Wednesday 14 September 2022

391स्पेस और टाइम

 जब परमपुरुष के विचारों को मूर्तरूप देने के लिए उनके नाभिक अर्थात् कॉस्मिक न्युक्लियस, से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बॉंधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप, विशेष आकार पाता है। (ध्यान रहे, इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, ‘‘काल’’ Eternal Time Factor के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे ‘कालिकाशक्ति’ दार्शनिक नाम दिया गया है।) इस प्रकार टाइम और स्पेस के बनने के साथ ही निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई जिसमें ब्लेक होल, गैलेक्सियॉं, तारे, नक्षत्र और जीव जगत क्रमागत रूप से आए । ब्राह्मिक मन पर उसकी क्रियात्मक शक्ति, जिसे प्रकृति कहा जाता है, जब सृष्टि, स्थिति और लय की तरंगे ( अर्थात् ब्रह्मॉंड के निर्माण करने के समय ) उत्पन्न करती हैं, उसे वेदों में ‘‘ओंकार ध्वनि’’ के नाम से जाना जाता है। इसमें ‘उत्पत्ति’, ‘पालन’ और ‘संहार’ तीनों सम्मिलित हैं इसलिए इसे ‘‘कास्मिक साउंड आफ क्रिएशन’’ कहा जाता है और दार्शनिक भाषा में ‘ अनहद या अनाहत नाद’ या ‘प्रणव’। इसकी अनेक आवृत्तियों में से मानव कानों की श्रव्यसीमा में आने वाली ध्वनि तरंगें विश्लेषित करने पर पचास प्रकार की पाई जाती हैं जिन्हें ‘काल’ अर्थात् ‘समय का वर्णक्रम’ कहा जाता है । परन्तु , इन्हें स्वर ‘अ‘ से प्रारंभ (निर्माण का बीज मंत्र) और व्यंजन ‘म‘ (समाप्ति का बीज मंत्र) में अंत मानकर काल को ‘अखंड’ रूप में प्रकट करने के लिये अथर्ववेदकाल में भद्रकाली की कल्पना कर उसके हाथ में ‘अ‘ उच्चारित करता मानव मुॅंह बनाया गया, अन्य स्वरों और व्यॅंजनों में से प्रत्येक के एक एक मुॅंह बनाकर शेष 49 अक्षरों के मुॅंहों की माला, भद्रकाली को पहनाई गई और कालचक्र पूरा किया गया। यद्यपि अथर्ववेदकाल में लिखना पढ़ना लोगों ने सीख लिया था परंतु वेदों के लिखने पर प्रतिबंध था अतः पूर्वोक्त मानव मुॅंहों को ही वर्णमाला/अक्षमाला का प्रतिनिधि उदाहरण माना गया क्योंकि उच्चारण मुॅंह से ही किया जाता है। और, पौराणिक काल में इसे काल्पनिक कालीदेवी से जोड़कर वीभत्स ढंग से प्रस्तुत किया गया और मूल सिद्धान्त को तिलॉंजलि दे दी गई।

390 मानसिक बीमारियॉं

  

इस युग में विज्ञान की प्रगति से अनेक क्षेत्रों में सुविधाएं प्राप्त हुई हैं परन्तु मनुष्य की मानसिक और आध्यात्मिक प्रगति पिछड़ गई है। मानसिक समस्याएं और तनाव लगातार बढ़ रहे हैं। यही कारण है कि नर्व, ब्रेन,  और हार्ट सम्बंधी बीमारियों के रोगी बढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं एंक्जाइटी, नर्वसनैस, और इनसेनिटी ने समाज में अपना व्यापक प्रसार कर लिया है। इनसे बचने का उपाय यह है कि कार्य कते हुए मनुष्य यह सोचे कि यह कार्य परमपुरुष का कार्य है, मेरा नहीं और मैं यह कार्य उन्हें प्रसन्नता देनें के लिए कर रहा हॅूं। इस प्रकार की भावना रखने पर तनाव, नर्वसनैस और मानसिक बीमारियॉं कभी पनप ही नहीं पाएंगी। इतना ही नहीं संस्कार भी नहीं बन पाएंगे।