Monday 16 March 2015

वेद में ब्रह्मविज्ञान क्र. 24 से आगे.……


वेद में ब्रह्मविज्ञान क्र. 24 से आगे.…… 

(25 ) यहाॅं यह ध्यान रखने की बात है कि नृसिंह या पुरुषोत्तम में साक्षी भाव रहने से वे तुरीय अवस्था से भिन्न हैं, तुरीय अवस्था निर्गुण या निरक्षर अवस्था है यहाॅं पर सभी ईश्वरीय विभूतियों की समाप्ति हो जाती है। अन्य बात यह भी कि नृसिंह उपासना पंचव्यूहात्मक उपासना कहलाती है और अनुष्टुप मंत्र  इसी के लिये है। प्रणव या ओंकार जहाॅं सम्पूर्ण ब्रह्मचक्र के लिये व्यवहार  किया जाता है वहीं अनुष्टुप केवल मूल व्यूह के लिये अतः ओंकार श्रेष्ठ है। अनुष्ठुप का स्थान भी ओंकार में ही है। 
‘‘ भूतं भवद भविष्यदिति सर्वमोकारण्व, यच्चान्यन्त्रिकालातीतं तदोप्योेंकार एव‘‘। 
ओंकार सगुण ब्रह्म के स्पान्दनिक विकास की ही शाब्दिक अभिव्यक्ति है। अतः जहाॅं स्रष्टि है वह अतीत ,वर्तमान और भविष्य क्यों न हों ओंकार से पृथक नहीं रह सकती। जहाॅं पर स्रष्टि है वहाॅं देश , काल और पात्र भी होगा। इस ओंकारात्मक कल्पनाधारा को छोड़कर सगुण ब्रह्म का अस्तित्व नहीं रह सकता इस लिये सभी वस्तुओं का अस्तित्व उनकी क्रिया के परिमाप पर निर्भर करता है। क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना विशेष का नाम काल है। मन की सहायता से इस गतिशीलता को ग्रहण करने वाला ही पात्र है और पात्र तथा काल का संबंध स्थापित करने वाली सत्ता ही देश  है। तीनों का अस्तित्व मानसिक क्रियाशीलता या ओंकार पर निर्भर है। ओंकार की अर्धमात्रा अर्थात् चंद्रविंदु में साक्षीयुक्त पुरुषोत्तम स्थित हैं इसलिये अ, उ, म और अर्धमात्रा ये ही क्रमशः  स्रष्टि,स्थिति, लय और साक्षित्व इन चारों का द्योतक है। इसलिये, प्रणवात्मकम् ब्रह्म, तस्य वाचकः प्रणवः , यह कहा गया है। इसीलिये ओंकार उच्चारण करने की वस्तु नहीं है मनुष्य का कंठ इसे ठीक ठीक भावरूप नहीं दे सकता। ओंकार के प्रकाशमान रूप को पकड़कर पहले अर्ध मात्रा से और फिर तुरीय के चतुर्थ पाद में निर्गुण, निष्कल ब्रह्म में स्थान पाकर ईश्वरग्रास में परम शान्ति लाभ करना चाहिये। ‘‘ सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति, तपाॅसि सर्वाणि च यद्वदन्ति, यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यंजरंन्ति, तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येमतत्।  इसलिये ओंकार सगुण और निर्गुण दोनों का द्योतक है। अ, उ, म, सगुण ब्रह्म को, नाद चिन्ह ( ॅ  )   सगुण और निर्गुण के पार्थक्य को और विन्दु  ( . )  निर्गुण ब्रह्म को प्रकट करता है क्योंकि विंदु में स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं।
(26) वेदों में सगुण ब्रह्म के लक्ष्ण इस प्रकार वर्णित हैं, 
कैवल्य श्रुति के अनुसार, 
‘‘ मय्येव सकलं जातं मयि सर्वं प्रतिष्ठितम्, मयि सर्वं लयं याति तद् ब्रह्माद्वयमस्म्यहम्। जाग्रत्.स्वप्नसुषुप्त्यादि प्रपुचं यद् प्रकाशते,तद् ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्वबंधैः प्रमुच्यते।‘‘ 
ऋग्वेद के अनुसार
‘‘ यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति,यत् प्रयन्तभिसंविषन्त तद् विजिज्ञासस्व तदृब्रह्म।‘‘ महानिर्वाण तन्त्र के अनुसार, 
यतो विश्वं  समुद्भूतं येन जा तंज तिष्ठति, यस्मिन सर्वाणि लीयन्ते ज्ञेयं तद् ब्रह्म लक्षणैः। 
नृसिंह उत्तर तापीय श्रुति के अनुसार,
 ‘‘सर्वं ह्येतद् ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म तमेत्मात्मानमोमिति ब्रह्मणैकीकृत्य ब्रह्मचात्मना ओमित्येकीकृत्य तदेकमजरममृतमभयमोमित्यनुभूय तमिन्निदंसर्वं त्रिशरीरं आरोप्य तन्मयंहि तदेवेति संहरेदोमिति।‘‘
 अर्थात् जोकुछ तुम देखते चिंतन करते या अनुभव करते हो या जो कुछ तुम्हारे दर्शन   चिंतन ओर अनुभव के बाहर है सब कुछ सगुण ब्रह्म या ओंकार है तुम्हारा आत्मा भी ब्रह्म ही है। तुम्हारा अस्तित्व या जगत तथा ब्रह्म  और ओंकार के बीच एकी भाव है। तुम्हारे अस्तित्व, जगत, या ब्रह्म ये सब पृथक पृथक सत्तायें नहीं हैं। इस जड़ जगत के साथ आपने आत्मिक अस्तित्व को ब्रह्म के साथ एकीभाव कर दो , तब केवल मात्र अपने को ओंकार स्वरूप ही पाओगे अर्थात्  उस अवस्था में ओंकार के साथ तुम्हारा एकी भाव होगा। इसी प्रकार ओंकार 
के साथ अपने  को एकीभाव में प्रतिष्ठित करने पर केवल एक विकृति रहित सत्ता बच रहेगी । वहाॅं मृत्यु भी नहीं रहेगी। वहाॅं भय भी नहीं है, क्योंकि  विकृति, भय और मृत्यु होने के लिये दूसरी सत्ता होना आवश्यक  है, परंतु जहाॅं वह एकमात्र सत्ता हैं वहाॅं अजरता, निर्भयता और अमरता है। इसी अविकृत, अमर, अभय ओंकार में तुम लोग अपने त्रिशरीर अर्थात् जाग्रत ,स्वप्न और सुसुप्ति को आरोपित करो। प्रत्येक जीव चार सत्ताओं की समष्ठि है, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और स्वरूप।  जाग्रत ,स्वप्न और सुषुप्ति ये तीनों ही स्वरूप की विकृतियाॅं है। इसलिये इसी त्रिशरीर को ब्रह्म में अर्थात् ओंकार में आरोपित कर दो और तद्भाव में ही तन्मय हो जाओ। उस अवस्था में यह भावना जागेगी कि मैं ही ओंकार हूँ  और मैं अपने स्वरूप और स्वभाव में ही रहता हॅूं। इसलिये जब कभी भी कोई जड़ चिंता जागे उसमें ब्रह्म भाव का आरोपित कर देने पर वह संस्कार के रूप में स्थान नहीं बना पायेगी। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के भेद के कारण जीवों का शरीर रहता है और वह ब्रह्म से अपने को पृथक समझता है। जीवों का विकास यह क्षुद्र देह है पर ब्राह्मी विकास यह अति ब्रहत् विश्वब्रह्माॅंड है। जीवों का पंचभूतात्मक शरीर ब्रह्म के काममय कोश  में ही उत्पन्न हुआ है जिसमें वे असंख्य देह निर्मित करते हैं क्योंकि अपने को सबसे पृथक कर उन्हें अपने व्यष्टिभाव की रक्षा करना होती है अन्यथा उनमें स्वतंत्रता नही रह पाती। ब्राह्मी कल्पना की धरावाहिकता रखने के लिये मनोमय कोश  में जो वस्तु भेद अपरिहार्य हो जाता है उसी के लिये जीवों की अजस़् संख्यक देह स्रष्टि का निष्चय ही प्रयोजन रहता है अन्यथा वस्तुगत भेद नहीं रहने से कल्पना भी स्थाणु हो जाती है। अभुक्त संस्कार के क्षय के  लिये सगुण ब्रह्म को जब कल्पना करनी ही होगी उस समय भेदात्मक जगत की स्रष्टि करना उनका धर्म हो जाता है। जीवों का कर्म और प्रतिकर्म भोग इन्ही आधारों पर होता रहता है और यह जैव सत्ता जब ब्राह्मी सत्ता से अपना पृथक अस्तित्व त्याग करती है तब कोई कर्मफल भोगना शेष न होने के कारण उसके स्वतंत्र दैहिक सत्ता भी नहीं रहती। यह परिदृश्यमान पंचभौतिक जगत उन सगुण ब्रह्म का काममय शरीर है अर्थात् उनकी मानस देह है। उनका कोई सीमित जड़ शरीर नहीं है अतः उन्हें कोई जाग्रत स्वप्न या सुषुप्ति की अवस्था नहीं होती , उनका सब कुछ मानसिक ही है।

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