271 ओत योग और प्रोत योग
निर्पेक्ष परमसत्ता एक ही है दूसरी नहीं हो सकती। उसकी इस अद्वितीयता के कारण ही उसे बहुत बड़ा या ब्रह्म कहते हैं। कहा जाता है कि सभी कुछ उन्हीं एक से उत्पन्न हुआ है, उन्हीं में स्थित है और अंत में उन्हीं में लय हो जाता है। अपनी वैचारिक तरंगों को मूर्त रूप देने के समय उन्हें ‘ब्रह्मा’, पालन करते समय ‘विष्णु’ और अपने में लय करते समय ‘महेश’ के नाम से विद्वानों के द्वारा वर्णित किया जाता है। पुराणकार ने उन्हें अपनी कल्पना के अनुसार आकार भी दे डाले हैं परन्तु अपनी क्रियात्मक शक्ति से निर्माण, पालन और अन्त करने के समय उसकी ‘सगुणता या सापेक्षिकता’ इस ब्रह्माण्ड के रूप में ही देखी जाती है। उनकी इन समस्त गतिविधियों को दार्शनिक गण ‘‘ब्रह्मचक्र’’ कहते हैं। यथार्थतः यह किसी भी प्रकार से उस परमसत्ता से भिन्न नहीं है वरन् उन्हीं के विराट मन के भीतर ही स्थित है। वह निर्पेक्ष सत्य है तो उनकी यह सृष्टि सापेक्षिक सत्य है न कि मिथ्या, जैसा कि कुछ विद्वान कहते रहे हैं। यही कारण है कि वह अपनी प्रत्येक छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी रचना का व्यक्तिशः और सामूहिक रूप से ज्ञान रखते हैं उन्हें कहीं से कहीं जाना नहीं पड़ता, उनका बहिःकरण नहीं है सभी कुछ उनका अन्तःकरण ही है। किसी भी चिन्तनशील व्यक्ति के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वह परमसत्ता इस विराट विश्व या जगत या ब्रह्माण्ड के प्रत्येक अस्तित्व को किस प्रकार अपने संपर्क में रखते हैं और किस प्रकार उनका ज्ञान रख पाते हैं? वेदों में इसे ‘ओतयोग’ और ‘प्रोतयोग’ के नाम से समझाया गया है।
ओतयोग को दार्शनिक नाम ‘व्यष्टिभाव’(individual association) और प्रोतयोग को दार्शनिक नाम ‘समष्टिभाव’(collective association) दिया गया है। व्यष्टिभाव की तीन अवस्थाएं क्रमशः जाग्रत (या स्थूल) स्वप्न (या सूक्ष्म) और सुषुप्ति (या कारण) बताई गईं है जिनके बीज क्रमशः विश्व, तैजस् और प्राज्ञ कहलाते हैं। समष्टिभाव को चार अवस्थाओं क्रमशः क्षीरसागर (या क्षीरोब्धि) गर्भोदक, कारणार्णव और तुरीय कहा गया है तथा इनके बीज क्रमशः विराट, हिरण्यगर्भ, ईश्वर (या सूत्रेश्वर) और ईश्वरग्रास कहलाते हैं।
इस प्रकार वह परमसत्ता अपने ओतयोग और प्रोतयोग से व्यक्तिशः और सामूहिक रूप से सदा ही जुड़े रहते हैं जबकि अन्य सभी दर्शनों में उन्हें पृथक कहीं अन्यत्र सातवें आकाश का निवासी और हम सबका दंडाधिकारी बताकर डराया गया है। स्पष्ट है कि जब हमसब उन्हीं के विराट मन की तरंगों के छोटे छोटे भाग हैं तो उनसे डरकर पृथक रहकर उन्हें जानने समझने का प्रयास कैसे कर सकते हैं। उन्हें जानने के लिए तो हमें उनसे पृथकता की भावना को त्यागना ही होगा और परमपिता होने के कारण उनसे निर्पेक्ष प्रेम करना होगा अन्यथा हम उनसे दूर दूर ही बने रहेंगे और यह दूरी बढ़ती ही जाएगी। उन्हें जानने और अनुभव करने के लिए हमें उस केन्द्र की ओर जाना होगा जहाॅं से हमारी तरंग का उद्गम हुआ है, न कि परिधि की ओर। उपनिषदें भी कहती हैं कि ब्रह्माण्ड के सभी अस्तित्व अपने अपने स्वनिर्मित लक्ष्य और आजीविका को पाने के लिए इस ब्रह्मचक्र में भटक रहे हैं परन्तु उन्हें अपने मूल लक्ष्य अर्थात् परमत्ता (या अमरत्व) की प्राप्ति तबतक नहीं हो सकती जबतक वे अपने को उस उत्पन्नकर्ता से पृथक मानते रहेंगे।
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते, अस्मिन हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे।
पृथगात्मानं प्रेरितारं चा मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति।(श्वेताश्वर 1/6)
कुछ विद्वानों का मत है कि उन्हें पाना उनकी कृपा के बिना सम्भव ही नहीं है। इस पर कुछ लोग तर्क देते हैं कि जब उनकी कृपा से ही उन्हें पाया जा सकता है तो हमारे किसी भी उपाय (साधना, भजन, ध्यान, चिन्तन आदि) करने का महत्व ही क्या है? इसका उत्तर यह है कि हम उनकी कृपा पाने के लिए हाथ पर हाथ धरे अकर्मण्य तो नहीं हो सकते, हमें कुछ न कुछ तो करना ही होगा क्योंकि इस संसार में कोई भी बिना कार्य किए रह नहीं सकता। इसलिए अच्छा तो यही है कि हम उनकी कृपा पाने के लिये उचित योग्यता प्राप्त करने का उपाय अवश्य करें जिनके अनेक प्रकार मनीषियों ने समझाए हैं।
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