7.5 कुछ प्रश्नोत्तर
1. खुशी क्यों और किसके लिये होती है?
-चित्त अथवा मन संस्कार समूह से शासित होता है। मन जब किसी एक संस्कार समूह के प्रभाव में होता है तो वह इस मानसिक प्रवृत्ति में लंबे समय तक रह सकता है। किसी एक प्रवृत्ति या रूप में लंबे समय तक बने रहने की योग्यता से खुशी होती है। जैसे बुरे संस्कारों से प्रभावित मन बुरे वातावरण में ही आनंन्दित होता है अन्य वातावरण में उसे अच्छा नहीं लगेगा और चाहेगा कि वह जल्दी ही उस वातावरण में चला जाए जहां उसे अच्छा लगे। स्पष्ट है कि वे परिस्थितियां ही खुशी दे सकतीं है जो उनसे जुड़े संस्कारों को निर्वाहित कर सकें। अतः मन अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये विशेष वातावरण को बनाये रखने की इच्छा करता है। चूंकि जहां मनोनुकूल संस्कार नहीं हो सकते वहां मन को खुशी नहीं होती अतः अपने अस्तित्व को संरक्षित बनाये रखने के लिये मन ही खुशी ढूंढता है।
2. धर्म क्या है?
-धर्म, अंग्रेजी के ‘रिलीजन‘ और उर्दू के ‘मजहब‘ शब्द से भिन्न है, जिसका अर्थ है पूजा के विश्वास की प्रणाली । परंतु धर्म का अर्थ है आभ्यान्तरिक गुण या लक्षण। जिसके कारण किसी का अस्तित्व बना रहता है वह धर्म है। जैसे, आग का धर्म जलाना है, परंतु यदि वह जलाती नहीं है तो वह आग नहीं हो सकती। अतः अपने आप को संरक्षित बनाये रखने के लिये अपने धर्म का पालन अनिवार्य है।
3. स्वभाव क्या है?
-स्व माने स्वयं और भाव माने विचार अतः स्वभाव का अर्थ है किसी के अपने विचार। चूंकि विचार मन में ही जन्म ले सकते हैं अतः किसी का स्वभाव मानसिक ही हो सकता है भौतिक नहीं। किसी का मन अनेक घटकों से प्रभावित हो सकता है जैसे जन्मजात संस्कार और अर्जित संस्कार। चूंकि विभिन्न लोगों के भिन्न भिन्न संस्कार होते हैं अतः उनके स्वभाव भी अलग अलग होते हैं। स्वभाव किसी व्यक्ति की अपनी मानसिक रचना होता है। स्वभाव सब मनुष्यों का भिन्न भिन्न होता है और बदलता रहता है जबकि धर्म सबका एक ही है और अपरिवर्तित रहता है।
4. मोक्ष क्यों आवश्यक है?
-आत्मा विशुद्ध चेतना है उसका कोई लक्षण नहीं सिवा प्रकृति ( अर्थात् निर्माणकर्ता शक्ति ) के अस्तित्व की जानकारी रखने के। आत्मा अपने आप कोई काम नहीं कर सकती वरन् वह प्रकृति के द्वारा निर्मित मन की क्रियाओं को अपने में प्रतिविंवित करती है। मन अथवा प्रकृति की किसी भी क्रिया से आत्मा प्रभावित नहीं होती वह केवल मन के कार्यों के होने का साक्ष्य देती है और उन्हें दर्पण की तरह प्रतिविंवित कर देती है। जैसे दर्पण के सामने लाल फूल रखने पर पूरा दर्पण भी लाल दिखता है परंतु वह लाल रंग से प्रभावित नहीं होता। मन की क्रियाओं से निर्मित संस्कारों से जीवभाव उत्पन्न होता है। जब प्रकृति परमचेतना में सुप्तावस्था में रहती है तो मूलाप्रकृति के नाम से जानी जाती है। जब वह सक्रिय होती है और परमचेतना को प्रभावित कर सगुण ब्रह्म में रूपान्तरित करने लगती है तो वह आठ रूपों को निर्मित करती है, मूलाप्रकृति, महत्तत्व, अहमतत्व और पंचमहाभूत। प्रकृति जब परमचेतना में सुप्तावस्था में रहती है तो उसकी कोई इंद्रियां नहीं होती क्योंकि सबकुछ अनन्त परमचेतना के भीतर ही होता है, बाहर कुछ नहीं जिसके लिये इंद्रियों की जरूरत हो। इसलिये सगुण ब्रह्म में प्रकृति के सात प्रकार ही अंतःकरण बनाते हैं जबकि जीवात्मा में महत्तत्व और अहमतत्व ही केवल अंतःकरण बनाते है बाकी वहिःकरण का निर्माण करते हैं। प्रकृति से प्रभावित जीवात्मा अपने आठप्रकारों में पुनः विकृति करती है और उसके सोलह प्रकार हो जाते हैं, चित्त अर्थात् अंतःकरण और वहिःकरण, पांचज्ञानेन्द्रियां, पांचकर्मेन्द्रियां, पंचतन्मात्राएं। जीवात्मा के ये सोलह प्रकार और सगुण ब्रह्म के आठ प्रकार और एक इन सबका संयुक्त प्रकार, ये सब पच्चीस घटक बनते हैं। परम चेतना और इकाई चेतना या जीवात्मा के चित्त का घटक उभयनिष्ठ होता है। परम चेतना का चित्त पूर्णतः आन्तरिक होता है। आत्मा में इस विकृति के कारण ही जीवभाव उत्पन्न होता है और वह उस विकृति का बंधन अनुभव करती है जिससे वह मुक्त होने की इच्छा करती है। इसकारण उसे साधना करना होती है पर अपने आप वह कोई भी कार्य नहीं कर पाती अतः वह कोई आधार ढूंढती है जिससे वह साधना कर सके। इस विकृति से मुक्त होने की तीब्र इच्छा होते हुए भी वह प्रकृति की मदद के विना कुछ नहीं कर पाती वह केवल प्रेरणा दे सकती है। प्रकृति के जड़ से सूक्ष्म की ओर रूपान्तरण की प्रक्रिया में जीव भाव का जन्म होता है जो सुख और दुख का अनुभव करने के लक्षणों वाला होता है। इसी के कारण वह अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ठ नहीं रह पाता। इसका निर्माण प्रकृति से होता है और यह प्रकृति के आधीन ही होता है पर उसके चंगुल से भागना चाहता है। वह यह नहीं जानता कि प्रकृति से उसका निर्माण हुआ है और उसके प्रभाव के विरुद्ध जाने का मतलब है प्रकृति के साथ साथ स्वयं को नष्ट करना। वह मन को प्रेरित करता है जिससे मन प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष करने की साधना करता है। चूंकि जीवात्मा और मन दोनों ही बंधन में होते हैं और अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ठ नहीं होते अतः वे मोक्ष पाने के लिये संघर्ष करना आवश्यक मानते हैं।
5. आत्मा को चितिशक्ति क्यों कहते हैं?
-जीवात्मा अपने आप कोई कार्य नहीं कर सकता वह चेतना का बल है अतः चितिशक्ति कहलाता है । वह केवल प्रेरणा दे सकता है, यही एक कार्य है जो प्रकृति के प्रभाव में रहते हुए वह विना उसकी मदद के कर सकता है। अपनी मुक्ति के लिये उसका यही मात्र योगदान होता है। यह किस प्रकार प्रेरणा देता है? जीवात्मा रूपी चुम्बक मन रूपी लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह आकर्षण, मन को प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष कराकर जीवात्मा में मिला देना चाहता है। प्रश्न है कि जब जीवात्मा चुम्बक है और मन लोहे का टुकड़ा तो मन हमेशा ही क्यों नहीं जीवात्मा से मिला रहना चाहिये और उसे प्रकृति के चंगुल से मुक्त होने के लिये साधना और संघर्ष क्यों करना चाहिये? इसका उत्तर है कि मन हमेशा जीवात्मा से आकर्षित नहीं रह पाता क्योंकि उसके संस्कार उसे रोक लेते हैं जैसे अशुद्ध लोहे का टुकड़ा चुम्बक की ओर या तो आकर्षित ही नहीं होता या अशुद्धियों के स्तर के आधार पर धीमें धीमें खिसकता है। किसी व्यक्ति विशेष का मन उसके संस्कारों के आधार पर बनता है अतः यदि संस्कारों का प्रभाव अत्यधिक है तो वह अधिक आकर्षित नहीं होगा और जीवात्मा का प्रेरण केवल यह याद कराने तक ही सीमित होगा कि संस्कारों के विरुद्ध संघर्ष करना है। संस्कार तमोगुण के द्वारा निर्मित होते हैं क्योंकि वे तमोगुण की ही तरह जड़ प्रकृति के होते हैं। जब मन के संस्कार इतने प्रबल होते हैं कि वह तमोगुण के अत्यधिक प्रभाव में आ जाता है तो जीवात्मा का उत्प्रेरण भी कुछ नहीं कर पाता और प्रकृति के प्रभाव में मन काम करता जाता है। चूंकि जीवात्मा का साधना में योगदान मन को अपनी ओर आकर्षित करने का ही होता है पर यह तभी हो पाता है जब संस्कारों का समूह कमजोर होता है, परंतु मन को संस्कारों से मुक्त करने का उसके पास कोई अधिकार नहीं होता। मन को ही अपने प्रयासों से संस्कारों से मुक्त होना पड़ता है। इसलिये साधना में मन की भूमिका संस्कारों के समाप्त करने तक ही है। उसका यह प्रयास जीवात्मा के आकर्षण के कारण ही संभव हो पाता है अतः वह चितिशक्ति कहलाता है। उसके अन्य नाम पुरुष, चैतन्य और शिव भी हैं।
1. खुशी क्यों और किसके लिये होती है?
-चित्त अथवा मन संस्कार समूह से शासित होता है। मन जब किसी एक संस्कार समूह के प्रभाव में होता है तो वह इस मानसिक प्रवृत्ति में लंबे समय तक रह सकता है। किसी एक प्रवृत्ति या रूप में लंबे समय तक बने रहने की योग्यता से खुशी होती है। जैसे बुरे संस्कारों से प्रभावित मन बुरे वातावरण में ही आनंन्दित होता है अन्य वातावरण में उसे अच्छा नहीं लगेगा और चाहेगा कि वह जल्दी ही उस वातावरण में चला जाए जहां उसे अच्छा लगे। स्पष्ट है कि वे परिस्थितियां ही खुशी दे सकतीं है जो उनसे जुड़े संस्कारों को निर्वाहित कर सकें। अतः मन अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये विशेष वातावरण को बनाये रखने की इच्छा करता है। चूंकि जहां मनोनुकूल संस्कार नहीं हो सकते वहां मन को खुशी नहीं होती अतः अपने अस्तित्व को संरक्षित बनाये रखने के लिये मन ही खुशी ढूंढता है।
2. धर्म क्या है?
-धर्म, अंग्रेजी के ‘रिलीजन‘ और उर्दू के ‘मजहब‘ शब्द से भिन्न है, जिसका अर्थ है पूजा के विश्वास की प्रणाली । परंतु धर्म का अर्थ है आभ्यान्तरिक गुण या लक्षण। जिसके कारण किसी का अस्तित्व बना रहता है वह धर्म है। जैसे, आग का धर्म जलाना है, परंतु यदि वह जलाती नहीं है तो वह आग नहीं हो सकती। अतः अपने आप को संरक्षित बनाये रखने के लिये अपने धर्म का पालन अनिवार्य है।
3. स्वभाव क्या है?
-स्व माने स्वयं और भाव माने विचार अतः स्वभाव का अर्थ है किसी के अपने विचार। चूंकि विचार मन में ही जन्म ले सकते हैं अतः किसी का स्वभाव मानसिक ही हो सकता है भौतिक नहीं। किसी का मन अनेक घटकों से प्रभावित हो सकता है जैसे जन्मजात संस्कार और अर्जित संस्कार। चूंकि विभिन्न लोगों के भिन्न भिन्न संस्कार होते हैं अतः उनके स्वभाव भी अलग अलग होते हैं। स्वभाव किसी व्यक्ति की अपनी मानसिक रचना होता है। स्वभाव सब मनुष्यों का भिन्न भिन्न होता है और बदलता रहता है जबकि धर्म सबका एक ही है और अपरिवर्तित रहता है।
4. मोक्ष क्यों आवश्यक है?
-आत्मा विशुद्ध चेतना है उसका कोई लक्षण नहीं सिवा प्रकृति ( अर्थात् निर्माणकर्ता शक्ति ) के अस्तित्व की जानकारी रखने के। आत्मा अपने आप कोई काम नहीं कर सकती वरन् वह प्रकृति के द्वारा निर्मित मन की क्रियाओं को अपने में प्रतिविंवित करती है। मन अथवा प्रकृति की किसी भी क्रिया से आत्मा प्रभावित नहीं होती वह केवल मन के कार्यों के होने का साक्ष्य देती है और उन्हें दर्पण की तरह प्रतिविंवित कर देती है। जैसे दर्पण के सामने लाल फूल रखने पर पूरा दर्पण भी लाल दिखता है परंतु वह लाल रंग से प्रभावित नहीं होता। मन की क्रियाओं से निर्मित संस्कारों से जीवभाव उत्पन्न होता है। जब प्रकृति परमचेतना में सुप्तावस्था में रहती है तो मूलाप्रकृति के नाम से जानी जाती है। जब वह सक्रिय होती है और परमचेतना को प्रभावित कर सगुण ब्रह्म में रूपान्तरित करने लगती है तो वह आठ रूपों को निर्मित करती है, मूलाप्रकृति, महत्तत्व, अहमतत्व और पंचमहाभूत। प्रकृति जब परमचेतना में सुप्तावस्था में रहती है तो उसकी कोई इंद्रियां नहीं होती क्योंकि सबकुछ अनन्त परमचेतना के भीतर ही होता है, बाहर कुछ नहीं जिसके लिये इंद्रियों की जरूरत हो। इसलिये सगुण ब्रह्म में प्रकृति के सात प्रकार ही अंतःकरण बनाते हैं जबकि जीवात्मा में महत्तत्व और अहमतत्व ही केवल अंतःकरण बनाते है बाकी वहिःकरण का निर्माण करते हैं। प्रकृति से प्रभावित जीवात्मा अपने आठप्रकारों में पुनः विकृति करती है और उसके सोलह प्रकार हो जाते हैं, चित्त अर्थात् अंतःकरण और वहिःकरण, पांचज्ञानेन्द्रियां, पांचकर्मेन्द्रियां, पंचतन्मात्राएं। जीवात्मा के ये सोलह प्रकार और सगुण ब्रह्म के आठ प्रकार और एक इन सबका संयुक्त प्रकार, ये सब पच्चीस घटक बनते हैं। परम चेतना और इकाई चेतना या जीवात्मा के चित्त का घटक उभयनिष्ठ होता है। परम चेतना का चित्त पूर्णतः आन्तरिक होता है। आत्मा में इस विकृति के कारण ही जीवभाव उत्पन्न होता है और वह उस विकृति का बंधन अनुभव करती है जिससे वह मुक्त होने की इच्छा करती है। इसकारण उसे साधना करना होती है पर अपने आप वह कोई भी कार्य नहीं कर पाती अतः वह कोई आधार ढूंढती है जिससे वह साधना कर सके। इस विकृति से मुक्त होने की तीब्र इच्छा होते हुए भी वह प्रकृति की मदद के विना कुछ नहीं कर पाती वह केवल प्रेरणा दे सकती है। प्रकृति के जड़ से सूक्ष्म की ओर रूपान्तरण की प्रक्रिया में जीव भाव का जन्म होता है जो सुख और दुख का अनुभव करने के लक्षणों वाला होता है। इसी के कारण वह अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ठ नहीं रह पाता। इसका निर्माण प्रकृति से होता है और यह प्रकृति के आधीन ही होता है पर उसके चंगुल से भागना चाहता है। वह यह नहीं जानता कि प्रकृति से उसका निर्माण हुआ है और उसके प्रभाव के विरुद्ध जाने का मतलब है प्रकृति के साथ साथ स्वयं को नष्ट करना। वह मन को प्रेरित करता है जिससे मन प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष करने की साधना करता है। चूंकि जीवात्मा और मन दोनों ही बंधन में होते हैं और अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ठ नहीं होते अतः वे मोक्ष पाने के लिये संघर्ष करना आवश्यक मानते हैं।
5. आत्मा को चितिशक्ति क्यों कहते हैं?
-जीवात्मा अपने आप कोई कार्य नहीं कर सकता वह चेतना का बल है अतः चितिशक्ति कहलाता है । वह केवल प्रेरणा दे सकता है, यही एक कार्य है जो प्रकृति के प्रभाव में रहते हुए वह विना उसकी मदद के कर सकता है। अपनी मुक्ति के लिये उसका यही मात्र योगदान होता है। यह किस प्रकार प्रेरणा देता है? जीवात्मा रूपी चुम्बक मन रूपी लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह आकर्षण, मन को प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष कराकर जीवात्मा में मिला देना चाहता है। प्रश्न है कि जब जीवात्मा चुम्बक है और मन लोहे का टुकड़ा तो मन हमेशा ही क्यों नहीं जीवात्मा से मिला रहना चाहिये और उसे प्रकृति के चंगुल से मुक्त होने के लिये साधना और संघर्ष क्यों करना चाहिये? इसका उत्तर है कि मन हमेशा जीवात्मा से आकर्षित नहीं रह पाता क्योंकि उसके संस्कार उसे रोक लेते हैं जैसे अशुद्ध लोहे का टुकड़ा चुम्बक की ओर या तो आकर्षित ही नहीं होता या अशुद्धियों के स्तर के आधार पर धीमें धीमें खिसकता है। किसी व्यक्ति विशेष का मन उसके संस्कारों के आधार पर बनता है अतः यदि संस्कारों का प्रभाव अत्यधिक है तो वह अधिक आकर्षित नहीं होगा और जीवात्मा का प्रेरण केवल यह याद कराने तक ही सीमित होगा कि संस्कारों के विरुद्ध संघर्ष करना है। संस्कार तमोगुण के द्वारा निर्मित होते हैं क्योंकि वे तमोगुण की ही तरह जड़ प्रकृति के होते हैं। जब मन के संस्कार इतने प्रबल होते हैं कि वह तमोगुण के अत्यधिक प्रभाव में आ जाता है तो जीवात्मा का उत्प्रेरण भी कुछ नहीं कर पाता और प्रकृति के प्रभाव में मन काम करता जाता है। चूंकि जीवात्मा का साधना में योगदान मन को अपनी ओर आकर्षित करने का ही होता है पर यह तभी हो पाता है जब संस्कारों का समूह कमजोर होता है, परंतु मन को संस्कारों से मुक्त करने का उसके पास कोई अधिकार नहीं होता। मन को ही अपने प्रयासों से संस्कारों से मुक्त होना पड़ता है। इसलिये साधना में मन की भूमिका संस्कारों के समाप्त करने तक ही है। उसका यह प्रयास जीवात्मा के आकर्षण के कारण ही संभव हो पाता है अतः वह चितिशक्ति कहलाता है। उसके अन्य नाम पुरुष, चैतन्य और शिव भी हैं।
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