Saturday 14 March 2015

वेद में ब्रह्मविज्ञान क्र. 22 से आगे -----


वेद में ब्रह्मविज्ञान  क्र. 22 से आगे -----

(23 ) अपाणिपादोहं अचिंत्यशक्तिःपश्याम्यचक्षुः च श्रणोम्यकर्णः,अहं विजानामि विविक्तरूपो न चास्ति वेत्ता मम चिद्सदाहम्। वेदैरनेकैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृत् वेद विदेव चाहम, न पुण्य पापे मम नास्ति नाशो  न जन्मदेहेन्द्रियबुद्धिरस्ति। न भूमिरापो न वह्निरस्ति नचानिलोमेस्ति न चाम्बरंच, एवं विदित्वा परमात्मरूपम् गुहाशयं निष्कलम् अद्वितीयम। समस्तसाक्षिं सदसदविहीनं प्रयाति शुद्धं परमात्मरूपम्। जब साधक समाधि की अवस्था में पहुंचते हैं तो वे अपने स्वरूप को सदसदविहीन एक शुद्ध परम चैतन्य समझ लेते हैं उस समय मैं कर्ता हूँ  ऐसा मन में प्रतीत नहीं होता और मन में लगता है कि मैं समस्त विश्व  के बारे में एक निश्चेष्ट साक्षी मात्र हॅूं।
(24 ) ब्रह्मचक्र में ब्रह्माॅंड की सभी वस्तुएं अपने अपने केन्द्रक के चक्कर लगाती हैं जैसे परमाणु के केन्द्रक के चारों ओर आवेश  कण। इन सब में संतुलन बनाये रखने के लिये केन्द्रातिगा(centrifugal force)  और केंन्द्रनुगा  (centripetal force)  शक्तियाॅं कार्य करती है। ये क्रमशः  तमोगुण और सत्वगुण प्रधान होती हैं।
 ‘‘सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते तस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे , पृथगात्मानं प्रेरितारम्  च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति।‘‘ इसी ब्राह्मी केन्द्र के चारों ओर जीव अनादिकाल से घूमता चलता है और तब तक चलता रहेगा जब तक उसका भेदभाव दूर नहीं हो जाता अर्थात् ब्रह्म से अपने पृथक होने का भाव जब तक दूर नहीं होता तब तक उसका यह घूमना बन्द नहीं होगा। घूमते घूमते  जब इस प्राण केन्द्र की अत्यधिक अनुरक्ति जाग जायेगी तो उसे छोड़कर अन्य सब कुछ को भूल जाना चाहेगा। भोगों की साधना में अंधी आखें उस प्राण केन्द्र को नही देख पाती, इसके लिये उनकी कृपा ही सहायक होती है, ‘‘ महत् कृपायैव भगवत् कृपालेशाद्वा‘‘। उनकी कृपा तभी मिलती है जब एकान्त चित्त में, मन उनकी कृपा का चिंतन करता है। जब तक उनकी ओर जाने की चेष्टा नहीं की जाती है कोल्हू के बैल की तरह एक ही स्थान पर चक्कर काटते रहना पड़ता है। इस ब्रह्मचक्र के प्राण केन्द्र को ही पुरुषोत्तम कहते हैं, वे ही कल्पनामय जगत और ब्राह्मी मन के क्षर और अक्षर के अधीश्वर  हैं। अपने मानस विषय ब्रह्माॅंड और साक्षीस्वरूप पुरुषोत्तम मिलकर सगुण ब्रह्म कहलाते हैं। वेद में सगुण ब्रह्म के लिये गाय़त्री छंद में रचित सावितृ ऋक् व्यवहार में लाया जाता है और नाद विंदु को छोड़कर अ, उ और म को  ओंकार के तीन पाद जैसे प्रयुक्त होते हैं। पुरुषोत्तम के लिये रचित अनुष्टुप छंद की आठ अक्षरयुक्त एक एक पंक्ति ओंकार का एक एक पादस्वरूप गिनी जाती है। ‘‘उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्, नृंससिहं भीषणं भद्रं मृत्युर्मृत्यु नमाम्यहम्।‘‘ उग्रं:-  इस मंत्र में नृंसिह के लक्षणों का वर्णन है, इन्हें उग्र क्यों कहा गया? उत् अर्थ में अनु अर्थात् अनु़+ग्रह जो करते हैं वे उग्र हैं। सत्य है जिन्होंने स्रष्टि की स्थिति और लय क्रिया को धारण कर रखा है , अनादि काल से स्रष्टि जिनकी अनुग्रह धारा से ध्वंसचक्र के बीच घूम रही है वे ही उग्र हैं। इस छोटी सी पृथ्वी  के लिये सूर्य उग्र हैं क्योंकि पृथ्वी  की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण वे ही हैं इसी प्रकार पुरुषोत्तम ब्रह्मचक्र के लिये उग्र हैं, उनसे अधिक कोई उग्र है और न हो सकता है। वीरं:- अपने अलौकिक साहस के बल पर ब्रह्माॅंड की प्रत्येक समस्या के सामने आकर चलते रहते हैं, साहस के साथ सिद्धान्त पर पहुंचते हैं और तदनुकूल कार्य करते हैं, जो प्रत्येक के साथ यथोचित व्यवहार करते हैं वही वीर हैं। महाविष्णु:- विष्णु का अर्थ है व्यापनशील, जिन्होने अपनी मानस सत्ता द्वारा अपने अस्तित्व को सब तरह के सीमा बंधनों को तोड़ कर असीम में प्रसारित कर दिया है उन्हें विष्णु नहीं कहेंगे तो किसे कहेंगे? ज्वलंन्त:- जो सर्व शक्तियों की मूल शक्ति हैं सर्वद्युति के जो मध्यमणि हैं वे ज्वलन्त तो होंगे ही।  उनसे ही अन्य सब प्रकाशित होते हैं, तस्यभासा सर्वमिदं विभाति। सर्वतोमुखम:-  वे सर्वसाक्षी हैं सभी छोटी बड़ी वस्तुओं की समस्त क्रियाओं के साक्षी हैं।दसों दिशाओं में जो कुछ था अथवा होगा सभी उन्हीं की मानस सत्ता का विकास है इसलिये वे महान साक्षी हैं सर्वतोमुख हैं। नृसिंह:- नृ का अर्थ है नर और पुरुष का अर्थ है चैतन्य। सिंह का अर्थ है श्रेष्ठ, सब को मिलाकर अर्थ हुआ पुरुष श्रेष्ठ, या पुरुषोत्तम। साधना विरोधी शक्तियों से साधकों की रक्षा करते हैं। यह आधे नर और आधे सिंह  के आकार का कोई जन्तु नहीं यह पौराणिक कल्पना है। जो परम सत्ता हैं वे ही नृंसिंह पदवाच्य हैं। भीषण:- जो सर्व कर्म के चरम अध्यक्ष हैं, उन्हें अपने न्याय दंड की मर्यादा बनाये रखने के लिये आपात्द्रष्टि से अनेक क्षेत्रों में भीषण आचरण करने के लिये वाध्य होना पड़ता है, यदि ऐसा न करें तो  एकदेशदर्शिता  का दोष आ जायेगा। स्वार्थवश  उन्हें सीमावद्ध नहीं बनाया जा सकता। जो विद्यावुद्धि या धन या शक्ति में अधिक होते हैं यदि उनसे एकात्मक भाव नहीं होगा तभी उनसे भय होगा अन्यथा नहीं । जो पुरुषेत्तम प्राणों के भी प्राण हैं, आत्मा के आत्मा हैं जिनके साथ एकात्मक भाव जागा हुआ है वे उन से भय क्यों
 खायेंगे? वे उनको प्रेम करेंगे। जो अपनी खंड सत्ता को लेकर चिंतित हैं वे ही उनसे डरेंगे। इसलिये सत्ता विशेष के लिये वे अवश्य  भीषण हैं। भीषः स्माद्वायु पवते। भीषोदेति सूर्यः। भीषस्मादग्निश्चेन्द्रश्य , मृत्युः धावति पंचमः। तस्मादुच्यते भीषणमिति। भद्र:- वे मंगलस्वरूप हैं शिवस्वरूप हैं उनकी चिंता धारा जीवसमूह तथा जगत को कल्याण पथ पर लिये चल रही है, उनके समान कल्याणकारी न हुआ है ओर न होगा। इसलिये वे भद्र हैं । मृत्युर्मृत्यु:-  अर्थात् मृत्यु भी जिनसे भय खाती है, उनके निर्देशानुसार जीवों के पीछे पीछे चलती है अर्थात् जीव मृत्यु से जितना डरता है मृत्यु भी उनसे उतना ही डरती है। दूसरा अर्थ यह है कि संसार में जीव बार बार मरता है पर पुरुषोत्तम को पा लेने पर फिर मृत्यु नहीं आ सकती मृत्यु की भी मृत्यु हो जाती है, 
इसलिये वे मृत्योर्मृत्यु   हैं उन्ही पुरुषोत्तम को मैं प्रणाम करता हूँ ।


(25 ) यहाॅं यह ध्यान रखने की बात है कि नृसिंह या पुरुषोत्तम में साक्षी भाव रहने से वे तुरीय अवस्था से भिन्न हैं, तुरीय अवस्था निर्गुण या निरक्षर अवस्था है यहाॅं पर सभी ईश्वरीय विभूतियों की समाप्ति हो जाती है। अन्य बात यह भी कि नृसिंह उपासना पंचव्यूहात्मक उपासना कहलाती है और अनुष्टुप मंत्र  इसी के लिये है। प्रणव या ओंकार जहाॅं सम्पूर्ण ब्रह्मचक्र के लिये व्यव्हार किया जाता है वहीं अनुष्टुप केवल मूल व्यूह के लिये अतः ओंकार श्रेष्ठ है। अनुष्ठुप का स्थान भी ओंकार में ही है। 

‘‘ भूतं भवद भविष्यदिति सर्वमोकारण्व, यच्चान्यन्त्रिकालातीतं तदोप्योेंकार एव‘‘। 
ओंकार सगुण ब्रह्म के स्पान्दनिक विकास की ही शाब्दिक अभिव्यक्ति है। अतः जहाॅं स्रष्टि है वह अतीत ,वर्तमान और भविष्य क्यों न हों ओंकार से पृथक नहीं रह सकती। जहाॅं पर स्रष्टि है वहाॅं देश , काल और पात्र भी होगा। इस ओंकारात्मक कल्पनाधारा को छोड़कर सगुण ब्रह्म का अस्तित्व नहीं रह सकता इस लिये सभी वस्तुओं का अस्तित्व उनकी क्रिया के परिमाप पर निर्भर करता है। क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना विशेष का नाम काल है। मन की सहायता से इस गतिशीलता को ग्रहण करने वाला ही पात्र है और पात्र तथा काल का संबंध स्थापित करने वाली सत्ता ही देश  है। तीनों का अस्तित्व मानसिक क्रियाशीलता या ओंकार पर निर्भर है। ओंकार की अर्धमात्रा अर्थात् चंद्रविंदु में साक्षीयुक्त पुरुषोत्तम स्थित हैं इसलिये अ, उ, म और अर्धमात्रा ये ही क्रमशः  स्रष्टि,स्थिति, लय और साक्षित्व इन चारों का द्योतक है। इसलिये, प्रणवात्मकम् ब्रह्म, तस्य वाचकः प्रणवः , यह कहा गया है। इसीलिये ओंकार उच्चारण करने की वस्तु नहीं है मनुष्य का कंठ इसे ठीक ठीक भावरूप नहीं दे सकता। ओंकार के प्रकाशमान रूप को पकड़कर पहले अर्ध मात्रा से और फिर तुरीय के चतुर्थ पाद में निर्गुण, निष्कल ब्रह्म में स्थान पाकर ईश्वरग्रास में परम शान्ति लाभ करना चाहिये। ‘‘ सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति, तपाॅसि सर्वाणि च यद्वदन्ति, यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यंजरंन्ति, तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येमतत्।  इसलिये ओंकार सगुण और निर्गुण दोनों का द्योतक है। अ, उ, म, सगुण ब्रह्म को, नाद चिन्ह ( ॅ  )   सगुण और निर्गुण के पार्थक्य को और विन्दु  ( . )  निर्गुण ब्रह्म को प्रकट करता है क्योंकि विंदु में स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं।

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