Monday 2 March 2015

वेद में ब्रह्म विज्ञान लगातार ( विंदु क्र. 11 से आगे....)


वेद में ब्रह्म विज्ञान लगातार ( विंदु  क्र. 11  से आगे....)
(12 ) सत्य का यह परम निधान क्या है? सत्य के आवास ब्रह्म, एक ओर तो इतने ब्रहत्  हैं कि वे अचिंतनीय  हैं और दूसरी ओर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म परमाणु से भी सूक्ष्म हैं इतने कि मन उन्हें कल्पना में भी नहीं ला सकता किन्तु उस क्षुद्र भाव में भी वे ज्योतिष्मान हैं। जिसे देखने की आॅंखें हैं जिसने उन्हें थोड़ा सा भी जान लिया है वह जानता है कि वे उसके अस्तित्वबोध के बीच, हृदय की वृत्ति के बीच परम ज्योतिष्मान स्वरूप में विराजमान हैं। उन्हें खोजने के लिये देश  विदेश  में भटकने की आवश्यकता नहीं। आॅंखें उन्हें देख नहीं सकती, शब्दों के द्वारा उन्हें समझाया नहीं जा सकता ,इंद्रियों से भी अनुभव करना कठिन है पर सद्गुरु की कृपा से साधक ही रूपज्ञान में प्रतिष्ठित  होता हैं, निष्ठा के साथ उनका भाव लेकर जो अपने चित्त में साधना करता है वह सूक्ष्म चित्त का साधक ही उस निराकार परम सत्ता की उपलब्धि कर सकता है। जबतक मनुष्य के शरीर में प्राण आदि पंचवायु क्रियाशील हैं तब तक उसे ब्रह्म प्राप्ति की साधना करने का सुयेग मिलता है। परंतु अधिकाॅंश  मनुष्यों का मन इंन्द्रियों की ताड़ना से वर्हिमुखी होकर विषयों की ओर दौड़ पड़ता है। साधना करने पर चित्त की विशुद्धि हो जाने के बाद ही वह परम पुरुष की परम ज्योति को देख पाता है। जो अपने आत्मा में  परमात्मा को देख पाता है वही आत्मज्ञ है। आत्मज्ञ व्यक्ति जिन प्रकारों का चिंतन करते हैं उन प्रकारों की वस्तुएं उन्हें मिलती जाती हैं, उनकी कामना जैसी होती है विषय वैसा ही रूप धर लेता है, इनकी खोज करने के लिये उन्हें वाह्य जगत में दौड़ना नहीं पड़ता। वे आप्त काम हैं । अतः अपनी सर्वात्मक उन्नति के लिये उन्नतिकामी व्यक्ति ही आत्मज्ञ की पूजा करते हैं।


(13) ब्रह्म विराट हैं और जो उनकी भावना लेकर कर्म करते हैं वे भी ब्रह्म ही हो जाते हैं। ब्रह्म शुभ्रज्योति से ज्योष्मिान हैं। प्रकृति और पुरुष दोनों अविनाभावी और अपृथक सत्तायें हैं। जहाॅं पुरुष के ऊपर प्रकृति क्रियाशीला  है वहीं पर शुभ्र ज्योति है। गायत्री मंत्र में इस शुभ्र ज्योति के अर्थ में  ‘भर्ग‘ शब्द का उपयोग किया गया है। भर्ग और सगुण ब्रह्म अभिन्न हैं और इनकी ब्रह्मज्योति से अभिन्नता इस प्रकार समझाई जा सकती है। भ, र, ग, इन अक्षरों से भर्ग शब्द बनता है। भ का अर्थ है जिससे जगत उद्भासित होता है।, र का अर्थ है जो प्राणीसमूह के आनन्द का विधान करते हैं और ग का अर्थ है समग्र स्रष्टि जिनसे आकर जिनमें लय होती है।

‘‘ भेति भास्यते लोकान् रेति रंजयति प्रजाः, ग इत्यागच्छत्यजस्रं भरगात् भर्ग उच्यते।‘‘
यह स्रष्टि त्रिगुणात्मक है जगत की सभी वस्तुओं में इन तीनों गुणों का खेल हो रहा है। मानव शरीर में नाभि के नीचे का भाग तमोगुण, नाभि से कंठ तक रजोगुण और कंठ से त्रिकुटी तक सत्वगुण प्रधान है। अतः जिसकी जैसी वृत्ति होती है उसका वैसा ही भाग क्रियाशील होता है। जब श्रवण मनन निदिध्यासन के द्वारा व्यक्ति अपनी  मनोभूमि में प्रतिष्ठित होता है तब वह सत्वगुणी होकर शुभ्रवर्णात्मक रूपमें परम ब्रह्म का दर्शन  करता है। किन्तु जब वह मानस के स्तर से ऊपर उठ जाता है, ब्रह्म रंध्र में निर्गुणब्रह्म  के सान्निध्य हेतु गुण राहित्य में प्रवेश  करता है तो वह वर्णातीत हो जाता है। भर्ग या शुभ्र वर्ण भी उस समय उसके पास नहीं रहता। जो व्यक्ति इस परम पुरुष की उपासना करता है उसका मन विषयमुक्त हो जाने के कारण फिर जन्म ग्रहण के लिये संस्कार अर्जित नहीं करता। मनुष्य की वासना और कामना जैसी होती है और जैसी वृत्तियों से परिचालित होता है, उसका मन उसी रूप को ग्रहण कर वैसे ही संस्कार अर्जित करता है। इसी लिये जीवन भर जो जिस प्रकार की वृत्तियों को प्रश्रय देता है मृत्यु के समय वैसी ही वृत्तियाॅं रहती हैं और अगले जन्म में भी उन्ही संस्कारों के अनुरूप मन ग्रहण करता है। इसे समझने के लिये भरत मुनि का उदाहरण पर्याप्त है। परंतु जो पूर्ण काम हैं जिनकी वासना और कामना समाप्त हो गई है उनके कोई संस्कार नहीं रहते अतः उन्हें जन्म मरण के चक्कर में नहीं घूमना पड़ता । यही आप्तकाम और कृतात्मा कहलाते हैं और समुद्र की लहरों की तरह, जहाॅं से आये होते हैं उन्हीं परम ब्रह्म में वापस चले जाते हैं। स्पष्ट है कि ऐंसे कृतात्मा होने के लिये कुछ तो प्रयत्न करना होंगे, यही प्रयत्न करना साधना कहलाती है। भक्ति , ज्ञान और कर्म के सम्मिलत प्रयास को श्रेष्ठ साधना कहा गया है।
(14 ) ‘‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन, यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्।‘‘ केवल बड़ी बड़ी बातें करने से ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती, पत्रा में लिखा होता है कि इस वर्ष इतनी वर्षा होगी पर इसी को सुनकर तो किसान की फसल नहीं बची रह सकती? प़़त्रा को निचोड़ने से एक बूंद पानी नहीं मिलता? ब्रह्म प्राप्ति के लिये मन को उनकी ओर मोड़ने की साधना करना होगी। जिन्हें अनुभूति नहीं हुई है वे लाख शास्त्र अध्ययन करें, ब्रह्म के संबंध में खूब भाषण देते जायें पर उनका ब्रह्म पुस्तक के भीतर ही बना रहेगा।  ‘‘ वाकवैखरी शब्दझरि  शास्त्रब्याख्यानकौशलम्, वैदुष्यम विदुषाम  तद्वत् भुक्तये न तु मुक्तये।‘‘ अनेक लोग दूर दूर से महापुरुषों के उपदेश  सुनने के लिये दौडे़ आते हैं, पर जो कुछ उनसे सुनते हैं उसका आचरण नहीं करते। वे लोग भ्रमित हो जाते हैं।  महापुरुषों के पीछे दौड़ने से कुछ नहीं होगा स्वयं ही साधना करना होगी। परमात्मा यह देखकर कृपा नहीं करते कि कौन कितनी पुस्तकें पढ़ता है या कितना अच्छा वक्ता है, जिसकी निष्ठा है वे ही उनकी कृपा पाते हैं। सभी मनुष्यों में ब्रह्म साधना करने की योग्यता  या संभावना होती है पर उचित मार्गदर्शक  के अभाव में वह वास्तविक रूप नहीं ले सकती। इसी लिये उनकी कृपा अनिवार्य होती है उनकी कृपा से ही सद्गुरु प्राप्त होते है। जिनकी मानसिक शक्ति नहीं है उन्हें ब्रह्म ज्ञान नहीं हो सकता। भीरु, कापुरुष ब्रह्म भाव से दूर ही रहेंगे। साधकों  में यह आत्म विश्वाश  होना चाहिये कि मैं आत्म सिद्धि लाभ करूंगा ही। इसके लिये घरद्वार छोड़ कर हिमालय की कंदरा में जाना अनिवार्य नहीं है । सन्नयास शब्द  का अर्थ है सद् वस्तु को प्राप्त करने के उद्देश्य  से अपने आप का उत्सर्ग कर देना। जब ब्रह्म ही सब कृछ हैं और वे सर्व व्याप्त हैं तो तुम्हारे एक स्थान को त्याग कर दूसरे स्थान को जाने का औचित्य ही क्या है?

(15  ) जिसने ब्रह्म को अपने में खींच लिया है उन्हें ऋषि कहा जाता है साधक जब तक ब्रह्म को नहीं पाता है जब तक उसकी भूख नहीं मिटती , अपूर्णता ही रहती है। मनुष्य के मन का यह स्वभाव है कि उसे थोड़े में संतुष्ठि नहीं होती, उसे तब तक कमी अनुभव होती रहती  है जब तक अनन्त राशि  प्राप्त न हो जाये। चूंकि अनन्तत्व तो ब्रह्म में ही निहित है अतः ब्रह्म की प्राप्ति से ही उसकी यह  भूख तृप्त हो सकती है। इसलिये जब ऋषि कृतात्मा होते हैं तो वे आत्मदर्शन  कर राग विराग से ऊपर उठकर संस्कार वर्जित हो जाते हैं, जब तक घृणा और मोह वृत्तियाॅं रहती हैं तभी तक राग और विराग रहते हैं। आत्मदर्शन  के फलस्वरूप जो वीतराग हो गये हैं वे इन दोनों से ऊपर होते है। प्रशान्त महासागर में गंभीरता है गर्जन नहीं है जबकि बंगाल की खाड़ी उथली होने से गर्जन और तरंगों से भरी हुई। उसी प्रकार जो ज्ञानतृप्त हैं, वीतराग हैं वे प्रशान्त हैं, वे क्यों आत्म प्रचार करेंगे? किसके पास करेंगे? यह काम तो साधारण मोहग्रस्त लोग करेंगे जो प्रशंसा के भिखारी हैं। ब्रह्म प्राप्त व्यक्ति तो सब कुछ ब्रह्म मय ही देखेंगे और अनुभव करेंगे कि कुछ भी उनसे पृथक नहीं है। जिन्होंने ब्रह्म में आत्मसमर्पण किया है उन्हें संस्कार का भय कहाॅ? मनुष्य का अस्तित्व सोलह कलाओं से युक्त है, जब तक वे भौतिक संसार में सुख खोजते हैं तब तक उन्हें इन सोलह कलाओं के बाहर जानेे का उपाय नहीं। दस इंद्रियाॅं , पाॅंच प्राण और अहमतत्व यही सोलह कलायें हैं। इन सब कलाओं का भाव उनके मूल कारण में और देवता अर्थात् इंद्रियाॅं अपने अपने प्रतिदेवता अर्थात् नियंत्रक शक्ति में मिल जाती हैं। मनुष्य के शरीर  में असंख्य नाडि़यों में से तेतीस ही प्रधान हैं इन्हें ही तेतीस देवता कहा जाता हैये हैं एकादश  रुद्र्र, द्वादश  आदित्य, अष्ट वसु, , इंद्र और प्रजापति।  ब्रह्म शक्ति के प्रधान विकास को इंद्र कहते हैं, यही देवता शरीर का सामग्रिक भाव से नियंत्रण करता है। देहान्त के बाद मोक्ष प्राप्त साधकों की प्रत्येक इंद्रिय अपने अपने देवता में लीन हो जाती है, उनका कर्म विज्ञानमय कोश  में, आत्मा हिरण्यमयकोश  में, पंचदश  कलायें और देवता समूह के प्रतिदेवता, ब्रह्म में लीन होकर एक हो जाते हैं। जिस प्रकार विभिन्न नदियाॅं समुद्र में जाकर एक हो जाती हैं वैसे ही ब्रह्म के साथ साधकों का मिलन होता है। जिसने ब्रह्म को जान लिया वह ब्रह्म ही हो गया क्योंकि जीव अपने विषय का ही रूप ग्रहण करता है। जिसका विषय ब्रह्म है वह मृत्यु के बाद ब्रह्म लोक में ही जाता है। इस प्रकार ब्रह्म विद् के कुल में अब्रह्मविद् का जन्म नहीं होता, कुल का अर्थ है कु= पृथ्वी, ला= धारण करना। अतः पृथ्वी जिसको धारण करती है उसे कुल कहते हैं। पृथ्वी मनुष्यों के वंश  को धारण करती है इसलिये वंश  का अर्थ भी कुल होता है। कुल का तीसरा अर्थ है जीवशक्ति, मेरुदंड के निम्नाॅंश  को कुल कहते हैं कुल में अधिष्ठाता कुंडली भूता शक्ति को कुलकुंडलनी कहा जाता है।

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