वेद वाक्य
नवीनतम शोध कहते हैं कि वैदिककाल में सेंट्रलएशिया और पूर्वीयूरोप से दक्षिणपूर्वएशिया में एकसमान भाषा बोली जाती थी। इस भाषा की एक शाखा जो दक्षिणपूर्व एशिया में बोली जाती थी वह ‘‘संस्कृत’’ और दूसरी शाखा जो उत्तरपूर्वीय भागों में बोली जाती थी वह ‘‘वैदिक’’ कहलाती थी। लोग वैदिक और संस्कृत को समानार्थी मानकर वेदों में कही गई बातों को अलग अलग अर्थ में समझने की भूल करते रहे हैं। वैदिक साहित्य में एक ही शब्द को अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया गया है तथा उपमा और रूपक अलंकारों में छंदबद्धता बनाए रखने के लिए उनमें देश, काल और पात्र (स्पेस, टाइम और पर्सन) के अनुसार समय समय पर विकृतियाॅं किए जाने से भी उनके अर्थ बदलते रहे हैं (क्योंकि प्रारंभिक काल में वैदिक में व्याकरण का विशेषतः उपयोग नहीं होता था)। संस्कृत में व्याकरण के साथ सुसंगति होने के कारण यह दोष नहीं पाया जाता है इसलिए वैदिक साहित्य को समझने में यद्यपि संस्कृत सहायक है परन्तु शुद्ध वैदिक को तो उसी भाषा के नियमों से ही सही सही समझा जा सकता है।
ऋक् + क्विप =ऋक। वैदिक क्रिया ‘ऋक’ का अर्थ है, गीत से या सामान्य बातचीत से ‘ महिमामंडन करना ’ जबकि ‘‘ऋक’’ का संस्कृत में अर्थ है ‘स्तवन’ करना। प्राचीन समय में लोग प्रकृति के विभिन्न रूपों को किसी न किसी देवता का खेल मानते थे अतः उन्होंने उनके लिए स्तवन या भजन करना प्रारंभ किया। जब उन्होंने उषा, इन्द्र, पर्जन्य, मातरिष्वा, वरुण आदि के भजन गाए तब उन्हें ‘साम’ कहा गया। उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था इसलिए शिष्य अपने गुरु से मौखिक शिक्षा को सुनकर ग्रहण किया करते थे इसलिए वेदों को श्रुति भी कहा जाता है ( श्रु+ क्तिन= श्रुति। क्रिया ‘श्रु’ का अर्थ है, सुनना।) सांसारिक जानकारी के लिए क्रिया ‘ज्ञा’ के स्थान पर ‘विद्’ का उपयोग किया जाता है। इसी क्रिया से ‘‘वेद, विद्या और विद्वान’’ शब्द बने हैं। इन विद्वानों के द्वारा कहे गए वाक्य ज्ञान के वचन थे अतः उन्हें जानकर तत्कालीन असंस्कृत लोग भी संस्कृति के प्रकाश की ओर बढ़ने लगे इसलिए उन्हें ‘वेद’ या ‘ज्ञान’ कहा गया। वेदों के सबसे पुराने भाग के प्रत्येक श्लोक को ‘ऋक’ कहा गया है, जब अनेक श्लोकों को एक साथ रखकर किसी विचार को प्रदर्शित किया जाता है तो उसे कहा गया है ‘सूक्त’ और अनेक सूक्तों को संग्रहित कर बनाया गया है ‘मंडल’ ।
ऋग्वेद को प्राचीनकाल में प्रमुख वेद माना जाता था केवल इसलिए नहीं कि वह सबसे पुराना था वरन् इसलिए कि वैदिकदीक्षा ऋग्वेद के सावित्र ऋक पर न्यूनाधिक रूप से आधारित थी यद्यपि आध्यात्मिक साधक के लिए भौतिक संसार और आध्यात्मिक संसार में संतुलन बनाए रखकर आगे बढ़ने के क्षेत्र में सहायक होने के दृष्टिकोण से यजुर्वेद, ऋग्वेद का अतिक्रमण कर जाता है। यजुर्वेद में शब्दों का उच्चारण और ध्वनि विज्ञान, ऋग्वेद से बिलकुल भिन्न है। यजुर्वेद, विद्यातन्त्र के अधिक निकट है और अथर्व भी लगभग हर पद पर विद्यातन्त्र से मिश्रित पाया जाता है। हजारों वर्षों के यात्राकाल में वेदों के मंत्र किस प्रकार विकृत हुए हैं उन्हें निम्नांकित उदाहरण से समझाया जा सकता है-
एक वेद कहता है,
‘‘सहस्त्र शीर्षा पुरुषाः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात,
सा भूमिर्विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्।’’
दूसरे वेद में मंत्र की पहली लाइन वही है दूसरी इस प्रकार कही गई है
‘‘ सा भूमिम् सर्वतो स्पृत्वा अत्यतिष्ठद्दशागुलम्।’’
तीसरे वेद में भी पहली लाइन वही है दूसरी इस प्रकार पायी जाती है, ‘‘सर्वतोवृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्।’’
इस प्रकार यदि इस मंत्र के शाब्दिक अर्थ ही लिए जाएं, जैसा कि प्रायः व्याख्याकार करते हैं, तो अर्थ का अनर्थ होना स्वाभाविक है। उपमा और रूपक अलंकारों के आधार पर भी उनके अर्थ को न समझा जाए तो सब कुछ गड़बड़ हो जाता है। समय के अनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के उच्चारण भी बदलते गए हैं। शब्दों के बदल जाने से उनके अर्थ, उच्चारण और प्रभाव भी बदल जाते हैं। वर्तमान में अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग उच्चारण की पृथा प्रचलित है जैसे, बंगाल में यजुर्वेदीय और गुजरात में ऋग्वेदिक। पूर्वोक्त श्लोक का शाब्दिक अर्थ प्रायः यह किया जाता है,
‘वह परमपुरुष जिसके हजारों सिर, आँख और पैर हैं इस धरती सहित पूरे विश्व को अपनी दसों अंगुलियों में समेटे हुए है।’
दूसरे श्लोक में यही अर्थ ‘वह परमपुरुष जिसके हजारों सिर, आँख और पैर हैं इस धरती को अपनी दसों अंगुलियों से स्पर्श किए हुए है’ हो जाता है।
और तीसरे श्लोक में ‘वह परमपुरुष जिसके हजारों सिर, आँख और पैर हैं सबको अपनी दसों अंगुलियों में समेटे हुए है’ हो जाता है।
विद्यातंत्र विज्ञान में यही बात रूपक में कहे गए व्यापक भाव को व्यावहारिक आधार पर इस प्रकार समझाई गई है ‘‘वह सर्वव्याप्त, सर्वज्ञाता और सर्वशक्तिमान परमसत्ता जो अपने भीतर समस्त ब्रह्माण्डों को समेटे हुए है वह हमारी त्रिकुटी ( अर्थात् आज्ञा चक्र) से दस अंगुल दूर (अर्थात् सहस्त्रार चक्र पर) पाया जाता है।’’
विद्यातंत्र विज्ञान में हमारे शरीर में ही त्रिकुटी से नीचे के भाग को ‘अपरा’ और उससे ऊपर के भाग को पराविद्या का क्षेत्र माना गया है। अतः परमसत्ता को साक्षीसत्ता के रूप में सहस्त्रार चक्र में ध्यान करने की यौगिक विधियों से साक्षात्कार करने का सुझाव दिया जाता है।
यथार्थतः विद् को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है, एक ‘पराविद्या’ और दूसरा ‘अपराविद्या’। पराविद्या ज्ञान की वह शाखा है जिसमें विश्लेषण द्वारा अनन्त से सीमित या सान्त तक और संश्लेषण द्वारा सान्त से अनन्त तक का ज्ञान कराया जाता है। यह शाखा व्यक्ति को ‘आत्मज्ञान’ की स्वर्णिम रेखा तक ले जाती है जो सांसारिक ज्ञान और आत्मज्ञान के बीच विभाजक रेखा होती है। इस रेखा के उस पार ही सर्व ज्ञानात्मक सत्ता का चिन्तन हो पाता है।
पराविद्या में चार चरण होते हैं, पहले चरण में व्यापक अध्ययन के द्वारा संबंधित सभी शंकाओं को दूर करती है दूसरे चरण में आन्तरिक और वाह्य विचारों पर ज्ञान का सदुपयोग करने के लिए विवेकपूर्ण विश्लेषण करने की पद्धति सिखाती है। तीसरे स्तर पर परिप्रश्न द्वारा आध्यात्मिक आदर्श को दृढ़ करती है और चौथे स्तर पर परमसत्ता के प्रति आत्मसमर्पण करना सिखाती है।
अपराविद्या में केवल तीन चरण होेते हैं, पहले चरण में व्यापक अध्ययन के द्वारा संबंधित सभी शंकाओं को दूर करती है जिससे संसार का कल्याण कर सकें, दूसरे स्तर पर प्राप्त किए गए ज्ञान का विवेकपूर्ण विश्लेषण करना, तीसरे स्तर पर प्राप्त ज्ञान के सारतत्व को संसार के कल्याण के लिए प्रयुक्त करने हेतु आवश्यक विधियों की खोज करने को प्रेरित करती है। स्पष्ट है कि पराविद्या एक कदम आगे जाकर मोक्ष का रास्ता खोलती है जिसमें आत्मज्ञान की आवश्यकता होती है।
निष्कर्ष यह है कि संस्कृत में कही गई सभी बातें वेद वाक्य नहीं हैं और न ही वेद की सभी ऋचाएं निर्दोष। हमें वेदों में वर्णित ब्रह्मविज्ञान को समझने के लिए वैदिक और संस्कृत का प्रारंभिक ज्ञान तो होना ही चाहिए तथा वेदों के उपसंहारक भाग ‘उपनिषदों’ के भीतर उसे खोजकर विद्यातंत्रविज्ञान के माध्यम से व्यावहारिक विधियों को समझकर तर्क और विज्ञान के सहारे स्वविवेक से निर्णय लेना चाहिए।
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