(स) परम सत्ता को प्राप्त करने के उपायः
आधुनिक वैज्ञानिक अपने अपने ढंग से ब्रह्माॅंड के रहस्यों को समझने के लिये ‘‘लार्ज हैड्रान कोलायडर‘‘ (large hadran collider) जैसे प्रयोग कर रहे हैं और मनोवैज्ञानिक मन के रहस्यों की खोज में जुटे हुए हैं पर अभी किसी प्रकार के परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं। परंतु हमारे देश के आध्यात्म विज्ञानियों ने बहुत पहले इन रहस्यों को जान लिया था और अपने निष्कर्षों को उपनिषदों और तन्त्र विज्ञान के रूपमें हमे दे गये हैं पर हमने उनका सही दोहन नहीं किया है। भौतिक विज्ञानी और मनोविज्ञानी जब तक अपने प्रयोगों को उपनिषदों में दी गई विधियों के अनुसार आघ्यात्मिक बनाकर प्रयोग नहीं करेंगे उन्हें किसी भी रहस्य का पता नहीं लग सकता है। इनके लिये मनुष्य का शरीर ही प्रयोगशाला है और मन को नियंत्रित करने की तान्त्रिक पद्धतियों के द्वारा अचेतन मन (unconscious mind) जिसे आध्यात्म में अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष कहते हैं, के भीतर घुसने की शक्ति प्राप्त करने के बाद ही समझा जा सकता है। मान्यता प्राप्त ग्रंथों की छानबीन करने पर प्राप्त कुछ विधियाॅं नीचे दी जा रहीं हैं।
(1) श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि वह परम तत्व मनुष्य के हृदय में छिपा है उसे पहचानने के लिये साधना करना होगी।
‘‘ उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ताभोक्ता महेश्वरा, परमात्मेति चाप्युक्तो देहेअस्मिन पुरुषः परः‘‘ ।
तथा
‘‘ ईश्वरः सर्वभूतानाम हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति भ्रामयन सर्व भूतानाम यन्त्रारूढ़ानिमायया‘‘।
और इसे समझने और अनुभव करने के लिये कहा गया है कि
‘‘ स्पर्शानुकृत्वा वर्हिवाह्याॅं चक्षुष्चैवान्तरे भ्रवोः, प्राणापाणौ समौकृत्वा नासाभ्यान्तर चारिणौ।
यतीन्द्रिय मनो बुर्द्धिमुनिर्मोक्षपरायणः विगतेच्छा भयक्रोधो च सदामुक्त एव सः।‘‘
अर्थात् मन में आने वाले इंद्रियजन्य सभी बाहरी विचारों को बाहर ही त्यागकर नासिका में प्रवाहित होने वाली प्राण और अपान वायु को नियंत्रित कर साम्यावस्था में लाकर आॅंखों की द्रष्टि को दोनों भौंहों के बीच में स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार का अभ्यास कर जिसने अपनी इंद्रियों , बुद्धि और मन पर नियंत्रण कर लिया है वह इच्छा, भय और क्रोध से दूर रहकर मुक्ति का अनुभव इसी जीवन में कर सकता है।
(2) तन्त्र के अनुसार
‘ यच्छेद्वाॅंगमनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महतो नियच्छेद् तद्यच्छेच्छान्तात्मनि।‘
अर्थात् इंद्रियों को उनके विषयों से हटा कर मन में एकत्रित कर के मन को बुद्धि में और बुद्धि को अहंतत्व में और अहंतत्व को महत्तत्व में एकीकृत करने के बाद उसे आत्मा में मिला देना चाहिये।
आधुनिक वैज्ञानिक अपने अपने ढंग से ब्रह्माॅंड के रहस्यों को समझने के लिये ‘‘लार्ज हैड्रान कोलायडर‘‘ (large hadran collider) जैसे प्रयोग कर रहे हैं और मनोवैज्ञानिक मन के रहस्यों की खोज में जुटे हुए हैं पर अभी किसी प्रकार के परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं। परंतु हमारे देश के आध्यात्म विज्ञानियों ने बहुत पहले इन रहस्यों को जान लिया था और अपने निष्कर्षों को उपनिषदों और तन्त्र विज्ञान के रूपमें हमे दे गये हैं पर हमने उनका सही दोहन नहीं किया है। भौतिक विज्ञानी और मनोविज्ञानी जब तक अपने प्रयोगों को उपनिषदों में दी गई विधियों के अनुसार आघ्यात्मिक बनाकर प्रयोग नहीं करेंगे उन्हें किसी भी रहस्य का पता नहीं लग सकता है। इनके लिये मनुष्य का शरीर ही प्रयोगशाला है और मन को नियंत्रित करने की तान्त्रिक पद्धतियों के द्वारा अचेतन मन (unconscious mind) जिसे आध्यात्म में अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष कहते हैं, के भीतर घुसने की शक्ति प्राप्त करने के बाद ही समझा जा सकता है। मान्यता प्राप्त ग्रंथों की छानबीन करने पर प्राप्त कुछ विधियाॅं नीचे दी जा रहीं हैं।
(1) श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि वह परम तत्व मनुष्य के हृदय में छिपा है उसे पहचानने के लिये साधना करना होगी।
‘‘ उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ताभोक्ता महेश्वरा, परमात्मेति चाप्युक्तो देहेअस्मिन पुरुषः परः‘‘ ।
तथा
‘‘ ईश्वरः सर्वभूतानाम हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति भ्रामयन सर्व भूतानाम यन्त्रारूढ़ानिमायया‘‘।
और इसे समझने और अनुभव करने के लिये कहा गया है कि
‘‘ स्पर्शानुकृत्वा वर्हिवाह्याॅं चक्षुष्चैवान्तरे भ्रवोः, प्राणापाणौ समौकृत्वा नासाभ्यान्तर चारिणौ।
यतीन्द्रिय मनो बुर्द्धिमुनिर्मोक्षपरायणः विगतेच्छा भयक्रोधो च सदामुक्त एव सः।‘‘
अर्थात् मन में आने वाले इंद्रियजन्य सभी बाहरी विचारों को बाहर ही त्यागकर नासिका में प्रवाहित होने वाली प्राण और अपान वायु को नियंत्रित कर साम्यावस्था में लाकर आॅंखों की द्रष्टि को दोनों भौंहों के बीच में स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार का अभ्यास कर जिसने अपनी इंद्रियों , बुद्धि और मन पर नियंत्रण कर लिया है वह इच्छा, भय और क्रोध से दूर रहकर मुक्ति का अनुभव इसी जीवन में कर सकता है।
(2) तन्त्र के अनुसार
‘ यच्छेद्वाॅंगमनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महतो नियच्छेद् तद्यच्छेच्छान्तात्मनि।‘
अर्थात् इंद्रियों को उनके विषयों से हटा कर मन में एकत्रित कर के मन को बुद्धि में और बुद्धि को अहंतत्व में और अहंतत्व को महत्तत्व में एकीकृत करने के बाद उसे आत्मा में मिला देना चाहिये।
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