Thursday, 26 March 2015

7.4 इस संसार में लोग कैसे रहें?

7.4 इस संसार में लोग कैसे रहें?

* . मनुष्यों में परम चेतना का पूर्णतः परावर्तन होने के कारण वे स्वतंत्र कार्य करने और अच्छे बुरे के भेद को समझने की क्षमता रखते हैं। सगुण ब्रह्म द्वारा इस संसार की रचना का उद्देश्य  है प्रत्येक इकाई चेतना को अपनी तरह मुक्त अवस्था में लाना। यही कारण है कि सृष्टिचक्र के अंतिम पद में स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाते समय ‘मनुष्य‘ जैसी कुछ इकाइयाॅं ही पूर्णतः परावर्तित चेतना में दिखाई देती हैं। इकाई चेतना पर प्रकृति का प्रभाव कम होता जाता है जैसे ही वह सूक्ष्मता की ओर बढ़ती जाती है। मनुष्यों की इकाई चेतना पशुओं की इकाई चेतना की तुलना में प्रकृति से कम प्रभावित पाई जाती है। इकाई चेतना पर प्रकृति के प्रभाव का कम होना सगुण ब्रह्म की कृपा पर निर्भर होता है। सगुण ब्रह्म और प्रकृति में यह समझौता स्रष्टि के प्रारंभ में ही हो गया लगता है अन्यथा प्रकृति जो सगुण ब्रह्म को अधिकाधिक गुणों में बांधे रहना चाहती है, उसे अपने प्रभाव से कैसे मुक्त करेगी। स्रष्टि के प्रारंभ में सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति करते समय प्रकृति अपनी इच्छा से पुरुष अर्थात् सगुण ब्रह्म को अपने बंधन से ढील दे देती है, परंतु इकाई चेतना बंधन में ही रहती है क्योंकि स्रष्टि के स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने का क्रम कभी समाप्त नहीं होता, अतः इस वशीकरण की स्थिति में कोई सचेत अस्तित्व आत्मनिर्भरता से कार्य करने लगता है तो प्रकृति अपने स्वभावानुसार उसे दंडित करती है। यही कारण है कि इकाई चेतना के सूक्ष्मता की ओर बढ़ने की गति प्रभावित होती है। स्रष्टि में यह देखा जाता है कि जहां चेतना का परावर्तन स्पष्ट है वहां प्रकृति का प्रभाव कम है। अतः यदि इकाई चेतना अपनी चेतना के परार्वतन को फैलाते हुए बढ़ा सके तो उस पर प्रकृति का प्रभाव कम होता जायेगा और उसे  शीघ्र ही पूर्ण सूक्ष्मता प्राप्त करना संभव होगा। अतः अच्छे कार्य वे हैं जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए, चेतना के परावर्तन को विस्तारित करते हैं। विस्तारित चेतना के प्रभाव से प्रकृति का बंधन ढीला हो जाता है अतः कर्मफल के भोगने का कष्ट दूर हो जाता है। प्रकृति के नियमों का पालन करने के लिये विद्यामाया के सहयोगी विवेक और वैराज्ञ हैं जो इस प्रकार के उत्तम कार्य कराने में सहायता करते हैं और इकाई चेतना शीघ्र ही परम पद पा लेती है। वैराज्ञ का अर्थ संसार को छोड़ कर एकान्त में अत्यंत सादगी से तपस्वी जीवन जीना नहीं है, यह तो प्रत्येक वस्तु का समुचित उपयोग करते हुए उसे समझने का साधन प्राप्त करने का प्रयास है। जैसे, अलकोहल नशीला पदार्थ है जो मन और तन दोनों को नुकसानदायक है अतः इसे त्यागना चाहिये, परंतु डाक्टर लोग अलकोहल का उपयोग विभिन्न दवाईयों में करने की सलाह देते हैं जिससे वीमारियां दूर हो जाती हैं। इस प्रकार वही अलकोहल उपयोग की भिन्नता से अपना नशीला स्वभाव छोड़कर उपयोगी बन जाता है। अतः दवा के रूप में अलकोहल का उपयोग करना उसका उचित उपयोग कहलायेगा, इस सही उपयोग को वैराज्ञ कहेंगे। वैराज्ञ के विचार से किये गये प्रत्येक वस्तु का उपयोग मन को उसका गुलाम नहीं बनाता वरन् उदासीन बनाता है जिससे मन सूक्ष्म होता जाता है। मन के सूक्ष्म होने का अर्थ है प्रकृति के बंधन कमजोर होना और मुक्ति की ओर बढ़ने में अग्रसर होना। अच्छे और बुरे में भेद करने की क्षमता को विवेक कहते हैं, जैसे अलकोहल का नशे  के रूप में उपयोग बुरा और दवा के रूप में उपयोग अच्छा, यह ज्ञान विवेक कहलायेगा। इस तरह एक ही बस्तु के अलग अलग उपयोग करने से वह अच्छी या बुरी मानी जाती है अतः इस  विभेदन करने की क्षमता को विवेक कहते हैं। इसलिये वैराज्ञ का पालन करने के लिये विवेक का रहना आवश्यक है। बुरे कार्य अविद्यामाया से प्रेरित होते हैं। वे कार्य जो प्रकृति के नियमों के विपरीत होते हैं और चेतना के परावर्तन को फीका कर देते हैं बुरे कार्य हैं। मन को सूक्ष्म और चेतनापूर्ण बनाने पर ही इकाई चेतना की प्रगति होती है। स्थूलता की ओर मन लगा रहने पर वह प्रकृति के प्रभाव में अधिक रहता है परिणामतः इकाई चेतना का अग्रगामी विकास अवरुद्ध हो जाता है। प्रकृति के नियमों के विरुद्ध ले जाने वाली गतिविधियॅाॅं भी सूक्ष्मता की ओर होने वाली प्रगति को रोक देती हैं क्योंकि, आगे की प्रगति होने से पहले प्रकृति के नियमों के उल्लंघन करने का दंड भोगना पड़ता है और उस बीच इकाई चेतना अपनी सूक्ष्मता प्राप्त करने के लिये अवरुद्ध हो जाती है।


*   वे गतिविधियाॅं जो मन को स्थूल पदार्थों  की ओर खींचती हैं प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कार्य करातीं है ये अविद्यामाया से उत्पन्न होती हैं। अविद्यामाया षडरिपु और अष्टपाश  की जन्मदाता है। काम, क्रोध, लोभ, मद मोह, और मात्सर्य ये षडरिपु और भय, लज्जा, घृणा, शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ये अष्ट पाश  है। षड रिपु का अर्थ है छै शत्रु, इन्हें शत्रु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता की  ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्ट पाश  का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश  जैसे लज्जा घृणा और भय आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं। इसलिये विद्यामाया का अनुसरण करना अच्छा और अविद्यामाया का अनुसरण बुरा है। विद्यामाया का अनुसरण करने वाले चार प्रकार के लोग पाये जाते हैं, पहले वे जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं और अपनी चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने में सलग्न रहते हैं ये अच्छी श्रेणी के लोग कहलाते हें। दूसरे वे जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं पर अपनी चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने का प्रयत्न नहीं करते। तीसरे वे जो न तो प्रकृति के नियमों का पालन करते है और न ही चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने का कार्य ही करते हैं। ये निम्न स्तर के लोग कहलाते हैं। चौथे  वे हैं जो प्रकृति के नियमों का पालन नहीं करते और अपनी चेतना के अवमूल्यन करने के लिये भागीदार होते हैं। ये निम्न से भी निम्न कोटि के मनुष्य कहलाते हैं। सगुण ब्रह्म का मानवों को निर्मित करने का उद्देश्य  यह है कि वे अपनी गति से सूक्ष्मता की ओर बढ़कर उच्चतम स्तर प्राप्त करें। यह मानव का धर्म है। उच्चतम स्तर पर वापस पहुॅंचने के लिये इकाई चेतना का उन्नयन आवश्यक है अतः उसकी सभी क्रियाएं प्रकृति के नियमों के अनुकूल होना चाहिये जिससे वह प्रगति में रोड़े न अटकाये। अतः प्रथम श्रेणी के व्यक्ति अर्थात् अच्छे व्यक्ति अपने प्राकृत धर्म का पालन करते हुए सूक्ष्मता की ओर बढ़ते जाते हैं, सही अर्थों में ये ही मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं ।


*    पशु  भी प्रकृत धर्म का पालन करते हैं परंतु उनमें चेतना का स्पष्ट परावर्तन न होने के कारण वे अपनी चेतना के उन्नयन का प्रयास नहीं कर पाते । अतः वे जो प्रकृति के नियमों का पालन नहीं करते पशुओं से भिन्न नहीं हैं। वे अपनी इकाई चेतना में होने वाले पूर्ण परवर्तन का उपयोग नहीं कर पाते अतः वे मानव के रूप में परजीवी ही कहे जावेंगे। उपरोक्त तीसरी और चैथी केटेगरी के लोग तो परजीववियों से भी गये गुजरे कहलाते हैं क्योंकि परजीवी तो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं पर अपना उन्नयन इसलिये नहीं कर पाते कि उनमें इकाई चेतना का स्पष्ट परावर्तन नहीं होता है। प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए अन्य प्राणी भी समय आने पर अपनें में स्पष्ट परावर्तित चेतना का विकास कर लेते हैं, जबकि तीसरी और चैथी केटेगरी के लोग अपने में इकाई चेतना का स्पष्ट परावर्तन होने के वावजूद प्रकृति के नियमों के विरुद्ध आचरण करते हैं।


मनुष्य जीवन का मूल लक्ष्य परमपुरुष के साथ साक्षात्कार करना है , अतः सात्विक भोजन द्वारा यम नियमों का पालन करते हुए, सात्विक कार्योंं से उतना धन अर्जित करना चाहिये जितना स्वयं के जीवन यापन हेतु अनिवार्य है इससे अधिक नहीं और न ही संग्रह करना चाहिये। यहाॅं यह ध्यान रखना चाहिये कि जिसका भलीभाॅंति, सरलता पूर्वक रक्षण न कर सकें उसका संग्रह कभी न करें , इससे अनावश्यक चिंतायें नहीं आ सकेंगी और भगवद् ध्यान चिंतन के लिये समय मिलता जायेगा नहीं तो चिंताओं का अंबार लगा रहेगा और उसी की उधेड़बुन में सब कुछ धरा रह जायेगा। मन और शरीर पूर्ण स्वस्थ रहें इसके लिये नियमित रूप से दोनों समय ईश्वर  प्रणिधान और योगासनों को करते रहना चाहिये। सामान्यतः सर्वांगासन, मत्स्यासन, मत्यमुद्रा, नौकासन, और शशकासन नियमित रूप से करते रहने से शरीर में अनावश्यक यूरिक एसिड और कैल्सियम आदि का जमाव नहीं हो पाता अतः शरीर लचीला बना रहता है और किसी भी प्रकार के रोगों से शरीर अपना बचाव स्वयं ही करता रहता है। योगासनों और अष्टाॅंगयोग का नियमित पालन करने वाला शरीर सदैव निरोग रहता है उसे औषधियों की आवश्यकता नहीं होती। भोजन का सार तत्व लसिका (lymph)  मस्तिष्क का भोजन है अतः इसे संरक्षित रखना चाहिये। एक माह के भोजन करने में चार दिन के भोजन के बराबर लिंफ अतिरिक्त हो जाता है जिसे शरीर में ही अवशोषित बनाये रखने के लिये दोंनों एकादशियों, अमावश्या  और पूर्णिमा को निर्जल उपवास करना चाहिये। सन्तानोत्पत्ति के लिये ही इस अतिरिक्त लिंफ का उपयोग करना चाहिये अन्यथा नहीं । यह सावधानी रखने पर ही गुणवान और जीवन सार्थक करने वाली संतान पैदा होगी अन्यथा अरबों  की भीड़ में वे भी शामिल होते जावेंगे।

लगातार-----

2 comments:

  1. Ananda marga philosophy presented by the founder of Ananda marga organisation Shrii Shrii Anandamurti jii... BABA NAAM KEVALAM

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