Thursday 31 October 2019

274 चेतना

चेतना
मैट्रिक पास प्रायमरी के शिक्षक मेहताजी को, सच्चे दार्शनिक ज्ञान की पिपासा ने प्राइवेट बीए और एमए करने के बाद पीएचडी करने का मनोबल दिया और वे विश्वविद्यालय के एक धुरंधर प्रोफेसर के मार्गदर्शन में शोधकार्य करने की इच्छा से उनसे मिलने पहुॅंचे। उनका निवेदन सुनकर प्रोफेसर बोले,

‘‘ आप मेरे साथ ही शोधकार्य करने के लिए पंजीकरण क्यों कराना चाहते हैं?’’
‘‘ सर! आपका नाम उच्च स्तर के दार्शनिकों में माना जाता है, आपके लिखे अनेक ग्रंथ प्रकाश में हैं और आपके अनेक शिष्य पीएचडी प्राप्त कर आपका ही कीर्तिगान करते हैं।’’
‘‘ अच्छा! तो किस विषयवस्तु पर शोध करने की इच्छा है आपकी?’’
‘‘सर! अनेक ग्रंथों से सन्तों और मंदिरों से तीर्थों तक की दौड़ ने मुझे पराज्ञान अर्थात् आत्मा और परमात्मा के संबंध में केवल सैद्धान्तिक ज्ञान दिया है। मेरा विश्वास है कि आपने अपनी लम्बी साधना के बल पर इस संबंध में व्यावहारिक ज्ञान पाकर अवश्य ही इनकी अनुभूति कर ली होगी, इसलिए मैं आपका शिष्यत्व ग्रहण करने का इच्छुक हॅूं।’’
‘‘ देखिए मेहताजी ! आत्मा और परमात्मा से संबंधित ज्ञान की सैद्धान्तिक व्याख्या करने पर ही विश्वविद्यालय मुझे अच्छा वेतन देता है इसलिए मैंने भी अपने को यहीं तक सीमित कर रखा है।’’
‘‘ सर! मैं आपकी स्पष्टवादिता को प्रणाम करता हॅूं, परन्तु अन्य अनुभवों की तरह आपसे मिलकर भी मैं निराश ही हुआ हॅूं’’ मेहताजी ने गहरी सांस लेते हुए कहा और नमस्कार कर वापस आ गए।
धाराप्रवाह व्याख्यानों के लिए विख्यात प्रोफेसर उस दिन एमए की कक्षा में अपना व्याख्यान बार बार भूले।
डा टी आर शुक्ल , सागर।

Monday 28 October 2019

273 स्वामिनी

273
स्वामिनी

तुझे पुकारते हैं बार बार,
चाहते हैं इतना, कि
तेरे पीछे पीछे भागते हैं।

अपने अपने ढंग से पूजते,
आरती उतारते,
ये नर,
तुझे अपना बनाने की चाह में क्या क्या नहीं करते।

जबकि तू !
नारायण के सिवा किसी की नहीं।

चंचला तेरा नाम ललचाना तेरा काम,
तेरे कटाक्ष से घायल हुए,
ये,
हर क्षण रटते हैं तेरा ही नाम।

अपने अपने घरों में तुझे बंद करने के इच्छुक,
अगरबत्ती की सुगंध स्वयं ही सूंघते हैं!
और,
तुझको रिझाने की करते हैं कामना?

मेवे मिठाइयों का स्वाद लेते हैं खुद ही!
और,
कहते हैं ये है प्रसाद की अर्पणा?

रत्नाकर तेरा घर,
गृहपति परमेश्वर!
फिर भी ये सब अपहृत कर तुझको,
रेत के घरों को बता अपना...
तुझे स्वामिनी बनाने का संकल्प ठाने,
ध्वनि और धुएं का प्रदूषण फैलाकर
लगे हैं प्रकृति की धरोहर मिटाने!!

इन कृत्यों से कुंठित हो,
नारायण ने ली राह आज ही वैकुंठ की,
अब श्रीहीन धरती पर,
लक्ष्य रहित मानव,
किस कारण से खुश हो दीवाली मनाते हैं?

डा टी आर शुक्ल, सागर।
25 अक्टूबर 2003

Monday 21 October 2019

272अमृतत्व

अमृतत्व
याज्ञवल्क्य जी को ‘‘ब्रह्म विद्या’’ के विषयों पर शास्त्रार्थ में कोई पराजित नहीं कर पाया, सभी समकालीन विद्वान ऋषियों मुनियों ने अपनी अपनी पराजय उनके समक्ष स्वीकार कर ली थी। अपनी आयु के अन्तिम भाग में संन्नयास लेने की इच्छा से उन्होंने अपने अर्जित धन को दोनों पत्नियों ‘कात्यायनी’ और ‘मैत्रेयी’ में बाॅंट देने हेतु उन दोनों की इच्छाएं/ आवश्यकताएं जानना चाही। कात्यायनी ने अपनी आवश्यकताओं की लम्बी सूची उन्हें दे दी, पर मैत्रेयी ने पूछा,
‘‘यदि पृथ्वी का सभी सोना और कीमती वस्तुएं मुझे मिल जाएं तो क्या मैं अमर हो सकती हॅूं?’’
याज्ञवल्क्य बोले, ‘‘नहीं, जैसा भोग सामग्री से सम्पन्न लोगों का जीवन होता है वैसा ही तुम्हारा हो जाएगा, धन से अमृतत्व की आशा की जाना निरर्थक है।’’
‘‘ येनाहम नामृतत्स्याम् तेनाहम किम कुर्याम्?’’अर्थात्, जिसे लेकर मैं अमर नहीं हो सकती उसका मैं क्या करूंगी? इस धन के स्थान पर आप जो भी अमृतत्व का साधन जानते हैं वही मुझे दे दीजिए’’ मैत्रेयी बोली।
‘‘ बहुत अच्छा, मैत्रेयी! तुम मेरी इस व्याख्या पर चिन्तन करना’’ याज्ञवल्क्य ने प्रसन्न होकर कहा।
‘‘ मैत्रेयी! पति के प्रयोजन के लिए पति प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिए पति प्रिय होता है; स्त्री के प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिया नहीं होती अपने ही प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिया होती है; पुत्रों के प्रयोजन के लिए पुत्र प्रिय नहीं होते अपने ही प्रयोजन के लिए पुत्र प्रिय होते हैं; धन के प्रयोजन के लिए धन प्रिय नहीं होता अपने ही प्रयोजन के लिए धन प्रिय होता है; सबके प्रयोजन के लिए सब प्रिय नहीं होते अपने प्रयोजन के लिए ही सब प्रिय होते हैं। अतः मैत्रेयी! आत्मा (अर्थात् अपना आप) ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और निदिध्यासन (ध्यान) करने योग्य है, इससे भिन्न कुछ नहीं है, यह दृश्य और अदृश्य सभी कुछ आत्मा ही है, इसका ज्ञान हो जाने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है, अप्राप्त भी प्राप्त हो जाता है।’’
‘‘ भगवन्! मुझे कुछ समझ में नहीं आया’’ मैत्रेयी बोली।
इस पर याज्ञवल्क्य ने अनेक उदाहरण देकर यह समझाया कि किसी भी घटना या तथ्य को अधबीच में पकड़ने का प्रयास विफल होता है परन्तु उसके श्रोत को पकड़ लेने पर सभी कुछ पकड़ में आ जाता है। परन्तु मैत्रेयी बार बार यही कहती रही कि उसे विशेषतः कुछ समझ में नहीं आया। 
इस पर याज्ञयवल्क्य बोले, ‘‘ जिस प्रकार नमक का टुकड़ा भीतर बाहर सब ओर से केवल नमकीन रस का ही घनीभूत रूप है उसी प्रकार आत्मा भी भीतर बाहर के भेद से रहित सम्पूर्ण प्रज्ञानघन ही है। यह अपने ही गुणरूपों अर्थात् अन्य भौतिक पदार्थों के साथ मिलकर विशेष प्रकार से अनेक आकारों प्रकारों में रूपान्तरित होता रहता है।’’
 ‘‘ भगवन्! मुझे फिर भी कुछ समझ में नहीं आया’’ मैत्रेयी बोली।
याज्ञयवल्क्य बोले, ‘‘अविद्या के प्रभाव से उसमें द्वैत और आकार प्रकार आभासित होते हैं इसी कारण अन्य अन्य को देखता है, सूंघता है, रसास्वादन करता है, अभिवादन करता है, सुनता है, मनन करता है, स्पर्श करता है। परन्तु जब सब कुछ में आत्मा की ही अनुभूति होने लगती है तब कौन किसको किसके द्वारा देखे, सुने, मनन करे, स्पर्श करे या जाने ? जिसके द्वारा यह सब कुछ जाना जाता है उसे किस साधन के द्वारा जाना जाय? उसे ‘नेति नेति’ कहा गया है उसे ग्रहण नहीं किया जा सकता , उसे नष्ट नहीं किया जा सकता, वह व्यथित और क्षीण भी नहीं होता। मैत्रेयी! विज्ञाति के विज्ञाता को किसके द्वारा जाना जाय? मति के मन्ता का  मनन कैसे किया जाय? दृष्टि के दृष्टा को कैसे देखा जाय? श्रुति के श्रोता का श्रवण कैसे किया जाय? इन तथ्यों पर चिन्तन करना यही अमृतत्व है।’’
ऋषि याज्ञवल्क्य के द्वारा इस संबंध में इसी प्रकार के दिए गए अनेक उद्धरण और तत्सम्बंधी व्याख्याओं के आधार पर ही ‘‘राजयोग’’ का नया मार्ग बना। ऋषि अष्टावक्र ने मानव शरीर के भीतर स्थित ऊर्जा केन्द्रों को आधार बनाकर इन्हीं उद्धरणों को व्यावहारिक रूप देने की पद्धतियों का विवरण ‘अष्टावक्र संहिता’ में दिया है जो कालान्तर में ‘‘राजाधिराज योग’’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है।

Saturday 12 October 2019

271 ओत योग और प्रोत योग

271 ओत योग और प्रोत योग
निर्पेक्ष परमसत्ता एक ही है दूसरी नहीं हो सकती। उसकी इस अद्वितीयता के कारण ही उसे बहुत बड़ा या ब्रह्म कहते हैं। कहा जाता है कि सभी कुछ उन्हीं एक से उत्पन्न हुआ है, उन्हीं में स्थित है और अंत में उन्हीं में लय हो जाता है। अपनी वैचारिक तरंगों को मूर्त रूप देने के समय उन्हें ‘ब्रह्मा’, पालन करते समय ‘विष्णु’ और अपने में लय करते समय ‘महेश’ के नाम से विद्वानों के द्वारा वर्णित किया जाता है। पुराणकार ने उन्हें अपनी कल्पना के अनुसार आकार भी दे डाले हैं परन्तु अपनी क्रियात्मक शक्ति से निर्माण, पालन और अन्त करने के समय उसकी ‘सगुणता या सापेक्षिकता’ इस ब्रह्माण्ड के रूप में ही देखी जाती है। उनकी इन समस्त गतिविधियों को दार्शनिक गण ‘‘ब्रह्मचक्र’’ कहते हैं। यथार्थतः यह किसी भी प्रकार से उस परमसत्ता से भिन्न नहीं है वरन् उन्हीं के विराट मन के भीतर ही स्थित है। वह निर्पेक्ष सत्य है तो उनकी यह सृष्टि सापेक्षिक सत्य है न कि मिथ्या, जैसा कि कुछ विद्वान कहते रहे हैं। यही कारण है कि वह अपनी प्रत्येक छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी रचना का व्यक्तिशः और सामूहिक रूप से ज्ञान रखते हैं उन्हें कहीं से कहीं जाना नहीं पड़ता, उनका बहिःकरण नहीं है सभी कुछ उनका अन्तःकरण ही है। किसी भी चिन्तनशील व्यक्ति के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वह परमसत्ता इस विराट विश्व या जगत या ब्रह्माण्ड के प्रत्येक अस्तित्व को किस प्रकार अपने संपर्क में रखते हैं और किस प्रकार उनका ज्ञान रख पाते हैं? वेदों में इसे ‘ओतयोग’ और ‘प्रोतयोग’ के नाम से समझाया गया है।
ओतयोग को दार्शनिक नाम ‘व्यष्टिभाव’(individual association) और प्रोतयोग को दार्शनिक नाम ‘समष्टिभाव’(collective association) दिया गया है। व्यष्टिभाव की तीन अवस्थाएं क्रमशः जाग्रत (या स्थूल) स्वप्न (या सूक्ष्म) और सुषुप्ति (या कारण) बताई गईं है जिनके बीज क्रमशः विश्व, तैजस् और प्राज्ञ कहलाते हैं। समष्टिभाव को चार अवस्थाओं क्रमशः क्षीरसागर (या क्षीरोब्धि) गर्भोदक, कारणार्णव और तुरीय कहा गया है तथा इनके बीज क्रमशः विराट, हिरण्यगर्भ, ईश्वर (या सूत्रेश्वर) और ईश्वरग्रास कहलाते हैं।
इस प्रकार वह परमसत्ता अपने ओतयोग और प्रोतयोग से व्यक्तिशः और सामूहिक रूप से सदा ही जुड़े रहते हैं जबकि अन्य सभी दर्शनों में उन्हें पृथक कहीं अन्यत्र सातवें आकाश का निवासी और हम सबका दंडाधिकारी बताकर डराया गया है। स्पष्ट है कि जब हमसब उन्हीं के विराट मन की तरंगों के छोटे छोटे भाग हैं तो उनसे डरकर पृथक रहकर उन्हें जानने समझने का प्रयास कैसे कर सकते हैं। उन्हें जानने के लिए तो हमें उनसे पृथकता की भावना को त्यागना ही होगा और परमपिता होने के कारण उनसे निर्पेक्ष प्रेम करना होगा अन्यथा हम उनसे दूर दूर ही बने रहेंगे और यह दूरी बढ़ती ही जाएगी। उन्हें जानने और अनुभव करने के लिए हमें उस केन्द्र की ओर जाना होगा जहाॅं से हमारी तरंग का उद्गम हुआ है, न कि परिधि की ओर। उपनिषदें भी कहती हैं कि ब्रह्माण्ड के सभी अस्तित्व अपने अपने स्वनिर्मित लक्ष्य और आजीविका  को पाने के लिए इस ब्रह्मचक्र में भटक रहे हैं परन्तु उन्हें अपने मूल लक्ष्य अर्थात् परमत्ता (या अमरत्व) की प्राप्ति तबतक नहीं हो सकती जबतक वे अपने को उस उत्पन्नकर्ता से पृथक मानते रहेंगे।
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते, अस्मिन हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे।
पृथगात्मानं प्रेरितारं  चा मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति।(श्वेताश्वर 1/6)
कुछ विद्वानों का मत है कि उन्हें पाना उनकी कृपा के बिना सम्भव ही नहीं है। इस पर कुछ लोग तर्क देते हैं कि जब उनकी कृपा से ही उन्हें पाया जा सकता है तो हमारे किसी भी उपाय (साधना, भजन, ध्यान, चिन्तन आदि) करने का महत्व ही क्या है? इसका उत्तर यह है कि हम उनकी कृपा पाने के लिए हाथ पर हाथ धरे अकर्मण्य तो नहीं हो सकते, हमें कुछ न कुछ तो करना ही होगा क्योंकि इस संसार में कोई भी बिना कार्य किए रह नहीं सकता। इसलिए अच्छा तो यही है कि हम उनकी कृपा पाने के लिये उचित योग्यता प्राप्त करने का उपाय अवश्य करें जिनके अनेक प्रकार मनीषियों ने समझाए हैं।

Thursday 10 October 2019

270 प्रशंसा की चाह: मानसिक बीमारी


 प्रशंसा की चाह: मानसिक बीमारी

अपनी प्रशंसा और उसके प्रसार में क्यों लगे रहना चाहिये, किसके लिये अपनी प्रशंसा? ये हरकतें तो धनलोलुप मसखरे भिखारियों की प्रवृत्ति है। वास्तव में जो मन का विज्ञान नहीं समझते हैं वे ही आत्मप्रशंसी होते हैं।
जब कोई व्यक्ति अपने अहं की तुष्टि के लिये अपने मन को केन्द्रित करने लगता है तो आशायें भंग होते ही कुंठायें अगल बगल में घिर जाती हैं जो घोर मानसिक कष्टों की जन्मदाता होती हैं। यही कारण है कि दूसरों के द्वारा प्रशंसा किये जाने पर घमंड तो आने ही लगता है, प्रशंसा करने वाले पर हम आश्रित हो जाते हैं  और जब प्रशंसा नहीं मिलती है तो मन पर आघात लगता है और असमानता की ओर प्रवृत्ति बढ़ जाती है। सबसे घातक परिणाम तो यह होता है कि इस प्रकार के लोग यह भूल जाते हैं कि ईश्वर ने बहुत ही सीमित शक्ति उन्हें दी है जिसे उनका उपहार न समझ घमंड से हम अपना मान लेते हैं और अपना ही विनाश आमंत्रित करते हैं। इसीलिये कहा गया है कि ‘‘अहंकारः पतनस्य मूलम्’’। वास्तव में यह भौतिकवाद की प्रशाखा ही है। वे जो भौतिकता को पाना ही जीवन का उद्देश्य बना बैठे हैं, वे ही इस प्रकार की मानसिक बीमारी से घिरे रहते हैं जो उन के मन में दिन रात प्रशंसा की चाह बनाये रखती है।
 इसलिये यदि किसी की प्रशंसा करना ही है तो ‘हरि’ की ही प्रशंसा करना चाहिये। परंतु यहाॅं  समाज की इस व्यंगात्मकता को ध्यान में रखना चाहिये कि महान कर्म करने वालों को उनके जीवन में समाज से कभी मान्यता नहीं मिलती उल्टा अपमान ही मिलता है। इसलिये समाज के हित में नया काम करने वाले ध्वज वाहकों को कभी इसकी चिंता नहीं करना चाहिये कि लोग उनकी निंदा करते हैं या स्तुति वरन् अपने काम में बिना किसी हिचक के आगे बढ़ते जाना चाहिये। वे जो आज निंदा करते हैं कल यही कहेंगे कि पूर्वजों ने कितना अच्छा रास्ता बनाया कि आज हम उस पर सरलता से चल पा रहे हैं।

Monday 7 October 2019

269 वेद वाक्य

 वेद वाक्य
नवीनतम शोध कहते हैं कि वैदिककाल में सेंट्रलएशिया और पूर्वीयूरोप से दक्षिणपूर्वएशिया में एकसमान भाषा बोली जाती थी। इस भाषा की एक शाखा जो दक्षिणपूर्व एशिया में बोली जाती थी वह ‘‘संस्कृत’’ और दूसरी शाखा जो उत्तरपूर्वीय भागों में बोली जाती थी वह ‘‘वैदिक’’ कहलाती थी। लोग वैदिक और संस्कृत को समानार्थी मानकर वेदों में कही गई बातों को अलग अलग अर्थ में समझने की भूल करते रहे हैं। वैदिक साहित्य में एक ही शब्द को अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया गया है तथा उपमा और रूपक अलंकारों में छंदबद्धता बनाए रखने के लिए उनमें देश, काल और पात्र (स्पेस, टाइम और पर्सन) के अनुसार समय समय पर विकृतियाॅं किए जाने से भी उनके अर्थ बदलते रहे हैं (क्योंकि प्रारंभिक काल में  वैदिक में व्याकरण का विशेषतः उपयोग नहीं होता था)। संस्कृत में व्याकरण के साथ सुसंगति होने के कारण यह दोष नहीं पाया जाता है इसलिए वैदिक साहित्य को समझने में यद्यपि संस्कृत सहायक है परन्तु शुद्ध वैदिक को तो उसी भाषा के नियमों से ही सही सही समझा जा सकता है।
ऋक् + क्विप =ऋक। वैदिक क्रिया ‘ऋक’ का अर्थ है, गीत से या सामान्य बातचीत से ‘ महिमामंडन करना ’ जबकि ‘‘ऋक’’ का संस्कृत में अर्थ है ‘स्तवन’ करना। प्राचीन समय में  लोग प्रकृति के विभिन्न रूपों को किसी न किसी देवता का खेल मानते थे अतः उन्होंने उनके लिए स्तवन या भजन करना प्रारंभ किया। जब उन्होंने उषा, इन्द्र, पर्जन्य, मातरिष्वा, वरुण आदि के भजन गाए तब उन्हें ‘साम’ कहा गया। उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था इसलिए शिष्य अपने गुरु से मौखिक शिक्षा को सुनकर ग्रहण किया करते थे इसलिए वेदों को श्रुति भी कहा जाता है ( श्रु+ क्तिन= श्रुति। क्रिया ‘श्रु’ का अर्थ है, सुनना।) सांसारिक जानकारी के लिए क्रिया ‘ज्ञा’ के स्थान पर ‘विद्’ का उपयोग किया जाता है। इसी क्रिया से ‘‘वेद, विद्या और विद्वान’’ शब्द बने हैं। इन विद्वानों के द्वारा कहे गए वाक्य ज्ञान के वचन थे अतः उन्हें जानकर तत्कालीन असंस्कृत लोग भी संस्कृति के प्रकाश की ओर बढ़ने लगे इसलिए उन्हें ‘वेद’ या ‘ज्ञान’ कहा गया। वेदों के सबसे पुराने भाग के प्रत्येक श्लोक को ‘ऋक’ कहा गया है, जब अनेक श्लोकों को एक साथ रखकर किसी विचार को प्रदर्शित किया जाता है तो उसे कहा गया है ‘सूक्त’  और अनेक सूक्तों को संग्रहित कर बनाया गया है ‘मंडल’ ।
ऋग्वेद को प्राचीनकाल में प्रमुख वेद माना जाता था केवल इसलिए नहीं कि वह सबसे पुराना था वरन् इसलिए कि वैदिकदीक्षा ऋग्वेद के सावित्र ऋक पर न्यूनाधिक रूप से आधारित थी यद्यपि आध्यात्मिक साधक के लिए भौतिक संसार और आध्यात्मिक संसार में संतुलन बनाए रखकर आगे बढ़ने के क्षेत्र में सहायक होने के दृष्टिकोण से यजुर्वेद, ऋग्वेद का अतिक्रमण कर जाता है। यजुर्वेद में शब्दों का उच्चारण और ध्वनि विज्ञान, ऋग्वेद से बिलकुल भिन्न है। यजुर्वेद, विद्यातन्त्र के अधिक निकट है और अथर्व भी लगभग हर पद पर विद्यातन्त्र से मिश्रित पाया जाता है। हजारों वर्षों के यात्राकाल में वेदों के मंत्र किस प्रकार विकृत हुए हैं उन्हें निम्नांकित उदाहरण से समझाया जा सकता है-
एक वेद कहता है,
‘‘सहस्त्र शीर्षा पुरुषाः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात, 
सा भूमिर्विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्।’’
दूसरे वेद में मंत्र की पहली लाइन वही है दूसरी इस प्रकार कही गई है 
‘‘ सा भूमिम् सर्वतो स्पृत्वा अत्यतिष्ठद्दशागुलम्।’’
तीसरे वेद में भी पहली लाइन वही है दूसरी इस प्रकार पायी जाती है, ‘‘सर्वतोवृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्।’’
इस प्रकार यदि इस मंत्र के शाब्दिक अर्थ ही लिए जाएं, जैसा कि प्रायः व्याख्याकार करते हैं, तो अर्थ का अनर्थ होना स्वाभाविक है। उपमा और रूपक अलंकारों के आधार पर भी उनके अर्थ को न समझा जाए तो सब कुछ गड़बड़ हो जाता है। समय के अनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के उच्चारण भी बदलते गए हैं। शब्दों के बदल जाने से उनके अर्थ, उच्चारण और प्रभाव भी बदल जाते हैं। वर्तमान में अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग उच्चारण की पृथा प्रचलित है जैसे, बंगाल में यजुर्वेदीय और गुजरात में ऋग्वेदिक। पूर्वोक्त श्लोक का शाब्दिक अर्थ प्रायः यह किया जाता है, 
‘वह परमपुरुष जिसके हजारों सिर, आँख  और पैर हैं इस धरती सहित पूरे विश्व को अपनी दसों अंगुलियों में समेटे हुए है।’ 
दूसरे श्लोक में यही अर्थ ‘वह परमपुरुष जिसके हजारों सिर, आँख और पैर हैं इस धरती  को अपनी दसों अंगुलियों से स्पर्श किए हुए है’ हो जाता है।
और तीसरे श्लोक में ‘वह परमपुरुष जिसके हजारों सिर, आँख  और पैर हैं सबको अपनी दसों अंगुलियों में समेटे हुए है’ हो जाता है।
विद्यातंत्र विज्ञान में यही बात रूपक में कहे गए व्यापक भाव को व्यावहारिक आधार पर इस प्रकार समझाई गई है ‘‘वह सर्वव्याप्त, सर्वज्ञाता और सर्वशक्तिमान परमसत्ता जो अपने भीतर समस्त ब्रह्माण्डों  को समेटे हुए है वह हमारी त्रिकुटी ( अर्थात् आज्ञा चक्र) से दस अंगुल दूर (अर्थात् सहस्त्रार चक्र पर) पाया जाता है।’’ 
विद्यातंत्र विज्ञान में हमारे शरीर में ही त्रिकुटी से नीचे के भाग को ‘अपरा’ और उससे ऊपर के भाग को पराविद्या का क्षेत्र माना गया है। अतः परमसत्ता को साक्षीसत्ता के रूप में सहस्त्रार चक्र में ध्यान करने की यौगिक विधियों से साक्षात्कार करने का सुझाव दिया जाता है। 
यथार्थतः विद् को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है, एक ‘पराविद्या’ और दूसरा ‘अपराविद्या’। पराविद्या ज्ञान की वह शाखा है जिसमें विश्लेषण द्वारा अनन्त से सीमित या सान्त तक और संश्लेषण द्वारा सान्त से अनन्त तक का ज्ञान कराया जाता है। यह शाखा व्यक्ति को ‘आत्मज्ञान’ की स्वर्णिम रेखा तक ले जाती है जो सांसारिक ज्ञान और आत्मज्ञान के बीच विभाजक रेखा होती है। इस रेखा के उस पार ही सर्व ज्ञानात्मक सत्ता का चिन्तन हो पाता है। 
पराविद्या में चार चरण होते हैं, पहले चरण में व्यापक अध्ययन के द्वारा संबंधित सभी शंकाओं को दूर करती है दूसरे चरण में आन्तरिक और वाह्य विचारों पर ज्ञान का सदुपयोग करने के लिए विवेकपूर्ण विश्लेषण करने की पद्धति सिखाती है। तीसरे स्तर पर परिप्रश्न द्वारा आध्यात्मिक आदर्श को दृढ़ करती है और चौथे  स्तर पर परमसत्ता के प्रति आत्मसमर्पण करना सिखाती है। 
अपराविद्या में केवल तीन चरण होेते हैं, पहले चरण में व्यापक अध्ययन के द्वारा संबंधित सभी शंकाओं को दूर करती है जिससे संसार का कल्याण कर सकें, दूसरे स्तर पर प्राप्त किए गए ज्ञान का विवेकपूर्ण विश्लेषण करना, तीसरे स्तर पर प्राप्त ज्ञान के सारतत्व को संसार के कल्याण के लिए प्रयुक्त करने हेतु आवश्यक विधियों की खोज करने को प्रेरित करती है। स्पष्ट है कि पराविद्या एक कदम आगे जाकर मोक्ष का रास्ता खोलती है जिसमें आत्मज्ञान की आवश्यकता होती है।
निष्कर्ष यह है कि संस्कृत में कही गई सभी बातें वेद वाक्य नहीं हैं और न ही वेद की सभी ऋचाएं निर्दोष। हमें वेदों में वर्णित ब्रह्मविज्ञान को समझने के लिए वैदिक और संस्कृत का प्रारंभिक ज्ञान तो होना ही चाहिए तथा वेदों के उपसंहारक भाग ‘उपनिषदों’ के भीतर उसे खोजकर विद्यातंत्रविज्ञान के माध्यम से व्यावहारिक विधियों को समझकर तर्क और विज्ञान के सहारे स्वविवेक से निर्णय लेना चाहिए।