Wednesday 1 April 2015

कुछ प्रश्नोत्तर ( लगातार प्र -8 से आगे )


कुछ प्रश्नोत्तर ( लगातार प्र -8  से आगे )
9. आधार क्या है?
-प्रत्येक वस्तु जो सीमित है और विशेष आकार या गुणों वाली है उसे किसी न किसी आधार की आवश्यकता पड़ती है। प्रत्येक का आधार उसके अपने संस्कारों से बनता है अतः किन्हीं दो इकाईयों या व्यक्तियों में समानता नहीं होती क्योंकि सबके संस्कार भिन्न होते हैं। ब्रह्म के लिये कोई आधार की जरूरत नहीं होती क्योंकि वह सीमित नहीं हैं। प्रकृति के प्रभाव में आकर ब्राह्मिक मन इस पंचभूतात्मक विश्व  में रूपान्तरित होता है और सबको उनके संस्कारों के अनुसार आधार देता है। ब्रह्म की कोई भौतिक देह नहीं केवल मानस देह होती है जो प्रकृति के प्रभाव से जन्म लेती है और उसमें विभिन्न गुणों सत्व, रज और तम आदि का उद्गम होता है। सत्वगुण के प्रभाव से अस्तित्व बोध, रजो गुण के प्रभाव से ऊर्जा और क्रियात्मकता तथा तमोगुण से क्रिया का स्थायी परिणाम प्राप्त होता है जिससे वस्तुओं में जड़त्व पाया जाता है। कोई भी गुण अकेला नहीं रह सकता अतः वे सभी में भिन्न भिन्न अनुपातों में पाये जाते हैं। यह पंचभौतिक विश्व  वास्तव में ब्राह्मिक मन की भौतिक देह है। इसमें तमः की प्रधानता रजः की न्यूनता और सत्व की अत्यल्पता है। ब्राह्मिक मन में महत्तत्व और अहमतत्व का अभाव होता है केवल चित्त होता है अतः इस द्रश्य  प्रपंच के अलावा भी जहां जहां तमः की प्रधानता है ब्राह्मिक मन के स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर अन्य लोक भी हैं। जैसे, भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनः लोक, तपः लोक और सत्यलोक। भूर्लोक में यह भौतिक जगत आता है जो तमः प्रधान है इसमें रजः कम और सत्व अत्यल्प पाया जाता है। इकाई देह में यह मन के अन्नमय कोष के नाम से जाना जाता है। भुवर्लोक इसमें ब्राह्मिक मन का जड़ात्मक भाग आता है, अतः सभी भौतिक क्रियाएं इसी भाग से नियंत्रित होती हैं। मानव मन में यह काममय कोष के नाम से जाना जाता है, यहां तम प्रधान, सत्व कम और रज न्यूनतम होता है। स्वर्लोक यह सुख और दुख की अनुभूति कराने वाला लोक है और इकाई मन में यह मनोमय कोष के नाम से जाना जाता है। इसी क्षेत्र में संस्कार पाये जाते हैं। यहां रजोगुण प्रधान, तमोगुण कम और सत्व गुण न्यूनतम होता है। महर्लोक में ही संस्कारों का प्रथम निर्माण होता है भले वे स्वर्लोक में पाये और अनुभव किए जावें। इकाई मन में यह अतिमानस कोष कहलाता है। इस में साधना की इच्छा भी पाई जाती है। यहां रजः प्रधान, सत्व कम और तम न्यूनतम होता है। जनःलोक में विज्ञान, वैराज्ञ और विवेक की प्रधानता होती है। इकाई मन में यह विज्ञानमय कोष कहलाता है। यहां सत्व प्रधान, तमः कम और रजः न्यूनतम होता है। तपः लोक में सत्व की प्रधानता, रजः की न्यूनता और तमः की अत्यल्पता होती है, इकाई मन में यह हिरण्यमय कोष कहलाता है। इसमें ज्ञान शून्य हो जाता है और मैंपन का अनुभव नहीं होता। हिरण्यमय का अर्थ है सोने का बना। अर्थात् सोने की तरह शुद्ध और चमकदार। सत्य लोक में तीनों गुण पाये जाते हैं पर वे सुप्तावस्था में रहते हैं। इस लोक में केवल परमपुरुष रहते हैं।
इस तरह सगुण ब्रह्म में सप्तलोकों और इकाई मन में पंचकोषों का निर्माण प्रकृति के प्रभाव से होता हैं। अतः सगुण ब्रह्म और जीवात्मा में केवल संस्कारों का ही अंतर है ब्रह्मानन्द दोनों में एकसा ही है। इस अंतर को दूर करने का प्रयास ही साधना कहलाती है। संस्कार शून्य  मन  इकाई चेतना में और इकाई चेतना परम चेतना में मिल जाती है। इसे निर्विकल्प समाधी  कहते हैं, जब निविैकल्प समाधी  स्थायी हो जाती है तो इसे मोक्ष कहते है। जब अक्रिय मन ब्राह्मिक मन से जुड़ जाता है तो सविकल्प समाधी  होती है और इसके स्थायी हो जाने पर मुक्ति प्राप्त होना कहलाता है।

10. सत्य क्या है?

-जो देश  काल और पात्र के अनुसार कभी बदलता नहीं, हमेशा  एकसा रहता है वह सत्य है। सत्य सीमा रहित है उसके आगे कुछ नहीं है। सत्य के अपने भीतरी भागों में भी कोई अंतर नहीं है वह एक अटूट, भेदरहित सातत्य है। सत्य से भिन्न कुछ नहीं , सत्य के बाहर कुछ नहीं है। इसके विजातीय, स्वजातीय अथवा स्वगत कोई भिन्नतायें नहीं होती। यह सापेक्षिक सत्य से भी पृथक होता है क्योंकि सापेक्षिक सत्य देश  काल और पात्र के अनुसार बदलता रहता है। साधना के अभ्यास से मन समाप्त हो जाता है और जीवात्मा त्रिकालज्ञ हो जाता है और सत्य का साक्षात्कार कर लेता है।

11. कोश  अर्थात् अस्तित्व की परतें किस प्रकार प्रभावित होती हैं?

-पंच कोषों में अन्नमय सबसे जड़ और इससे आगे के सभी कोष काममय, मनोमय, विज्ञानमय, और अतिमानस तथा हिरण्यमय क्रमशः  अधिक सूक्ष्म हैं। प्रत्येक सूक्ष्म कोष अपने से नीचे वाले कोष को प्रभावित कर सकता है। अतः शरीर अर्थात् अन्नमय कोष से काम लेने के लिये काममय को सक्रिय करना होगा। काममय  अर्थात् क्रूड मन से काम कराने के लिये मनोमय कोष को सक्रिय करना होगा। इस तरह एक व्यक्ति अपने मनोमय कोष से दूसरे के काममय कोष को प्रभावित कर उससे मन चाहा काम करा सकता है। जेसे कोई चाहता है कि भले ही घड़ी में सवा सात बजे हैं लेकिन सामने वाला अपनी घड़ी में सात बजना ही देखे तो उसे अपने मनोमय कोष से सामनेवाले के काममय कोष को प्रभावित कर उसे अपनी घड़ी में सात बजने का ही आभास दिला सकता है। इसे भूत विद्या या हिपनोटिज्म कहते हैं। इसी प्रकार मनोमय कोष आर्थात् शुद्ध मन को अतिमानस कोष से प्रभावित किया जा सकता है इसमें वह सामने वाले के अन्नमय कोष का उपयोग किये विना अपने मानसिक बल द्वारा भौतिक कार्य करा सकता है, इसे पैशाची विद्या कहते हैं। विज्ञानमय कोष के द्वारा सामने वाले के अतिमानस कोष को प्रभावित करना गंधर्व विद्या कहलाता है इससे किसी को भी आकर्षित किया जा सकता है। गंधर्व विद्या को भजन और कीर्तन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। जब विज्ञानमय कोष को हिरण्यमय कोष के द्वारा प्रभावित किया जाता है तो यह दैवी विद्या कहलाती है। इसके और गंधर्व विद्या के द्वारा ही सामान्य गुरु अपने शिष्यों को प्रभावित करते हैं। जब सत्यलोक अर्थात् आत्मा के द्वारा कोई सामने वाले के हिरण्यमय कोष को प्रभावित करता है तो इसे ब्राह्मी विद्या और जब कोई अपनी आत्मा से सामने वाले की आत्मा को प्रभावित करता है तो उसे ब्राह्मी आकर्षण या कृपा कहते हैं। बाह्मी विद्या और कृपा या ब्रह्मी अकर्षण के माध्यम से सद्गुरु अपने शिष्यों को निर्देषित करते हैं। इससे स्पष्ट है कि कोषों को आकर्षित करना पूर्णतः मानसिक क्रिया है, यहां यह याद रखना होगा कि मन का लक्षण अपने विषय के रूप को लेने का होता है अतः यदि कोषों को प्रभावित करने की विधि तुच्छ भौतिक कार्यों /बस्तुओं के लिये प्रयुक्त की जाती है तो मन तुच्छ बस्तुओं का आकार ले लेगा और वह अपनी सूक्ष्मता खोकर पतन की ओर बढ़ जावेगा और वह फिर कोषों को प्रभावित नहीं कर पायेगा।

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