Friday 10 April 2015

प्रश्नोत्तर (प्र- 37 से आगे-----)


प्रश्नोत्तर (प्र- 37  से आगे-----)
38. पुरुषोत्तम और निर्गुण ब्रह्म में दार्शनिक  स्तर पर क्या भिन्नता है?
-पुरुषोत्तम का संसार के साथ साक्षी सत्तात्मक संबंध होता है जबकि निर्गुण ब्रह्म का नहीं।
39. सविकल्प समाधि , अंतहीन आनन्द है या अंतहीन दुख?
-सगुण ब्रह्म का प्रदर्शित  चित्त बहुत विशाल होने पर भी वह अनन्त नहीं है पर उसकी कार्य क्षमतायें अनन्त हैं। सगुण ब्रह्म का चित्त, प्रदर्शित  चित्त और अप्रदर्शित  चित्त दोनों से मिलकर बना होता है।  इस विशाल जगत और ब्राह्मिक चित्त की साक्षीभूत सत्ता परमब्रह्म हैं अतः वे आनन्दस्वरूप हैं। उनके प्रदर्शित  चित्त द्वारा अनुभव किये जाने वाला दुख या आनन्द अनन्त नहीं सीमित होता है, और वह सीमित क्षण भी, जो इकाई आत्मा के अवियोज्य संबंध के साथ होता है, भी आनन्दमय होता है।
40. क्या इस ब्रह्मांड के निर्माता को यह पता है कि उसने इसे कैसे और किसकी सहायता से बनाया है?
-निश्चय  ही वह जानता है क्यों कि देश  काल और पात्र के घटक उसकी कल्पना से निर्मित होते हैं, यह ब्रह्मांड उसके चित्त से निर्मित हुआ है, वह कारण और प्रभाव से परे है और सदा निर्गुण के ध्यान में मस्त रहता है।
41. यदि ईश्वर  अवैयक्तिक अस्तित्व है तो क्या किसी व्यक्ति से वह प्रसन्न या अप्रसन्न हो सकता है?
-जो, उसके व्यवस्थित कंपनप्रवाह में, एककेंद्रिय होकर अपने मानसिक व्यवहार को विना शर्त उसके साथ मिलजाने के लिये त्वरित प्रयत्न करते रहते है उनपर परमपुरुष का परावर्तन बढ़ता जाता है क्योंकि वे अपने चिंतन श्रोत की ओर बढ़ते जाते हैं। इसे आप उसकी कृपा या अपने ऊपर प्रसन्न होना कह सकते हैं। यह ध्यान रखना कि वह तो अपना प्रकाश  सभी पर एक समान डालता है, वह सभी पर समान रूप से कृपालु है, पर जिसका चित्त अधिक शुद्ध  होता है वह अधिक प्रकाश  ग्रहण कर लेता है। जिन्होंने उसे समझा नहीं वे उसे पक्षपाती और दुष्ट कह सकते हैं।
42. सञ्चर  की प्रक्रिया में ब्रह्म के भीतर या बाहर कोई भौतिक परिवर्तन होता है?
-ब्रह्म के बाहर कुछ है ही नहीं अतः उसकी चर्चा करना बेकार है। संचर की प्रक्रिया में वह परम ब्रह्म के क्षेत्र में बहुत दूर यात्रा करने लगता है, उसकी मूल आनन्दित मुद्रा से बहुत दूर। जैसे, कोई इंग्लेंड या अमेरिका के बारे में सोचने लगे या इस मामले में कोई अन्य देश । अतः चिंतन किया जा रहा देश  अर्थात् विषय, उनके चित्त के भीतर ही रहता है बाहर नहीं। विषय की जड़ता के अनुरूप संचर के समय मन शुद्ध  चेतना की अवस्था से और दूर चला जाता है।

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