अमृतत्व
याज्ञवल्क्य जी को ‘‘ब्रह्म विद्या’’ के विषयों पर शास्त्रार्थ में कोई पराजित नहीं कर पाया, सभी समकालीन विद्वान ऋषियों मुनियों ने अपनी अपनी पराजय उनके समक्ष स्वीकार कर ली थी। अपनी आयु के अन्तिम भाग में संन्नयास लेने की इच्छा से उन्होंने अपने अर्जित धन को दोनों पत्नियों ‘कात्यायनी’ और ‘मैत्रेयी’ में बाॅंट देने हेतु उन दोनों की इच्छाएं/ आवश्यकताएं जानना चाही। कात्यायनी ने अपनी आवश्यकताओं की लम्बी सूची उन्हें दे दी, पर मैत्रेयी ने पूछा,
‘‘यदि पृथ्वी का सभी सोना और कीमती वस्तुएं मुझे मिल जाएं तो क्या मैं अमर हो सकती हॅूं?’’
याज्ञवल्क्य बोले, ‘‘नहीं, जैसा भोग सामग्री से सम्पन्न लोगों का जीवन होता है वैसा ही तुम्हारा हो जाएगा, धन से अमृतत्व की आशा की जाना निरर्थक है।’’
‘‘ येनाहम नामृतत्स्याम् तेनाहम किम कुर्याम्?’’अर्थात्, जिसे लेकर मैं अमर नहीं हो सकती उसका मैं क्या करूंगी? इस धन के स्थान पर आप जो भी अमृतत्व का साधन जानते हैं वही मुझे दे दीजिए’’ मैत्रेयी बोली।
‘‘ बहुत अच्छा, मैत्रेयी! तुम मेरी इस व्याख्या पर चिन्तन करना’’ याज्ञवल्क्य ने प्रसन्न होकर कहा।
‘‘ मैत्रेयी! पति के प्रयोजन के लिए पति प्रिय नहीं होता, अपने ही प्रयोजन के लिए पति प्रिय होता है; स्त्री के प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिया नहीं होती अपने ही प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिया होती है; पुत्रों के प्रयोजन के लिए पुत्र प्रिय नहीं होते अपने ही प्रयोजन के लिए पुत्र प्रिय होते हैं; धन के प्रयोजन के लिए धन प्रिय नहीं होता अपने ही प्रयोजन के लिए धन प्रिय होता है; सबके प्रयोजन के लिए सब प्रिय नहीं होते अपने प्रयोजन के लिए ही सब प्रिय होते हैं। अतः मैत्रेयी! आत्मा (अर्थात् अपना आप) ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और निदिध्यासन (ध्यान) करने योग्य है, इससे भिन्न कुछ नहीं है, यह दृश्य और अदृश्य सभी कुछ आत्मा ही है, इसका ज्ञान हो जाने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है, अप्राप्त भी प्राप्त हो जाता है।’’
‘‘ भगवन्! मुझे कुछ समझ में नहीं आया’’ मैत्रेयी बोली।
इस पर याज्ञवल्क्य ने अनेक उदाहरण देकर यह समझाया कि किसी भी घटना या तथ्य को अधबीच में पकड़ने का प्रयास विफल होता है परन्तु उसके श्रोत को पकड़ लेने पर सभी कुछ पकड़ में आ जाता है। परन्तु मैत्रेयी बार बार यही कहती रही कि उसे विशेषतः कुछ समझ में नहीं आया।
इस पर याज्ञयवल्क्य बोले, ‘‘ जिस प्रकार नमक का टुकड़ा भीतर बाहर सब ओर से केवल नमकीन रस का ही घनीभूत रूप है उसी प्रकार आत्मा भी भीतर बाहर के भेद से रहित सम्पूर्ण प्रज्ञानघन ही है। यह अपने ही गुणरूपों अर्थात् अन्य भौतिक पदार्थों के साथ मिलकर विशेष प्रकार से अनेक आकारों प्रकारों में रूपान्तरित होता रहता है।’’
‘‘ भगवन्! मुझे फिर भी कुछ समझ में नहीं आया’’ मैत्रेयी बोली।
याज्ञयवल्क्य बोले, ‘‘अविद्या के प्रभाव से उसमें द्वैत और आकार प्रकार आभासित होते हैं इसी कारण अन्य अन्य को देखता है, सूंघता है, रसास्वादन करता है, अभिवादन करता है, सुनता है, मनन करता है, स्पर्श करता है। परन्तु जब सब कुछ में आत्मा की ही अनुभूति होने लगती है तब कौन किसको किसके द्वारा देखे, सुने, मनन करे, स्पर्श करे या जाने ? जिसके द्वारा यह सब कुछ जाना जाता है उसे किस साधन के द्वारा जाना जाय? उसे ‘नेति नेति’ कहा गया है उसे ग्रहण नहीं किया जा सकता , उसे नष्ट नहीं किया जा सकता, वह व्यथित और क्षीण भी नहीं होता। मैत्रेयी! विज्ञाति के विज्ञाता को किसके द्वारा जाना जाय? मति के मन्ता का मनन कैसे किया जाय? दृष्टि के दृष्टा को कैसे देखा जाय? श्रुति के श्रोता का श्रवण कैसे किया जाय? इन तथ्यों पर चिन्तन करना यही अमृतत्व है।’’
ऋषि याज्ञवल्क्य के द्वारा इस संबंध में इसी प्रकार के दिए गए अनेक उद्धरण और तत्सम्बंधी व्याख्याओं के आधार पर ही ‘‘राजयोग’’ का नया मार्ग बना। ऋषि अष्टावक्र ने मानव शरीर के भीतर स्थित ऊर्जा केन्द्रों को आधार बनाकर इन्हीं उद्धरणों को व्यावहारिक रूप देने की पद्धतियों का विवरण ‘अष्टावक्र संहिता’ में दिया है जो कालान्तर में ‘‘राजाधिराज योग’’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है।
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