दार्शनिक पक्ष --- विन्दु क्र -2 से आगे ----
(3) प्रकृति की अविद्या और विद्या माया परस्पर विरोधी स्वभाव की होती हैं और मनुष्य के मानसिक क्षेत्र में सक्रिय रहकर भौतिक और मानसिक जगत के बीच उसे संघर्षरत रखकर आत्मिक जगत में ले जाने का कार्य करती हैं। इसे उसी प्रकार समझ सकते हैं जैसे आगे कदम बढ़ाने पर घर्षण बल पैरों को आगे बढ़ने से रोकता है तभी हम आगे बढ़ पाते हैं यदि यह विरोधी स्वभाव का घर्षण बल न हो तो हम आगे नहीं बढ़ सकते , चिकने तल पर चलने का प्रयास करने पर इसे अनुभव किया जा सकता है कि इसका कितना महत्व है। इसी प्रकार विद्यामाया जीव को उसके लक्ष्य की ओर ले जाती है और उसी के साथ अविद्यामाया उसे प्रकृति की विविधता की ओर खींचती है। विविधता दिखाई देती है पर लक्ष्य , परमपुरुष या मूलविंदु जहां से यात्रा प्ररंभ हुई थी, सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देता अतः मनुष्य अविद्या के इस सापेक्षिक संसार को ही अपना गन्तव्य मानकर उसी में फंसा रहता है। विद्या माया उसे समय समय पर उचित अवसर देकर वास्तविकता से परिचित कराती है पर यदि इन अवसरों पर उसने विवेक का प्रयोग किया तो विद्या के प्रभाव में आ जाता है पर यदि नहीं तो अविद्या उसे जकड़े रहती है। इस प्रकार विद्या और अविद्या दोनों साथ साथ रह कर कार्य करती हैं। जब विद्या माया अपनी संवित शक्ति के प्रभाव से अविद्या में भूले भटके हुए व्यक्ति को जगाने का काम करती है तो अविद्या तत्काल विक्षेप शक्ति का प्रयोग कर उसका विरोध करती है यदि व्यक्ति ने इस दशा में स्वविवेक से विद्या के निर्देशों को समझ लिया तो उसकी आध्यात्मिक प्रगति होने लगती है और अविद्या भी साथ साथ सक्रिय बनी रहती है घर्षण बल की तरह । संवित शक्ति के प्रभाव में अधिक प्रगति कर चुकने के बाद ज्यों ही विद्या की ह्लादनी शक्ति सक्रिय होती है जिससे आगे की प्रगति में और तेजी आ जाये तो तत्काल अविद्या भी अपनी आवरणी शक्ति को सक्रिय कर देती है और व्यक्ति को फिर एक बार सतर्कता से अपने विवेेक का उपयोग करना होता है। विवेकपूर्ण विद्याश्रययी अविद्या की आवरणी शक्ति को पहचान कर आगे बढ़ता जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि अविद्या और विद्या दोनों का ही उचित उपयोग कर लक्ष्य को पाना होगा । अकेले विद्या या अकेले अविद्या के सहारे वास्तविक प्रगति के स्थान पर कार्य कारण सिद्धान्त के अनुसार यहीं भटकना होगा।
अंधं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यां उपासते,
ततो भूय एव ते तमो य उ विद्यायां रतः।
अर्थात् केवल अविद्या की उपासना करने वाले गहन अंधकार में फंस जाते हैं और वे उनसे भी गहन अंधकार में पहुंचते हैं जो केवल विद्या की ही उपासना करते हैं।
वास्तव में स्थूल जगत में जब कोई कण किसी बहुत अधिक द्रव्यमान के पास से गति करता है तो उसे इस अधिक द्रव्यमान के गुरुत्वीय क्षेत्र में से जाना होता है अतः वह सरल रेखा में न होकर वक्र हो जाता है और इस वक्र गति में आते ही उस पर एक बल केन्द्र की ओर (centripetal) और दूसरा केन्द्र से बाहर की ओर (centrifugal) सक्रिय हो जाता है और वह कण उस द्रव्यमान के चारों ओर घूमने लगता है, यह एक साधारण भौतिक सिद्धान्त है। सूक्ष्म जगत में भी मनुष्य का इकाईमन , परमब्रह्म के विराटमन के गुरुत्वीय प्रभाव में रहता है अतः वह पूर्वोक्त भौतिक विज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार ब्राह्मिक मन के चारों ओर वृत्ताकार गति करने लगता है और विद्या centripetal और अविद्या centrifugal बलों की तरह सक्रिय हो जाती हैं। ह्लादिनी शक्ति के अधिक तेजी से सक्रिय होने पर मन में विशेष प्रकार की अनुभूति होती है जिसे दार्शनिकों ने भक्ति कहा है जिसके बिना उस परम सत्ता से मिल पाना संभव नहीं होता। इस अवस्था में मन में पहले यह विचार आते हैं कि उस परम सत्ता की सेवा करने से उन्हें आनन्द मिलता है इसलिये मैं भी आनन्दित होता हॅूं, इसे रागानुगा भक्ति कहते हैं, परंतु ह्लादिनी का तीक्ष्ण प्रभाव होने पर मन में यह विचार आते हैं कि मैं प्रभु की सेवा करता हूँ जिससे उन्हें आनन्द मिले भले ही मुझे कष्ट क्यों न मिले , यह अवस्था भक्ति की सर्वोच्च अवस्था होती है और इसे रागात्मिका भक्ति कहते हैं। इन दोनों ही अवस्थाओं में अविद्या अपना प्रभाव नहीं डाल पाती। यह प्राप्त हो जाने पर फिर आत्मसाक्षात्कार से कोई नहीं रोक सकता।
परंतु जब मन पर अविद्यामाया का प्रभाव विद्यामाया से अधिक हो जाता है तो मन में लगता है कि यह संसार ही सब कुछ है और ये सब पेड़ पौधे और जीव जन्तु उसके उपभोग के लिये ही हैं, विद्यामाया की संवित शक्ति बार बार सचेत भी करती है पर मन उस पर कोई ध्यान नहीं देता और फिर कार्य कारण सिद्धान्त के अनुसार इसी ब्रह्म चक्र में अपनी परिधि को लगातार बढ़ाते हुए ब्रह्म की निकटता से दूर होता जाता है यहाॅं तक कि अपने कर्मों के अनुसार वह विपरीत प्रतिसंचर अर्थात् जीव जंतुओं और पेड़ पौधों में से होता हुआ फिर जड़ पदार्थों में जा पहुंचता है जिसे ही नर्क कहा जाता है इसका कोई अलग से स्थान निर्धारित नहीं है। कार्य कारण सिद्धान्त या क्रिया प्रतिक्रिया नियम (cause and effect theory) के अनुसार विना किसी कारण के कोई क्रिया नहीं होती इसलिये जो जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है, ‘‘ यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ‘‘। सरल शब्दों में इसे इस प्रकार समझा जा सकता है। मानलो किसी को सोना अधिक प्रिय है और उसके सभी प्रयास सोने को प्राप्त करने में ही लगे रहते हैं , रात दिन ‘सोना सोना‘ इसका ही चिंतन करता है तो मृत्यु होने पर अगले जन्म में वह सोना होकर किसी धनाड्य की तिजोरी में बंद रहा करेगा। किसी भी प्रकार के धनात्मक या ऋणात्मक चिंतन करने पर मन में उसके संस्कार (reactive momenta) बनते जाते हैं जो अनुकूल अवसर आने पर अवश्य फलित होते हैं। मनुष्य जन्म पाने का अर्थ है, अनेक जड़ और चेतन से संधर्ष के बाद प्राप्त उन्नत पद, जिसे साधना के द्वारा परम पद में मिलाने का कार्य करना है। अतः वह चिंतन करना वाॅंछनीय है जिससे उस परम सत्ता, जो कि हमारा अंतिम आश्रय है तक, सरलता से पहुंचा जा सके। दूसरे शब्दों में अपनी भवानी शक्ति को भैरवी में और भैरवी को शिवानी में परिवर्तित करते हुए अंत में शिवानी को परम शिव में मिलाना ही प्रत्येक मनुष्य का परम कर्तव्य है। यदि ऐंसा नहीं होता है तो जन्म जन्मान्तर तक इसी भव सागर में डूबना उतराना पड़ेगा। इस से संबंधित उपनिषदों का यह निर्देश ध्यान में रखने योग्य हैं,
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते, तस्मिन हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ,
पृथगात्मानम प्रेरितारम च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति।
अर्थात् इस ब्रह्मचक्र में सभी अपने अपने आजीव की तलाश में भटक रहे हैं और तब तक भटकते ही रहेंगे जब तक वे अपने को, और अपने उत्पत्तिकर्ता अर्थात् परमपुरुष को, पृथक पृथक मानते रहेंगे।
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