Monday, 28 October 2019

273 स्वामिनी

273
स्वामिनी

तुझे पुकारते हैं बार बार,
चाहते हैं इतना, कि
तेरे पीछे पीछे भागते हैं।

अपने अपने ढंग से पूजते,
आरती उतारते,
ये नर,
तुझे अपना बनाने की चाह में क्या क्या नहीं करते।

जबकि तू !
नारायण के सिवा किसी की नहीं।

चंचला तेरा नाम ललचाना तेरा काम,
तेरे कटाक्ष से घायल हुए,
ये,
हर क्षण रटते हैं तेरा ही नाम।

अपने अपने घरों में तुझे बंद करने के इच्छुक,
अगरबत्ती की सुगंध स्वयं ही सूंघते हैं!
और,
तुझको रिझाने की करते हैं कामना?

मेवे मिठाइयों का स्वाद लेते हैं खुद ही!
और,
कहते हैं ये है प्रसाद की अर्पणा?

रत्नाकर तेरा घर,
गृहपति परमेश्वर!
फिर भी ये सब अपहृत कर तुझको,
रेत के घरों को बता अपना...
तुझे स्वामिनी बनाने का संकल्प ठाने,
ध्वनि और धुएं का प्रदूषण फैलाकर
लगे हैं प्रकृति की धरोहर मिटाने!!

इन कृत्यों से कुंठित हो,
नारायण ने ली राह आज ही वैकुंठ की,
अब श्रीहीन धरती पर,
लक्ष्य रहित मानव,
किस कारण से खुश हो दीवाली मनाते हैं?

डा टी आर शुक्ल, सागर।
25 अक्टूबर 2003

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