Thursday 10 October 2019

270 प्रशंसा की चाह: मानसिक बीमारी


 प्रशंसा की चाह: मानसिक बीमारी

अपनी प्रशंसा और उसके प्रसार में क्यों लगे रहना चाहिये, किसके लिये अपनी प्रशंसा? ये हरकतें तो धनलोलुप मसखरे भिखारियों की प्रवृत्ति है। वास्तव में जो मन का विज्ञान नहीं समझते हैं वे ही आत्मप्रशंसी होते हैं।
जब कोई व्यक्ति अपने अहं की तुष्टि के लिये अपने मन को केन्द्रित करने लगता है तो आशायें भंग होते ही कुंठायें अगल बगल में घिर जाती हैं जो घोर मानसिक कष्टों की जन्मदाता होती हैं। यही कारण है कि दूसरों के द्वारा प्रशंसा किये जाने पर घमंड तो आने ही लगता है, प्रशंसा करने वाले पर हम आश्रित हो जाते हैं  और जब प्रशंसा नहीं मिलती है तो मन पर आघात लगता है और असमानता की ओर प्रवृत्ति बढ़ जाती है। सबसे घातक परिणाम तो यह होता है कि इस प्रकार के लोग यह भूल जाते हैं कि ईश्वर ने बहुत ही सीमित शक्ति उन्हें दी है जिसे उनका उपहार न समझ घमंड से हम अपना मान लेते हैं और अपना ही विनाश आमंत्रित करते हैं। इसीलिये कहा गया है कि ‘‘अहंकारः पतनस्य मूलम्’’। वास्तव में यह भौतिकवाद की प्रशाखा ही है। वे जो भौतिकता को पाना ही जीवन का उद्देश्य बना बैठे हैं, वे ही इस प्रकार की मानसिक बीमारी से घिरे रहते हैं जो उन के मन में दिन रात प्रशंसा की चाह बनाये रखती है।
 इसलिये यदि किसी की प्रशंसा करना ही है तो ‘हरि’ की ही प्रशंसा करना चाहिये। परंतु यहाॅं  समाज की इस व्यंगात्मकता को ध्यान में रखना चाहिये कि महान कर्म करने वालों को उनके जीवन में समाज से कभी मान्यता नहीं मिलती उल्टा अपमान ही मिलता है। इसलिये समाज के हित में नया काम करने वाले ध्वज वाहकों को कभी इसकी चिंता नहीं करना चाहिये कि लोग उनकी निंदा करते हैं या स्तुति वरन् अपने काम में बिना किसी हिचक के आगे बढ़ते जाना चाहिये। वे जो आज निंदा करते हैं कल यही कहेंगे कि पूर्वजों ने कितना अच्छा रास्ता बनाया कि आज हम उस पर सरलता से चल पा रहे हैं।

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