7.7 धर्म, विन्दु, शून्य, अंक और इंद्र
धर्म - हर स्थति में धर्म का पालन करना चाहिये। मानव धर्म के चार अंग हैं विस्तार, रस, ,सेवा और तद्स्थिति अर्थात् परमात्मा में लय। प्रथम तीन के संयुक्त प्रभाव से ही चैथा स्तर प्राप्त हो सकता है। धर्म की गति अत्यंत सूक्ष्म होती है अतः जगत के कल्याण के लिये कार्य करते हुए अपने आप को मुक्ति के रास्ते पर चलाने की अभ्यास करने का नाम साधना करना है जो प्रत्येक मानव का धर्म है क्यों कि इसी से परमात्मा प्राप्त होते हैं।
शून्य , अंक और विन्दु - ‘शून्य‘ और ‘एक‘ का संख्याओं में बहुत महत्व है, जैसे एक के पहले यदि शून्य लगादें तो उसका मूल्य वही रहता है और यदि आगे लगा दें तो दस गुना बढ़ जाता है। संख्या कितनी ही बड़ी क्यों न हो यदि गंभीरता से विचार करें तो वास्तव में संख्या ‘एक‘ ही उस बड़ी संख्या में उतनी बार समाये रहती है अतः संख्या मूलतः ‘एक‘ है। अनन्त सीमा रहित है अतः संख्या ‘एक‘ ही अनन्त बार इसमें समायी हुई है। विंदु का परिमाण नहीं होता केवल स्थिति होती है। विन्दु और शून्य का संख्या के साथ विपरीत स्वभाव होता है। विन्दु संख्या के पहले लगाने पर उसका मूल्य दस गुना घट जाता है और आगे लगाने पर मान अपरिवर्तित रहता है। इसका अर्थ यह हुआ कि अस्तित्व तो केवल संख्या, वह भी ‘एक‘ का ही है उसके अनेकत्व में अथवा मूल्य में आभासी कमी या बृद्धि होने के लिये तो विंदु और शून्य की स्थितियां ही उत्तर दायी हैं। विंदु ‘काल‘ अर्थात् टाइम है , शून्य ‘आकाश ‘ अर्थात् स्पेस है और ‘अंक‘ है नित्य, सार्वभौमिक सत्ता। अंक, विंदु और शून्य पारस्परिक रूप से जुड़कर जिस प्रकार अपने अनन्त आकारों में प्राप्त होते हैं उसी प्रकार सार्वभौमिक, परम आत्म तत्व, देश और काल के पारस्परिक स्थानान्तर से अपने अनन्त स्वरूप बनाता है जिसे यह सृष्टि कहा जाता है। हम उसके अत्यल्प भाग हैं और उसी के सापेक्ष अपना अस्तित्व रखते हैं। स्पेस और टाइम में जकड़ा यह प्रपंच अंततः विंदु में ही आश्रय पाता है क्योंकि वही उसका जनक है। इस विंदु को आज के वैज्ञानिक भी महत्व देते हैं वे कहते हैं कि ब्लेकहोल एक विंदु ही है जिसमें प्रकाश के कण अर्थात् फोटान ही नहीं अंत में सभी गैलेक्सियाॅं और स्पेस तक अवशोषित हो जाते हैं, और विदु को अंक की शरण में जाना पड़ता है क्योंकि असली अस्तित्व अर्थात् नित्यत्व तो उसी का है। स्पष्ट है कि विंदु और शून्य के चंगुल से जो छूूट गया उसे अंक प्राप्त हो ही जाता है यह अंक ही परम सत्ता है, परम सत्ता की अंक अर्थात् गोद है इसी ‘एक‘ को प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य है।
इंद्र . इंद्र का अर्थ है वह, जिसकी क्रिया में प्रधान भूमिका होती है। देवताओं के प्रधान को इसी कारण इंद्र कहते हैं। ऊंचे ताल बृक्ष को इंद्रतरु कहते हैं। किसी के अस्तित्व को क्रियाशील करने के लिये जिनकी प्रधान भूमिका होती है उन्हें इंद्रियां कहते हैं। मन पर बंधनकारी बलों के प्रभाव से आने वाले विचारों का आन्तरिक और वाह्य अनुभव कर कार्यरूप में परिणित करने का कार्य इंद्रियां ही करती हैं। सृष्ट जगत में इंद्रियों के द्वारा अपना संबंध बनाया जाना उनकी उपाधि कहलाता है इसी से वह एक सत्ता वाह्य संसार में अनेक दिखाई देने लगती है। इन्हीं उपाधियों में मस्त हो मन सोचता है कि ‘मै‘ ही हूॅ, मैं यहीं ठीक हूॅं।‘ उस एक परम सत्ता के असंख्य कंपनों से निर्मित असंख्य अस्तित्वों में अच्छा बुरा, सुखदायी दुखदायी, पूर्णता अपूर्णता आदि के भाव भी यह इंद्रियां ही पैदा करतीं हैं। जीवन के इन द्वंद्वों में जब आघातों से सामना होता है तो यही इंद्रियां उसे हटाने के लिये कोई अपने से अधिक ताकतवर साधन खोजती हैं जिसे वह कष्टों से बचाने के लिये कह सकें । वह परम सत्ता भी अंतरिक हृदय में इस कष्ट को जानकर अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये कष्टों की अनुभूति में कमी का अनुभव कराती है और व्यक्ति अनुभव करता है कि ‘‘मैं हूॅं और प्रभु तूॅ भी है।‘‘ इस यात्रा में जब वे शिथिल हो जातीं हैं तब वाह्य जगत से उनकी इच्छाओं की पूर्ति में बाधा आने पर वे मन की भीतरी पर्तों में घुसतीं हैं जहां आन्तरिक और वाह्य जगत दोनों की चमक एक होने लगती है तब लगता है कि अभी तक जो अनुभव हो रहा था और जिस जाल में उलझकर आनंद मानता था वह केवल माया का भ्रम था और अनुभव होता है कि
‘‘‘मैं नहीं, यह जगत नहीं केवल तू है केवल तू है।‘‘‘
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