Thursday 12 March 2015

वेद में ब्रह्म विज्ञान (लगातार)


 वेद में ब्रह्म विज्ञान (लगातार)
(21 ) जीव में जाग्रद अवस्था के अभिमानी पुरुष को विश्व  (दार्शनिक  शब्द) व विषयी पुरुष कहा जाता है। सर्व इंद्रियों के द्वारा विषयभोग जाग्रद अवस्था में ही यथायथ भाव से होने के कारण इस अवस्था के पुरुष को विषयी पुरुष कहते हैं। जीवभाव में स्वप्नावस्था के अभिमानी पुरुष को ‘तेजस‘ और सुषुप्ति के अभिमानी पुरुष को ‘प्राज्ञ‘ कहते हैं। सगुण ब्रह्म की क्षीराब्धि, गर्भोदक और कारणार्णव अवस्था के अभिमानी पुरुष को क्रमशः  विराट, हिरण्यगर्भ और ईश्वर  (दार्शनिक  शब्द) कहते हैं। अतएव हम देखते हैं कि ‘अ‘ विश्व  और विराट का बीजाक्षर है, ‘उ‘ तेजस और हिरण्यगर्भ का और ‘म‘ प्राज्ञ तथा ईश्वर  का बीजाक्षर है। तुरीय अवस्था में जीवभाव और ब्रह्मभाव में कोई भेद नहीं है क्यों कि उस अवस्था में ‘‘मैं हूॅं बोध‘‘ नहीं है। इसलिये इस अवस्था में कोई बीजाक्षर भी नहीं है। क्योंकि बीज, उत्पत्ति के कारण को कहते हैं अतः जहां उत्पत्ति, अनुत्पत्ति, सृष्टि, 
स्थिति और लय का कोई प्रश्न  ही पैदा नहीं होता वहां बीज का प्रश्न  भी पैदा नहीं होता। तुरीयावस्था में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान तथा ध्याता, ध्यान और ध्येय तीनों  एक ही हो जाते हैं इसीलिये इसका वाचक नाद विंदु है। उसी परम पद को ईश्वरग्रास कहते हैं अर्थात् उसमें ईश्वर  भी ग्रस्त हो जाता है। यह पुरत्रय निर्गुण में ही लीन हो जाता है अतः इसका नाम ईश्वरग्रास रखना अत्यंन्त समीचीन है।

(22 ) प्रत्येक खंड वस्तु कार्य कारण संबंध के आधीन है। ब्राह्मी मन का कोई कारण नहीं क्यों कि ब्राह्मी  मन के स्रष्ट होने के पूर्व दूसरी क्रियाशील सत्ता नहीं है। सगुण ब्रह्म के जन्म का साक्षित्व दूसरे किसी में नहीं रह सकता। उस समय मन नहीं रहने से देश  काल पात्रादि का भी अस्तित्व नहीं था। सगुण ब्रह्म के जन्म , स्थिति या लय तीनों ही मन के अतीत हैं देशकालपात्रादि से अतीत होने के कारण उन्हें नित्य कहा जाता है। ब्रह्म विज्ञान कार्यकारण तत्वों से बाहर है। ब्रह्म के बाहर कोई नहीं है अतः उनका पूर्व रूप नहीं हो सकता क्योंकि कारण के परिवर्तित रूप को ही कार्य कहा जा सकता है। ब्रह्म अपरिणामी एक मात्र सदवस्तु हैं। पारमार्थिक विचार से यह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थायें और यह प्रपंचमय जगत सब कुछ मैं ही हूँ  , मैंपन की इस प्रकृत संज्ञा को जो समझते हैं वे किसी बंधन को बंधन समझकर भयभीत नहीं होते। तीनोंधामों अर्थात् जाग्रत स्वप्न और सुसुप्ति में जो कुछ भी है वह भोग्य, भोक्ता या भोग रूपमें होती हैं इन तीनों के विपरीत जो चतुर्थ ,तुरीय अवस्था की सत्ता है वह इन सबकी साक्षीसत्ता चैतन्यस्वरूप सदाशिव मैं हॅूं। इस सदाशिव भाव में जो प्रतिष्ठित हैं वे देखते हैं कि सब कुछ उनके मन की ही स्रष्टि है , मन में ही सब कुछ रहता है और अन्त में मैंपन के बीच ही सबका लय होजाता है, मैं ही वह अक्षर ब्रह्म हूँ । वे समझते हैं कि वे अणु से भी छोटे और विराट से भी विराट हैं, जिस स्पंदन से मैं अनन्त विस्तार देता हूँ  उनमें एक के साथ दूसरे का कोई मेल नहीं है।  मैं

 कितना अद्भुद हूॅं,  मेरी उत्पत्ति नहीं हुई है, मैं कार्य कारण तत्वों से बाहर हॅूं, इसी लिये मुझसे पुरातन कोई नहीं , मैं ही ज्ञानस्वरूप हूँ । मैं सबके कल्याण की कामना करता हॅूं। जब साधक इस भाव में स्थापित होकर अपने में अनन्त रूपदेखता है तो तन्मय हो जाता है और उसका बाहरी ज्ञान लुप्त हो जाता है इसे सविकल्प समाधि कहते है। निर्विकल्प में क्षुद्र ब्रहत् का कोई भेद नहीं रहता सब कुछ निर्विशेष  चैतन्य में समाहित हो जाता है, इसमें द्वैतभाव नहीं रहता वे अन्तर्मुखी भाव में रहते हैं। यह जन्म जन्मान्तर की गहन साधना के कारण ही संभव हो पाता है।

3 comments:

  1. बहोत बहोत उपयोगी परंतू अनूभव के उधार से ओतप्रोत,क्रुपया हीन्दी मे पुस्तक लीखें और अनुभवी गूरू के शरण में भारतीय विध्द्या को संमानीत करें.

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    1. आदरणीय नरेन्द्रजी ! बहुत आभार।
      आपका कथन शतप्रतिशत सत्य है। यह मेरे परमपूज्य गुरुदेव की व्याख्या है जिसे मैंने मातृभाषा हिंदी में प्रस्तुत करने का कार्य उन्हीं की कृपा से कर पाया है ताकि अधिकाधिक जिज्ञासु सत्य जान सकें।
      आप जैसे प्रबुद्ध महानुभावों के सुझाव और टिप्पणियां हमें उत्तरोत्तर प्रोत्साहित करती रहें यही कामना करते हैं।

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    2. इस ब्लॉग में दिए गए आर्टिकल्स को पढ़ कर अनेक आदरणीय मित्रों को यह जिज्ञासा हुई है कि वह महान गुरुदेव कौन हैं जिनसे यह उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त कर , उनकी कृपा से मैंने यहाँ उद्दृत कर, असंख्य जिज्ञासुओं को उनकी जिज्ञासाओं का तार्किक, विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक समाधान प्राप्त हो रहा है। मुझे यह बताते हुए प्रसन्नता है कि हमारे गुरुदेव 'महासम्भूति तारकब्रह्म बाबा श्री श्री आनन्दमूर्ति जी' हैं जिन्होंने संसार को एकीकृत और उन्नत करने के लिए हमें " आनन्दमार्ग दर्शन " दिया है। उनके जिन ग्रंथों से सामग्री लेकर यहाँ प्रस्तुत की गयी है उनका विस्तृत सन्दर्भ प्रथम चेप्टर के प्रारम्भ में दिया गया है। सादर।

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