Tuesday, 31 March 2015

कुछ प्रश्नोत्तर ( प्रश्न 5 के आगे ……)


कुछ प्रश्नोत्तर ( प्रश्न 5  के आगे ……) 

6. परम चेतना ने यह ब्रह्माण्ड क्यों बनाया?
-निर्गुण ब्रह्म के पास कोई कार्य करने के गुण नहीं होते परंतु प्रकृति के प्रभाव में उसका कुछ भाग सगुण रूप में रूपान्तरित हो जाता है जिसमें ये सब गुण होते हैं। निर्गुण ब्रह्म प्रकृतिविहीन नहीं होता और न ही प्रकृति उसके बाहर होती है क्योंकि निर्गुण ब्रह्म अनन्त होता है अतः उसके बाहर कुछ भी नहीं होता, प्रकृति उसके भीतर ही मूला प्रकृति के रूप में रहती हैं ठीक उसी प्रकार जैसे पेड़ के बीज में उसके उत्पन्न करने की शक्ति सोयी रहती है। अनन्त सगुण ब्रह्म में जब मूला प्रकृति सक्रिय हो उठती है तो वह अपने को आठ रूपों में बदल लेती है वे हैं, मूला प्रकृति, महत् तत्व, व्योम, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी। इन रूपों के निर्माण करने के बाद भी सगुण ब्रह्म में मूला प्रकृति ,मूला प्रकृति के रूप में ही रहती है। इस प्रक्रिया में सूक्ष्मता से स्थूलता की ओर निर्माण चलता है और पृथ्वी का निर्माण स्थूलतम होता है क्योंकि इसमें अन्य सब गुण होते हैं। यहां ध्यान देने की बात यह है कि सभी निर्माण कार्य अनन्त सगुण ब्रह्म में ही होते हैं अतः उसके बाहर कुछ नहीं हो सकता। मूला प्रकृति के अलावा ये सभी रूप सगुण ब्रह्म के अंतःकरण कहलाते हैं। इकाई चेतना या जीवात्मा के अंतःकरण में केवल दो वृत्तियां ही होती हैं महत्तत्व और अहमतत्व, अन्य सब वहिःकरण कहलाता है। परम चेतना और इकाई चेतना में मन का वह भाग जिसमें विचार तरंगे उठती हैं चित्त कहलाता है, इसलिये सभी जड़ात्मक संरचनायें प्रकृति द्वारा विचार तरंगों के माध्यम से ब्रह्म के चित्त में उत्पन्न की जाती हैं। इस रूपान्तरण की क्रिया में पृथ्वी तक आते आते जड़ता अधिकतम हो जाने के कारण अब पुनः सूक्ष्मता की ओर अपने श्रोत तक वापस जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता। वापस जाने का यह क्रम ठोस पदार्थ से पौधे , पौधों से प्राणी और फिर मनुष्य और मनुष्यों से वापस परम चेतना में जाने का चक्र चलता रहता है। इस प्रकार यह लगता है कि एक समय आयेगा जब सभी जीव ,जड़ और पदार्थ वापस ब्र्रह्म में मिल जावेंगे। यह समय केवल तब आ सकता है जब सगुण ब्रह्म को निर्विकल्प समाधि प्राप्त हो। वास्तव में यह स्थिति बहुत पहले आ जाना थी पर तमोगुणी चित्त में तमोगुणी संस्कार अभी तक क्षय नहीं हुए हैं और जब तक तमोगुणी विचार तरंगें क्षय नहीं होती यह संसार चलता रहेगा। ब्रह्मांड का निर्माण और पालन, और कुछ नहीं, सगुण ब्रह्म के संस्कारों का प्रारव्ध भोग है।


7. ब्रह्म में सत्व, रज और तम इन तीन गुणों में किस की प्रधानता होती है?

-ब्रह्मांड की रचना ब्रह्म मन के द्वारा की गई और जब अन्य जीवों की उत्पत्ति की जाने लगी तो उन्हें प्रकृति के बंधन से मुक्त होने के लिये साधना करने की रुचि भी दी गयी जो सबके कल्याण और उत्थान  की भावना से की गई है अतः यह सात्विक गुण के अलावा अन्य गुणों से संभव नहीं है। ब्रह्म के प्रति आकर्षण भी सबको स्वतंत्र करने की इच्छा से ही है अतः इकाई मन में साधना करने की योग्यता पाई जाती है। मन का विशेष लक्षण यह होता है कि वह अपने विषय का रूप धारण कर लेता है, यदि उसकी यह विशेषता नहीं होती तो ब्रह्म के आकर्षण का क्या महत्व रहता। चूंकि यह सब सबके उत्थान को ध्यान में रखकर किया जाता है अतः ब्रह्म मन पर सात्विक गुणों का प्राधान्य होता है। ब्रह्म मन की तरंगें अनन्त हैं और वे विना किसी व्यवधान के आगे बढ़ती जा रहीं हैं। यह कार्य लगातार होते रहना प्रकट करता है कि रजोगुण के बिना यह कैसे संभव है अतः यह भी ब्रह्म में पाया जाता है परंतु उसका स्थान सत्वगुण के बाद आता है। इकाई मन में साधना करने की विचार तरंगों के उत्पन्न करने के लिये ब्रह्म में चित्त का होना अनिवार्य है जो विना तमोगुण के संभव नहीं है अतः ब्रह्म में तमोगुण भी होता है पर वह सत व रज की तुलना में न्यून होता है।

8. धारणा और ध्यान क्या हैं और इनमें अंतर क्या है?

-चित्त का लक्षण अपने विषय का रूप ग्रहण करने का होता है जो वह ग्राहिका और विक्षेपिका नामक क्रियाओं के द्वारा कर पाता है, ग्राहिका ज्ञानेद्रियों और विक्षेपिका कर्मेन्द्रियों के द्वारा सम्पन्न होती हैं। इस प्रकार पहले वह संवेदना ग्रहण करता है फिर उसे कार्य रूप देता है। अतः चित्त के अपने विषय के अनुरूप आकार ग्रहण करने के गुण को धारणा अर्थात् पकड़ना कहते हैं। चूंकि आकार संवेदनों द्वारा ग्रहण किया जाता है अतः वह सतत नहीं होता क्योंकि संवेदनायें सतत नहीं होती परंतु यह तेज गति से होने के कारण हमें  सतत होते प्रतीत होती हैं। इसलिये धारणा गतिशील नहीं होती स्थिर होती है। ध्यान भी धारणा की  तरह चित्त की ही अवस्था है, परंतु ध्यान बाहरी विषय का नहीं होता इसलिये, इसे बाहरी संवेदनाओं की आवश्यकता नहीं होती और किन्हीं दो संवेदनाओं में अंतर न होने के कारण चित्त में बने आकार का ध्यान सतत होता है तैल धारावत्। अतः ध्यान का अर्थ हुआ स्थायी स्मरण, विना रुकावट के स्मरण। ध्यान की प्रक्रिया इतनी सतत होती है कि पूरी क्रियात्मकता इसके सातत्य को बनाये रखने में ही व्यय हो जाती है इसलिये ध्यान में अन्य सब क्रियायें समाप्त हो जाती हैं। और जब क्रियायें  समाप्त हो जातीं हैं तो मन भी समाप्त हो जाता है इसे समाधी  कहते हैं, कर्म समाधी। इस प्रकार धारणा और ध्यान दोनों में बहुत भिन्नता है भले ही वे दोनों चित्त से ही उत्पन्न होते हैं। धारणा में चित्त वाह्य बस्तुओं का आकार ग्रहण करता है जबकि ध्यान में सब कुछ आन्तरिक होता है, धारणा स्थिर होती है जबकि ध्यान गतिशील, धारणा में क्रिया हो सकती है पर ध्यान में नहीं , धारणा तमोगुणी होती है जबकि ध्यान रजोगुणी। ध्यान में अंतिम रूप से क्रिया समाप्त हो जाती है जिसका उद्देश्य  सतोगुणी समाधी  होता है।

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