Wednesday 25 March 2015

विश्लेषण और व्याख्या ( लगातार----)

विश्लेषण और व्याख्या ( लगातार----)

7.3   ब्रह्माॅंड और यह संसार क्या हैं? इसकी उत्पत्ति संचालन पालन और विनाश  किस प्रकार होता है?
यह द्रश्यमान और अद्रश्य  सब कुछ जिसमें है वह, निर्पेक्ष परमचेतना, परमब्रह्म या परम सत्ता (cosmic entity), असीमित और आदिअन्त रहित है जिसे दार्शनिक गण  सच्चिदानन्दघन कहते हैं। अर्थात् सत्य, चेतना और आनन्द की घनीभूत अवस्था को परम चेतना या परम ब्रह्म कहा गया है। सत्य वह है जो परिवर्तनशील नहीं है हमेशा  एक सा रहता है। चेतना की क्रियात्मक सत्ता को प्रकृति और उसका साक्ष्य देनेवाली सत्ता को पुरुष कहते हैं। निर्पेक्ष अवस्था में प्रकृति और पुरुष साम्यावस्था में  स्वतंत्र रहते हैं। पुरुष इस अवस्था में अपने अस्तित्व को भी भूले रहते हैं। प्रकृति इस अवस्था में तीन प्रकार के बलों या गुणों, जिन्हें सत, रज, और तम के नाम से जाना जाता है, को संतुलित किये रहती है। आधुनिक वैज्ञानिक शब्दावली में इसे पोटेशियल (potential form) रूप कह सकते हैं। इन तीनों बलों का स्वभाव संघर्षमय और एक दूसरे के प्रभाव को नष्ट करने का होता है। प्रकृति और पुरुष के संयुक्त रूप को ब्रह्म कहा जाता है। जब प्रकृति के तीनों बलों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है तो प्रकृति पुरुष को उसके अस्तित्व का बोध कराती है और अपने प्रभाव में लेकर पुरुष को अनन्त रूपों में रूपान्तरित करने की तरंगे निर्मित करती है जिससे ब्राह्मिक मन (cosmic mind) अस्तित्व में आता है। प्रकृति के लगातार संघर्षरत सत रज तम आदि तीनों बलों के पारस्परिक संघर्ष से ब्राह्मिक मन में अपने को अनन्त रूपों में रूपान्तरित करने का विचार आता है और पुरुष, अनन्त संख्यक इकाई चेतनाओं मे तथा  ब्राह्मिक मन, अनन्त संख्यक इकाई मनों में रूपान्तरित हो जाता है। वैज्ञानिक शब्दावली में इसे कायनेटिक रूप (kinetic form) कहते हैं । ठीक उसी प्रकार जैसे मिट्टी से कुंभकार घड़े बनाता है, यहां मिट्टी, पुरुष और कुंभकार, प्रकृति होती है। पुरुष का इस प्रकार प्रकृति के प्रभाव में आकर अपने को अनन्त रूपों में रूपान्तरित कर लेने पर वह सगुण ब्रह्म कहलाते हैं। यह जो कुछ भी दिखाई देता है वह सगुण ब्रह्म ही है।
 इस प्रकार निर्पेक्ष परम चेतना के कुछ भाग, जो कि अनन्त ही होता है को पुरुष, प्रकृति के प्रभाव से इस अनन्त ब्रह्माॅंड को निर्मित करने में प्रयुक्त करता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह समस्त ब्रह्माॅंड सगुण ब्रह्म की विचार तरंग के अलावा कुछ नहीं है। अपनी विचार तरंग को सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलाये रखने के क्रम को ब्रह्म चक्र कहते हैं। यह एक सुव्यवस्थित विकासक्रम है जिसमें पहले व्योम तत्व में स्पेस- टाइम अर्थात् आकाश  और समय निर्मित होता है इसे ही ईथर का नाम दिया गया है। इसके बाद गैसीय और उसके बाद ऊष्मीय और जलीय तथा ठोस अवस्थायें क्रमशः  निर्मित होती जाती हैं। ठोस अवस्था में पहुंचने पर पुरुष, ब्रह्म चक्र का आधा भाग पूरा कर लेता है इसे संचर क्रिया कहते हैं  और इसके बाद वनस्पति जगत, प्राणी जगत और मनुष्य क्रमशः  अनन्त इकाई चेतनाओं के रूप में संसार में आते जाते रहते हैं। ठोस अवस्था अर्थात् पृथ्वी से पुनः अपने मूल स्वरूप अर्थात् परम चैतन्य में पहुंचने का कार्य प्रतिसंचर क्रिया कहलाता है। वही ब्रह्म जब अपनी सगुणता को निर्मित करते हैं तो ब्रह्मा, जब भरण पोषण करते हैं तो विष्णु और जब वापस अपने में मिलाने का काम करते हैं तो महेश  कहलाते हैं। ये कोई अलग अलग सत्तायें नहीं हैं वरन् एक ही सत्ता को उसके द्वारा किये जाने वाले कामों के नाम से उसे पुकारना मात्र हैं। इस प्रकार निर्माण पालन और संहार का क्रम लगातार चलता रहता है इसे ब्रह्म चक्र कहते हैं। यह तब तक चलता रहेगा जब तक समस्त इकाई चेतनायें परम चेतना में और इकाई मन ब्राह्मिक मन में नहीं मिल जाते। इस प्रकार सब कुछ ब्रह्म से ही निर्मित हुआ है और वही इस ब्रह्माॅंड के निर्माता हैं जो उनकी विचार तरंगों के अलावा कुछ नहीं है। इसलिये यह भी स्पष्ट होता है कि यह सब कुछ उन्हीं के भीतर है उनके बाहर कुछ भी नहीं है।
पुरुष चेतनमय हैं और प्रकृति के तमोगुणी प्रभाव से जब वे ज़ड पदार्थ अर्थात् पत्थर आदि पिंड बन जाते हैं तो प्रकृति के प्रभाव से वे जड़ के रूप में दिखाई देते हैं जबकि उनमें चेतना सुप्तावस्था में (potential form) में रहती है अतः यह सब कुछ जड़ या चेतन, ब्रह्म का ही रूपान्तरित प्रकार हैं। स्पष्ट है कि पुरुष के ऊपर जितना अधिक प्रकृति का प्रभाव होगा वह उतना ही अधिक जड़ात्मक गुणों को प्रकट करेगा और जितना कम प्रभाव होगा वह चेतन्यता को प्रकट करेगा। पर यह सब सूक्ष्म ब्रह्म के मन में ही विचार तरंगों के रूप में होता है अतः वास्तव में यह ब्रह्माॅंड निर्माण की घटना, ब्रह्म की कल्पना के अलावा कुछ नहीं है।
अब प्रश्न  उठता है कि जब यह सब ब्रह्म की कल्पना ही है तो हम इसे वास्तविक रूप में क्यों अनुभव करते हैं? और जब यह उनकी कल्पना ही है तो इसे तो  अब तक समाप्त हो जाना चाहिये?
इसका उत्तर यह है कि जब कोई कल्पना करता है तो जब तक कल्पना जारी रहती है तब तक प्रत्येक विचारी हुई बस्तु और कार्य सत्य लगता है और यह तब तक सत्य होता है जब तक कल्पना जीवित  रहती है। और, कल्पना के विचार किस प्रकार कार्य करते हैं? मन का कुछ भाग जो क्रिया में भाग लेता है अहम तत्व कहलाता है और जो भाग क्रिया के परिणाम को प्रकट करता है उसे चित्त कहते हैं। जैसे कोई व्यक्ति पुस्तक की कल्पना अपने मन में करता है तो उसका अहम तत्व पुस्तक का विचार करते हुए चित्त में रूप तन्मात्रा को ग्रहण कराकर पुस्तक का आकार देने का कार्य कराता है। पुस्तक के उदाहरण में यह कहा जा सकता है कि पहले से देखी हुई वस्तु के बारे में इंद्रियों के द्वारा तन्मात्राओं के ग्रहण करने की बात समझ में आती है पर जिस को कभी नहीं देखा उसके बारे में क्या? इस संबंध में मानलो सागर में बैठा कोई व्यक्ति इंग्लेंड के बारे में विचार करे तो स्थान समय और पात्र की सीमित क्षमताओं के कारण इंद्रियों का कार्य समाप्त हो जाता है केवल अहम तत्व के सहारे चित्त में ही इंग्लेंड के आकार प्रकार की रचना होने लगेगी इसे ही कल्पना कहेंगे। जब तक अहमतत्व यह कल्पना करता रहेगा, सागर में बैठा व्यक्ति इंग्लेंड में अपने को अनुभव करेगा और वह उसे सत्य लगेगा परंतु ज्यों ही अहमतत्व विचार करना समाप्त करेगा चित्त तत्व भी लिये हुए रूपों को समाप्त कर देगा और व्यक्ति की इंद्रियाॅं अपने स्थान और पात्र के संबंध को ग्रहण कर लेंगी और वह सागर में होने का अनुभव करने लगेगा। इसके बाद ही वह यह अनुभव करेगा कि अब तक वह कल्पना के इंग्लेंड में था और वह सत्य नहीं था।
अब यह बात सामने आती है कि कुछ भी घटित होने के लिये मन का होना अनिवार्य है। सगुण ब्रह्म की मानसिक तरंगें ही इस विश्व  के होने का आभास देती हैं। सगुण ब्रह्म में सभी इकाई चेतनाओं का समूह पुरुष और सभी इकाई मनों का समूह ब्राह्मिक मन कहलाता है। इस प्रकार इकाई मन के समान ही ब्राह्मिक मन भी महत, अहम और चित्त के रूपों में कार्य करता है। अहम तत्व कार्य करता है और चित्त तत्व उसके परिणाम को कार्य रूप देता है, तथा महत् तत्व साक्षी स्वरूप होता है। स्पष्ट है कि यह ब्रह्माॅंड सगुण ब्रह्म के अहम तत्व की कल्पना के अनुसार चित्त की रचना है। चित्त किसी कल्पना का आकार इंद्रियों की सहायता से जैसे इकाई मन के उदाहरण में, और विना इंद्रियों की सहायता से जैसे ब्राह्मिक मन के उदाहरण में, कर सकता है। चूॅंकि सगुंण ब्रह्म के बाहर या पहले कुछ नहीं था अतः उसका चित्त किसी भी प्रकार का आकार नहीं ले सका भले ही उसका अहम तत्व ऐंसा चाहता रहा हो। इसलिये अहम तत्व के विचार के अनुसार चित्त को काल्पनिक आकार देना अनिवार्य हो गया। इस प्रकार यह ब्रह्माॅंड सगुण ब्रह्म के चित्त का निर्माण है। यह कल्पना सत्य प्रतीत नहीं होती यदि यह केवल सगुण ब्रह्म की ही कल्पना होती परंतु सगुण ब्रह्म की चेतना अनन्त इकाई चेतनाओं का समूह है और उनका मन अनन्त इकाई मनों का समूह है अतः कल्पना जारी रहने के समय तक इसका सत्य प्रतीत होना इकाई मनों के लिये भी लागू होगा। इसी लिये कल्पना होते हुये भी यह विश्व  सत्य प्रतीत होता है। इस संबंध में जादूगर का उदाहरण उचित लगता है, जैसे जादूगर एक रस्सी को वायु में ऊपर की ओर भेजता है और उसपर अपने किसी साथी को कटार लिये चढ़ते हुए दिखाता है फिर थोड़ी ही देर में उस आदमी का कटा सिर और धड़ क्रमशः  नीचे गिरता है। जादूगर दुख मनाते हुए रोने लगता है और द्रष्टालोग मूक होकर इसे आश्चर्य चकित होकर देखते रहते हैं। जादूगर इस हादसे का लाभ उठा कर रोते हुए द्रष्टाओं से पेट पालने के नाम पर पहले से अधिक धन एकत्रित करता है और इसी बीच उसका सहयोगी भीड़ में से हंसते हुए सबके सामने आ जाता है।
इस द्रश्य  को सैकड़ों लोग देखते हैं और उन सभी को यह सत्य लगता है जब कि सब जानते हैं कि रस्सी हवा में बिना सहारे के स्थिर कैसे रह सकती है और फिर जिसका सिर और धड़ कट कर अलग अलग पड़ा हो वह जीवित कैसे हो सकता है? सब से गलती नहीं हो सकती? तो यह सब इतना स्पष्ट कैसे होता है? आइये देखें। कोई भी द्रश्य  आॅंखों द्वारा ही देखा जाता है और इससे पहले अहमतत्व कल्पना करता है और चित्त उसे आकार दे देता है। जादूगर किसी साधना के बल पर प्राप्त शक्ति से अपने मन को इतना विस्तारित कर लेता है कि वह उपस्थित सभी लोगों के अहमतत्व को प्रभावित या सम्मोहित कर सके तो वह वहाॅं पर उपस्थित सब के मनों की गतिविधियाॅ रोक कर जैसा वह सोचेगा उसके अनुसार सोचने को वाध्य कर सकता है। इस अवस्था में जादूगर का विस्तारित मन दर्शकों  का संयुक्त मन बन जाता है। जादूगर का अहमतत्व दर्शकों का अहमतत्व बन जाता है अतः जब तक वह जैसा सोचता है दर्शकों  का चित्त वैसा ही आकार ले लेता है और सोचना बंद होने पर सब समाप्त हो जाता है। इस प्रकार जादूगर की कल्पना दर्शकों  के लिये सत्य प्रतीत होती है। मानलो जादूगर की क्षमता सौ मीटर तक सम्मोहित करने की है तो इस दूरी के आगे के दर्शकों  को वह आॅख बंद किये खड़ा दिखेगा और कोई द्रश्य  दिखाई नहीं देगा। वास्तव में वह आॅंख बंद कर सारे द्रश्य  की जैसी कल्पना करता जाता है वैसा ही दर्शकों  को द्रश्य  दिखाई देता जाता हेै। ब्राह्मिक मन सभी इकाई मनों का संयुक्त मन है अतः वह जैसी कल्पना करेगा इकाई मन वैसा सत्य अनुभव करेंगे। जिन्होंने साधना के बल पर अपने मन को ब्राह्मिक मन से आगे विस्तारित कर लिया है उन्हें यह विश्व  जादूगर के प्रदर्शन  की भाॅंति असत्य लगता है।
जिन्होंने साधना के द्वारा यह अनुभव कर लिया है कि निर्पेक्ष सत्य क्या है वे सत्यद्रष्टा ऋषि कहलाते हैं। चूंकि ब्रह्म के चित्त ने इस ब्रह्माण्ड  का आकार ग्रहण किया है अतः उसे सत्य होना चाहिये और कल्पना होने के कारण उसे असत्य होना चाहिये अतः स्पष्ट हुआ कि यह ब्रह्माॅंड न तो सत्य है और न ही असत्य, यह आपेक्षिक सत्य है। संचर क्रिया में ब्रह्म मन निर्माण की कल्पना करता है और प्रतिसंचर क्रिया में उसे समाप्त करने की। इस प्रकार गैलेक्सियाॅं, स्पेस और अन्य पिंड, वनस्पति, जीवधारी, मनुष्य आदि सभी इकाई मन और चेतनाएं वापस परम चैतन्य में मिलने की कल्पना भी ब्रह्म मन की है। अतः जब तक सभी इकाई मन ब्रह्म मन में नहीं मिल जाते और सभी इकाई चेतनायें परम चेतना में नहीं मिल जाती यह संसार चलता रहेगा। वास्तव में पुरुष पर प्रकृति का अधिकतम प्रभाव ब्रह्म चक्र के आधे भाग तक रहता है इसके अगले आधे चक्र में उसका प्रभाव कम होने लगता है और पुरुष पर चेतना का प्रभाव बढ़ने लगता है मनुष्य तक आते आते वह चेतना अधिकतम प्रतिफलित होने लगती है अतः मनुष्य स्वतंत्र रूप से सोच विचार रखने लगता है। सगुण ब्रह्म में मूला प्रकृति, महत्तत्व, अहम तत्व और पंचभूत सहित आठों मिलकर उनका अंतःकरण बनाते हैं जबकि मनुष्य के अंतःकरण में महत्तत्व और अहमतत्व ही होते हैं अन्य सब वहिःकरण कहलाते हैं अतः उसका अहम तत्व बढ़ा चढ़ा रहने से अपने कर्म और विचारों के लिये स्वतंत्र रहता है और अपने संस्कारों के अनुसार जन्म मृत्यु का अनुभव करता है। सगुण ब्रह्म के अंतःकरण में स्थित रहकर भी वह, इस द्रश्य  जगत को अपने से बाहर मानता है और अनुभव करने लगता है कि यह सब मेरे उपभोग के लिये ही हैं। सगुण ब्रह्म अपने काल्पनिक विचारों से निर्मित संस्कारों को भोगकर सभी इकाई मनों को मुक्त करना चाहते हैं पर मनुष्य नित्य अपने नये नये संस्कारों के कारण इस काल्पनिक विश्व  को बनाये रखने के लिये उन्हें विवश  किये हैं।
सगुण ब्रह्म साधना करके जब मुक्त हो जाते हैं तब वह हिरण्यगर्भ कहलाते हैं और जब प्रकृति के बंधन में बंधे रहते हैं तब वे प्रजापति कहलाते हैं। मनुष्य जब साधना करके निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं तो वे मुक्त पुरुष कहलाते हैं, वे चाहें तो मुक्त होकर निर्गुण आनन्द में रह सकते हैं या निर्धारित समय के लिये अन्य मनुष्यों को साधना के मार्ग की शिक्षा देकर मुक्ति के मार्ग पर चलाने के लिये अपने उसी शरीर में बने रह सकते हैं, इस अवस्था में वे तारक ब्रह्म या महासम्भूति कहलाते हैं। अतः तारक ब्रह्म, सगुण ब्रह्म और परम ब्रह्म के बीच पुल का काम करते हैं। मुक्त पुरुष प्रकृति के बंधन में फिर नहीं पड़ते हैं। सगुण ब्रह्म भी मुक्त पुरुष होते हैं और सभी जीव उन्हीं से उत्पन्न होते हैं अतः सगुण ब्रह्म अपनी इच्छा से निर्धारित समय में सभी जीवों को मुक्त करने के लिये सहायता करते हैं और जब तक सभी मुक्त नहीं हो जाते वे भी मुक्त नहीं हो पाते। मनुष्य भी अपनी विचार तरंगों को सगुण ब्रह्म की तरह वस्तुओं में बदल सकते हैं परंतु यह सब उनके द्वारा किये गये पुराने अनुभवों और जानकारियों के आधार पर ही होगा जिसे वे देख सुन सकते हैं, जबकि सगुण ब्रह्म के पहले कुछ था ही नहीं जिसकी नकल की जा सके इसलिये उनका हर समय नया विचार ही होगा। मनुष्य और सगुण ब्रह्म में अन्य अंतर उनके धर्म का है। मनुष्य का धर्म है साधना कर शीघ्र ही मुक्तपुरुष बने जबकि सगुण ब्रह्म का धर्म है सभी निर्मित बस्तुओं और जीवधारियों को मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने के अवसर उत्पन्न करें।
आधुनिक वैज्ञानिक काॅसमिक काॅंशसनैस और काॅसमिक माइंड के संबंध में एक मत नहीं हैं क्योंकि इन्हें लेवोरेटरी में प्रदर्शित  नहीं किया जा सकता।  वे ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के संबंध में बिग बेंग थ्योरी को ही मानते हैं जिसमें एक बड़े धमाके के साथ इस जगत का होना माना गया है पर यह आज भी रहस्य है कि यह धमाका किसने किया और समस्त तारों और गेलेक्सियों में इतना पदार्थ/ऊर्जा की उत्पत्ति का मूल श्रोत क्या है।  स्पेस , टाइम और पदार्थ की उत्पत्ति , द्रब्यमान और उसमें गुरुत्वाकर्षण के गुण का उद्गम आज भी वैज्ञानिकों को पहेली बना हुआ है। क्यों कि कुछ नहीं से कुछ कैसे उत्पन्न हो सकता है? अतः कुछ न कुछ का अस्तित्व अवश्य  होना चाहिये जो बिग बेंग की घटना को घटित करे। अतः काॅसमिक काॅंशसनैस और काॅसमिक माइंड  के अस्तित्व को स्वीकारना ही होगा जब तक कि कोई अन्यथा प्रमाण नहीं मिलता । हाल में ही लार्ज हैड्रान कोलायडर Large Hadron Collider (LHC), नामक प्रयोग के द्वारा बिगवेंग के समय का तापमान उत्पन्न कर गिव्स बोसाॅन नामक उस कण की उत्पत्ति के संबंध में आॅंकड़े प्राप्त किये गये हैं जो यह बतायेंगे कि पदार्थ की उत्पत्ति कैसे होती है। पूरे ब्रह्माॅंड में पदार्थ का परिमाण 3 से 100x1022 तारों के सम्मिलत द्रव्यमान के बराबर है जो 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित है। ब्रह्माॅंड की स्थानिक वक्रता शून्य के निकट है। हमारे मस्तिष्क में पाये जाने वाले न्यूरानों की संख्या ब्रह्मांड के सभी तारों की संख्या से अधिक है। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि इतने जटिल और रहस्यमयी ब्रह्माॅंड को बनाने वाला मस्तिष्क सुपरनेचरल पावर वाला ही होगा जिसे भारतीय दर्शन में ब्रह्म कहा गया है, आशा  ही जा सकती है कि वैज्ञानिकों के प्रयोग भारतीय दर्शन  के सिद्धान्तों को कभी न कभी अवश्य  स्वीकार करेंगे। आधुनिक वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि सभी तारे अपनी ऊर्जा समाप्त करने के बाद ब्लेक होल में बदल जाते हैं जहाॅं से फोटान कण भी निकल कर नहीं भाग पाता। ब्रह्माॅंड की सभी गेलेक्सियों के सभी तारे ब्लेक होल के रूप में बदलकर समाप्त हो जावेंगे। वैज्ञानिकों ने गणना कर पता लगाया है कि 1040 वर्ष बाद पूरे ब्रह्मांड में केवल ब्लेक होल ही होंगे। वे हाकिंग रेडिएशन के अनुसार धीरे धीरे वाष्पीकृत हो जावेंगे। अपने सूर्य के बराबर द्रव्यमान वाला एक ब्लेक होल नष्ट होने में 2x1066 वर्ष  लेता है, परंतु इनमें से अधिकांष अपनी गेलेक्सी के केेन्द्र में स्थित अपनी तुलना में अत्यधिक द्रव्यमान के ब्लेक होल में सम्मिलित हो जाते हैं। चूंकि ब्लेक होल का जीवनकाल अपने द्रव्यमान पर तीन की घात के समानुपाती होता है इसलिये अधिक द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में बहुत समय लेता है। 100 बिलियन सोलर द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में 2x1099   वर्ष लेगा 
भारतीय दर्शन  और आधुनिक विज्ञान के सिद्धान्त दोनों ही इस बात से सहमत हैं कि ब्रह्माॅंड का उद्गम बिंदु से होता है और अंत भी बिंदु में ही होता है। दर्शन  में इन्हें क्रमशः  इच्छाबीज या शिवलिंग तथा ईश्वरग्रास कहते हैं परंतु विज्ञान में अभी तक इनका नाम अज्ञात है।

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