वेद में ब्रह्मविज्ञान लगातार -----
(16 ) मनुष्य शरीर में त्रिकुटि के स्थान पर वर्ण का अंत और अवर्ण का प्रारंभ होता है अतः त्रिकुटि का ब्रह्म साधना में बहुत महत्व है। ब्रह्मविद् के सामने धर्म , अधर्म, विधि, निषेध नहीं होता। जब सब कुछ ब्रह्ममय होकर एकाकार होगया तो वे क्या ग्रहण करेंगे और क्या छोड़ेगे। ब्रहृमविद उठते वैठते, खाते पीते ब्रह्म मय ही रहेंगे उनके छोटे बड़े सब काम ब्रह्मरर्पित ही होंगे , शरीर उनके लिये यंत्र मात्र होगा उन्हें कर्मबंधन नहीं बाॅंध सकता । सुखदुख भी मानसिक विकृति मात्र हैं समाधिमें पूर्ण साम्य आ जाता है अतः उस समय सुख अथवा दुख का कोई आभास नहीं होता है। इसीलिये महत् आदर्श से अनुप्राणित व्यक्ति जितना ही ऊपर उठता है उसके सुख दुख आदि का बोध उतना ही कम हो जाता है। जादूगर पत्थर को कबूतर में बदल देता है दर्शक स्तंभित हो जाते हैं पर जादूगर के पास कोई विकार नहीं आ पाता क्योंकि वह अपने कौशल को अच्छी तरह जानता है। परंतु वह दर्शकों की तरह अपना खेल इसलिये देखता है कि खेल ठीक हो रहा है या नहीं। यह जगत भी जादू का खेल है ब्रह्म विद यह खेल देखते हैं पर उसमें अनासक्त रहते है। ब्रह्म विद् चैतन्य स्वरूप हैं वे सबको यथा यथ भाव से समझते हैं। सम्बोधि से , आत्मा में आत्मा को विलीन कर उनको पाना होगा। उनका श रीर पंच भौतिक सत्ता नहीं है जिसे आॅंखों से देखा जा सके। वे तो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और विराट से भी विराट हैं उन्हें पाने के लिये अविद्या के अंध बंधन को हटाकर ज्ञान के अंजन का उपयोग प्रारंभ करो। उनका कोई वंश परिचय नहीं क्योंकि वे अजन्मा, अनादि, और कारण रहित हैं , निराकार हैं उन्हें कोई आकार नहीं दिया जा सकता। उनकी स्थूल आॅंखें नहीं हैं पर वे प्रज्ञाघन आखों से सब कुछ देखते हैं, कान नहीं हैं पर प्रज्ञाघन कानों से सब कुछ सुनते है। वे नित्य हैं त्रिकालातीत शास्वत सत्ता हैं, उत्पत्ति और नाश रहित होने के कारण उन्हें विभु कहा गया है। ‘‘ अचक्षुश्रोत्रमत्यर्थं तदपाणिपदम तथा, नित्यं विभुम् सर्वगतं सुसमक्ष्मंच तदव्ययम्।‘‘ वे एक ही जब सृष्टि कार्य में लगे रहते हैं तब ब्रह्मा, जगत के साक्षी सत्ता के रूपमें वे ही शिव, इस ब्रह्माॅंड में वे ही सर्व श्रेष्ठ हैं, व्यापनशीलता के कारण उन्हें ही विष्णु कहा जाता है। उन्हीं की सत्ता से सब सत्तावान हैं इसी से उन्हें प्राण भी कहा जाता हैं, ध्वंसशक्ति के अधिकारी होने के कारण वे कालाग्नि कहलाते है। संक्षेप यह कि जगत के सारे कार्यों के भीतर या बाहर जो भी सोचा जा सकता है या नहीं सोचा जा सकता वे सभी उन्हीं में स्थित हैं, सभी तन्मात्राओं के बीज वे ही हैं। उन्हीं के स्पंदन से सभी स्पंदित हो रहे हैं इसे प्रणव या ओंकार कहते हैं, वे इसी के माध्यम से सब को शिक्षा देते चल रहे हैं।
(17 ) जो सब में अपने को और अपने में सब भूतों को देखते हैं वे ही ब्रहम की उपलब्धि करते हैं। परंतु यह कैसे किया जाय कि सबको अपने में और अपने में सबको देख सकें? ‘‘ आत्मानमरणिं कृत्वा प्रणवंचोत्तरारणिम्, ज्ञाननिर्मथनाभ्यासात् पाशं दहति पंडितः।‘‘ अर्थात् अपने को अरणि रूप में और प्रणव को उत्तर अरणि के रूप में व्यवहार कर ज्ञान के द्वारा निर्मथन कर अर्थात् युक्ति की सहायता से विलोड़न कर, पंडित लोग पाश समूह का नाश करें। प्राचीन काल में लोग लकड़ी पर लकड़ी का घर्षण कर आग उत्पन्न करते थे। अरणि का अर्थ है वह लकड़ी जो यज्ञ के लिये अग्नि उत्पन्न करने के लिये प्रयुक्त होती है और जिससे इस पर घर्षण किया जाता था उसे उत्तर अरणि कहा जाता है। जहाॅं अरणि उत्पन्न होती है उसे अरण्य क्हते हैं। इस रूपक में अपने आत्मा को अरणि और प्रणव को उत्तर अरणि कहकर परस्पर घर्षण से ब्रह्माग्नि को उत्पन्न कर पाशमुक्त होने का उपाय बताया गया है। प्रणव का अर्थ है, जिसके द्वारा प्रकृष्ट उपासना करना संभव होता हो वह। ओंकार मंत्र ही प्रणव है, स्थिर चित्त से ओंकार ध्वनि सुनते सुनते मनुष्य समाधिस्थ हो जाता है, ब्रह्म भाव में मिल जाता है। ‘ मैं सब में हूँ और सब मुझ में हैं‘ इस प्रकार की भावना स्थायी हो जाने को ज्ञान कहते हैं। इस विराट ज्ञान भूमि में युक्तिपूर्वक विलोडन करते करते अर्थात् परमार्थिक विचार से यह विचार करते कि जो कुछ है वह सब ब्रह्म ही है और मैं ही सब कुछ हूँ इस प्रकार का बार बार अभ्यास करते करते आत्मा रूप अरणि में प्रणवरूप उत्तर अरणि के संस्पर्श से ब्रह्माग्नि उत्पन्न हो जाती है जिससे मनुष्य पाशमुक्त हो जाता है, पाश आठ होते हैं, ये हैं, ‘‘घृणा ,शंका, भयं , लज्जा, जुगुप्सा, चेति पंचमी, कुलं शीलं च मानम् च अष्ठौ पाशा प्रकीर्तिताः।‘‘ इन पाशों को जो दग्ध करते हैं वे पंडित कहलाते हैं। ब्रह्मोपलब्धि होने अर्थात् सविकल्प समाधि होने पर मनुष्यों के पाश दूर हो जाते हैं। इस अवस्था में केवल मैं ब्रह्म हूँ यह भाव रहता है। ‘‘अहं ब्रह्मास्मीति बुद्धिः तामितः प्राप्तः सः पंडितः‘‘।
(18) यदि ब्रह्म एकमेवाद्वितीयम् हैं तो उनमें विकृति किस प्रकार आती है? इस का उत्तर यह है कि विकृति प्रकृति के द्वारा होती है और वह प्रकृति भी ब्रह्मदेह के भीतर ही है बाहर नहीं अतः चरम द्रष्टि से उनका एकत्व अक्षुण्ण रहता है। वास्तव में अणुजीव ब्रह्म मन के एक क्षुद्र अंश को ग्रहण कर लेता है और ब्रह्म मन में ही आगे बढ़ता है। उनमें इस क्षुद्रता की चेतना भी है, यह क्षुद्रता बोध ही उनका जीवत्व है। साधना है इसी क्षुद्रत्व की बेड़ी को तोड़ने की प्रचेष्टा और जब बेड़ी टूट जाती है तो उसे कहते हैं सिद्धि। क्षुद्रता युक्त अणुजीव और विराट अपरिमाप्य। ब्रह्म में प्रकृति के प्रभाव से तीन अवस्थायें रह सकती है। इनके नाम हैं जाग्रत, स्वप्न, और सुसुप्ति। इनमें से कोई भी चरम नहीं क्योंकि वे सत्व, रज और तमो गुण से उत्पन्न होती है। इन्हीं तीन अवस्थाओं में आपात्द्रष्टि से ब्रह्म और जीव पृथक रहते हैं, परंतु चैथी अवस्था जिसे कैवल्य कहते हैं उस पर प्रकृति का प्रभाव नहीं रहता अतः उसमें जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं रहता। विराट पुरुष पर जब सतोगुण का प्रभाव पड़ता है तो उस समय उसे क्षीराब्धि या क्षीरसमुद्र कहते हैं, अणुजीव इसी को जाग्रत अवस्था कहते हैं। साधारण लोग यही समझते हैं कि केवल जाग्रत अवस्था में ही ज्ञातृत्व रहता है परंतु यह ठीक नहीं है स्वप्न और सुषुप्ति में भी ज्ञातृत्व रहता है। प्रकृति के द्वारा जो अंश ज्ञेय अर्थात् विषय में बदल जाता है, या जिसमे विकृति आ जाती है, वह क्षर कहलाता है। ब्रह्म के जिस अंश में विकृति नहीं आती और जो क्षर के ज्ञाता के रूपमें विकृति के साथ प्रत्यक्ष भाव से जुड़ा रहता है उसको अक्षर कहते हैं। यह अक्षर , क्षर के साथ ओत प्रोत भाव से जुड़ा रहता है। ब्रह्म का जो अंश क्षर भी नहीं और अक्षर भी नहीं और ब्रह्म चक्र के प्राणकेन्द्र या मध्यविंदु में सशरीर स्थित रहता है वही ज्ञेय क्षर और ज्ञाता अक्षर का नियंता है। वे किसी के कर्म या कर्म फल के साथ प्रत्यक्ष रूपसे जुड़़े नहीं है। इन्हें ही पुरुषोत्तम कहते हैं।
‘‘ क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मनाविशते देव एकः तस्याभिध्यानात् योजनात् तत्वभावात् भूयाश्चान्ते विष्वमाया निवृत्ति।‘‘ विराट पुरुष पर जब रजोगुण का प्रभाव पड़ता है तब उसकेा गर्भोदक कहते है। अणुजीव इस अवस्था को स्वप्नावस्था कहते हैं। और जब बृहत् सत्ता में तमोगुण का प्रभाव पड़ता है तब उसे कारणार्णव कहा जाता है, अणुजीव इसे सुसुप्तावस्था कहते हैं। ब्रह्म की तमोगुणी अवस्था से ही जगत की स्रष्टि होती है। जो कारणार्णव अर्थात् कारण समुद्र के मध्य विंदु में रहते हैं वे ही पुरुषोत्तम हैं, जिनके चारों ओर स्रष्टि समुद्र की तरंग राषि वेग से घूमती रहती है, क्षर अक्षर भी दौड़ते रहते हैं, छोटे छोटे ‘मै‘ को केन्द्र बना कर इस क्षराक्षर की भीड़ में स्थिरप्रज्ञ विष्वात्मक ब्रह्म बैठे हैं। जाग्रत अवस्थामें जीव भाव में ‘मैं‘ ब्रह्म से पृथक रहता है, स्वप्नावस्था में यह कुछ कम हो जाता है, और निद्रावस्था में और भी कम हो जाता है। नींद के समय छोटे छोटे ‘मैं‘ की छटपटाहट न होने के कारण विशेष प्रकार के तामसिक सुख का अनुभव होता है।
No comments:
Post a Comment