Friday, 24 April 2015

दार्शनिक पक्ष ---विंदू क्र 1 - से आगे

दार्शनिक पक्ष ---विंदू क्र 1 - से आगे 

(2) यहाॅं ध्यान देने की महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सब ‘‘ब्रह्म मन‘‘ या (cosmic mind ) के भीतर ही काल्पनिक रूपसे चलता रहता है और यह विचार तरंगें उस परम सत्ता के सापेक्ष (relative) गति करती हैं अतः कोई भी दो तरंगें आपस में एक दूसरे को वास्तविक लगती हैं, जैसे एक समान चाल से एक ही दिशा  में समानान्तर चलने वाली दो रेलगाडि़यों के डिब्वों में वैठे यात्री अपने को स्थिर होने का आभास पाते हैं।
      स्पष्ट है कि ब्रह्म चक्र में सगुण ब्रह्म का कार्य यह है कि वह इस ब्रह्माॅंड के प्रत्येक कण को उसके मूल स्थान तक पहुंचाने के अवसर उपलब्ध कराने की व्यवस्था बनायें। जब तक इस ब्रह्माॅंड का एक भी कण अपने मूल तत्व अर्थात् परम ब्रह्म में मिल नहीं जाता या दूसरे शब्दों में प्रकृति के बंधनों से मुक्त नहीं हो जाता सगुण ब्रह्म भी बंधे रहेंगे अर्थात् यह जगत बना रहेगा, पर वह अमर नहीं है।
     स्रष्टि के स्रजन के प्रथम आधे चक्र में प्रकृति अपनी भैरवी और भवानी शक्तियों का प्रयोग करती है जो क्रमशः  रजोगुण और तमोगुण के अंतर्गत आते हैं। द्वितीय अर्धचक्र में पुरुष चेतना सुप्तावस्था से जागती है और धीरे धीरे प्रकृति अपने तीनों प्रकार के गुणबंधन ढीले करने लगती है और पाॅंच जड़ तत्वों के सामंजस्य से एककोषीय जीव जन्म लेता है और क्रमशः  प्रकृति के दबाव और खिचाव के बीच समय के साथ एककोषीय जीव  से अनेककोषीय जीवों अर्थात् वनस्पति ,जीव जंतुओं और मनुष्यों के रूप में दिखाई देने लगता है। मनुष्यों के स्तर तक आने से पूर्व के सभी स्तरों को प्रकृति अपने पूर्ण निर्देशन में उनके इकाई मनों को क्रमशः  उन्नत करते हुए आगे बढ़ाती जाती है । मनुष्य के स्तर पा जाने पर चूंकि उनका मन अधिक उन्नत हो जाता है अतः वह अन्य जीवधारियों की अपेक्षा अपने अस्तित्व बोध और अहंबोध में अधिकता अनुभव करने लगता है तथा अपने को स्वतंत्र सत्ता समझने लगता है।  प्रकृति के विभिन्न आकार प्रकार और रूपों की ओर आकर्षण में इस प्रकार डूब जाता है कि वह समझता है कि यह सब केवल  उसी के उपभोग के लिये हैं और यही सब कुछ है। इस प्रकार प्रकृति के आकर्षण में डूबकर अपने मूलबिंदु (origin) परमपुरुष तक पहुंचने के लक्ष्य को भूल जाता है। यद्यपि प्रकृति अपने पूर्व कर्तव्य को यथावत (अर्थात् आगे की ओर अपने गन्तव्य तक ले जाने की दिशा  में) विद्यामाया और अविद्यामाया की सहायता से, जारी रखती है परंतु अविद्या से प्रभावित व्यक्ति विद्या के द्वारा सचेत किये जाने वाले निर्देशों  को अपने अहंकार से दुतकारता जाता है और मुक्त होने के स्थान पर इसी जगत में फंस जाता है और जन्म मरण के चक्कर में भटकता रहता है।

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