Tuesday, 28 April 2015

परमपुरुष को पाने के उपाय विंदू क्र - २ से आगे

परमपुरुष को पाने के उपाय विंदू क्र - २ से आगे 

(3) उपनिषदों के अनुसार
‘‘ सर्वं ह्येतद्ब्रह्म, अयआत्मा ब्रह्म, तमेतमात्मानमोमिति ब्रह्मणैकीकृत्य, ब्रह्मचात्मना ओमित्येकीकृत्य, तदेकमजरममृतमभयमोमित्यनुभूय तम्मिन्निदं सर्वं त्रिशरीरं आरोप्य तन्मयंहि तदेवेति संहरेदोमिति।‘‘
अर्थात् जो कुछ देखने ,सुनने, अनुभव करने में आता है या इन सबके बाहर है, सब कुछ ही सगुण ब्रह्म या ओंकार है। यह आत्मा भी ब्रह्म ही है। तुम्हारा अस्तित्व, यह जगत तथा ब्रह्म और ओंकार के बीच एकीभाव है। तुम्हारा अस्तित्व, जगत या ब्रह्म ये सब पृथक पृथक वस्तुएं नहीं हैं। इस जगत के साथ अपने आत्मिक अस्तित्व को ब्रह्म के साथ एकीभाव कर दो तब केवल अपने को ओंकार स्वरूप ही पाओगे अर्थात् इस अवस्था में तुम्हारा ओंकार के साथ एकीभाव होगा। इस प्रकार के एकीभाव स्थापित हो जाने के बाद एक ही सत्ता बचेगी, विकृति जिसका स्वरूप नहीं है क्योंकि विकृति के लिये दो सत्ताओं की आवश्यकता होती है अतः जहाॅं वे एकमात्र सत्ता हैं वहाॅं विकृति कैसे हो सकती है। इसी प्रकार वहाॅं मृत्यु भी नहीं हो सकती क्यों कि मृत्यु भी तो अवस्था का भेद मात्र है। अतः ओंकार अमृतत्व में प्रतिष्ठित है। इसी प्रकार वहाॅं कार्य कारण,  पृथक भाव से नहीं रहने के कारण वहाॅं भय भी नहीं है। अतः कहा गया है कि इसी अविकृत, अमर, अभय, ओंकार में तुमलोग त्रिशरीर को आरोपित करो। जीवमात्र चार सत्ताओं की समष्टि है- जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और कैवल्य या स्वरूप। यहाॅं पर त्रिशरीर का आशय है जाग्रत , स्वप्न और सुसुप्ति से क्योंकि यही तीनों ‘स्वरूप‘ की विकृतियाॅं हैं जो ब्रह्म से पृथकता का अनुभव कराती हैं। अर्थात् इन विकृतियों को ब्रह्म अर्थात् ओंकार में आरोपित कर दो और तद्भाव में तन्मय हो जाओ। इस अवस्था में यह भावना जागेेगी कि मैं स्वयं ही ओंकारात्मक हॅूं और मैं अपने स्वरूप में ही रहता हॅूं। इससे स्पष्ट है कि जब कभी भी जड़ात्मक विचार मन में उत्पन्न हों तत्काल ब्राह्मिक भावना लेने पर ओंकार से पृथकता नहीं रहेगी और बंधनात्मक संस्कार नहीं बनेगा।

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