Sunday 8 March 2015

वेद में ब्रह्म विज्ञान लगातार

वेद में ब्रह्म विज्ञान  लगातार ……

(19 ) ‘‘ स एव माया  परिमोहितात्मा शरीरमास्थाय करोति सर्वम्, स्त्रीयन्नपानादि विचित्रभेगैः स एव जाग्रत् परितृप्तमेति।‘‘ जीव जाग्रत अवस्था में ही सबसे अधिक अविद्या से ग्रस्त रहता है। उसके मन में अष्ट पाश  और षडरिपु रहते हैं और बाहर आकर्षणकारी प्रपंच। वह स्त्री अन्न पानादि अत्यंन्त विचि़त्र विषय को अपना भोग समझ इन्हीं के बीच भटकता रहता है। इसलिये बाहरी प्रलोभन से द्रढ़तापूर्वक संयमित और सतर्क रहने की आवश्यकता होती है। ‘‘ स्वप्ने स जीवो सुख दुख भोक्ता स्वमाययाकल्पित जीवलोके, सुषुप्तिकाले सकले विलीने तमोअभिभूतो  सुखरूपमेजि।‘‘ स्वप्नावस्था में जीव ब्रह्म से पृथक अवस्था में रहता है, सुख दुख अधिक परिमाण में भोग सकता है क्योंकि वाह्य जगत के व्यवधान की संभावना नहीं रहती। यहाॅं भोग्य और भोक्ता यही द्वैत रहता है और अन्य सब कल्पित। जाग्रत अवस्था में कल्पित वस्तु मनोमय कोश  के कारण सत्य नहीं लगती वरन् कल्पना की समझ रहती है परंतु स्वप्नावस्था में काममय कोश  समाहित हो जाने के कारण बाहर से जीव का संबंध समाप्त हो जाता है अतः स्वप्नावस्था में भोग्य वस्तुयें सत्य प्रतीत होती हैं , जीव स्वकल्पित सुखदुख के भोक्ता के रूप में रहता है। निद्रा एक ऐंसी अवस्था है जिसके होने पर उसका अनुभव नहीं होता केवल उसके बाद ही लगता है कि कुछ क्षण पूर्व हमारी एक विषयमुक्त अभावावस्था थी। नींद के समय जीव ब्रह्म के कारणार्णव से जुड़ जाता है इसलिये जाग्रत अवस्था की अपेक्षा आनन्द की मात्रा अधिक रहती है। निद्रा और मृत्यु में अंतर यह है कि मृत्यु के बाद स्थूल, सूक्ष्म और कारण  ये तीनों मन के कार्य बन्द हो जाते हैं।निद्रा काल में दसों वायुएं क्रियाशील रहती हैं अतः प्राणशक्ति ठीक रहती है पर मृत्यु में इन दस वायुओं में विकृति आ जाने से मन कार्य करना बंद कर देता है। निद्रा और अचेतन में अंतर यह है कि निद्रकाल में स्थूल और सूक्ष्म मन थक जाने के बाद आराम करते हैं पर अचैतन्य अवस्था में बाहरी आघात से स्थूल और सूक्ष्म मन काम बंद करने को वाध्य हो जाते हैं । निद्रा सामयिक विश्रान्ति है अतः उसके बाद शरीर स्वस्थ मालूम होता है और अचैतन्य अवस्था में बल पूर्वक मन की क्रिया बंद रखने के कारण शरीर थका हुआ लगता है। सविकल्प समाधि और निद्रा में अंतर यह है कि सविकल्प में मन ब्रह्म के मन से एकीभूत हो जाता है, चूंकि ब्रहम मन के बाहर कोई भोग्य सत्ता न होने के कारण बाहरी व्यवधान की संभावना नहीं रहती अतः दैहिक कार्य अन्य जड़ वस्तुओं की तरह ब्रह्म मन से नियंत्रित होता है और अनन्त आनन्द में डूब जाता है पर शरीर का अभुक्त संस्कार उसे अधिक काल तक इस स्थिति में नहीं रहने देता और प्रकृति का रजोगुण संस्कार भोगने के लिये उसे जैव भाव में ले आता है। निर्विकल्प और सविकल्प समाधि में अंतर यह है कि निर्विकल्प समाधि में जैव मन निष्कल पुरुष में समाहित हो जाता है इसलिये भोग,भोग्य और भोक्ता का या ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का भाव नहीं रहता । एक अनभिव्यक्त आनन्द में आत्मविस्मृत होकर क्या पाया है और क्या खो दिया यह भूल जाता है। परंतु अभुक्त संस्कार उसे अधिक देर तक वहाॅं नहीं रहने देता और जैव भाव में वापस ले आता है। इसके बाद ही लगता है कि एक अज्ञात लोक से एक अफुरन्त आनन्द की धारा  उसकी सभी सत्ताओं को प्लावित कर रही थी।‘‘ अभावोत्तरानन्दप्रत्ययालम्बनीवृत्तिर्तस्यप्रमाणम्।‘‘ अभाव बोध के बाद मन जब आनन्दश्रोत में डूब जाता है तब समझना चाहिये कि उसके पूर्व की अभावावस्था और कुछ नहीं निर्विकल्प समाधि थी। मन के नहीं रहने पर विषय नहीं था यही अभावावस्था है। जिसके संस्कार बाकी नहीं हैं उसकी निर्विकल्प या सविकल्प समाधि के भंग होने का प्रश्न  ही नहीं है। स्थायी सविकल्प का नाम मुक्ति है और स्थायी निर्विकल्प का नाम मोक्ष  है।

(20 ) प्रकृति के संयोग से पुरुष के जो तीन प्रकार के भाव या अवस्थाओं की सृष्टि होती है उन्हीं को त्रिपुर कहा जाता है। जीवभाव में यह त्रिपुर उसकी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएॅं हैं। इन तीनों  भावों से बाहर जो साक्षी स्वरूप शायित हैं वे ही आत्मा या पुरुष हैं। यह विचित्र जगत अर्थात् दृश्यमान जगत पुरत्रयात्मक भाव लेकर ही खड़ा है और जीवों के बीच काम करता चलता है। जीवों का भोग्य यही विराट पुरत्रययुक्त जगत् है जो क्षीराब्धि, गर्भोदक और कारणार्णव नाम से प्रसिद्ध है। उनकी सृष्टि परम पुरुष की कल्पना से हुई है-उन्हीं के सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुणात्मक अभिमान के फलस्वरूप। इन तीनों अवस्थाओं का जो आधार है उसी को चतुर्थ पुर कहते हैं। यह चतुर्थपुर त्रिगुणातीत है। इसीलिये इसकी सत्ता देश  काल और पात्र के परिमाप के बाहर है, त्रिपुर के ऊर्ध्व  है। इसी चतुर्थ अवस्था को निर्गुण, कैवल्य या तुरीय अवस्था कहा जाता है। अणु जीव का संस्कार जब तक बाकी रहता है तब तक वह भोग के लिये जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों  पुरों में विचरण करता है और साधना के द्वारा जब संस्कारों से मुक्त हो जाता है तब वह त्रिपुर से बाहर तुरीयपद, परम पद में समाहित हो जाता है। ऊॅं, या प्रणव या ओंकार चार वर्णों से युक्त मंत्र है। वे हैं अ, उ, म, और नाद विंदु। यही नाद विंदु चतुर्थ अवस्था अर्थात् निर्गुण सत्ता का द्योतक है। इसमें सत्व, रज या तम का कोई भी गुण स्फुट अवस्था में नहीं है। जीव भाव का ‘अ‘ सत्वगुण प्राधान्य का द्योतक और जाग्रद अवस्था का सूचक है। ‘उ‘ रजोगुण प्राधान्य का द्योतक और स्वप्नावस्थाका सूचक है। ‘म‘ तमो गुणप्राधान्य का द्योतक और सुषुप्तावस्था का सूचक है। सगुण ब्रह्म में अ,उ,म यथाक्रम से क्षीराब्धि, गार्भोदक और कारणार्णव का सूचक हैं। विन्दु चतुर्थ व तुरीय अवस्था का द्योतक तथा निर्गुण ब्रह्म का सूचक है। गणित में विन्दु को पारिभाषित किया गया है कि उसकी स्थिति होती है परंतु माप नहीं। निर्गुण ब्रह्म के संबंध में हम लोग कुछ न तो कह सकते हैं और न ही सोच सकते हैं। केवल समझाने  के लिये  विन्दु का व्यवहार किया गया है। निर्गुण ब्रह्म वाचक विन्दु(.) और सगुण ब्रह्म वाचक ओम  तथा बीच में लगाया गया चिन्ह (चंद्राकार  ॅ ) अव्यक्ता प्रकृति की व्यक्तावस्था में परिणति का ज्ञापक है।

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