Wednesday, 18 March 2015

वेद में ब्रह्मविज्ञान ( अंतिम विन्दु )


वेद में ब्रह्मविज्ञान  ( अंतिम विन्दु )

(27 ) जाग्रतावस्थाः  प्रथमपादः स्थूलत्वात् स्थूलभुक्तवाच्च सूक्ष्मत्वात् सूक्ष्मभुकत्वाच्चैक्यादानन्दभेगाच्च, सोयमात्मा चतुष्पाज्जागरितस्तानः स्थूलप्रज्ञ सप्ताॅंग एकोनविंशति मुखः स्थूल भुक् च भूरात्मा विश्वो  वैश्वा  नरः प्रथमः पादः। 
जाग्रत अवस्था ही आत्मा की स्थूलतम अवस्था है, क्योंकि, स्थूल जगत से तन्मात्र ग्रहण करना, या उसके संबंध में  कामना करना, कामना को कार्य रूप देना, कामना को बर्हिमुखी करना, तथा उसका संवेदन और परिणति भी स्थूल भोगात्मक है। इसलिये जाग्रत अवस्था में वह स्थूलभुक् है। वह सूक्ष्म भुक् भी है क्योंकि इन स्थूल भोगात्मक क्रियाओं का प्रेरक मानसिक ही होता है मन ठीक न रहे तो अच्छे से अच्छा भोजन भी ठीक नहीं लगता । इसे चतुष्पाद कहा गया है क्योंकि इस समय उसकी प्रकट या अप्रकट भाव से चार अवस्थायें रहती है। जैसे प्रकट भाव से जाग्रत और अप्रकट भाव से स्वप्न सुषुप्ति और तुरीय। जाग्रत अवस्था स्थूल प्रज्ञ है क्योंकि स्थूल वस्तुओं से ही इसे स्थूल ज्ञान प्राप्त होता है। इसके सात अंग होते हैं पंच भूत, चित्त, महत्तत्व और अहंतत्व। विकासात्मक उन्नीस मुख हैं इस इंद्रियाॅं, पाॅंच वायु, चित्त, महत्तत्व अहंतत्व और मूला प्रकृति। इस जाग्रत अवस्था में सबकुछ ही इसका भक्ष्य है इसलिये इसे वैश्वानर कहा जाता है। इस अवस्था के अभिमानी साक्षी पुरुष को जीव भाव में विश्व  और परमात्म भाव में विराट कहा जाता है। 
स्वप्नावस्था द्वितीयपादः- स्वप्नस्थानः सूक्ष्मप्रज्ञः सप्ताॅंग एकोनविंशतिमुखः सूक्ष्मभुक्चतुरात्मा तैजसो हिरण्यगर्भो द्वितीय पादः। 
इस आत्मा का उपजीव्य संपूर्ण मानस देह रहता है अर्थात् भोग्य वस्तु चिंताजगत में ही सीमित रहती है और इसे स्वप्न अवस्था कहा जाता है।  इसमें हाथ पैर आदि इंद्रियाॅं और उन्नीस मुख भी ठीक ही रहते है। पर स्थूल जगत से कुछ भी भक्ष्य ग्रहण नहीं करता सब कुछ मानसिक ही होता है अतः सूक्ष्म भुक् कहलाता है । यह चतुरात्मा होता है अर्थात् जाग्रत, सुषुप्ति और तुरीय स्वप्नावस्था में निहित रहते हैं। स्वप्नावस्था के अभिमानी जीवात्मा को तैजस और अभिमानी परमात्मा को हिरण्यगर्भ कहते है।
 सुषुप्तावस्था तृतीयपादः- यत्र सुप्तो न कश्चन्  कामं कामयते न कश्चन्  स्वप्नं पश्यति, तत्सुषुप्तं सुषुप्तस्थानः एकीभूतः प्रज्ञानघन एव आनन्दमयो ह्यानन्तभुक् चेतोमुखष्चतुरात्मा प्राज्ञ ईश्वरस्तृतीयः पादः। 
जिस अवस्था में मनोमय और काममय कोश  कोई काम नहीं करते अर्थात् जब जीव कोई विशेष वासना या कामना लेकर अपने शरीर  का नियंत्रण नहीं करते या कोई स्वप्न नहीं देखते इस को सुषुप्ति अवस्था कहा जाता है। उस समय मन का कोई चिंतागत या बाह्यिक विकास  नहीं होता अतः जीवों के लिये वह प्रज्ञानघन अवस्था है। स्थूल या सूक्ष्म मन की क्रिया न रहने के कारण सुख या दुख हर्ष या विषाद कुछ समझ नहीं पाता। पर इस अवस्था में भी एक प्रकार का आनन्द ही पाता हैं। जाग्रत या स्वप्नावस्था की तरह इस अवस्था में वस्तु भेद नहीं रहता अतः जागतिक सभी वस्तुएं उसके समीप एकीभूत हो जाती हैं। किन्तु यह एकीभाव आत्मव्याप्ति और कैवल्य की अवस्था नहीं है। वस्तुगत भेदज्ञान बहुत प्रकाश  अथवा बहुत अंधकार में लुप्त हो जाता है भले ही देखने सुनने की क्षमता रहती है  पर वस्तु को देख नहीं पाते हैं, अतः निद्रा का एकीभाव मोहात्मक अंधकारमय एकीभाव है और इसका आनन्द तामसिक आनन्द है। सुषुप्ति भंग होने पर जीवों में स्वप्नावस्था आ जाती है या जाग्रत अवस्था आ जाती है। स्वप्नावस्था के सप्ताॅंग और एकोनविंशति मुख सुषुप्तावस्था में बीज रूप में रह जाते हैं नष्ट नहीं होते। जीव भाव में इस अवस्था को प्राज्ञ और परमात्मभाव में इसे ईश्वर  कहते हैं।सूत्र में जैसे मणि गुथे रहते हैं उसी प्रकार समस्त जगत इसमें गुथे रहते हैं इसी लिये इसका नाम सूत्रेश्वर  है। इस अवस्था के अभिमानी पुरुष को प्राज्ञ कहने का कारण यह है कि इसमें सर्व ज्ञानशक्ति का बीज निहित रहता है। ज्ञान है स्फुरण की संभावना है पर अंधकार के कारण भेद ज्ञान नहीं है। इसका आनन्द खंडानन्द है पूर्ण नहीं। 
तुरीयावस्था चतुर्थपाद:- एष सर्वेश्वर  एष सर्वज्ञ एषेअन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानां त्रयप्येतत् संषुप्तं स्वप्नं माया मात्रं चिदेकरसो ह्यमात्मा अथ चतुर्थष्चतुरात्मा तुरीयावसितत्वादेकैकस्योतानुज्ञात्रज्ञाअविकल्पैस्त्रयमत्रसपि सुषुप्तं स्वप्नं मायामात्रं चिदेकरसो ह्याथयमादेशो  न स्थूलप्रज्ञं न सूक्ष्मप्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञंनाप्रज्ञं प्रज्ञानघनम दृष्टमव्यरहार्यंग्राह्मलक्ष्णामचिन्त्यमव्यपदेश्य - मेकात्मप्रत्यसारं प्रपंचोपशमं  शिवं शा न्तं अद्वेतम मन्यते। 
स एवात्मा स एष विज्ञेय ईश्वरग्राससस्तुरीयस्तुरीय। 
तुरीय अवस्था सर्वज्ञ या सर्वेश्वर  नहीं, क्योंकि कुछ जानने के लिये ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय आदि विभिन्न सत्ताओं का होना अनिवार्य है। किसी पर नियंत्रणाधिकार रखने के लिये नियंता, नियंत्रण और नियंत्रित के अस्तित्व बिना संभव नहीं। सब कुछ जानने का भाव तब तक रहता है जब तक अपने से भिन्न कोई सत्ता हो तुरीय अवस्था में दूसरी सर्वसत्ताओं का अस्तित्व बोध नहीं रहता केबल एक ही सत्ता रहती है अतः तुरीय किसी का ज्ञाता या ईश्वर  नहीं हो सकता। सर्वज्ञत्व या ईश्वरत्व  भावयुक्त आत्मा को प्राज्ञ कहेंगे तुरीय नहीं। प्राज्ञ ही सबके प्रेरणादाता और जगत के अस्तित्व की सिद्धि के कारण हैं । इसी लिये उनका शरीर कारण शरीर कहलाता है और स्वयं सुषुप्तात्मा या कारणात्मा हैं। तुरीय साक्षी चैतन्य हैं और कारण शरीर खंड खंड अनन्त विकासों के माध्यम से अपने को परम श्रेयत्व के साथ महामिलन की कामना से स्फुरण के पथ पर ले जा रहा है। संचर क्रिया की प्रथमावस्था का नाम है कारण शरीर। कारण शब्द का अर्थ है बीज और इनका शरीर विश्व्वीज  है। समग्र विश्व  के विकास का भाव उनमें इसी अवस्था में रहता है इसी लिये वह सर्व सत्ताओं के मूल भाव के नियंता, सर्वज्ञ और सर्वेश्वर  हैं। प्रतिसंचर की शेष अवस्था संचर की प्रथम अवस्था की तरह है। परंतु दोनोें में अंतर यह है कि संचर के समय कारणात्मक बीज में अंकुर के उद्गम की संभावना होती है पर प्रतिसंचर में इसके विपरीत मूल सत्ता में वापस लौटने की क्रिया होती है। तुरीय ब्रह्म, नृसिंह  या पुरुषोत्तम, कारण शरीर के साथ ओत योग, अनुज्ञातायोग, अनुज्ञा योग, और अविकल्प योग से संबंध रखते हैं। जहाॅं तुरीय , कारण शरीर के साथ ज्ञाता के रूपमें हमे, आदिरूप में सब जगह व्याप्त होकर रहते हैं उसे ओत योग कहते हैं, जब इकाई अणु का साक्षित्व होता है तब ओत योग और जब समष्टि या सबका साक्षित्व होता है उसे प्रोत योग कहते हैं। जहाॅं पुरुषोत्तम ज्ञातृभाव हैं वहाॅं ज्ञेय भाव कारण  शरीर है, ज्ञातृभाव जहाॅं अक्षर है वहाॅं क्षर कारण शरीर है। जहाॅं ज्ञातृभाव परब्रह्म हैं वहाॅं ज्ञेयभाव अपरब्रह्म हैं। जब जीवात्मा कारण शरीर में ब्रह्म भाव का आरोप कर उस ओर दौड़ता है उस समय वह प्रकारान्तर से कारण शरीर में ही तुरीय भाव का आरोप करता है। कारणात्मा ही ब्रह्म है। यह भाव तुरीय स्थिति का पूर्वाभाव होने के कारण इस अवस्था को अनुज्ञाता योग कहते हैं। परिछिन्न सविशेष सत्ता जब ध्यानयोग में अपरिछिन्न निर्विशेष भावात्मक अवस्था में आ जाती है या उसमें आने की चेष्टा चलती है तब उसे अनुज्ञा योग कहते हैं। जब किसी दूसरे विकल्प की संभावना नहीं होती अर्थात् सत्ता यहाॅं एकात्म प्रत्यय सारमात्र रहती है तब इसे अविकल्पयोग कहते हैं। आत्मा यहाॅं केवल ज्ञानस्वरूप है आत्मा इस अवस्था में ज्ञेय, ज्ञान, और ज्ञाता इन सभी प्रकार के भावों से रहित होता है, यही निर्विकल्प समाधि की अवस्था है। इसे ही कैवल्य स्थिति कहते हैं। यह चतुर्थ पाद तुरीय ही एकमात्र सत्य है, इसके पूर्व की तीनों अवस्थायें जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, सापेक्षिक सत्य है। इसी अवस्था में पहुंचने का अभ्यास करना चाहिये। इसे ही ईश्वरग्रास कहते हैं। इस अवस्था का भाषा में वर्णन नहीं किया जा सकता, इसे पाने के लिये आत्मनिवेदन की साधना करना होती है और करना होता है शतप्रतिशत आत्मसमर्पण।

.............................................................................................................................

भाव                        अवस्था                        बीज
..............................................................................................................................
व्यष्टिभाव           जाग्रत या स्थूल                  विश्व 
                         स्वप्न या सूक्ष्म                   तैजस्
                         सुषुप्त या कारण                    प्राज्ञ
समष्टिभाव         क्षीरसागर या क्षीराब्धि         विराट
                         गर्भोदक                              हिरण्यगर्भ
                         कारणार्णव                           ईश्वर या सूत्रेश्वर
                         तुरीय                                   ईश्वरग्रास
          ..................................................................................................................................................................

No comments:

Post a Comment