7.2 मन की शक्तियाॅं
हमें मन की शक्तियों को पहचान कर उनका उपयोग समाज हित में करना चाहिये। मन का प्रमुख कार्य है सोचना, अतः साॅंद्रित सोच द्वारा चिंतन करते हुए साधना करना चाहिये। इसका अर्थ है कि शरीर में कहाॅं कौनसा चक्र और ग्रंथियाॅं होती हैं और किस प्रकार कार्य करती हैं इस का ज्ञान रखकर साधना करने पर वह शीघ्र फलदायी हो जाती है। उचित मात्रा में आवश्यकतानुसार हामोन्स का स्राव करना संभव करने के लिये सोचने की प्रायोगिक विधियों की खोज करना होगी। मन का दूसरा काम है याद रखना मन के द्वारा विभिन्न प्रकार की याद करने की प्रणालियों की खोज की जाती है इस लिये उसमें यह समझ होना चाहिये कि समान मानसिक प्रकृति की चीजें किस प्रकार संबंधित होती हैं इसके लिये भौतिक और मानसिक प्रयासों के साथ साथ आध्यात्मिक प्रयास भी जोड़ना चाहिये। उपग्रंथियों से अवाॅंछित हारमोन्स उत्पन्न न हो और चक्रों के गुणों द्वारा समृति के बढ़ाने की प्रणाली से संबंध जोड़ा जाना चाहिये। तीसरा काम विभिन्न मानसिक क्षेत्रों में वैज्ञानिक ढंग से हस्तान्तरण और विभाजन की पद्धतियों को खोजना होगा। यह पद्धतियाॅं मनुष्यों मनुष्यों, प्राणियों प्राणियों, और पौधों पौधों के लिये भिन्न भिन्न होंगी। चैथा काम विवेक और बुद्धिवाद के लिये भौतिक मानसिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के अधिक कार्यक्षेत्र तलाशना होंगे परंतु इसके लिये मानसिक क्षेत्र में टेलीपैथी और क्लेयरवोयेंस जैसे विचारों के पक्ष को छोड़ना होगा। आध्यात्मिक क्षेत्र में परमपुरुष से जुड़ने के प्रयास करने को ही सर्वोत्तम माना गया है ओकल्ट अर्थात् अलौकिक शक्तियों के पाने को नहीं।
इसलिये कुछ तथ्य जो बार बार मन को भ्रमित करते हैं जैसे, देवता, देवीशक्ति, और ओंकार। इन्हें अच्छी तरह समझना आवश्यक है।
7.21 देवता - जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार, जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर उसे नियंत्रित करते हैं और सबको प्रभावित करते हैं देवता कहलाते हैं। उदाहरणार्थ, शिव का आदर्श उनके जीवन से विलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषा के अनुसार उन्हें देवता कहा जाता है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता है, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अर्थात् महादेव हैं।
7.22 देवीश शक्ति - जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है।
1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप, अपना आकार पाता है। ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल अर्थात् (eternal time factor) के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।
7.23 ओंकार ब्रह्माॅंड के निर्माण होने के समय जो ध्वनि उत्पन्न हुई उसे वेदों में ओंकार ध्वनि के नाम से जाना जाता है जिसमें उत्पत्ति, पालन और संहार तीनों सम्मिलित हैं। मानव कानों की श्रव्यसीमा में आने वाली ये ध्वनि की तरंगें विश्लेषित करने पर पचास प्रकार की पाई जाती हैं जिन्हें काल अर्थात् समय का वर्णक्रम कहा जाता है इन्हें स्वर ‘अ‘ से प्रारंभ (निर्माण का बीज मंत्र) और व्यंजन ‘म‘ (समाप्ति का बीज मंत्र) में अंत मानकर काल को अखंड रूप में प्रकट करने के लिये अथर्ववेदकाल में इस रहस्य को समझाने की दृष्टि से भद्रकाली की कल्पना कर उसके हाथ में ‘अ‘ उच्चारित करता मानव मुंह बनाया गया, अन्य स्वरों और व्यंजनों के प्रत्येक के एक एक मुंह बनाकर शेष 49 अक्षरों के मुंहों की माला भद्र काली को पहनाई गई और कालचक्र पूरा किया गया क्योंकि अथर्ववेदकाल में लिखना पढ़ना लोगों ने सीख लिया था परंतु वेदों के लिखने पर प्रतिबंध था। पूर्वोक्त मानव मुंहों को ही वर्णमाला / अक्षमाला का प्रतिनिधि उदाहरण माना गया क्योंकि उच्चरण मुंह से ही किया जाता है। वास्तव में काल या समय, क्रिया की गतिशीलता का मानसिक परिमाप है और यह अनन्त ध्वनियों/तरंगों का सम्मिलित रूप होने से अखंड नहीं है, यह अलग बात है कि हम अपने कानों से उन सभी को नहीं सुन पाते।
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