्रिय हो जाती हैं। ह्लादिनी शक्ति के अधिक तेजी से सक्रिय होने पर मन में विशेष प्रकार की अनुभूति होती है जिसे दार्शनिकों  ने भक्ति कहा है जिसके बिना उस परम सत्ता से मिल पाना संभव नहीं होता। इस अवस्था में मन में पहले यह विचार आते हैं कि उस परम सत्ता की सेवा करने से उन्हें आनन्द मिलता है इसलिये मैं भी आनन्दित होता हॅूं, इसे रागानुगा भक्ति कहते हैं, परंतु ह्लादिनी का तीक्ष्ण प्रभाव होने पर मन में यह विचार आते हैं कि मैं प्रभु की सेवा करता हूँ  जिससे उन्हें आनन्द मिले भले ही मुझे कष्ट क्यों न मिले , यह अवस्था भक्ति की सर्वोच्च अवस्था होती है और इसे रागात्मिका भक्ति कहते हैं। इन दोनों ही अवस्थाओं में अविद्या अपना प्रभाव नहीं डाल पाती। यह प्राप्त हो जाने पर फिर आत्मसाक्षात्कार से कोई नहीं रोक सकता।
   परंतु जब मन पर अविद्यामाया का प्रभाव विद्यामाया से अधिक हो जाता है तो मन में लगता है कि यह संसार ही सब कुछ है और ये सब पेड़ पौधे और जीव जन्तु उसके उपभोग के लिये ही हैं, विद्यामाया की संवित शक्ति बार बार सचेत भी करती है पर मन उस पर कोई ध्यान नहीं देता और फिर कार्य कारण सिद्धान्त के अनुसार इसी ब्रह्म चक्र में अपनी परिधि को लगातार बढ़ाते हुए ब्रह्म की निकटता से दूर होता जाता है यहाॅं तक कि अपने कर्मों के अनुसार वह विपरीत प्रतिसंचर अर्थात् जीव जंतुओं और पेड़ पौधों में से होता हुआ फिर जड़ पदार्थों में जा पहुंचता है जिसे ही नर्क कहा जाता है इसका कोई अलग से स्थान निर्धारित नहीं है। कार्य कारण सिद्धान्त या क्रिया प्रतिक्रिया नियम (cause and effect theory) के अनुसार विना किसी कारण के कोई क्रिया नहीं होती इसलिये जो जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है, ‘‘ यादृशी   भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ‘‘। सरल शब्दों में इसे इस प्रकार समझा जा सकता है। मानलो किसी को सोना अधिक प्रिय है और उसके सभी प्रयास सोने को प्राप्त करने में ही लगे रहते हैं , रात दिन ‘सोना सोना‘ इसका ही चिंतन करता है तो मृत्यु होने पर अगले जन्म में वह सोना होकर किसी धनाड्य की तिजोरी में बंद रहा करेगा। किसी भी प्रकार के धनात्मक या ऋणात्मक चिंतन करने पर मन में उसके संस्कार (reactive momenta) बनते जाते हैं जो अनुकूल अवसर आने पर अवश्य  फलित होते हैं। मनुष्य जन्म पाने का अर्थ है, अनेक जड़ और चेतन से संधर्ष के बाद प्राप्त उन्नत पद, जिसे साधना के द्वारा परम पद में मिलाने का कार्य करना है। अतः वह चिंतन करना वाॅंछनीय है जिससे उस परम सत्ता, जो कि हमारा अंतिम आश्रय है तक,  सरलता से पहुंचा जा सके। दूसरे शब्दों में अपनी भवानी शक्ति को भैरवी में और भैरवी को शिवानी में परिवर्तित करते हुए अंत में शिवानी को परम शिव में मिलाना ही प्रत्येक मनुष्य का परम कर्तव्य है। यदि ऐंसा नहीं होता है तो जन्म जन्मान्तर तक इसी भव सागर में डूबना उतराना पड़ेगा। इस से संबंधित उपनिषदों का यह निर्देश  ध्यान में रखने योग्य हैं,
    सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते, तस्मिन हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ,
    पृथगात्मानम प्रेरितारम च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति।
अर्थात् इस ब्रह्मचक्र में सभी अपने अपने आजीव की तलाश  में भटक रहे हैं और तब तक भटकते ही रहेंगे जब तक वे अपने को, और अपने उत्पत्तिकर्ता अर्थात् परमपुरुष को, पृथक पृथक मानते रहेंगे।

Friday 24 April 2015

दार्शनिक पक्ष ---विंदू क्र 1 - से आगे

दार्शनिक पक्ष ---विंदू क्र 1 - से आगे 

(2) यहाॅं ध्यान देने की महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सब ‘‘ब्रह्म मन‘‘ या (cosmic mind ) के भीतर ही काल्पनिक रूपसे चलता रहता है और यह विचार तरंगें उस परम सत्ता के सापेक्ष (relative) गति करती हैं अतः कोई भी दो तरंगें आपस में एक दूसरे को वास्तविक लगती हैं, जैसे एक समान चाल से एक ही दिशा  में समानान्तर चलने वाली दो रेलगाडि़यों के डिब्वों में वैठे यात्री अपने को स्थिर होने का आभास पाते हैं।
      स्पष्ट है कि ब्रह्म चक्र में सगुण ब्रह्म का कार्य यह है कि वह इस ब्रह्माॅंड के प्रत्येक कण को उसके मूल स्थान तक पहुंचाने के अवसर उपलब्ध कराने की व्यवस्था बनायें। जब तक इस ब्रह्माॅंड का एक भी कण अपने मूल तत्व अर्थात् परम ब्रह्म में मिल नहीं जाता या दूसरे शब्दों में प्रकृति के बंधनों से मुक्त नहीं हो जाता सगुण ब्रह्म भी बंधे रहेंगे अर्थात् यह जगत बना रहेगा, पर वह अमर नहीं है।
     स्रष्टि के स्रजन के प्रथम आधे चक्र में प्रकृति अपनी भैरवी और भवानी शक्तियों का प्रयोग करती है जो क्रमशः  रजोगुण और तमोगुण के अंतर्गत आते हैं। द्वितीय अर्धचक्र में पुरुष चेतना सुप्तावस्था से जागती है और धीरे धीरे प्रकृति अपने तीनों प्रकार के गुणबंधन ढीले करने लगती है और पाॅंच जड़ तत्वों के सामंजस्य से एककोषीय जीव जन्म लेता है और क्रमशः  प्रकृति के दबाव और खिचाव के बीच समय के साथ एककोषीय जीव  से अनेककोषीय जीवों अर्थात् वनस्पति ,जीव जंतुओं और मनुष्यों के रूप में दिखाई देने लगता है। मनुष्यों के स्तर तक आने से पूर्व के सभी स्तरों को प्रकृति अपने पूर्ण निर्देशन में उनके इकाई मनों को क्रमशः  उन्नत करते हुए आगे बढ़ाती जाती है । मनुष्य के स्तर पा जाने पर चूंकि उनका मन अधिक उन्नत हो जाता है अतः वह अन्य जीवधारियों की अपेक्षा अपने अस्तित्व बोध और अहंबोध में अधिकता अनुभव करने लगता है तथा अपने को स्वतंत्र सत्ता समझने लगता है।  प्रकृति के विभिन्न आकार प्रकार और रूपों की ओर आकर्षण में इस प्रकार डूब जाता है कि वह समझता है कि यह सब केवल  उसी के उपभोग के लिये हैं और यही सब कुछ है। इस प्रकार प्रकृति के आकर्षण में डूबकर अपने मूलबिंदु (origin) परमपुरुष तक पहुंचने के लक्ष्य को भूल जाता है। यद्यपि प्रकृति अपने पूर्व कर्तव्य को यथावत (अर्थात् आगे की ओर अपने गन्तव्य तक ले जाने की दिशा  में) विद्यामाया और अविद्यामाया की सहायता से, जारी रखती है परंतु अविद्या से प्रभावित व्यक्ति विद्या के द्वारा सचेत किये जाने वाले निर्देशों  को अपने अहंकार से दुतकारता जाता है और मुक्त होने के स्थान पर इसी जगत में फंस जाता है और जन्म मरण के चक्कर में भटकता रहता है।

Thursday 23 April 2015

अन्त (भाग दो) उपसंहार 8.0 परिणाम और निष्कर्ष

अन्त (भाग दो) उपसंहार
     8.0 परिणाम और निष्कर्ष
8.1 ब्रह्माण्ड  की उत्पत्ति और हम
   (अ) दार्शनिक  पक्ष:  
(1) विश्व  के विभिन्न मतों में इस ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के संबंध में बडे ही भ्रामक, अतार्किक और अवैज्ञानिक कारण दिये गये हैं पर सभी प्रकार से विश्लेषण करने के उपरान्त भारतीय तान्त्रिक सिद्धांत  अधिक सार्थक लगने के कारण उसे ही यहाॅं अंकित करना उचित समझा गया है । इसके अनुसार यदि किसी का अस्तित्व है तो वह है केवल परमब्रह्म, जिन्हें दार्शनिक  निर्पेक्ष सत्ता या सच्चिदानन्दघन सत्ता कहते हैं। अर्थात् वह अस्तित्व जो सत्य और सघन आनन्द की चेतना से भरा हो पर अपने ही अस्तित्व को भूला हो और सभी प्रकार की क्रियात्मक क्षमतायें प्राप्त होते हुए भी उन्हें सुप्तावस्था में ( in potential form ) अपने भीतर ही सुसंतुलित किये हो। इस क्रियात्मक क्षमता को आन्तरिक रूपसे सुसंतुलन में बनाये रखने के लिये परस्पर विरोधी बल ‘सत‘ और ‘तम‘ लगातार सक्रिय रहते है जिसके परिणाम स्वरूप एक तीसरा बल ‘रज‘ सक्रिय हो जाता है और बलों के त्रिभुज नियम के अनुसार साम्य बनाए रहता है। इन तीनों बलों को संयुक्त रूप से त्रिगुणात्मक प्रकृति ( operative principle) और जिसमें यह आश्रय पाती है उसे पुरुष अर्थात् ( cognitive principle ) कहा जाता है। इस तरह प्रकृति और पुरुष अविनाभावी हैं अर्थात् एक सिक्के के दो पहलु होते हैं । संतुलन की प्रक्रिया में प्रत्येक बल जिस क्षण अपने आप को दूसरे बलों पर प्रभावी बनने के प्रयास में असंतुलित हो जाता है तो प्रकृति अपनी गतिज अवस्था (in kinetic form) में आ जाती है और वह उस निर्पेक्ष सत्ता को उसके अस्तित्व का बोध कराती है जिससे उस परम ब्रह्म के मन (cosmic mind) में अपने को एक से अनेक में परिवर्तित करने की इच्छा उत्पन्न होती है जिसे इच्छाबीज कहा जाता है और यह पूर्वोक्त बलों के त्रिभुज के किसी एक शीर्ष में सक्रिय हो जाता है जिसे शंभुलिंग कहते हैं। त्रिभुज के केन्द्र पर स्थित परम ब्रह्म जो अब पुरुषोत्तम कहलाते हैं, अपने ही कुछ भाग पर अनेक रूप निर्मित करने के लिये प्रकृति को अनुमति देते हैं। सच्चिदानन्द सत्ता (पुरुषोत्तम) की अनुमति और निर्देशित  प्रणाली के आधार पर ज्योंही प्रकृति अपना कार्य करने को तैयार होती  है उस अवस्था को कौशिकी या शिवानी कहते हैं और इसे नियंत्रित करने वाले आधार को शिव कहते हैं। निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ होते ही शिवानी पूर्वोक्त त्रिभुज के किसी शीर्ष से सरल रेखा में गतिशील हो जाती है और ‘स्पेस' (space) का निर्माण होने लगता है और शिवानी को अब भैरवी कहा जाता है जिसके नियंत्रक आधार को भैरव कहते हैं। भैरवी के अधिक वेगवान होने पर सरल रेखा में वक्रता ( curvature) उत्पन्न हो जाती है। गति की दिशा  के ऊपर की ओर तरंग शीर्ष की वक्रता ‘‘ऊह‘‘ और तरंग की दिशा  से नीचे की ओर तरंगशीर्ष की  वकृता ‘‘अवोह‘‘ कहलाती है। एक ऊह और एक अवोह मिलकर एक ‘कला‘ ( modern wave length  λ ) और आधा ‘ऊह‘ और आधा ‘अवोह‘ मिलकर ‘काष्ठा‘ (modern half wave length  λ/2) कहलाती है। इन्हीं कलाओं की गतिशीलता का मानसिक मापन काल (time) या कालिका कहलाते हैं । इस प्रकार आकाश  (space)‘ और काल (time) निर्मित हो जाने के बाद अगले क्रम में सूक्ष्म ऊर्जा, स्थूल  आकार ग्रहण करने लगती है और भवानी कहलाती है जो वायु पानी और अग्नि के समूह अर्थात् तारे और आकाशगंगाये और विभिन्न ठोस पिन्डों का निर्माण करने लगती है इसीलिये इस द्रश्य  प्रपंच को भवसागर कहते हैं। इसका एक नाम जगत भी है जिसका अर्थ है जो लगातार गतिशील है। निर्पेक्ष निराकार परम सत्ता इस प्रकार अपने आपको आकार में ले आते  हैं जो अब सगुण ब्रह्म कहलाते हैं और जिनका अस्तित्व बोध, इच्छाबीज, शंभु लिंग और शिवानी तक का क्षेत्र ‘‘महत्तत्व‘‘ या (existential I feeling) शिवानी से भैरवी तक का क्षेत्र ‘‘अहम्तत्व‘‘ (doer I feeling) और भवानी से समग्र ब्रह्माॅंड तक का आकार ‘‘चित्त‘‘ (done I feeling) कहलाता है और महत् , अहम् और चित्त तीनों को सम्मिलित रूपसे ‘‘ब्रह्म मन‘‘ या (cosmic mind) कहते हैं। इससे प्रकट होता है कि महत्तत्व अथवा अस्तित्व बोध का साक्ष्य देने वाली सत्ता ही पुरुषोत्तम हैं जो ब्रह्म के सगुणत्व का साक्ष्य देते हैं। इस प्रकार सगुण ब्रह्म का अंतःकरण सात अवयवों महत्तत्व, अहंतत्च और पंच महाभूतों से मिलकर बनता है और वहिःकरण नहीं होता, जबकि जीवात्मा का अंतःकरण दो अवयवों महत् और अहम् तत्व से और वहिःकरण पंचमहाभूत और मूलाप्रकृति इन छः अवयवों से मिलकर बनता है अतः जीवात्मा के कुल आठ अवयव होते हैं।  सगुण ब्रहम की महत्तत्व से चित्तत्व तक की गतिविधियाॅं अर्थात् सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति, संचरक्रिया (centrifugal reaction in extroversal phase) कहलाती हैं और यह ‘‘ब्रह्मचक्र‘‘ (cosmic cycle) का आधा भाग कहलाता है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति अर्थात् जड़ पदार्थों से वनस्पति जगत , जीवजगत  और मनुष्यों का क्रमागत विकास और अंततः अपने मूल तत्व उस निराकार परम ब्रह्म अवस्था को पहुंचाने तक की गतिविधियाॅं प्रतिसंचर क्रिया (centripetal action in introversal phase ) कहलाती है।  संचर और प्रतिसंचर क्रिया दोनों को मिलाकर पूरा ब्रह्म चक्र बन जाता है।

Tuesday 21 April 2015

7.7 धर्म, विन्दु, शून्य, अंक और इंद्र


7.7   धर्म, विन्दु, शून्य, अंक और इंद्र
        धर्म   - हर स्थति में धर्म का पालन करना चाहिये। मानव धर्म के चार अंग हैं विस्तार, रस, ,सेवा और तद्स्थिति अर्थात् परमात्मा में लय। प्रथम तीन के संयुक्त प्रभाव से ही चैथा स्तर प्राप्त हो सकता है। धर्म की गति अत्यंत सूक्ष्म होती है अतः जगत के कल्याण के लिये कार्य करते हुए अपने आप को मुक्ति के रास्ते पर चलाने की अभ्यास करने का नाम साधना करना  है जो प्रत्येक मानव का धर्म है क्यों कि इसी से परमात्मा प्राप्त होते हैं।
शून्य , अंक और विन्दु - ‘शून्य‘ और ‘एक‘ का संख्याओं में बहुत महत्व है, जैसे एक के पहले यदि शून्य लगादें तो उसका मूल्य वही रहता है और यदि आगे लगा दें तो दस गुना बढ़ जाता है। संख्या कितनी ही बड़ी क्यों न हो यदि गंभीरता से विचार करें तो वास्तव में संख्या ‘एक‘ ही उस बड़ी संख्या में उतनी बार समाये रहती है अतः संख्या मूलतः ‘एक‘ है। अनन्त सीमा रहित है अतः संख्या ‘एक‘ ही अनन्त बार इसमें समायी हुई है। विंदु का परिमाण नहीं होता केवल स्थिति होती है। विन्दु और शून्य का संख्या के साथ विपरीत स्वभाव होता है। विन्दु संख्या के पहले लगाने पर उसका मूल्य दस गुना घट जाता है और आगे लगाने पर मान अपरिवर्तित रहता है। इसका अर्थ यह हुआ कि अस्तित्व तो केवल संख्या, वह भी ‘एक‘ का ही है उसके अनेकत्व में अथवा मूल्य में आभासी कमी या बृद्धि होने के लिये तो विंदु और शून्य की स्थितियां ही उत्तर दायी हैं। विंदु ‘काल‘ अर्थात् टाइम है , शून्य ‘आकाश ‘ अर्थात् स्पेस है और ‘अंक‘ है नित्य, सार्वभौमिक सत्ता। अंक, विंदु और शून्य पारस्परिक रूप से जुड़कर जिस प्रकार अपने अनन्त आकारों में प्राप्त होते हैं उसी प्रकार  सार्वभौमिक, परम आत्म तत्व, देश  और काल के पारस्परिक स्थानान्तर से अपने अनन्त स्वरूप बनाता है जिसे यह सृष्टि कहा जाता है। हम उसके अत्यल्प भाग हैं और उसी के सापेक्ष अपना अस्तित्व रखते हैं। स्पेस और टाइम में जकड़ा यह प्रपंच अंततः विंदु में ही आश्रय पाता है क्योंकि वही उसका जनक है। इस विंदु को आज के वैज्ञानिक भी महत्व देते हैं वे कहते हैं कि ब्लेकहोल एक विंदु ही है जिसमें प्रकाश  के कण अर्थात् फोटान ही नहीं अंत में सभी गैलेक्सियाॅं और स्पेस तक अवशोषित हो जाते हैं, और विदु को अंक की शरण में जाना पड़ता है क्योंकि असली अस्तित्व अर्थात् नित्यत्व तो उसी का है। स्पष्ट है कि विंदु और शून्य के चंगुल से जो छूूट गया उसे अंक प्राप्त हो ही जाता है यह अंक ही परम सत्ता है, परम सत्ता की अंक अर्थात् गोद है इसी ‘एक‘ को प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य है।
      इंद्र     . इंद्र का अर्थ है वह, जिसकी क्रिया में प्रधान भूमिका होती है। देवताओं के प्रधान को इसी कारण इंद्र कहते हैं। ऊंचे ताल बृक्ष को इंद्रतरु कहते हैं। किसी के अस्तित्व को क्रियाशील करने के लिये जिनकी प्रधान भूमिका होती है उन्हें इंद्रियां कहते हैं। मन पर बंधनकारी बलों के प्रभाव से आने वाले विचारों का आन्तरिक और वाह्य अनुभव कर कार्यरूप में परिणित करने का कार्य इंद्रियां ही करती हैं। सृष्ट जगत में इंद्रियों के द्वारा अपना संबंध बनाया जाना उनकी उपाधि कहलाता है इसी से वह एक सत्ता वाह्य संसार में अनेक दिखाई देने लगती है। इन्हीं उपाधियों में मस्त हो मन सोचता है कि ‘मै‘ ही हूॅ, मैं यहीं ठीक हूॅं।‘  उस एक परम सत्ता के असंख्य कंपनों से निर्मित असंख्य अस्तित्वों में अच्छा बुरा, सुखदायी दुखदायी, पूर्णता अपूर्णता आदि के भाव भी यह इंद्रियां ही पैदा करतीं हैं। जीवन के इन द्वंद्वों में जब आघातों से सामना होता है तो यही इंद्रियां उसे हटाने के लिये कोई अपने से अधिक ताकतवर साधन खोजती हैं जिसे वह कष्टों से बचाने के लिये कह सकें । वह परम सत्ता भी अंतरिक हृदय में इस कष्ट को जानकर अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये कष्टों की अनुभूति में कमी का अनुभव कराती है और व्यक्ति अनुभव करता है कि ‘‘मैं हूॅं और प्रभु तूॅ भी है।‘‘ इस यात्रा में जब वे शिथिल हो जातीं हैं तब वाह्य जगत से उनकी इच्छाओं की पूर्ति में बाधा आने पर वे मन की भीतरी पर्तों में घुसतीं हैं जहां आन्तरिक और वाह्य जगत दोनों की चमक एक होने लगती है तब लगता है कि अभी तक जो अनुभव हो रहा था और जिस जाल में उलझकर आनंद मानता था वह केवल माया का भ्रम था और अनुभव होता है कि
‘‘‘मैं नहीं, यह जगत नहीं  केवल तू है केवल तू है।‘‘‘

Monday 20 April 2015

मनोविज्ञान प्रश्नोत्तर प्र- 37 से आगे


मनोविज्ञान प्रश्नोत्तर प्र- 37 से आगे 


38. दीक्षा क्या है?
      - दीक्षा वह प्रक्रिया है जिसमें आध्यात्मिक प्रकाश  मिलने के साथ संस्कारों का क्षय होना प्रारंभ हो जाता           है।
39. वैदिक दीक्षा क्या है?
      - वैदिक दीक्षा कोई उपासना पद्धति नहीं है, इसमें परम पुरुष से उचित मार्ग दिखाने की प्रार्थना करने का             लक्ष्य होता है। प्रार्थना के रूपमें ईश्वर  की प्रशंसा की जाती हैं
40. तान्त्रिक दीक्षा क्या है?
        - तान्त्रिक दीक्षा एक उपासना पद्धति है। इसमें गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण होती है वह आशीर्वाद देकर इष्ट          चक्र और इष्ट मंत्र देते हैं। इसमें लक्ष्य होता है कि परम पुरुष के साथ एक हो जावें।
41. वैदिक और तान्त्रिक दीक्षा में क्या अंतर है?
- वैदिक दीक्षा केवल प्रार्थना है उसकी कोई आध्यात्मिक उपासना पद्धति नहीं है। इसमें इष्ट मंत्र और इष्ट चक्र की कोई प्रणाली नहीं है। जबकि तान्त्रिक दीक्षा व्यावहारिक उपासना पद्धति है जिसमें इष्ट चक्र और इष्ट मंत्र होता है।
42. बुद्ध के विचार और तान्त्रिक विचार से पुनर्जन्म में क्या अंतर है?
- तंत्र के अनुसार पुनर्जन्म, पराशक्ति के द्वारा जीवात्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में ले जाना (transformation) कहलाता है। मानव जीवात्मा गाय, ऊंट , भेड़ आदि किसी के भी शरीर में संस्कारों के अनुसार जा सकती है अर्थात् जीवात्मा गति करती है। बुद्ध ने कहा पुनर्जन्म होगा, पर किसका? यह नहीं बता सके। जीवात्मा के संबंध में उन्होंने कुछ नहीं कहा।
     दोनों ही स्थितियों में वह न्यूनतम संस्कार ही होते हैं जो किसी को उसे पुनर्जन्म दिलाने में आधार बनते हैं।
43. मेक्रो पीनियल प्लेक्सस (macro-pineal plexus) क्या है? उसका साधना की कार्यवाही में क्या उपयोगिता है?
- पीनियल प्लेक्सस के भीतरी ओर का भाग मेक्रोपीनियल प्लेक्सस कहलाता है । आध्यात्मिक साधना में इसका बहुत अधिक महत्व है क्यों कि यह गुरु चक्र कहलाता है जिस पर ध्यान का अभ्यास किया जाता है।
44. पीनियल प्लेक्सस की बाहरी सतह शरीर के भीतर होती है या बाहर?
- वह शरीर के बाहर होती है।
45. ओंकार क्या है?
- ब्रह्माॅड के निर्माण, संरक्षण और विनाश  की समग्र प्रक्रिया की संयुक्त ध्वनि को ओंकार कहते हैं।
46. ओकार का प्रारंभिक विंदु क्या है?
- वह शंभुलिंग से प्रारंभ होता है,अर्थात परमपुरुष के इच्छाबीज से प्रारम्भ होता है। 
47. सविकल्प और निर्विकल्प समाधियों में क्या अंतर है?
- इकाई मन के विस्तार में जब अहम और चित्त तत्व दोनों महत् तत्व मिल जाते हैं तो इसे सविकल्प समाधि कहते हैं। जब महत् तत्व इकाई चेतना में मिलकर गुणों के बंधन से दूर हो जाता है तो उसे निर्विकल्प समाधि कहते हैं।

Sunday 19 April 2015

मनोविज्ञान प्रश्नोत्तर प्र-23 से आगे----

मनोविज्ञान प्रश्नोत्तर प्र-23  से आगे----

24. बंध और वेध में क्या अंतर है?
     - बंध केवल वायु को और वेध वायु और नर्व दोनों को प्रभवित करते हैं।
25. सर्वांगासन और विपरीतकर्णी मुद्रा में क्या अंतर है?
      - सर्वांगासन में हमें मन को पैरों के अंगूठे पर केन्द्रित करना होता है जबकि विपरीतकर्णी मुद्रा में नाक के शीर्ष पर या नाभि पर।
26. योग का महत्व क्या है?
      - इकाई मन का परम मन के साथ मिलन योग कहलाता है ‘‘संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनः परमात्मनः‘‘। मन की वृत्तियों पर नियंत्रण करना योग कहलाता है ‘‘योगः चित्त वृत्तिः निरोधः‘‘। सभी विचारों और चिंताओं को नियंत्रित कर निश्चिन्त  होना योग कहलाता है, ‘‘सर्वचिंता परित्यागों निश्चिन्तो  योग उच्यते।‘‘
27. त्राटक योग क्या है?
      - आन्तरिक रूपसे द्रष्टि को नियंत्रित कर अतिप्राकृतिक देखना त्राटक कहलाता है।
28. प्रत्याहार क्या है?
     - वाह्य संसार की वस्तुओं से मन को खींच कर परमपुरुष की ओर संचालित करना प्रत्याहार कहलाता है।
29. धारणा क्या है?
     -शशीर  के भीतर पाॅंचों मूल घटकों को यथास्थान उनके नियंत्रक विंदुओं पर थामना, धारणा कहलाता है।
30. प्राणायाम क्या है?
     - यह ब्रह्म का चिंतन करने के साथ साथ श्वाश  को नियंत्रण करने की प्रक्रिया है जो मन को एकत्रित करने          में सहायक होती है।
31. प्रणायाम के कार्य क्या है?
      - प्राणायाम दस प्राणवायुओं पर नियंत्रण करने में मदद करता है, वायुएं ग्रंथियों को नियंत्रित करती हैं,              ग्रथियाॅं हारमोन्स को और हारमोन्स मन की वृत्तियों को नियंत्रित करते हैं।
32. युधिष्ठिर विद्या क्या है?
     - प्राणायाम करते समय मन को किसी एक विंदु पर केन्द्रित करना युधिष्ठिर विद्या कहलाती है।
33. रेचक पूरक और कुंभक क्या हैंे?
    - प्राणायाम के समय पूर्णरूपसे वायु को भीतर खींच लेना पूरक, रोके रखना कुभक और पूर्णतः बाहर निकालना रेचक कहलाता हैं।
34.  रेचक का अर्थ क्या है?
    - रेचक का मतलब है सफाई।साॅंस लेने के समय जब कोई पूरी साॅंस बाहर निकाल देता है तो यह रेचक कहलाता है।
35. ध्यान क्या है?
     - परम सत्ता का चिंतन करना ध्यान है, इसका अर्थ है बिना रुके मन को लगातार परमपुरुष के चिंतन में            ऊपर की ओर चलाते रहना।
36. समाधि क्या है?
      - इकाई चेतना का परम चंतना के साथ मिलन हो जाना समाधि कहलाता है , यह कोई विशेष  पाठ नहीं है           बल्कि यह तो सभी पाठों का संयुक्त परिणाम है।
37. शोधन क्या है?
      - चक्रों पर ध्यान केन्द्रित करना शोधन कहलाता है यह अष्टाॅंग योग में नहीं है पर आनन्द पथ (Path of bliss) साधना में सिखाया जाता है।

Saturday 18 April 2015

मनोविज्ञान प्रश्नोत्तर प्र- 17 से आगे ------

मनोविज्ञान प्रश्नोत्तर प्र- 17 से आगे ------
18. धुवा स्मृति क्या है?
- पूर्व में अनुभवित किसी बात या घटना का पुनःस्मरण करना स्मृति कहलाता है, जब यह स्थायी हो जाता है तो इसे धुवा स्मृति कहते हैं। अर्थात् अभ्रान्त स्मृति ।
19. आसन की प्रवृत्ति क्या है?
- उचित साॅंस लेते हुए शांतिपूर्वक सरलता से जिस स्थिति में सुखपूर्वक बैठा जा सकता है उसे आसन कहते हैं। लगातार अभ्यास से आसनों के द्वारा बीमारियों को दूर किया जा सकता है और हारमोन्स के असंतुलन को नियंत्रित किया जा सकता है , ये साधक को मन पर नियंत्रण करने और शरीर को आराम देने में मदद करती हैं।
20. हम आसन क्यों करते हैं?
- इनसे ग्रंथियों का दोष दूर होता है और वृत्तियों पर नियंत्रण होता है। आसन ग्रंथियों को, ग्रंथियाॅं हारमोन्स को और हारमोन्स वृत्तियों को नियंत्रित करते हैं। ये शरीर में लचीलापन लातीं हैं। शरीर और मन में संतुलन रखती हैं। मन को जड़ चिंतन से दूर करती हैं। उच्च और सूक्ष्म साधना करने के लिये मन को तैयार करतीं हैं।
21. आसनों को नाम किस प्रकार दिया जाता है।?
     - कुछ आसनों के नाम जानवरों के नाम से और कुछ के उन जानवरों की संरचना के अनुसार तो कुछ को उन आसनों के गुणों के अनुसार नाम दिया गया है।
22. आसनों के प्रकार क्या हैं?
     - 1 सर्वांगासन -शरीरिक स्वास्थ्य के लिये। 2 ध्यानासन- मन को नियंत्रित करने और ध्यान के लिये जैसे पद्मासन, बद्धपद्मासन, सिद्धासन और वीरासन। 3 मुद्रा- यह कठिन आसन होते हैं जो उचित साॅंस लेने और नियंत्रण के लिये किये जाते हैं। 4 बन्ध- ये केवल शरीर के दस वायुओं को प्रभावित करते हैं। 5 वेध- ये सभी नाडि़यों और वायुओं को प्रभावित करते हैं।
23. आसन और मुद्रा में क्या अंतर है?
    - आसन वे सरल भौतिक स्थितियाॅं हें जो ग्रंथियों और ऊर्जा केन्द्रों को हारमोन्स का स्राव करने हेतु अनुकूल परिस्थितियाॅं पैदा करती हैं। मुद्रा कठिन शारीरिक स्थितियाॅं हैं जो माॅसपेशियों और नाडि़यों को अभ्यास कराती हैं।

Friday 17 April 2015

मनोविज्ञान प्रश्नोत्तर प्र- 11 से आगे----


मनोविज्ञान प्रश्नोत्तर प्र- 11 से आगे----
12. क्लेयरवोयेंस क्या है?
- ये दो प्रकार के होते हैं पहला आन्तरिक और दूसरा दूरस्थ। आन्तरिक क्लेयरवोयेंस तब होता है जब व्यक्ति निकट होता है और आप उसके मन में क्या हो रहा है यह जान सकते हो। और दूरस्थ में व्यक्ति दूर होता है पर फिर भी आप उनके संबंध में क्या घटित हो रहा है यह जान सकते हो। संस्कृत में इन्हें क्रमशः  अन्तर्द्रष्टि और दूरद्रष्टि कहते हैं।
13. टेलीपैथी क्या है?
- इसका अर्थ है किसी के विचारों को पढ़ लेना। वाक्सिद्धि, उच्चस्तर की टेलीपैथी है। वाक्सिद्ध जो कुछ कहता है सत्य घटित होता है। दूसरे प्रकार की टेलीपैथी में इंद्रियों का संतुलन विकृत कर दिया जाता है जैसे, जिसके पास यह शक्ति विकसित हो जाती है वह किसी को एक प्रकार की सुगंध का अनुभव करा सकता है और फिर अचानक परिवर्तन कर दूसरे प्रकार की सुगंध अनुभव करा देता है।
14. मनपरिवर्तन या रूपान्तरण क्या है?
- मानलो आप किसी नाड़ी में कष्ट का अनुभव कर रहे हैं और उस नाड़ी से ही यदि कष्ट को हटा दिया जाता है तो इसे रूपान्तरण कहेंगे। इसे दूर से इंद्रियों में पररिवर्तन कर या माइक्रोवाइटा का उपयोग कर किया जा सकता है। मानलो किसी को पीठ में दर्द है और वह ऊपर की ओर बढ़ता जाता है और धीरे धीरे जीभ से उच्चारण भी करते नहीं बनता तो यह नेगेटिव माइक्रोवाइटा के प्रभाव से हो सकता है यदि यह कुछ देर तक जारी रहता है तो बोलने की क्षमता स्थायी रूप से समाप्त हो जाती है। नेगेटिव माइक्रोवाइटा का उपयोग और दूरी से इंद्रियों का परिवर्तन अविद्या के अंतर्गत आते हैं। इससे केवल एक प्रतिशत लाभ हो सकता है अतः उन शक्तियों को विकसित करना चाहिये जो सीधे परमपुरुष से जोड़ें।
15. हिपनोसिस क्या है?
- संस्कृत में इसे योगनिद्रा कहते हें। यदि इकाई मन परमपुरुष की ओर उनका चिंतन करते हुए भेजा जाता है तो वह परम पुरुष की समीपता से आनन्दित होता है जिस स्तर पर वह कासमिक माइंड में मिल जाता है और बाहरी किसी चीज से संबंध नहीं रखता तो इसे योग निद्रा कहते हैं। ध्यान रखने योग्य यह है कि हिपनोटिज्म अलग बात है, इसमें जादूगर दूसरों के मन को प्रभावित कर जैसा वह सोचता है वैसा ही सोचने को विवश  कर देता है।
16. अभिशाप और वरदान क्या हैं?
- मानलो किसी को ठंड लग गई और उससे उसके फेफड़े भी प्रभावित हो गये तो यह अभिशाप कहलायेगा। क्या कोई इसे चाहेगा? साधारण व्यक्ति डर से कहेगा नहीं पर विवेकी व्यक्ति कहेगा यदि परमपुरुष मेरे बोलने की शक्ति ले लेगा तो मैं उनका काम कैसे करूंगा? परमपुरुष किसी भक्त से प्रसन्न हों तो वे उसे सभी अच्छे गुणों का वरदान देते हैं। इस लिये परमेश्वर  ने जो कुछ शक्तियाॅं तुम्हें दी हैं उनका उपयोग उन्हीं का कार्य करने में करो नही तो वे उन्हें वापस ले लेंगे।
17. क्या साधुओं को नशीली वस्तुओं का सेवन करना चाहिये?
- नहीं । क्योंकि उससे लिंफ का परिवर्तन सीमेन में होने लगता हे और मस्तिष्क को उसका भोजन अर्थात् लिंफ मिलना घटने लगता है, इससे अन्य सभी ग्रंथियाॅं भी प्रभावित हो जाती हैं और पूरा नर्वस सिस्टम ही प्रभावित हो जाता है । इससे साधना करना कठिन हो जाता है मन स्थिर नहीं रहता।

Thursday 16 April 2015

मनोविज्ञान से सम्बंधित प्र- 7 से आगे----

मनोविज्ञान से सम्बंधित प्र- 7 से आगे----

8. इन्सटिंक्ट  और मार्गदर्शक  मनोसंकाय का अर्थ क्या है ? इनमें मौलिक अंतर क्या है और क्या मार्गदर्शक मनोसंकाय इंस्टिंक्ट से स्वतंत्र होता है?
       -  पर्यावरण के साथ अस्तित्व की क्षमता को व्यवस्थित करते हुए संरचना को बनाये रखना, संख्या में बृद्धि करना और फिर संरचना को नष्ट करना इंस्टिंक्ट कहलाता है। ये इंस्टिंक्ट दो प्रकार की होती हैं सहजात और ग्रहीत। सहजात वे हैं जो जन्म से ही होती है जैसे रोना, माॅं का दूध चूसना, टट्टी पेशाब करना। ग्रहीत वे हैं जो जन्म के बाद में प्राप्त की जाती हैं जैसे गुदगुदाने पर हंसना। पर आनंदित रहने का गुण सहजात होता है।किसी चुटकुले को सुनकर जो हंसी आती है वह गुदगुदाने से आने वाली हंसी से भिन्न होती है , पहले प्रकार की हंसी मानसिक है जबकि दूसरे प्रकार की भौतिक। मानलो अनेक रसगुल्ला और मिठाइयाॅं सामने रखीं हो तो मार्गदर्शक  संकाय को निर्णय लेना पड़ेगा। मन पूछता है कि  कौन सी मिठाई खाई जाये, मार्गदर्शक  संकाय निर्णय लेता है। पर यदि मार्गदर्शक  संकाय कहता है कि तुम्हें कुछ भी नहीं लेना चाहिये फिर भी तुम्हारी इंस्टिंक्ट  यह कह सकती है कि कुछ ले लेने में कोई बुराई नहीं है। जब इंस्टिंक्ट  कुछ खाने को कहती है और मार्गदर्शी  मनोसंकाय भी समर्थन करता है तो यह उदाहरण मार्गदर्शी  मनोसंकाय से संबद्ध इंस्टिंक्ट  का कहलायेगा। मार्गदर्शी  मनोसंकाय की सहायता से स्मरण शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। इंस्टिंक्ट में नाडि़यों का संकुचन और फैलाव विना किसी मानसिक सहयोग के होता है। इंस्टिंक्ट  में अस्तित्व बनाये रखने के लिये और अस्तित्व नष्ट करने के लिये संधर्ष होता है।
9. फोबिया, मीनिया, मेलेंकोलिया, स्ट्रेनोफे्रनिया और वोकल मेनिया में क्या समानता है?
       - वे सभी मानसिक बीमारियाॅं हैं। फोबिया अर्थात् आतंक , किसी चीज से अत्यधिक डरना, कोई तैरना नहीं जानता तो वह नदी में नहाने से बहुत डरेगा। मीनिया अर्थात् वायुरोग,  इस रोग से प्रभावित व्यक्ति एक ही चीज को बार बार दुहरायेगा भले ही वह अतार्किक हो जैसे स्वस्थ रहते हुए भी वह कहेगा तवियत ठीक नहीं है, यह मन की किसी कमजोरी के कारण होता है। मेलंकोलिया अर्थात् विषादवायु, इसमें व्यक्ति हमेशा  कुंठा और उदासी अनुभव करता है जीवन के सभी आकर्षण चले जाते हैं और वह व्यर्थ ही सोचने लगता है कि उसे कोई नहीं चाहता। स्ट्रेनोफेनिया अर्थात् मुद्रादोष इसमें व्यक्ति अनजाने में ही अपना जेस्चर या मुद्रा बार बार दुहराता रहता है। वोकल मेनिया में व्यक्ति बोलने की कोशिश  करता है पर बोल नहीं पाता।
10. मनोविज्ञान की मुख्य शाखायें कौन सी हैं?
       - मनोविज्ञान की मुख्य शाखाएं  हैं, सामान्य मनोविज्ञान, जीवमनोविज्ञान, परामनोविज्ञान, और शीर्ष मनोविज्ञान।
11. परामनोविज्ञान की पहुंच कितनी है?
       - परामनोविज्ञान वह विज्ञान है जो हमारे वर्तमान जीवन को पिछले जीवनों से जोड़ती हैं, यह विभिन्न जीवनों के बीच के अंतर को जोड़ने का कार्य करती है। कई बच्चों को अपने पिछले जीवन की याद रहती है पर बारह या तेरह वर्ष की आयु के बाद वे भूलने लगते हैं क्योंकि यदि वे याद रखते हैं तो उन्हें दुहरा जीवन जीना पड़ता है जो उनकी असमय मृत्यु का कारण बनता है। परामनोविज्ञान का क्षेत्र बहुत ही पिछडा है इसे उन्नत किया जाना चाहिये पर चंूकि यह क्षेत्र आध्यात्मिक होता है अतः आध्यात्मरहित व्यक्ति उसे कैसे विकसित कर सकते हैं। परमपुरुष हजारों वर्ष  पिछले जीवनों को भी देख सकते हैं क्योंकि उनके पास सुप्राओकल्ट पावर होता है। उन्हें किसी नर्वसैल या नर्व फाइवर की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि सब कुछ उनके मन में ही होता है अतः उनकी इच्छामात्र से सब कुछ सामने आ जाता हैं। वे सभी इकाई मनों को देख सकते हैं।

Wednesday 15 April 2015

7.6 मनोविज्ञान और साधना से संबंधित प्रश्नोत्तर


अभी तक आप योग विज्ञान और व्यावहारिक जीवन से सम्बंधित प्रश्नो के उत्तर पाते रहे ,आशा है इस सम्बन्ध में आपकी सभी जिज्ञासाएँ शांत हो चुकी होंगी। अब खंड  7-6 में  हम मनोविज्ञान और साधना से संबंधित प्रश्नोत्तरों पर चर्चा करेंगे और इन क्षेत्रों में उठने वाली स्वाभाविक जिज्ञासाओं का शमन करने का प्रयत्न करेंगे 

7.6   मनोविज्ञान और साधना से संबंधित प्रश्नोत्तर
1. मानसिक प्रगति और आध्यात्मिक प्रगति में मूल अंतर क्या है?
      - मानसिक प्रगति एक्टोप्लाज्म और एन्डोप्लाज्म के क्षेत्र में होती है जबकि आध्यात्मिक प्रगति संज्ञानात्मक सत्ता के  क्षेत्र में, जहाॅं सभी अभ्यास और वृत्तियाॅं परम लक्ष्य की ओर प्रेषित  कर दी जाती हैं। एन्डोप्लाज्म, एक्टोप्लाज्म की  वाहरी सतह है, यह संयुक्त रूप से ‘‘ व्यक्तिगत अस्तित्व बोध‘‘ बढ़ाता है। इकाई एक्टोप्लाज्म की बृद्धि से उसका आयतन और क्षेत्र बढ़ता जाता है और सामूहिक एक्टोप्लाज्म भी क्रमशः अपना आकार बढ़ा लेता है इससे अंततः एन्डोप्लाज्म अपना आकार बढ़ाते हुए टूट जाता है और इस प्रकार ‘‘इकाई मैं ‘‘, ‘‘कास्मिक मैं‘‘ में मिल जाता है।
2. क्या इकाई प्रोटोप्लाज्मिक सैल के अस्तित्व वोध का संबंध सामूहिक प्रोटोप्लाज्मिक सैलों के साथ वैसा ही है जैसा इकाई चेतना और ब्राह्मिक चेतना का?
       - नहीं, इनमें अंतर है। सामूहिक प्रोटोप्लाज्मिक सैलों का अस्तित्ववोध, इकाई प्रोटोप्लाज्म के सुख और दुख से प्रभावित होता है परंतु ब्राह्मिक चेतना सुख दुख से प्रभावित नहीं होती। सामूहिक अस्तित्ववोध किसी इकाई प्रोटोप्लाज्मिक सैल को अपने में से बाहर निकाल सकता है पर ब्राह्मिक चेतना , इकाई चेतना को अपने से बाहर नहीं कर सकती क्योंकि ब्राह्मिक चेतना का क्षेत्र इकाई चेतना से बहुत बड़ा होता है।
3. एक्टोप्लाज्म और एन्डोप्लाज्म की संरचना में क्या भेद है?
- एक्टोप्लात्म से मानसिक संकाय का बोध होता है पर एन्डोप्लाज्म से इकाई मैंपन का बोध। एन्डोप्लाज्म , एक्टोप्लाज्म का वाहरी आवरण होता है।
4. परम ज्ञानात्मक सत्ता से कौन अधिक निकट होता है एक्टोप्लाज्म या एन्डोप्लाज्म?
      - एन्डोप्लाज्म सामूहिक प्रकृति और संरचना का होता है और न्यूनतम मैंपन का बोध रखता है जबकि एक्टोप्लाज्मिक सैलों की संरचना और प्रकृति, इकाई होती है, इसका इकाई अस्तित्वबोध और इकाई ज्ञानात्मक वोध होता है। परम ज्ञानात्मक सत्ता प्रोतयोग से सामूहिक और ओत योग से व्यक्तिगत इकाई संरचना से संबद्ध रहता है। मानव मन की संरचना जटिल होती है यह जटिल संरचना इकाई मैंपन का बोध कराती है जबकि उसमें अनेक एककोषीय ओर बहुकोषीय सैल रहते हैं जिनकी संवेदनाये, संकल्पनायें और आभास अनेक प्रकार के होते हैं।
5. मनुष्यों और पेड़ों के प्रोटोप्लाज्मिक सैलों में मनोवैज्ञानिक रूपसे क्या अंतर है?
      - इनमें अधिक अंतर नहीं है, पौधों के प्रोटोप्लाज्मिक सैलों में एव्डोप्लाज्मिक आवरण नहीं होता जबकि मनुष्यों में होता है। एन्डोप्लाज्मिक आवरण मानव संवेदनाओं को अंकित करता है जिससे मानव मन अधिक सूक्ष्म और ग्रहणषील बनता है।
6. सेन्टीमेंट या मनोभावना क्या हैं?
     - उचित और अनुचित का विभेदन किये बिना ही अंधों की तरह दौड़ पडना सेंटीमेंट कहलाता हैं। उचित और अनुचित का भेद बताने वाला साधन समझदारी कहलाता है। जब मानव उचित और अनुचित का निर्णय कर उचित रास्ता पकड़ लेता है तो उसे विवेक कहते हैं।
7. इन्सटिंक्ट या सहजबोध क्या है?
      - पीनियल और पिट्यूटरी ग्लेंड को छोड़कर जब सेंटीमेंट या मनोभावनाएं, प्रकट होने के लिये अन्य ग्लेंड या उपग्लेंड का सहारा लेती हैं तो उसे सहजबोध कहते हैं।

Tuesday 14 April 2015

प्रश्नोत्तर ( प्र 54 से आगे---)



प्रश्नोत्तर ( प्र 54  से आगे---)
55. स्मृति का आधार क्या है?
-पहले से देखी हुई बस्तुओं का पुनः स्रजन करना स्मृति कहलाता है, एक बार चित्त के द्वारा अनुभव की गई बस्तु से निलने वाले कंपन नर्व तंतुओं द्वारा प्रिंट कर लिये जाते हैं, चित्त में यह अनुभव बीज के रूप में रहता है। नर्वसैलों में अनुकूल कंपन और चित्त में वही भावना प्रेरित करने पर कोई व्यक्ति स्मृति का अनुभव करता है। इस लिये स्मृति का आधार मस्तिष्क नहीं चित्त है। देखी गई वस्तु के कंपन नर्वतंतुओं में कुछ दिनों तक बने रहते हैं फिर क्षीण हो जाते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि स्मृति नर्व सेलों में रेखा के रूप में संचित रहती है, पर यदि यह होता तो ब्रेन उसे जगह नहीं दे पाता क्योंकि जिनके वहुआयामी विचार होते हैं उनका क्रे नियम जटिल और बड़ा होता है ताकि उचित कंपन करने की व्यवस्था बनाये रखी जा सके।
56. क्या भूत सचमुच होते हैं?
- वे विचित्र आकार जिन्हें हम भूत कहते हैं मुख्यतः कल्पना के टुकड़े हैं। जब मन कमजोर या असुरक्षित अवस्था में होता है तब पूर्व में की गई कल्पनाओं में निर्मित किये गये प्रतिबिंव वास्तविक प्रतीत होने लगते हैं। जब काममय कोष सो जाता है और मनोमय कोष जागते हुए कुछ सोचता है तो वे कंपन वास्तविक लगने लगते हैं और जागने पर हम उन्हें स्वप्न कहते हैं। इसी प्रकार तीब्र भय, सम्मोहन, अपरिपक्वता अथवा किसी रिपु या पाश  के अत्यधिक प्रदर्शन  से काममय कोष अस्थायी रूप से अगले उच्च कोष में निलंबित हो जाता है तो कल्पित की गई बस्तुएं या रूप वास्तव में दिखाई देने लगते हैं। इसी प्रकार कई लोग देवी या देवता भी देखते हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं है। हिपनोटिज्म में भी व्यक्ति का काममय कोष बाहरी हिपनोटिस्ट की कमांड से सुप्तावस्ता में आ जाता है  और वह कल्पित चीजों को वास्तव में देखने लगता है। जिनके कमजोर मन होते हें वे अपने रिश्तेदारों के भूत /देवी ,देवता के रूप देखने लगते हैं। इस प्रकार के द्रश्य , स्व या वाह्य धनात्मक विभ्रम होते हैं। यहां यह स्पष्ट करना उचित होगा कि वे, जो द्रढ़तापूर्वक यह कहते हैं कि उन्होंने भूत को देखा है वे गलत नहीं कहते हैं, यह ऋणात्मक या धनात्मक विभ्रम का मायाजाल होता है जिससे वे इन चीजों को देखते हैं। यह भी संभव है कि द्रढ़ इच्छाशक्ति के व्यक्ति के मानसिक एक्टोप्लाज्म किसी देह रहित आत्मा को अपने संस्कारों के अनुरूप जबरन शरीर देकर भूत का निर्माण कर दें। तथाकथित भूत का अस्तित्व संबंधित व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता हैं, इसप्रकार का भूत सामान्यतः कहे जाने वाले भूतों से भिन्न होता है। अपने मानसिक एक्टोप्लाज्म की सहायता से किसी आत्मा को जबरदस्ती शरीर देना बुरी बात है, अच्छे व्यक्ति किसी को भूत दिखाने के लिये कभी ऐंसा नहीं करते। वे, जो सोचते हैं कि भूत समय समय पर उन्हें अपने एक्टोप्लाज्म की सहायता से दिखाई देते हैं जो उनकी इच्छायें पूरी करते रहते हैं, भी गलत हैं। वास्तव में भूत उनके मानसिक एक्टोप्लाज्म से उत्पन्न होते हैं उनकी कोई स्वतंत्र आत्मा नहीं होती। जिस व्यक्ति के एक्टोप्लाजम ने भूत निर्मित किया होता है उसकी आत्मा भूत की भी साक्षीसत्ता होती है।
57. किसी को भूत या देवी देवता लग जाना क्या है?
-भूत या देवी देवता लग जाना भी वैसा ही है जैसा भूत को देखना। अंतर केवल यह है कि पुरुष या महिला जिसे भूत लगे होते हैं वह स्वयं को हिप्नोटाइज कर लेता/ती है और कल्पित आकार में अवशोषित हो जाता/ती है और अपने को देवी देवता या भूत होने का विश्वास कर लेता/ती है और अपने संस्कारों के अनुसार वर्ताव करने लगता/ती है। हिप्नोटिक अवस्था में विचार कंपन की ऊर्जा और ज्ञान, सामान्य अवस्था की तुलना में अधिक होती है इसलिये हिप्नोटाइज्ड व्यक्ति नई बाते जानलेता है और विचित्र प्रकार का व्यवहार करता है। इससे सामान्य स्थिति में वापस लाने की विधि भी वैसी ही है जैसी नाड़ी तंतुओं को सामान्य करने में प्रयुक्त की जाती है। ओझालोग और डाक्टर यही करते हैं। अंतर केवल यह है कि डाक्टर लोग अपनी सामान्य क्रियाओं को काम में लाते हैं जबकि तथाकथित ओझालोग अज्ञान और भय निर्मित करने वाली कहानियां सुनाकर और कुछ मंत्र पढ़कर करते हैं। हिप्नोटाइज किया गया रोगी विशेष प्रकार के आदेशों  से मानवेतर कार्य कर सकता हे जैसे पेड़ की शाखा तोड़ना आदि। वास्तव में उसमें यह योग्यता एक्टोप्लाज्मिक मन के प्रचंड रूप से केन्द्रीकरण हो जाने से आती है। लोग सोचते हैं कि रोगी के शरीर से भूत ने बाहर निकलकर पेड़ की डाली तोड़ डाली। प्रेरित व्यक्ति की इस अवस्था में काममय और मनोमय कोष अपनी स्वतंत्र रूप से कार्य करने की क्षमता खो देते हैं।
58. धरना में उत्तर या दवा की जानकारी कौन प्राप्त करता है?
-एकबार चेतन और अवचेतन मन अक्रिय हो जाते हैं तो सर्वज्ञाता कारण मन द्वारा उत्तर या दवा की जानकारी जुटाई जाती है। किसी विशेष उद्देश्य , सच्चाई और उचित तरीके से चिंतन किये जाने पर एक्टोप्लाज्मिक मन वह आकार ग्रहण कर लेताहै। धरना के समय काममय और मनोमय कोष आंशिक रूप से निलंबित हो जाते हैं और चाहा गया उत्तर कारण मन से उत्पन्न होकर उसे मिल जाता है, जैसे विशेष प्रकार के स्वप्न में। इस प्रकार यह पूर्णतः मनोवैज्ञानिक कार्य है किसी देवी देवता का इसमें कोई रोल नहीं है। रोग के ठीक होने या प्रश्नों  के उत्तर पाने की प्रभाविकता इस बात पर निर्भर करती है कि मन को किस स्तर पर केन्द्रित किया गया है।
59. झाड़फूंक क्या है?
-किसी भय या गहरे मानसिक आघात के समय काल्पनिक भूत आदि के चिंतन करने पर शरीर का  भान न रहना भूत लगना कहलाता है। इस समय प्रेरित व्यक्ति अपनी कल्पना के भूत से एकता की भावना स्थापित कर लेता है। काममय कोष निलंबित हो जाता है और मनोमय कोष स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करने लगता है। इस अवस्था में ओझा इन कोषों को सक्रिय करने के लिये अनेक विधियां प्रयुक्त करता है, जैसे तीखी वस्तुओं के धुएं सुंघाना, जोर से हाथ पैर में चोट पहुंचाना जिससे नर्वस सिस्टम सक्रिय हो जावे क्योंकि वे जानते हैं कि एक बार नर्वस सिस्टम सक्रिय हो गया भूत अपने आप भाग जावेगा। पहले वे रोगी की मानसिक और भौतिक दशा  का अध्ययन करते हैं फिर उसके रिश्तेदारों की आर्थिक स्थिति का। फिर वे विभिन्न भूतों की कहानियां सुनाकर अपना प्रभाव जमाने और पैसा ऐंठने का कार्य करते हैं। वे स्थानिक भाषा में कुछ मंत्र भी उच्चारित करते हैं ताकि भूतों में विश्वास बना रहे। वास्तव में भूत मंत्रों से नहीं वल्कि नर्वस संरचना के सामान्य हो जाने पर भागता है। भूतों से प्रेरित लोगों की कई श्रेणियां होतीं हैं, कुछलोग चिंता या भय, के कारण प्रेरित होते हैं और कम बात करते हैं, कुछ का मन कमजोर होता है, कुछ अन्याय और अपमान के कारण यह अनुभव करते हैं और अपनी भावनाएं नहीं बता पाते, कुछ भौतिक रूप से अविकसित होते हैं। हिस्टीरिया जो कि निश्चित  ही बीमारी है, भी इसी प्रकार उत्पन्न होती है और उसका इलाज भी वैसा ही है।

Monday 13 April 2015

प्रश्नोत्तर (प्र- ५० से आगे ----)


प्रश्नोत्तर (प्र- ५० से आगे ----)
51.  रचनात्मक कार्य और ब्रह्म साधना में अधिक महत्पूर्ण क्या है।?
-जीवधारियों का उद्देश्य  ब्रह्म साधना है। नहाना, खाना और सोेने के समान रचनात्मक कार्य भी ब्रह्म साधना का भाग है। इसलिये ब्रह्म साधना का अधिक महत्व है।
52. समाज के सभी स्तरों में , सभी देशों  में,  प्रत्येक समय, एक ही अर्थशास्त्रीय सिद्धान्त लागू किया जा सकता है?
-नहीं, समाज के आदर्श  और प्रणाली को समय, स्थान और पात्र  और समाज के सर्वांगीण विकास के अनुसार निर्मित किया जाना चाहिये क्योंकि किसी एक स्थान समय और व्यक्ति के अनुसार जो उपयोगी है वह अन्य स्थान, समय और पात्र के अनुसार बिल्कुल व्यर्थ हो सकता है। समाज गतिशील होता है अतः प्रगति के अनुसार पुराने सिद्धान्त पुरावशेष माने जाते हैं। मार्कस् या अन्य किसी भी सिद्धान्त को लें, उसे अंधानुकरण
 नहीं किया जा सकता क्योंकि किसी समय और पात्र के आधार पर ही किसी सिद्धान्त को अनुकूलतम माना जा सकता है।
53. क्या आनन्द पथ (path of bliss) के अलावा मानव के संयुक्त प्रयास को बनाये रखने का कोई विकल्प नहीं है?
-एकीकृत मानव समाज का होना सभ्यता के विकास की पहली शर्त है। सामूहिक जीवन की इच्छा ही समाज का अर्थपूर्ण अस्तित्व दे सकता है। समाज गतिशील होता है और उसकी आंतरिक गतिशीलता ही उसकी प्रगति का निर्धारण करती है। जब व्यक्तियों का एक समूह एकसमान आदर्श  से बंधा होकर किसी विशेष रास्ते पर चलता है और अपने साथ अन्यों को भी सुख दुख में भागीदार बनाता है तो उसकी ही वास्तविक प्रगति होती है, वे ही सफल कहला सकते हैं। इस, देश  काल और पात्र के तेजी से बदलने वाले संसार में कोई विशेष आर्थिक ,राजनैतिक या धार्मिक संरचना मानवता का लक्ष्य नहीं हो सकती। मनुष्य की प्रगति तभी होती है जब वह देश  काल पात्र से ऊपर परम ब्रह्म को जीवन का लक्ष्य माने और उसकी ओर सांसारिक काम करते हुए आगे बढ़ता जावे। आनन्दपथ  प्रगति का मार्ग है, मानव अस्तित्व और सभ्यता के संरक्षण के लिये वही एकमात्र विकल्प है। वाह्य कर्मकांड और तथाकथित धर्माे, रिलीजनों में विजातीय, स्वजातीय और स्वगत भेद होने के कारण सापेक्षिक घटकों के साथ मानवता में डोगमा और संघर्ष के साथ अवमंदन को आमंत्रित करते हैं अतः ये मानवता में शांति स्थापित नहीं कर सकते।
54. क्या मन और मस्तिष्क की बीमारियां एक सी होती हैं?
-नहीं, जड़ मस्तिष्क सूक्ष्म मन का वाहन है। वह मन के भीतरी विचारों और भावनाओं को उचित आकार देता है। इसके विभिन्न भाग पांचभौतिक घटकों से बने होते हें अतः किसी भी भौतिक कारण से उसके किसी भी सैल  में स्थायी या अस्थायी या आंशिक आघात हो सकता है। अतः वह सैल सामान्य अवस्था की तुलना में अब उतना अच्छा काम नहीं कर पायेगा, वह मन की तरंगों को प्रभावी ढंग से प्रेषित नहीं कर पायेगा यह मस्तिष्क की बीमारी हुई। कभी कभी ब्रेन सैल एबनार्मल हो जाता है और मन के संवेदनों को नहीं समझ पाता यह भी मस्तिष्क की बीमारी हुई। परंतु यदि मन को एक्टोप्लाज्मिक भाग में गड़बड़ी होने पर मस्तिष्क प्रेरक इनपुट नहीं दे पाता है तो वह विचार प्रक्रिया और स्मृति को सामान्य नहीं बनाये रख सकता। ये मानसिक वीमारी है। अन्य मानसिक बीमारियां हैं किसी विशेष व्यक्ति को देखकर क्रोधित हो जाना, किसी की नापसंद भावनाओं की हंसी उड़ाना, किसी बात पर बिना कारण उत्तेजित होना, स्थिरचित्त न होना। मन ही स्मृति का आधार है मस्तिष्क नहीं। इसलिये स्मरण की कमी मन की असहजता है ब्रेन की नहीं । परंतु ब्रेन में कमजोरी के कारण सामान्य मन के अनेक लोग भी उचित तरीके से याद नहीं रख पाते यह ब्रेन की बीमारी है न कि मन की।

Sunday 12 April 2015

प्रश्नोत्तर (प्र- 47  से आगे-----)

48. जो लंबे बाल रखते हैं, नारंगी कपड़े पहनते हैं और ‘‘संन्नयासी‘‘ हो जाते हैं क्या मानसिक बीमारी से ग्रस्त रहते हैं?
-हाॅं। यद्यपि यह सुनने में बुरा लगेगा पर यह कटुसत्य है। सांसारिक मामलों से हताश  हुए या किसी प्रकार के भय से, लोग पलायनवादी नीति अपनाते हैं। कुछ सांसारिक जिम्मेवारियों से बचने के लिये संन्नयासी हो जाते हैं। कुछ पृथकता की कसक से, कुछकर्ज के बोझा से, कुछ अकादमिक असफलता से और कुछ पारिवारिक समस्याओं से संतुष्ठी पाने के लिये कहने लगते हैं कि संसार माया है। वे हिमालय में रहेंगे पर यह भूल जावेंगे कि हिमालय भी संसार में ही है, वहां कपड़ों की चिन्ता भले न करना पड़े पर भोजन के लिये उन्हें पेड़ पौधों और माया के सांसारिक लोगों के पास ही जाना पड़ेगा । पुलिस के भय से चोर और काम के भय से आलसी लोग संसार को माया कहकर संन्नयासी होकर लोगों की गाढ़े कमाई को भीख में लेते हैं पर वे अपने इस नये संसार को माया नहीं कहते।
49. सभी धर्मों का एकीकरण कहां तक संभव है?
-अनन्त आनन्द प्राप्त करने का प्रयास करना ही मानवता का एकमात्र धर्म हैं इसलिये मानवता ही धर्म है अतः धर्म के एकीकरण का प्रश्न  ही नहीं उठता है। विभिन्न रिलीजनों के वीच कर्मकांडीय भिन्नताओं का कारण आध्यात्मिक भिन्नता नहीं कहा जा सकता। जहां कर्मकांड प्रभावी हो और आनन्द की प्राप्ति के प्रयास कमजोर हों उसे जो चाहे कहो पर आध्यात्मिकता नहीं कहा जा सकता।
50. व्यवसाय के अनुसार समाज का वर्गीकरण किया जाना कितना उचित है?
-संसार  में मूल्यहीन कुछ नहीं है, जब विज्ञान अविकसित था और उद्योग वास्तव में कुटीर उद्योग ही थे तब एक ही परिवार के लोग अनेक पीढि़यों तक एक ही व्यवसाय को करते चले जाते थे और उनके ये प्रयत्न उन्हें उन्नत अवस्था में ले गये। अतः उन दिनों व्यवसाय के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण अनुचित नहीं था। आज का संसार पूर्णतः बदल चुका है और व्यवसाय उत्तराधिकार में नहीं मिलते। टेक्नालाजी के उन्नत हो जाने के इस युग में व्यवसायों का उत्तराधिकार बनाये रखना अर्थहीन है। इसके अलावा, जब इस आधार पर सामाजिक वर्गीकरण उचित माना जाता था उस समय जातियों का आधार आवश्यक  नहीं था।

Saturday 11 April 2015

प्रश्नोत्तर ( प्र- 42 से आगे---)

 प्रश्नोत्तर ( प्र- 42  से आगे---)

43. संचर प्रक्रिया में किसी संरचना में आन्तरिक टक्करें अधिक होती हैं या वाह्य?
-चूंकि परमचेतना की गति जड़ता को बढ़ाने की ओर होती है अतः आंतरिक टक्करें अधिक होती हैं। परम सत्ता का भौतिक रूपान्तरण ऊर्जा में और ऊर्जा का पदार्थ में। अतः अधिक निकटता हो जाने के कारण परमाणुओं में अधिक टक्करें होती हैं।
44. क्या व्याप्ति और स्थिति समय के अधिकार क्षेत्र में होती हैं?
-साक्ष्य देने की क्षमता वाला अस्तित्व, कारण के नियम को पार कर जाता है। जिस किसी के पास     व्याप्ति और स्थिति की योग्यता होती है वह समय से बंधा होता है। जब मन परिणाम का कारण खोजने का प्रयास करता है और असफल हो जाता है तो मन की यह अवस्था मध्यानुभविक अवस्था कहलाती है।
45. भौतिकवाद के मनोवैज्ञानिक दुर्गुण क्या हैं?
-मन का लक्षण अनन्त की चाह है। किसी विशेष  विचार पर केन्द्रित होकर वह इस लक्ष्य को पा सकता है। चूंकि भौतिक वस्तुएं सीमित हैं अतः जिन्होंने जीवन का लक्ष्य इन्हें बना लिया है वे परिणामतः कुंठित होंगे। धन और भौतिक वस्तुओं को अनन्त रूप से भोगा नहीं जा सकता अतः उन्हें आनन्द प्राप्त नहीं होता। बल्कि उनके स्वार्थ अन्य लोंगों के साथ टकराने से संघर्ष बना रहता है। अतः ऐसे लोगों के मन को भौतिकवाद से दूर करने के लिये लगातार दवाव बनाये रखना होगा क्योंकि असंतुष्ट होने पर वे क्रांतिकारी मार्ग पर चल सकते हैं। भौतिकवादी भौतिक उपभोग पर ही जोर देते हैं अतः स्वार्थवश  वे एक दूसरे को संदेह की द्रष्टि से ही देखते हैं। आध्यात्मिकता के विना नैतिकता में द्रढ़ता नहीं आ सकती।
46. कर्मकांडीय धर्म और आध्यात्मिक साधना में क्या अंतर है?
-अधिकांश  कर्मकांडीय धर्म भौतिक सुख सुविधाओं के भोग करने को ही प्रोत्साहित करते हैं। मनुष्य भी भौतिक वस्तुएं नाम यश  और धन चाहते हैं कभी कभी तो इच्छा पूरी होने के बाद भी संचित रखने के लिये ही भौतिक द्रव्य के अर्जन में लगे रहते हैं। यह प्रेय का मार्ग है। इस पथ पर चलने वाले अज्ञानी लोग नहीं समझ पाते कि वे अपनी इच्छाओं की पूर्ति हमेशा  कर पाऐंगे। केवल कुछ कर्मकांडी और सामाजिक शोषक ही लाभान्वित होते हैं। आध्यात्मिक साधना व्यक्तिगत और सामूहिक प्रक्रिया है जो सर्वांगीण विकास की ओर ले जाती है। यह निवृत्ति का मार्ग है। मुक्ति का अर्थ संसार से भागना नहीं है वरन् संसार को आध्यात्मिक द्रष्टिकोण से देखना है। इसमें नाम, यश , शोषण और प्रदर्शन  की कहीं भी गुंजायश  नहीं है। कर्मकांडीय धर्मो में परस्पर भेद होने से प्राणघातक लड़ाईयां भी होती रहती है। आध्यात्मिक साधना के लिये जाति, राष्ट्रीयता, भाषा या धर्म में कोई भेद भाव नहीं होता यह एकवचनीय होता है और आध्यात्मिक कहने पर ही सब का मिलन हो जाता है जबकि रिलीजन या धर्म कोई धर्म नहीं वह कर्मकांडों का संग्रह है।
47. आदर्श  को प्रतिस्थापित करने के लिये सर्वोत्तम तरीका क्या है- दूसरों के आदर्शों  को गलत सिद्ध करना, या उन्हें आमने सामने आलोचित करना या रचनात्मक कार्य करना?
-रचनात्मक कार्य द्वारा सूक्ष्म आदर्शों  को स्थापित करना सबसे अच्छा है। दूसरों के आदर्शों  को आलोचित करने से तात्कालिक जीत से प्रसन्नता भले हो लेकिन समाज को उससे कुछ भी नहीं मिलता। सत्य यह है कि आलोचना करने वालों का मन हमेशा  आलोचना के विषय पर ही केन्द्रित रहता है।

Friday 10 April 2015

प्रश्नोत्तर (प्र- 37 से आगे-----)


प्रश्नोत्तर (प्र- 37  से आगे-----)
38. पुरुषोत्तम और निर्गुण ब्रह्म में दार्शनिक  स्तर पर क्या भिन्नता है?
-पुरुषोत्तम का संसार के साथ साक्षी सत्तात्मक संबंध होता है जबकि निर्गुण ब्रह्म का नहीं।
39. सविकल्प समाधि , अंतहीन आनन्द है या अंतहीन दुख?
-सगुण ब्रह्म का प्रदर्शित  चित्त बहुत विशाल होने पर भी वह अनन्त नहीं है पर उसकी कार्य क्षमतायें अनन्त हैं। सगुण ब्रह्म का चित्त, प्रदर्शित  चित्त और अप्रदर्शित  चित्त दोनों से मिलकर बना होता है।  इस विशाल जगत और ब्राह्मिक चित्त की साक्षीभूत सत्ता परमब्रह्म हैं अतः वे आनन्दस्वरूप हैं। उनके प्रदर्शित  चित्त द्वारा अनुभव किये जाने वाला दुख या आनन्द अनन्त नहीं सीमित होता है, और वह सीमित क्षण भी, जो इकाई आत्मा के अवियोज्य संबंध के साथ होता है, भी आनन्दमय होता है।
40. क्या इस ब्रह्मांड के निर्माता को यह पता है कि उसने इसे कैसे और किसकी सहायता से बनाया है?
-निश्चय  ही वह जानता है क्यों कि देश  काल और पात्र के घटक उसकी कल्पना से निर्मित होते हैं, यह ब्रह्मांड उसके चित्त से निर्मित हुआ है, वह कारण और प्रभाव से परे है और सदा निर्गुण के ध्यान में मस्त रहता है।
41. यदि ईश्वर  अवैयक्तिक अस्तित्व है तो क्या किसी व्यक्ति से वह प्रसन्न या अप्रसन्न हो सकता है?
-जो, उसके व्यवस्थित कंपनप्रवाह में, एककेंद्रिय होकर अपने मानसिक व्यवहार को विना शर्त उसके साथ मिलजाने के लिये त्वरित प्रयत्न करते रहते है उनपर परमपुरुष का परावर्तन बढ़ता जाता है क्योंकि वे अपने चिंतन श्रोत की ओर बढ़ते जाते हैं। इसे आप उसकी कृपा या अपने ऊपर प्रसन्न होना कह सकते हैं। यह ध्यान रखना कि वह तो अपना प्रकाश  सभी पर एक समान डालता है, वह सभी पर समान रूप से कृपालु है, पर जिसका चित्त अधिक शुद्ध  होता है वह अधिक प्रकाश  ग्रहण कर लेता है। जिन्होंने उसे समझा नहीं वे उसे पक्षपाती और दुष्ट कह सकते हैं।
42. सञ्चर  की प्रक्रिया में ब्रह्म के भीतर या बाहर कोई भौतिक परिवर्तन होता है?
-ब्रह्म के बाहर कुछ है ही नहीं अतः उसकी चर्चा करना बेकार है। संचर की प्रक्रिया में वह परम ब्रह्म के क्षेत्र में बहुत दूर यात्रा करने लगता है, उसकी मूल आनन्दित मुद्रा से बहुत दूर। जैसे, कोई इंग्लेंड या अमेरिका के बारे में सोचने लगे या इस मामले में कोई अन्य देश । अतः चिंतन किया जा रहा देश  अर्थात् विषय, उनके चित्त के भीतर ही रहता है बाहर नहीं। विषय की जड़ता के अनुरूप संचर के समय मन शुद्ध  चेतना की अवस्था से और दूर चला जाता है।

Thursday 9 April 2015

प्रश्नोत्तर ( प्र-30 से आगे ---)

प्रश्नोत्तर ( प्र-30 से आगे ---)

31. क्या यह कहना सत्य होगा कि प्रकृति इकाई अस्तित्व वाली है?
-नहीं, प्रकृति संचालिकाशक्ति है और वह विभिन्नताओं का निर्माण करती है। मूल सत्ता जिससे विभिन्नता निर्मित  की गई है वह प्रकृति नहीं है। वस्तुओं का निर्माण मूलसत्ता पर प्रकृति के जड़ात्मक प्रभाव के कारण होता है और इनमें विभिन्नता होना, जड़ता के प्रभाव की तीव्रताओं की भिन्नता पर आधारित होता है। इसलिये प्रकृति किसी भी प्रकार से इकाई अस्तित्व वाली नहीं है।
32. ‘‘पुरुष‘‘ शब्द का मतलब क्या है?
-पुरे षेते यः  सः पुरुषः। अर्थात् वह अस्तित्व जो किसी क्रिया में भागीदार न होते हुए उसका साक्ष्य देता है पुरुष कहलाता है।
33. क्या सगुण ब्रह्म अपने स्वयं के अस्तित्व के बारे में सचेत रहता है? यदि हां तो प्रमाण?
-वह जो इस ब्रह्मांड का निर्माण अपनी कल्पना के प्रवाह से करता है अवश्य  ही अपने अस्तित्व के बारे में सचेत रहता है क्योंकि अस्तित्व के बारे में सचेत होना, कल्पना के प्रवाहित रहने की प्रथम शर्त है।
34. क्या जीव, सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म, भूत वर्तमान और भविष्य की संकल्पना के बारे में जानकारी रखते हैं?
-विभिन्न जीवधारी समय और अन्य सापेक्षिक घटकों के बारे में जानकारी अपने आसपास की वस्तुओं में होने वाली गति या स्थिरता के आधार पर करते हैं, उनके इस कार्य में इंद्रियाॅं निर्णायक सहायता करती हैं। अतः जीवों में देश  काल और पात्र के संबंध में सीमित ज्ञान अवश्य  रहता है परंतु चूंकि सगुणब्रह्म के बाहर कुछ होता ही नहीं है अतः किसी संवेदन को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिये उन्हें किन्हीं इंद्रियों की आवश्यकता नहीं होती। देश  काल और पात्र के घटक, जिनसे जीव बंधे रहते हें ब्रह्म के लिये सब आन्तरिक होते हैं। सगुण ब्रह्म इन सापेक्षिक घटकों का नियंत्रक है और जीवों के लिये इनका निर्माता तथा साक्षी। वह उनसे बंधता नहीं है पर जानकारी अवश्य  रखता है। निर्गुण ब्रह्म का इस संसार से कोई संबंध नहीं होता अतः देश  काल और पात्र से किसी भी प्रकार का साथ नहीं होता।
35. नास्तिक किसे कहा जावे?
-जो आत्मा परमात्मा और वेदों में विश्वास नहीं करते वे नास्तिक हैं। इनमें से किसी एक में विश्वास करने वाला आस्तिक है। इसतरह क्रश्चियन , मुसलिम, ज्यू, आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी आदि को आस्तिक कहा जा सकता है। वे जो सांकेतिक रूप से तिल, पवित्र जल और वस्तुएं, मृत आत्माओं को देते हैं मूर्ति  पूजक हैं और अनेक कहानियों के आधार पर लोगों को प्रंभावित करते हैं, सही प्रकार के आस्तिक नहीं कहे जा सकते। वे जो कई अन्य धर्म मानते हैं पर आत्मा, परमात्मा और वेदों को नहीं मानते वे नास्तिक हैं।
36. क्या पुरुषोत्तम पर प्रकृति अपना कोई प्रभाव डालती है? यदि हां तो उसका क्या परिणाम होता है?
-यद्यपि पुरुषोत्तम प्रकृति के बंधन में नहीं होते पर उनका प्रकृति के साथ कुछ संबंध होता है। अतः, वह गुणों  के नियंत्रण से बाहर होते हैं फिर भी वे पूर्ण रूपेण उनसे अलग नहीं रह पाते। यही कारण है कि उन्हें संचर , प्रतिसंचर और ब्रह्म मन के साक्षित्व का भार सौपा गया है।
37. क्या प्रकृति का इकाई चेतना पर कोई प्रभाव होता है?
-पुरुषोत्तम की तरह इकाई चेतना का भी प्रकृति के साथ वैषयिक साथ होता है इसलिये वह भी जीवधारी के संचर, प्रतिसंचर की साक्षीसत्ता होती है।

Tuesday 7 April 2015

प्रश्नोत्तर ( प्र-27 से आगे ----)


प्रश्नोत्तर ( प्र-27 से आगे ----)
28. क्या किसी पेड़ में एक से अधिक ‘‘आत्माएं‘‘ हो सकती हैं?
-सूक्ष्म  सत्ता में चाहे उसका मन विकसित हो अविकसित या अर्धविकसित, चेतना अथवा जीवात्मा साक्षी सत्ता के रूप में रहती है। चूंकि पेड़ बहुकोषीय आर्गेनिज्म है, और प्रत्येक विकसित या अविकसित या अर्धविकसित मन के साथ उसकी जीवात्मा साक्षी स्वरूप साथ रहती है, अतः एक पेड़ में अनेक जीवात्माओं का साक्ष्य संभव है। इसी प्रकार मानव शरीर और अन्य आर्गेनिज्मस् में समग्र चेतना के साथ साथ विभिन्न कोषों से संलग्न असंख्य जीवात्मायें होती हैं।
29. सजीव और निर्जीव में अंतर क्या है?
-इकाई मन को प्रकृति के बंधन में रहने वाली चेतना के नाम से वर्णित किया जा सकता है, और सामान्यतया निर्जीवों को हम उस चेतना के नाम से वर्णित करते है जिसमें प्रकृति का अपेक्षतया अधिक बंधन होता है। विकसित जीवधारी पूर्णतः ब्राह्मिक मन के द्वारा नियंत्रित नहीं होते बल्कि कुछ हद तक वे अपने इकाई मन से भी मार्गदर्शन  ले सकते हैं। निर्जीवों की तुलना में इकाई मन पर प्रकृति का जड़ात्मक बंधन कम होता है अतः प्रतिसंचर के प्रवाह में इकाई मन अधिक उन्नत होता है। जीवात्मा, इकाई मन पर परम चेतना का परावर्तन होती है अतः हम कह सकते हैं कि चेतना, मन और निर्जीव सभी एक ही सामग्री से बनी होती हैं केवल प्रकृति के बंधन की मात्राओं का अंतर होता है।
30. मूर्तिपूजा दोषपूर्ण क्यों है?
-मूर्ति, सीमित प्रारंभ और अंत वाले मानव मन की कल्पना से बनाई जाती हैं जबकि परमब्रह्म का न कोई प्रारंभ है और न अंत। इसलिये यह मानव कल्पना की सीमित रचना जीवधारियों की मुक्ति का आधार नहीं हो सकती। इसके अलावा ये मूर्तियां पत्थर लकड़ी या धातुओं से बनाई जातीं है जो स्वयं पंच भूतों से बनी होती है अतः इन जड़ बस्तुओं का चिंतन, निर्गुण ब्रह्म का ध्यान नहीं करा सकता बल्कि वह अधःपतन की ओर ले जावेगा।

Monday 6 April 2015

कुछ प्रश्नोत्तर (प्र - 22 से आगे-----)


कुछ प्रश्नोत्तर (प्र - 22 से आगे-----)

23. क्या चित्त अर्थात् मन और पंच भूतों में कोई अंतर है?
-कोई मौलिक अंतर नहीं, दोनों प्रकृति से बंधे चेतना के प्रकार हैं। असमानता केवल बंधन के स्तर में है। जैसे जब भूमा मन का निर्माण होता है तो उसका बंधन स्तर आकाश  तत्व के बंधन से कम होता है। अतः जैसे जैसे बंधन स्तर में बृद्धि होती जाती है वायु अग्नि, द्रव और ठोस तत्वों का निर्माण होता जाता है। जलवाष्प, जल और वर्फ में तत्वतः कोई अंतर नहीं। उनके रूपों में असमानता प्राकृतिक बंधनों के बदलते बंधन स्तर के कारण है। इसी प्रकार सांसारिक और सांसारेतर पदार्थो में अंतर प्रतीत होता है पर वे सभी एक ही चेतना से बने होते हैं। चेतना से आकाश , आकाश  से वायु, वायु से अग्नि अग्नि से द्रव और द्रव से ठोस घटकों का निर्माण होता है।

24. मनुष्यों को प्राप्त स्वतंत्रता निर्पेक्ष होती है या स्वामित्व जैसी?

-उसे आप निर्पेक्ष स्वतंत्रता नहीं कह सकते क्योंकि मानव परमपुरुष की कृपा पर निर्भर रहते हैं, उनकी सभी अच्छी या बुरी गतिविधियां सीमित क्षेत्र  में ही होतीं हैं। इकाई चेतना के परम चेतना में मिलने के पहले निर्पेक्ष स्वतंत्रता प्राप्त होना असंभव है।
25. कहा जाता है कि सुख और दुख का मूल कारण अविद्या है और साधना द्वारा जीव बंधन मुक्त हो जाता है, इस स्थिति में कौन मुक्त होता है?
-इकाई मन स्वतंत्रता पाता है और परम चेतना के समान विस्तारित हो जाता है। उसके लिये पद ‘स्वतंत्रता‘ अर्थहीन है जो पुरुषोत्तम को परम साक्षी सत्ता नहीं मानता। जो निर्गुण ब्रह्म को नहीं मानता उसे मोक्ष की संकल्पना अर्थहीन है। यही कारण है कि नास्तिक को मुक्ति, मोक्ष, केवल्य, निर्वाण और परिनिर्वाण पूर्णतः महत्वहीन हैं।

26. क्या यह कहना सही है कि सगुण ब्रह्म समय का निर्माता है?

-समय, पात्र और स्थान सगुण ब्रह्म की कल्पना से उत्पन्न होते हैं अतः निश्चय  ही वह समय का निर्माता है।

27. इकाई चेतना का विषय ‘‘एक‘‘ है या ‘‘अनेक‘‘?

-संयुक्त चेतना का विषय यह द्रश्य  संसार है, इस संसार की प्रत्येक बस्तु अपनी सीमित  इकाई चेतना के साथ गतिशील है। इस गतिशीलता की समग्रता ब्राह्मिक मन की कल्पना के प्रवाह के रूप में दिखाई देती है। इस ब्राह्मिक मन में परमचेतना, प्रत्येक वस्तु का साक्ष्य विना उनसे संबद्ध हुए देती रहती है।

Sunday 5 April 2015

कुछ प्रश्नोत्तर ( प्र- 18 से आगे ----)


कुछ प्रश्नोत्तर ( प्र- 18 से आगे ----)
19. क्या सगुण ब्रह्म, काल घटक से ऊपर हैं?
-सगुण ब्रह्म गुणों के नियंत्रक हैं पर उनके ऊपर नहीं। अतः वह देश , काल और पात्र, जिनको प्रकृति ने चेतना के भीतर बनाया है, की सापेक्षिकता का नियंत्रण करता है और प्रकृति भी सगुण ब्रह्म के अनन्त विस्तार के बीच ही सक्रिय रहती है। जीवों से भिन्न सगुण ब्रह्म गुणों से बद्ध नहीं होता परंतु उनसे जुड़ा रहता है। अतः यह कहना अधिक उचित है कि सगुण ब्रह्म का मापन संभव नहीं क्योंकि अनन्त ‘काल‘ उसके भीतर ही निवास करता है।
20. मृत्यु के बाद, अपने संस्कारों के अनुसार जीवों को उचित भौतिक संरचना प्राप्त करना कैसे संभव है?
क्योंकि कहा जाता है कि प्रकृति का सत्वगुण इसे निर्धारित करता है, फिर भी अंध रजोगुण को उचित भौतिक संरचना प्राप्त कर पाना कैसे संभव है?
-नयी संरचना का निर्धारण रजोगुण करता है पर वह सगुण ब्रह्म से स्वतंत्र नहीं है, वह परम चेतना के अहमतत्व का बंध है। अतः यह कहना उचित होगा कि परम चेतना ही रजोगुण के माध्यम से नवीन संरचना प्राप्त करती है। नये शरीर का निर्धारण किसी अंध बल द्वारा नहीं पुरुषोत्तम के द्वारा किया जाता है।

21. यदि संस्कारों के पूर्णक्षय होने से निर्वाण प्राप्त होता है तो क्या नास्तिक को मुक्ति,मोक्ष प्राप्त हो सकता है?

-संस्कारों के पूर्णतः नष्ट होने पर मन भी नष्ट हो जाता है, मुक्ति का अर्थ है सभी बंधनों से मुक्त होना और मोक्ष का अर्थ है साक्षित्व से भी मुक्त होना। यदि नास्तिक नष्ट होता है तो उसके मुक्ति या मोक्ष का प्रश्न  ही पैदा नहीं होता क्योंकि वह ब्राह्मिक मन या परमचेतना में विश्वास ही नहीं करता।

22. जीवात्मा और परमात्मा में क्या अंतर है?

-यद्यपि जीवात्मा और परमात्मा वास्तव में एक ही हैं केवल उनकी उपाधि में अंतर है। जीवात्मा की उपाधि सीमित है। समग्र साक्षित्व का समूहीकृत संचालन परमात्मा कहलाता है। दर्शनशास्त्र  में लघु ब्रह्मांड के ऊपर परमात्मा का परावर्तन जीवात्मा कहलाता है। इसे अणुअक्षर कहना उचित होगा। मानसिक विस्तार के स्तर के आधार पर  इकाई मन पर परमात्मा का परावर्तन बदलता रहता है। दर्शन के विंदु से अणुअक्षर और जीवात्मा में अंतर हो सकता है परंतु संचालन स्तर पर उनमें अंतर नहीं किया जा सकता। अतः जीवात्मा को अणुअक्षर कहा जा सकता है, साधना करके परमात्मा को अपने सभी मानसिक प्रयत्न सौंपते जाने पर जीवात्मा परमात्मा के चिंतन में स्थापित हो जाता  है।

Friday 3 April 2015

कुछ प्रश्नोत्तर (प्र- १३ से आगे ---)


कुछ प्रश्नोत्तर (प्र- १३ से आगे ---)
15. क्या चित्त अर्थात् मन और व्योम तत्व अर्थात् ईथर में कोई मौलिक अंतर होता है? यदि हां तो क्यों?
-नहीं दोनों ही परम चेतना से उत्पन्न होते हैं अतः कोई मूल अंतर नहीं होता। वास्तव में कोई भी अजीवित अस्तित्व नहीं है सभी में चेतना है, प्रकृति के बंधन के कारण चेतना कभी कभी पांच जड़ घटकों में, कभी सूक्ष्म रूपों में और कभी कारणात्मक चेतना में दिखाई देती हैं। चेतना की जिस अवस्था में प्रकृति का अधिकार पंच तत्वों की तुलना में कम होता है उसे ही मन कहते हैं।

16. शंकराचार्य के मायावाद में भाव और जड़ के बीच सापेक्षिक महत्व क्या है?

शंकराचार्य ने अतिउत्साही भौतिकवादी की गर्मजोशी  और उत्साह के लक्षणों से प्रभावित होकर  अनेक सिद्धान्तों को गलत सिद्ध करने का प्रयास किया। उनका यह प्रयास बुद्ध के उच्चादर्शी  सिद्धान्त ‘विज्ञानवाद‘ को गलत सिद्ध करने का था। इसे असंगत सिद्ध करने के प्रयास में वे स्वयं प्रचंड आदर्शवादी  बन गये। उनके अनुसार विश्व  माया है, इतना ही नहीं मानसिक प्रक्षेप और प्रत्याहार सभी माया है, केवल निर्गुण ब्रह्म ही सत्य है। इस संदर्भ में शंकर पश्चिमी दार्शनिकों , सोक्रेटीज, हेगेल, बर्कले और कान्ट की तरह बोलते प्रतीत होते हैं जो नीमहकीम दार्शनिकों  से अधिक कुछ नहीं। परंतु उन्होंने अपने अनुभववाद को भौतिक संसार से आगे बढ़ाया और उसके आगे निर्गुणब्रह्म का होना ही सत्य माना। प्रकृति को भी असत्य माना जबकि विरोधाभास यह है कि उन्हें उसी माया पर निर्भर रहना पड़ा जिसे वे असत्य कहते रहे , जिसने यह विश्व  निर्मित किया।

17. पुरुषोत्तम पर प्रकृति का किस प्रकार का बंधन है? पुरुषोत्तम और निर्गुण ब्रह्म में क्या अंतर है?

-पुरुषोत्तम सगुण ब्रह्म का नियंत्रक केन्द्र हैं। जहां कहीं भी पुरुष होते हैं उनकी शरण में प्रकृति होती है। प्रकृति से संबद्ध रहते हुए भी पुरुषोत्तम प्रकृति से बंधित नहीं होते। सगुण ब्रह्म का द्रश्य  प्रकार संचर और प्रतिसंचर की प्रक्रिया में दिखाई देता है। चेतना की प्रधानता के कारण कभी कभी पुरुषोत्तम को निर्गुण कहा जाता है पर गंभीरता से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि यह सही नहीं है। इस ज्ञात जगत के विपरीत पुरुषोत्तम न तो गुणाधीन हैं न ही गुणस्रष्ट। गुणाधीन विश्व  के साक्षी होने के कारण उनका संपर्क गुणों से बना रहता है इसलिये वे गुणादनीश  कहलाते हैं। इसलिये पुरुषोत्तम निर्गुण ब्रह्म की तरह शुद्ध नहीं हो सकते क्योंकि निर्गुण ब्रह्म में साक्षी सत्ता नहीं होती अतः गुणों से भी संबद्ध नहीं होते।

18. मनुष्य क्या उपभोग करते हैं, मूल वस्तु? छाया? या छाया की छाया?

-इकाई मन के लिये यह पंचभौतिक संसार सत्य है और पंचभूतों से बनी इस देह को वस्तुओं का उपभोग भी सत्य है परंतु इकाई मन बस्तुओं को उनके भौतिक रूप में उपभोग नहीं करता वह तन्मात्राओं के द्वारा उपभोग करता है जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंद्रियों द्वारा प्राप्त की जाती हैं। अतः स्पष्ट है कि मन मूल बस्तु का उपभोग नहीं करता वरन् छाया का करता है। यद्यपि पंचभूतात्मक यह संसार इकाई मन के निये सत्य प्रतीत होता है पर वास्तव में वह ब्राह्मी मन की विचार प्रक्रिया अथवा  केवल स्वयं निर्मित कल्पना के अलावा कुछ नहीं, उसके लिये यह विश्व  वास्तविकता की छाया के अलावा कुछ नहीं। इस प्रकार ब्राह्मिक मन के अनुसार इकाई मन न तो मूल वस्तु का उपभोग करता है और न ही छाया का वल्कि छाया की छाया का।