Friday 16 October 2020

347 शास्त्र

 

यह सार्वभौमिक रूप से सभी युगों में, सभी स्तरों पर स्वीकार किया जाता रहा है कि धर्म ही मनुष्य जीवन की मुख्य धारा है। जीवधारियों की वही जीवनी शक्ति है, यही नहीं वह उनकी जीवन यात्रा का मार्गदर्शक और धन का स्रोत है। शब्द के व्यापक अर्थ में सभी सजीव या निर्जीव पदार्थों, सबका  अपना अपना धर्म होता है अर्थात् धर्म उस पदार्थ के अस्तित्व को प्रकट करता है। उसके संकीर्ण अर्थ में निर्जीव पदार्थों में धर्म का प्राकट्य कम और सजीवों में अधिक होता है। मनुष्यों में मानवेतर प्राणियों के धर्म का जन्मजात समावेश रहता है परंतु मानवों का धर्म इससे बहुत अधिक होता है वह जीवन के प्रत्येक पहलु में प्रविष्ठ रहता है। इसलिये धर्म वास्तव में नियंत्रक और सच्चा मार्गदर्शक होता है, प्रेरक बल और मनुष्यों का रक्षक होता है, वह एक उत्तम और व्यापक आदर्श होता है जो मानव जीवन के हर पहलु का निश्चित, साहसी और स्पष्ट दिशा निर्देश देता हैं, न केवल व्यक्तिगत दिनचर्या का वरन् उसकी समग्र क्रियाओं और प्रेरकों के संबंध में आध्यात्मिक प्रेरणा भी देता है जो उसे ईश्वर के निकटतर लाने में सहायक होता है। सच्चे धर्म शास्त्र वही हैं जिनमें इन सभी शर्तों का समावेश होता है और ‘‘शासनात् तारयेत यस्तु सः शास्त्रः परिकीर्तितः’’ की परिभाषा से पारिभाषित होते है। अन्य धर्मग्रंथ जो इन शर्तों के अनुरूप नहीं हों  और इस परिभाषा का पालन नहीं करते उन्हें सत्य का पथप्रदर्शक नहीं माना जा सकता। यहाॅं यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि सच्चे धर्मशास्त्रों में स्पष्ट दिशानिर्देश होना चाहिये जिनका पालन सभी लोग अपने जीवन में तो करें ही दूसरों को भी मार्गदर्शन कर सकें।

हम सभी रस के अनन्त महासागर में रहते हैं, इसमें कभी समाप्त न होने वाले सृजन का विकिरण, अर्थात् सभी छोटी और बड़ी अवर्णनीय अभिव्यक्तियों का स्पंदन, उच्चारित और अनुच्चारित अलौकिक विचार तरंगों के रूप में, भीतर और बाहर सभी दसों दिशाओं में, हिलोरें ले रहा है। इसलिये परम सत्ता की प्रत्येक संरचना के साथ उचित और विवेकपूर्ण व्यवहार करते हुए उसका ध्यान रखना चाहिये जो कि इन विभिन्न रचनाओं का सारतत्व है। अपने आपको कुमुदिनी के आदर्श पर ढालने का प्रयत्न करना चाहिये जो कीचड़ में खिलती है और अपने अस्तित्व के रक्षण में दिन रात कीचड़ भरे पानी, झंझटों तथा भाग्य के थेपेड़ों और तूफानों के आघात सहती है फिर भी अपने ऊपर दिखने वाले चंद्रमा को नहीं भूलती वह अपना प्रेम उसके साथ स्थायी रूप से जीवित रखती है । वह एक साधारण फूल ही है उसमें असाधारण कुछ नहीं है फिर भी वह अपनी सभी इच्छायें चंद्रमा पर केन्द्रित रखकर अपना रोमान्स महान चंद्रमा के साथ बाॅंधे रहती है। हो सकता है हम बहुत ही साधारण व्यक्ति हों और साॅंसारिक जीवन में अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिये  उतार चढ़ाव से अपने दिन काट रहे हों  परंतु हमें उस परम सत्ता को नहीं भूलना चाहिये, हमारी सभी इच्छायें उसी की ओर झुकी रहना चाहिये, सदा ही उसी के विचारों में डूबे रहना चाहिये, उसके अनन्त प्रेम में डूब जाने पर साॅंसारिक गतिविधियाॅं प्रभावित नहीं होंगी। परिस्थतियां चाहे जैसी भी क्यों न रहें परम सत्ता से अपनी निगाहें नहीं हटना चाहिये। जिन्हांेने अपने जीवन का आदर्श और लक्ष्य उस परम सत्ता को बना लिया है उसका पतन नहीं हो सकता। चित्त में जड़ और तुच्छ विचारों के आ जाने पर उन्हीं के अनुसार निम्न स्तरों पर ही अगला जन्म पाना होगा यह प्रकृति का नियम है। जैसे भरत मुनि, उत्कृष्ट साधक होते हुए भी अंत में हिरण पर चिंतन करने के कारण अगले जन्म में हिरण के जीवन को पाकर उन्हें वह संस्कार भोगना पड़ा। इसलिये सतर्क रहकर परमपुरुष पर ही अपना समग्र चिंतन जमाये रखना ही सभी मनुष्यों का कर्तव्य है, ताकि वे सभी आनन्द के पथ पर चलते हुए अपने लक्ष्य को पा सकें। धर्मशास्त्र और सद साहित्य इस कार्य में संजीवनी का काम करते है।


Monday 12 October 2020

346 सप्तलोक क्या है ?

ये सभी एक साथ ही है,इनकी कोई अलग-अलग दुनिया नहीं है। सप्त लोकों में निम्नतर लोक है " भूर्लोक"(physical world)। ऊर्ध्वतम लोक है "सत्य लोक" जो परमपुरुष में स्थित है। और, इन दोनों के बीच जो पञ्च लोक हैं, वही है पञ्चकोष । मानव मन के पाँच कोष, पाँच स्तर । भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः । भुवः है स्थूल मन, जो प्रत्यक्षरूपेण शारीरिक कर्म के साथ सम्पर्कित रहता है। स्वः लोक है सूक्ष्म मन । मनोमय कोष, मानसिक जगत् । मुख्यतः सुख-दुःख की अनुभूति होती है कहाँ ? स्वर्लोक में, मनोमय कोष में । तो, यह जो स्वर्लोक है, इसी को लोग स्वर्ग कहते हैं , स्वः युक्त “ग”। सुख-दुःख की अनुभूति यहीं होती है । मनुष्य को अच्छा कर्म करने के बाद मन में जो तृप्ति होती है, वह मन के स्वर्लोक में अर्थात् मनोमय कोष में होती है । इसलिए ये स्वर्लोक हमेशा तुम्हारे साथ है । तुम सत्कर्म करते हो, तुम मानव से अतिमानव बनते हो तो, स्वर्लोक खुशी से भर जाता है और जब तुम मनुष्य के तन में, मनुष्य की शक्ल में अधम कर्म करते हो, तो स्वर्लोक दुःख में भर जाता है, मन में ग्लानि होती है,आत्मग्लानि होती है ।

  स्वर्ग-नरक अलग नहीं, इसी दुनिया में हैं और तुम्हारे मन के अन्दर ही स्वर्ग छिपा हुआ है। इसलिए जो पण्डित हो चाहे अपण्डित हो, स्वर्ग-नरक की कहानी, किस्सा-कहानी सुनाते हैं, वे सही काम नहीं करते हैं। वे मनुष्य को misguide करते हैं , विपद में परिचालित करते हैं, उनसे दूर रहना चाहिए वे dogma के प्रचारक हैं ।

Monday 5 October 2020

345 अन्धविश्वासों की प्रवृत्ति और उनका संरक्षण

भारत के सभी कोनों में व्याप्त ‘अन्धविश्वास‘ एक ऐसी विचित्र विधा है जो काल्पनिक देवी देवताओं की रचना करने में लगाई जाती है। जब जन सामान्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होता है तो वह अन्धविश्वास की ओर प्रवृत्त हो जाता है। जब अन्धविश्वास उगता है तब काल्पनिक देवी देवताओं की रचना कर ली जाती है और उन्हें उन लोगों की समस्याओं के समाधान करने के लिये प्रयुक्त किया जाता है। यही श्रेष्ठ सूत्र है। दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, गणेश, काली, सूर्य, जगन्नाथ और न जाने कितने देवता इसी प्रकार बनाए गए हैं।

अनेक प्रकरणों में लोगों को उपदेवताओं के प्रति भय के कारण भक्ति करने या कभी कभी कुछ पाने के लिए पूजा करते देखा गया है। जंगल में जाने से शेर का डर लगता है इसलिए ‘‘वनदेवी’’ की कल्पना शेर के भय से मुक्त करने के लिये की गई। हैजा से बचने के लिये ‘‘ओलाइ चंडी’’ बड़ी माता से बचने के लिए ‘‘शीतला देवी’’ साॅंपों सें बचने के लिए ‘‘मनसा देवी’’ की कल्पना की गई। इन्हें उपदेवता भी कहा जाने लगा। घर में पूरे वर्ष सुख समृद्धि बनी रहे इसलिए गृहणियाॅं ‘लक्ष्मी’ देवी की पूजा करती है। शाॅंति अनुष्ठान के सम्पन्न होने के लिए ‘सेतेरा और सुवाचनी देवी’ की पूजा की जाती है। बच्चों की भलाई के लिए ‘सष्ठी और नील देवी’ की तथा बीमारी से बचने के लिए ‘श्मशानकाली और रक्षकाली’ की पूजा की जाती है। संस्कृत में इन्हें उपदेवता कहा गया है क्योंकि वे परमपुरुष नहीं हैं। अर्थात् आध्यात्मिक संसार में उन्हें ध्यान करने के लिए लक्ष्य नहीं माना गया है। इसी प्रकार मंगला चंडी, आशानबीबी, सत्यपीर आदि भी हैं। उपदेवताओं को लौकिक देवी देवता भी कहा जाता है जिनमें से किन्हीं किन्हीं का लौकिक भाषा में ही ध्यानमन्त्र भी बना लिया गया है। अनेक मामलों में जैनोत्तर और बुद्धोत्तर काल में इन धर्मों के देवी देवताओं ने भी उपदेवताओं का स्थान पा लिया।

कुछ लोग भूतों को भी भय के कारण उपदेवता कहते पाए जाते हैं अर्थात् वे उन्हें छोटे देवी या देवता की तरह पूजने लगते हैं अन्यथा वे नाराज हो कर अहित कर देंगे। परन्तु संस्कृत में उपदेवता का अर्थ भूत नहीं है, भूत के लिए अपदेवता शब्द उच्चारित किया गया है। ‘उप’ का अर्थ होता है ‘निकट’ जबकि ‘अप’ का अर्थ होता है ‘बिलकुल उल्टा’ । इसलिए अपदेवता का अर्थ हुआ ‘जिसकी प्रकृति देवता के बिलकुल विपरीत है।’

वे आध्यात्मिक साधक जो ज्ञान, कर्म और भक्ति का रास्ता पकड़ कर आगे बढ़ते हैं वे किसी भी काल्पनिक देवता या उपदेवता की शरण में नहीं जाते वे तो केवल एकमेव परमपुरुष की ही साधना और उपासना करते हैं।


344 संस्कार का सिद्धान्त

 कर्म अच्छा हो या बुरा उसके कारण मन पर विरूपण उत्पन्न होता है और जब वह अपनी मूल अवस्था में लौटता है तो प्रतिक्रिया के फलस्वरूप अच्छे कामों का अच्छा और बुरे कामों का बुरा परिणाम भोगता है। मुत्यु के बाद मन इकाई चेतना का आश्रय लेता है जहाॅं पर प्रतिक्रियात्मक यह विरूपण अपने पोटेंशियल रूप में अर्थात् सुप्तावस्था में रहता है, इन्हें ही संस्कार कहते हैं। इकाई चेतना को इन संस्कारों को प्रकट करने अर्थात् भोग करने के लिए ही दूसरा शरीर ग्रहण करना होता है। मानलो मिस्टर ‘ए’ के मरने के बाद उनकी इकाई चेतना में कर्मफल के रूपमें सुप्त संस्कार के अनुसार आठ साल की आयु में हाथ टूूटने के  बराबर कष्ट भोगना है और दस वर्ष की आयु में भाग्योदय का सुख भोगना है और ग्यारह वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु का कष्ट भोगना है तो उन्हें यह सब अपने मन के विरूपण को समाप्त करते करते मूल अवस्था में लाते हुए अनुभव करना होगा।

 यह भी महत्वपूर्ण है कि किसी कष्ट के वास्तविक रूप को पहले से नहीं बताया जा सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि किसी विशेष क्रिया की वास्तव में क्या प्रतिक्रिया होगी। जैसे , यह पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता कि किसी ने चोरी की है तो प्रतिक्रिया के कारण उतने ही मूल्य की उसकी चोरी होगी। वास्तव में प्रतिक्रिया में होने वाला कष्ट मानसिक कष्ट के अनुसार घटित होता है, जैसे किसी की चोरी करने से उसको जितना मानसिक कष्ट हुआ है उतना ही मानसिक कष्ट चोरी करने वाले को प्रतिक्रिया में भोगना पड़ता है। इसलिए कर्मफल को ‘‘मानसिक कष्ट या सुख’’ के अनुसार भोगना पड़ता है और अनुभव का वास्तविक स्वरूप अपेक्षतया महत्वहीन होता है।  

इसलिये मिस्टर ‘ए‘ को प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मानसिक कष्ट या सुख अनुभव कराने के लिए उनकी इकाई चेतना उन परिस्थितियों को खोजकर वहाॅं ही उन्हें नया जन्म देकर नया शरीर दिलाएगी जहाॅं पर पिता के संस्कारों के अनुसार उसके पुत्र की ग्यारह वर्ष आयु होने पर मृत्यु हो जाएगी, आठ साल की आयु में पुत्र का हाथ टूटेगा आदि,  और उन्हें इसका मानसिक कष्ट भोगना पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो वे अपना कर्मफल नहीं भोग पाऐंगे। अतः स्पष्ट है कि इकाई चेतना और कर्मफल बिना सोचेसमझे किसी भी शरीर में पुनर्जन्म नहीं ले लेते। उसे संस्कार भोगने के लिए पुनर्जन्म, उचित शरीर और कर्मफल भोगने के लिये उचित क्षेत्र तलाशना होता है।


343 व्यसन दूर करने का उपाय

नकारात्मक बातों या दुव्र्यसनों को हटाने के लिये इस प्रकार के लोगों के मन को धनात्मक दिशा में मोड़कर सात्विक कार्यों में लगा देना चाहिए। जो दुव्र्यनों के आदी हो चुके हैं उनके साथ वह व्यवहार करना चाहिए जिससे वे लम्बे समय तक उन वस्तुओं या उस प्रकार के लोगों से दूर रहें। उनसे यह कहना कि, ये मत करो, वह मत पियो, यह बुरा है आदि, तो  व्यर्थ होगा क्योंकि यह तो नकारात्मक साधन होगा। यदि कहा जाय कि ‘‘शराब नहीं पियो’’, तो यह तो उस शराबी के मन में ‘‘शराब की संकल्पना ’’ को भर देना ही हुआ अतः वह शराब पीने की आदत को छोड़ पायेगा यह असंभव है। इस प्रकार तो शराब को नकारात्मक प्रचार देकर हम उसके मन के चिन्तन का विषय बना रहे होते हैं। अतः जब भी मौका मिलेगा वह फिर से पीने लगेगा। इसलिये नकारात्मक पहल करने से शराबी को प्रोत्साहन ही मिलता है और वह शराब पीने का अधिक अभ्यस्त हो जाता है। 

 आजकल जगह जगह पर ‘‘ धूम्रपान करना वर्जित है’’ के नोटिस लगे पाए जाते हैं, परन्तु इससे धूम्रपान करने वालों की संख्या में कमी नहीं आती। यदि समाज चाहता है कि वे लोग धूम्रपान करना छोड़ दें तो उनका मन किसी दूसरे रचनात्मक कार्यों जैसे, नृत्य, गीत, संगीत, कला और संस्कृति की ओर मोड़ देना चाहिए। इस प्रकार जब उसका मन इन कामों में उलझा रहेगा तो उसे धूम्रपान की याद ही नहीं आ पाएगी। लेकिन वह व्यक्ति जो कहता है कि वह परसों से शराब पीना छोड़ देगा या कहे कि कल से छोड़ दूंगा तो वह कभी नहीं छोड़ सकता क्योंकि शराब उसके मन में मानसिक विषय के रूप में बनी रहती है। मन वही कार्य करता है जिसके बारे में वह बाहरी संसार में सोचता है, प्रकृति का यही नियम है। यदि कोई व्यक्ति साधना नियमित रूपसे करता है तो उसे धनात्मक परिणाम अपेक्षतया शीघ्र प्राप्त होने लगते हैं। साधना और योगासनों का वह प्रभाव होता है कि जन्मजात अपराधी का मन भी रूपान्तरित होकर सात्विक हो जाता है।


Thursday 1 October 2020

342 ईश्वरप्रणिधान

 जप क्रिया में केवल ध्वन्यात्मक लय होता है जैसे, राम राम, राम राम.... परन्तु ईश्वरप्रणिधान में इष्ट मंत्र का ध्वन्यात्मक लय मानसिक लय के साथ समानान्तरता बनाए रखता है। इसका अर्थ है कि मानसिक रूप से राम, राम राम तो कहते ही हैं परन्तु साथ ही साथ राम के बारे में सोचते भी हैं अन्यथा जप क्रिया में समानान्तरता नहीं रह पाएगी। समानान्तरता न रहने से शब्द राम अर्थात् परमपुरुष का उच्चारण करने पर ज्योंही ‘रा’ का उच्चारण किया जाता है तत्काल ‘म’ और इसके तत्काल बाद फिर से ‘रा’ उच्चारण करते समय द्वितीय स्तर पर वह ‘मरा ’ हो जाता है अतः इष्ट मंत्र परमपुरुष के स्थान पर ‘मरा अर्थात् मृत्यु’ का जाप बन जाता है। इसलिए इस प्रकार की जप क्रिया व्यर्थ हो जाती है। अतः जब तक मानसिक लय और ध्वन्यात्मक लय के बीच साम्य या समानान्तरता नहीं होगी वह ईश्वरप्रणिधान नहीं कहला सकता। इसलिये ‘ईश्वर प्रणिधान’ और ‘नाम जाप’ में जमीन आसमान का अन्तर है। ईश्वरप्रणिधान से चैतन्य हुए बीजमंत्र से उत्पन्न मानसिक तरंगें ओंकार ध्वनि के साथ सरलता से अनुनादित हो जाती हैं और इसी अनुनाद की अवस्था में आत्मानुभूति होती है अन्यथा नहीं ।


Thursday 24 September 2020

341 शोषण की कला (3)

छद्म संस्कृति, लोगों को रीढ़बिहीन बनाकर सरलता से शोषण कर पाने के अनुकूल वातावरण बनाती है। मानलो किसी समूह के पास कला का समृद्ध खजाना है (सिनेमा, थिएटर आदि,) परन्तु उस समूह के लोगों के पास धनी लोगों की संख्या अपेक्षतया कम है और दूसरे समूह के पास इसका बिलकुल उल्टा है तो इस दूसरे समूह के लोग पहले समूह की सांस्कृतिक धरोहर, जो कि उन्नत है, को शोषित करने के लिये मनोआर्थिक रूप से पंगु बनाकर शोषण करते रहेंगे। इसके लिये वे इन लोगों से गन्दे सिनेमा और ड्रामा आदि का काम कराने लगेंगें । 

सभी जानते हैं कि हमारे मन का एक गुण यह है कि वह सदा ही ऊपर की ओर जाने की तुलना में नीचे की ओर जाने में सुख की अनूभूति करता है । इस लिए अपने धन के प्रभाव से इस प्रकार के लोग गंदे सिनेमा और ड्रामा आदि को थोपकर उनकी रीढ़ को ही तोड़ देंगे। फलस्वरूप, फिर वे मानसिक रूप से अपंग लोग कभी अपनी संस्कृति अथवा अन्य प्रकार के शोषण के विरुद्ध एकता से खड़े नहीं हो सकेंगे। उन लोगों में  इन शोषकों के विरुद्ध अपना सिर ऊंचा उठाने की दम ही नहीं बचेगी ।

इस प्रकार के मनोआर्थिक शोषण और छद्म संस्कृति के पोषण के विरुद्ध हर ईमानदार, सद्गुणी और विवेकशील व्यक्ति को संघर्ष करना चाहिए इतना ही नहीं उन्हें दूसरों को इस कार्य हेतु प्रोत्साहित भी करना चाहिए। यदि यह नहीं किया गया तो मानवता का भविष्य बंधक बन जायेगा। यह उचित है कि मनुष्य राजनैतिक स्वतंत्रता और सामाजिक मुक्ति के लिए संघर्ष करे परन्तु यदि उनकी सांस्कृतिक रीढ़ को ही तोड़ दिया जाएगा तो उनका संघर्ष करना वैसा ही सिद्ध होगा जैसे बुझी अग्नि में घी का होम करना। यह अपसंस्कृति हमारी रीढ़ और गर्दन को ही तोड़ती जा रही है ताकि हम कभी सीधे खड़ ही न हो सकें।

यह हमारे देश का ही नहीं , पूरे संसार का रोग है । क्या यह सद्गुणी लोगों का कर्तव्य नहीं है कि इन सरल और सताए हुए लोगों को इस प्रकार के शोषण से बचाने का उपाय करें ? ये  निरपराधी लोग बली का बकरा बनने के लिए क्यों विवश हों? यह असहनीय है। इसलिये यदि आप सच्चे अर्थो में मानव हैं तो  एक ओर तो अथक आध्यात्मिक साधना कर आत्मसाक्षात्कार की ओर बढ़ते जाएं और उतनी ही तेज गति से बाहरी संसार में फैलाए जा रहे अविवेकपूर्ण, अवांछनीय और क्षतिकारक सिद्धान्तों रोकने के लिये कटिबद्ध हों । हमारा मनुष्य होना तभी सार्थक कहलाएगा जब संसार का प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक  रूप से स्वतंत्र हो जाएगा।  


340 शोषण की कला (2)

धर्म के ठेकेदार जिन्हें लोग पंडित कहते हैं, वे धनी व्यापारियों को भविष्य में व्यवसाय के फलने फूलने और उन्नति करने का आशीर्वाद देते देखे जाते हैं परन्तु उन गरीब भक्तों का मुंह भी देखना नहीं चाहते जो उन्हें भारी दक्षिणा नहीं दे पाते। यह भी देखा जाता है कि धार्मिक शोषण जारी रखने के लिये अनेक धार्मिक कहानियाॅं गढ़ ली गई हैं जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और तर्क पर भी खरी नहीं उतरती, परन्तु वे जानते हैं कि मनुष्य की कमजोरियों को इन कथाओं के द्वारा आसानी से दोहित किया जा सकता है।

अतार्किक और अविवेक आधारित गति को ‘डोग्मा या भावजड़ता’ कहा जाता है। इन डोग्माओं के समूह को ‘वाद अर्थात् इज्म’ कहते हैं। जब इन डोग्माओं और वादों के प्रवर्तकों और अनुयायियों ने अपने व्यक्तित्व से करिश्मा करने का गुण खो दिया तो उन्होंने इसे ईश्वर के नाम पर प्रचारित करना शुरु कर दिया । इस प्रकार कभी वे यह कहते पाये गए कि ईश्वर ने उन्हें स्वप्न में यह करने और उसका पालन कराने को कहा है और जो इसका पालन नहीं करेगा उसे नर्क भोगना पड़ेगा। इस प्रकार लोगों के मनो में भावग्रथियों की जटिलता भर कर और भय फैलाकर इन डोग्माओं द्वारा शोषण किया जाता रहा है और आज भी जारी है।

ईश्वर के नाम पर अवतारवाद को जन्म देकर इन परजीवियों ने अपने काल्पनिक वादों अर्थात् डोग्माओं को फैलाया और जिन्होंने तार्किक और विवेकपूर्ण ढंग से असहमति दी उन्हें नास्तिक कहकर पापी घोषित कर दिया। इस प्रकार अनेक दार्शनिकों के बहुमूल्य अनुसंधानों को अपने व्यक्तिगत हित साधने के उद्देश्य वालों द्वारा नष्ट कर दिया गया।

मनुष्यों के पास उन्नत बुद्धि और निर्णय लेने के लिये विवेक होता है, वे इसके द्वारा उचित अनुचित का निर्णय लेकर सही सही अपने धर्म का पालन करते हुए आध्यात्म की ओर बढ़ें। जिनके पास उन्नत विवेक नहीं है उनके पास यह क्षमता अवश्य है कि वे इसे पाने का प्रयास कर सकते हैं और एक दिन उन्नत बौद्धिक स्तर पा सकते हैं। यदि यह अवसर पाने के बाद भी वे अपनी क्षमता का विवेकपूर्ण उपयोग नहीं करते हैं तो निश्चित ही वे अधोगति पाएंगे। इसलिये उन्हें यह गलती नहीं करना चाहिए।


339 शोषण की कला (1)

 आकर्षक सुन्दर और सबसे अलग दिखने की इच्छाओं ने संसार की सभी महिलाओं को नई नई चिन्ताओं में डाल रखा है। जिनका रंग साॅंवला है वे गोरा होना चाहती हैं, जिनकी लम्बाई कम है वे लम्बा होना चाहती हैं, सभी अपने बालों को घना और लम्बा बनाना चाहती हैं। कुछ अपनी नाक और आंखों की बनक ठनक को और निखारना चाहती हैं। अपनी शारीरिक संरचना को और आकर्षक बनाने के लिये कोई कसर नहीं छोड़तीं। सभी सुपर माडल्स की तरह दिखने के लिये अथक प्रयास करते देखी जाती हैं। उनकी इस कमजोरी का फायदा कास्मेटिक उद्योगपतियों द्वारा नये नये प्रकार के उत्पाद बनाकर उठाया जा रहा है और यह उद्योग मल्टी मिलियन डालर तक जा पहॅुंचा है। सच्चाई यह है कि गोरे काले या आकर्षक और अनाकर्षक होने का हीनभाव इन्हीं के द्वारा फैलाया जाता है, महिलाओं में सुन्दर न दिखने पर असम्मान और असुरक्षा की भावनायंे पैदा कर डरा दिया जाता है। और फिर अपने उत्पादों को बेच कर मनोआर्थिक रूप से शोषण करते हुए धन का दोहन करने के उपाय ढूंढे जाते हैं। पूॅंजीपतियों के इस भयावह खेल की विधि यह है कि मनोवैज्ञानिक रूप से पहले यह हीन भावना पैदा करता है जिससे महिलायें अनेक प्रकार के मानसिक लकवे का शिकार हो जाती हैं फिर वे उनका आर्थिक रूपसे शोषण करने में सफल हो जाते हैं। इतना ही नहीं वे स्थानीय भाषा और संस्कृति को दबाकर एक छद्म संस्कृति का रोपण कर इसी का प्रचार करने लगते हैं। 

इस प्रकार युवाओं का मन प्रदूषित कर उनकी जीवन्तता की अनदेखी करते हैं। पुराने अतार्किक और अमनोवैज्ञानिक साहित्य के उदाहरण देकर महिलाओं पर सैकड़ो बंधन लगाये जाते हैं जिससे वे पुरुषों पर आर्थिक रूपसे आश्रित बनी रहें। अपने धन के प्रभाव में ये लोग संचार माध्यमों जैसे समाचार पत्र, रेडियो टेलीविजन आदि को लेकर अपना जाल फैलाये रहते हैं। स्पष्ट है कि यदि सचमुच महिलाओं को अपना स्तर पुरुषों के समान लाना है तो इन धोखेवाजों से सावधान रहकर अपनी मानसिकता को बदलना होगा। इसका अर्थ पुरुषों के समान अधिकार पाना नहीं वरन् अपने अधिकारों को मान्यता दिलाना होना चाहिए। इस अभिशाप से पूरी तरह मुक्त होने के लिये क्या किया जाना चाहिए? न तो पूरी तरह उन उद्योगपतियों को दोष दिया जा सकता है न ही उन महिलाओं को जो अपने को कम सुन्दर मानकर अधिक सुन्दर होने के प्रयासों में इनके द्वारा बार बार शोषित की जाती हैं। इसका उचित समाधान यही है कि शोषकों का हर स्तर पर विरोध हो और शोषितों को इतना शिक्षित किया जाए कि अपनी दशा सुधारने और आगे बढ़ने की समझ आ सके।


Wednesday 23 September 2020

338 भक्ति के तीन स्तर

 पहले स्तर पर अहंकेन्द्रित लोग होते हैं जो यह मानते हैं कि ‘‘ मैं हॅूं और मेरे भगवान भी हैं।‘‘ इसमें मुख्य बिन्दु अपने को प्राथमिकता देना है और भगवान को दूसरा।

दूसरे स्तर पर भक्त का मन समाज सेवा और साधना के प्रभाव से ईश्वर के अधिक पास आ जाता है और वह उनकी कृपा से उनके ही बारे में अधिक सोचता है और अपने बारे में कम। यह तभी होता है जब वह ईश्वर से प्रेम करने लगता है ठीक उसी प्रकार जैसे माॅं अपने शिशु के बारे में अपने से अधिक सोचने लगती है। वह अनुभव करने लगता है कि , मेरे प्रभु हैं और मैं भी हॅूं। 

जब साधना करते करते ध्यान में स्थिरता आ जाती है तब भक्त अपने अस्तित्व को भूल जाता है और अनुभव करता है कि केवल परमपुरुष का ही अस्तित्व है। यही भक्ति का अंतिम तीसरा स्तर है। तीनों ही स्थितियों में परमपुरुष का होना अनिवार्य होता है। जहाॅं पहले स्तर पर अहंभाव को प्रथमिकता दी गई होती है वहीं दूसरे स्तर पर अनुभव होता है कि परमपुरुष ही मुख्य हैं और चरम स्तर पर परमात्मा के प्रति असीम प्रेम स्थापित हो जाने के कारण भक्त अपने अस्तित्व को भूल जाता है और परमपुरुष के साथ एक हो जाता है।


Tuesday 15 September 2020

337 उन्नत और कमजोर मन


कल्पना करो कि कोई उद्दंड व्यक्ति सामने खड़ा है, वह इतना दुष्ट है कि तुम्हारी इच्छा उसे थप्पड़ मारने की होती है परन्तु वास्तव में तुम यह करते नहीं हो। यह तो तभी होता है जब तुम निर्णय कर लेते हो कि  इस उद्दंडी को सबक सिखाना चाहिए तभी तुम्हारे हाथ उठते हैं और उसे आघात पहुंचाते हैं। अर्थात् आन्तरिक इच्छा बाहर प्रकट होने के लिए प्रबल हो उठती है तभी हाथ कार्य करने लगते हैं। महान व्यक्ति वह है जिसका अपने विचारों के बाहरी प्रदर्शन करने पर नियंत्रण है। कोई विचार भौतिक रूप से हमेशा प्रदर्शित नहीं होगा। किसी के मन में किसी को चोट पहुंचाने अथवा किसी की वस्तु चुराने का विचार आ सकता है परन्तु आत्म नियंत्रण होने के कारण वह हमेशा कार्य रूप में नहीं लाया जा पाता । अब मानलो किसी भिखारी को अंधेरे में, ठंड में सिकुड़े, रोड के किनारे देख कर  तुम्हारी आंखों में उसकी दयनीय दशा पर आंसू आ जाते हैं और उसे खाना और सहारे का प्रबंध करने लगते हो तब यह आंसू आना कमजोर मन का सूचक नहीं है। इस प्रकार का मन सुप्रवृत्तियों वाला उन्नत मन कहा जाएगा। निष्कर्ष यह  कि वे जो अनिष्टकारक वृत्तियों को तत्काल प्रदर्शित करने लगते हैं कमजोर मन कहलाते हैं इसके विपरीत कल्याणकारक वृत्तियों वाले उन्नत मन। किसी को कष्ट में देखकर यदि उसे बचाने दौड़ पड़ते हो तो यह उन्नत मन का द्योतक है।

336 राधा कौन है?


परमपुरुष ही केवल सत्य हैं और निर्पेक्ष सत्ता हैं। जैसे जैसे जीव, परमपुरुष की ओर बढ़ते जाते हैं उनका मन उन्नत होता जाता है। जब वे उन्नति के सूक्ष्म स्तर पर पहॅुंच जाते हैं तब उनका मन एकाग्र होकर उनकी ओर तेजी से दौड़ने लगता है। इस प्रकार की मानसिकता ही राधा कहलाती है। जब ऐसे भक्तगण अपने हृदय की गहराई से यह अनुभव करने लगते हैं कि परमपरुष को पाए बिना उनका एक भी क्षण जीवित रह पाना संभव नहीं है तब कहा जाता है कि उन्होंने राधा भाव को पा लिया है। इस प्रकार के भक्त आराधना (अर्थात् मन का पूर्णरूपेण समर्पण) के अलावा कुछ नहीं जानते और न जानना चाहते हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि राधा, वृन्दावन की किसी महिला का नाम है, परन्तु यह सत्य नहीं है। परमपुरुष के उन्नत भाव में डूबे प्रथम श्रेणी के भक्त ही राधा कहलाते हैं चाहे वे पुरुष हों या महिला।


Saturday 12 September 2020

 335 राधा का डमरू

‘‘क्या बात है, आज तो बहुत ही उदास लग रहे हो, ऐसा तो कभी नहीं देखा?‘‘

‘ हाॅं, पिछले सत्तर वर्षों का लेखा जोखा देख रहा था, कुल उपलब्धियाॅं शून्य ही आईं हैं।‘‘

‘‘कैसे? मैं कुछ समझी नहीं ।‘‘ 

‘‘देखो न! खूब मेहनत कर अफसर बना, कितने लोग सेल्यूट करने लाइन में लगे रहते, कितना रुतवा था, बच्चों को भी अपने से अधिक अच्छा बनाया, धन भी खूब कमाया, पर आज रिटायर हुए दस वर्ष हो गये अब लगता है कुल उपलब्धियाॅं कुछ नहीं हैं।‘‘ 

‘‘इतना सब क्या कम है?‘‘

‘‘ किसे इतना सब कहती हो? आज भूल से भी कोई नमस्कार नहीं करता, बच्चे सब विदेश में बस गये, दोस्त भी बिछुड़ते जा रहे, नौकर चाकर भी उतने लवलीन नहीं रहे, यह धन भी बीमारियों के कष्ट को तत्काल दूर नहीं कर पाता! क्या मैं गलत कहता हॅूं?‘‘ 

‘‘ अच्छा! अब समझी। शिवजी का डमरू यह समझने लगा कि शिवजी को प्रणाम करने वाले लोग उसे प्रणाम कर रहे हैं ।‘‘

‘‘क्या मतलब?‘‘

‘‘ तुम्हारे दुख का कारण है तुम स्वयं हो जो बार बार कहते हो मैं ऐंसा था, मैंने यह किया, वह किया, मैं, मैं, मैं । यह सबसे बड़ी भूल है उसी डमरू की तरह।‘‘

‘‘ तो क्या मैं गलत कहता हॅूं?‘‘

‘‘बिलकुल। सुनो! कक्षा दसवीं में वादविवाद प्रतियोगिता हार जाने पर बड़े दुख पूर्वक विलाप करते हुए मैं, माॅं के सामने यही कह रही थी कि मैं ने कितना पराक्रम किया , कितनी पुस्तकें पढ़ी , दिन रात एक कर दिये, सभी श्रोताओं ने मेरे प्रदर्शन को कितना सराहा आदि, पर सब कुछ शून्य में बदल गया। इस पर पिताजी बोले, राधा! जब तक तुम किसी अपेक्षा को लेकर कार्य करती रहोगी तुम्हें दुख ही मिलेगा, पर जब तुम नाटक के कलाकार की तरह यह सोचकर कार्य करोगी कि वह तो निर्देशक के निर्देशों से बंधा है इसलिये अपनी प्रत्येक  भूमिका उसी को प्रसन्न करने के लिये है चाहे उसमें उसे रोना पड़े, हॅंसना पड़े, भीख माॅंगना पड़े, झाड़ू लगाना पड़े या लड़ना भिड़ना पड़े । जिस प्रकार कलाकार को नाटक में जैसी भूमिका दी जाती है उसे वैसा ही प्रदर्शन करना पड़ता है उसी प्रकार इस सृष्टि मंच के हम सब कलाकार हैं और सृजनकर्ता परमात्मा निर्देशक । हमें निर्पेक्ष होकर, उसी की प्रसन्नता के लिये, उसका कार्य समझकर , जीवन के सभी कार्य करना चाहिये तभी सच्चा आनन्द मिलता है, अन्यथा डमरू की तरह दंभ भरते रहो पर अंत में रह जाता है केवल खड़ खड़ खड़ करना।‘‘

‘‘यह क्या दार्शनिकों की तरह बात करती हो?‘‘

‘‘ हाॅं ! यही सच्चा जीवन दर्शन है, मैं ने तो तभी से हर कार्य, ईश्वर  की प्रसन्नता के लिये उन्हीं का कार्य समझते हुये, बिना किसी अपेक्षा के करने का प्रण कर लिया था, चाहे पढ़ना लिखना हो, बालबच्चे पालना हो, घर गृहस्थी सम्हालना हो, या सामाजिक नाते रिश्ते निभाना हो। बस मैं तो सदा यही सोचती हॅूं कि मेरी प्रत्येक भूमिका से उन्हें लगातार प्रसन्नता मिले भले मुझे कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े।‘‘

‘‘ ओह, राधा! तुम तो सचमुच की राधा निकलीं परंतु मैं ही शायद अपने को श्याम नहीं बना पाया! ! !‘‘


Tuesday 8 September 2020

334 ब्लडप्रेशर का आयुर्वेदिक उपचार

 

हाई ब्लडप्रेशर या उच्च रक्तचाप की बीमारी साधारणतः अपरिमित इच्छाओं, आकांक्षाओं, स्पर्धा की दौड़ में आगे बढ़ने के कारण आए तनाव के कारण होता है। कभी कभी यह आनुवांशिकता या दवाईयों के दुष्प्रभाव के कारण भी होता है।

मनुष्य आराम पाने की होड़ में प्रकृति से दूर होता जा रहा है। इसलिए सबसे पहले जरूरी है शरीर और मन के बीच सही तालमेल को बनाए रखना। प्राकृतिक चीजें मन से तनाव को कम करने और मेटाबॉलिज्म को बढ़ाने में मदद करते हैं। इसके साथ ही योग अभ्यास मन को शांत करके रक्तचाप को कम करने में भी सहायता करता है।

इसके उपचार के बारे में जानने के पहले यह जानते हैं कि हाई ब्लड.प्रेशर और हाइपरटेनशन के बीच अंतर क्या है। जब हृदय के  स्पंदन से रक्त संचार पर अतिरिक्त दबाव उत्पन्न होता है तब उस अवस्था को हाई ब्लड प्रेशर या उच्च रक्तचाप कहते हैं।

मगर जब उच्चरक्तचाप की स्थिति लंबे समय तक बनी रहती है तब उस अवस्था को हाइपरटेनशन कहते हैं। हृदय पर रक्त को पंप करने में जो दबाव पड़ता है उसको सिस्टोलिक प्रेशर कहते हैं और हृदय के दो धड़कनों के बीच के आराम के अवस्था को डायस्टोलिक प्रेशर कहते हैं। इन दोनों के बीच सामान्य स्तर 120ः80 (mm of mercury) होना चाहिए।

उच्च रक्तचाप साधारणतः रक्त के गाढ़ा हो जाने के कारण होता है क्योंकि इससे धमनियों और नसों में रक्त का संचार अच्छी तरह से नहीं हो पाता है जिसके कारण हृदय को, रक्त को पंप करने में अधिक दबाव उत्पन्न करना होता है। उच्च रक्तचाप कोई सामान्य बीमारी नहीं हैं, इसको साइलेन्ट किलर भी कहते हैं।

उच्च रक्तचाप के मूल कारणों में. अत्यधिक मात्रा में नमक का सेवन, धूम्रपान और शराब का सेवन, महिलाओं में हॉर्मोन के बदलाव के कारण, किसी विशेष दवा के कारण, रात को देर तक जागने के कारण, अत्यधिक मानसिक तनाव, या मोटापे के कारण भी होता है। उच्च रक्तचाप के कारणों के साथ लक्षणों के बारे में भी पता होना चाहिए ताकि आप आसानी से यह समझ सकें कि आप इस बीमारी का शिकार हो रहे हैं. मोटापा, सर दर्द, दिल का धड़कन तेज होना, बार.बार क्रोध आना, कान या चेहरे से आग जैसे गर्म निकल रहा है ऐसा महसूस होना, थकान महसूस होना, नींद न आना, रक्त चाप बहुत बढ़ जाने पर नाक से खून आना आदि। 

निम्नांकित तरीके से भी रक्तचाप को नियंत्रित किया जा सकता है।

1 सबसे पहले खुद को तनावमुक्त और शांत रखने के लिए नियमित रूप से सुबह टहलने के लिए जाएं। हो सके तो नंगे पांव हरी घास पर कम से कम बीस मिनटों तक चलें।

2 रोज सुबह बिना नमक और चीनी के नींबू पानी पीने से उच्च रक्त चाप को नियंत्रण में लाया जा सकता है।

3 एक महीना तक कम से कम आधा किलो पका पपीता खाने से भी रक्तचाप को नियंत्रित किया जा सकता है।

4 जरूरत के अनुसार खसखस और तरबूज के मगज को एक साथ पीस लें और रोज सुबह एक चम्मच खाली पेट तीन.चार हफ्तों तक इसका सेवन करें।

5 सब्जी खाना तो बहुत अच्छा होता है लेकिन उबला हुआ आलू खाना बहुत अच्छा होता है क्योंकि उसमे सोडियम नहीं होता है।

6 पालक और गाजर को पीसकर सुबह शाम एक गिलास पीने से रक्तचाप कम होता है।

7 मदिरा, अंडा, मांस, मिठाई, चॉकलेट का सेवन वर्जित होता है।

8 तुलसी के दस पत्तों के साथ नीम के तीन पत्तों का सेवन सात दिन तक करने से लाभप्रद फल मिलता है।

9 त्रिफला, हाइपरटेनशन पर प्रभावकारी रूप से काम करता है।

10 अश्वगंधा न सिर्फ उच्चरक्तचाप को कम करने में मदद करता है बल्कि सूजन और तनाव को भी कम करने में मदद करता है।

11 अर्जुन की छाल का काढ़ा, तनाव के दौरान जो हॉर्मोन निकलता है उसको नियंत्रित करने में मदद करता है। इस वजह से यह रक्तचाप को कम करने में भी मदद करता है।

इन सबके अलावा आपको अपने आहार में फल और सब्जी की मात्रा, नमक की मात्रा, व्यायाम, स्वास्थ्य  वर्धक जीवनशैली, इन सब बातों पर ध्यान रखना पड़ेगा।


333 सोचने का खतरा


मनोविज्ञान का यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि ‘‘जैसा कोई सोचता है वैसा ही हो जाता है‘‘ इसलिये कुछ भी सोचने के पहले बहुत ही सावधान रहने  की आवश्यकता होती है। इस सिद्धान्त पर मनन करने पर यह स्पष्ट होता है कि हमें अपनी सोचने ओर विचार करने पर नियंत्रण होना चाहिये क्योंकि यदि कोई पदार्थ के संबंध में सोचता है तो धीरे धीरे वह पदार्थ ही होता जायेगा । आध्यात्म में यह प्रमाणित किया गया है कि ‘मन‘ का स्वभाव यह है कि वह सोचने वाले विषय या वस्तु का आकार ग्रहण कर लेता है। मानलो कोई व्यक्ति धन या किसी तुच्छ वस्तु का चिंतन करता है तो एक समय बाद वह उसी का आकार प्राप्त कर लेता है। इसी लिये भगवद्गीता में भी कहा गया है ‘ यादृशी भावना यस्य सिर्द्धिभवति तादृशी‘ अर्थात् जिसकी जैसी भावना होती है उसे वैसा ही फल भी मिलता है। अर्थात् मानलो कोई खाने का ही शौकीन है और जब भी मौका मिलता है खाने को प्राथमिकता देता है तो यह अधिक संभव है कि वह अगले जन्म में सुअर का शरीर पाये, ऐसे ही यदि कोई सबसे तेज दौड़ने  की इच्छा करता रहता है तो वह आगे हिरन का शरीर पाये। इसलिये, एक सेकेंड से अधिक किसी इच्छा पर विचार करते हुए देर की गयी तो उसकी प्रतिक्रिया अवश्य उत्पन्न हो जाती है। चोरों के बारे में कोई लगातार सोचता रहे तो कुछ समय के बाद चोरी करने के विचार उसके मन में जन्म लेने लगते हैं। इसलिये इस प्रकार के अवाॅंछित विचारों को मन में उत्पन्न ही नहीं होने देना चाहिये, यदि कभी भूल से इस प्रकार के निकृष्ट विचार आ ही जायें तो तत्काल उन्हें परमपुरुष की ओर प्रेषित करते हुए कहना चहिये हे प्रभु तुम्हारी इच्छा ही पूरी हो। हमेशा ही आध्यात्मिक भक्तिभाव का ही आदर्श सामने रखना चाहिये परंतु दुर्भाग्य यह है कि इस पूंजीवादी युग में सभी लोग अपने मन को नाम, यश, द्वेष, तनाव, क्रोध, भय, शत्रु , बीमारी, पर ही सोचने में लगाये रहते हैं अतः मन की आधी ऊर्जा तो इसी की उधेड़ बुन में खर्च हो जाती है । स्पष्ट है कि मन जितना पतन की ओर जायेगा समस्या उतनी ही गंभीर होती जायेगी।

अनियंत्रित सोच और अनावश्यक चिंतन मानसिक और भौतिक व्याधियों का भी कारण बनता है। इसलिये सभी को इस बात को अवश्य ध्यान में रखना चाहिये कि हम जैसा सोचते हैं वैसा ही हो जाते हैं अतः क्या सोचना चाहिये और क्या नहीं इसकी समझ गंभीरता से विकसित कर लेना चाहिये। आपकी सोच आपके पूरे अस्तित्व को ही बदल देती है। इसलिये इस समस्या के दूसरे पक्ष की सहायता लेकर ही समीकरण संतुलित किया जा सकता है और वह है अपने सभी विचारों को केन्द्रित कर प्रत्येक समय परमपुरुष की ओर प्रेषित करते जाना। इस विधि से मन के अनेक भ्रम और बंधन नष्ट होने में देर नहीं लगती और मन भी परमपुरुष की ओर आगे बढ़ने लगता है। वास्तव में मन के केन्द्रित प्रवाह को जब परमपुरुष की ओर प्रेषित कर दिया जाता है तो इसे ही आध्यात्मिक चिंतन कहते हैं। इससे मन में धनात्मक विचार आते हैं और मन अपने लक्ष्य से पृथक नहीं हो पाता। इस चिंतन में ब्रेन सैल, उच्चतर स्तर का मनोविज्ञान, केन्द्रीकृत मानसिक प्रवाह, गुरुचक्र और भक्ति भाव ये सभी जुड़ जाते हैं। अनेक लोग प्रकृति के विभिन्न रूपों को पूजते हैं उन्हीं के आकार प्रकार का चिंतन करते हैं अतः इस सिद्धान्त के अनुसार अन्त में वे प्रकृतिलीन अवस्था में आ जाते हैं।  वे पत्थर, लकड़ी या धातु के रुप में असीमित समय तक बने रहते हैं, बोलो ! यह कितनी भयावह स्थिति है। चंूकि हमारे विचार हमारी प्रगति को प्रभावित करते हैं अतः हमें अपने विचार प्रत्येक क्षण परमपुरुष के भावों में ही जोड़े रहना चाहिये ताकि अन्त में हम परमपुरुष को ही प्राप्त हों जो कि मानव जीवन का लक्ष्य है।

 स्पष्टतः, अपने मानसिक विषय को बड़ी ही सावधानी से ही चुनना चाहिये। आज कल हम सभी ‘योग‘ के संबंध में अनेक प्रकार की वार्तायें सुनते और प्रदर्शन देखते हैं परंतु वे केवल भौतिक अभ्यासों अर्थात् फिजीकल ट्रेनिंग के अलावा कुछ नहीं होते, इसी प्रकार प्राणायाम की भी अनेक क्रियाएं दिखाई जाती हैं और बड़ी बड़ी बातें की जाती हैं।  ‘योग‘ वह नहीं है जैसा आजकल प्रचारित किया जा रहा है या टीव्ही में दिखाया जाता है, वास्तव में योग के संबंध में  प्रमाणित परिभाषा है‘‘ संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः‘‘  अर्थात् इकाई चेतना का परमचेतना के साथ मिल जाना ही योग कहलाता है। यह तभी हो सकता है जब कोई व्यक्ति परमपुरुष के साथ अपना मधुर प्रेम संबंध बना लेता है। इसी प्रकार प्राणायाम केवल एक ओर से साॅंस खींचकर दूसरी ओर छोड़ना और लेना ही नहीं है उसका अर्थ है प्राणों को आन्दोलित करना अर्थात् नया आयाम देना । इसमें, किस प्रकार श्वास छोड़ना या लेना, मन का चिंतन कहाॅं और क्या होना और कितनी संख्या तक किस वातावरण में किया जाना यह सब महत्वपूर्ण विचारणीय विंदु होते हैं जिन्हें इसके कुशल जानकार से ही सीखना चाहिये।  


332 भाभुकता और भक्ति


भाभुकता और भक्ति के बीच अन्तर यह है कि भाभुकता में मन किसी विधि विशेष का पालन नहीं करता परंतु सनक में कहीं भी किसी भी दिशा में बहने लगता है, जबकि भक्ति में वह किसी निर्धारित विधि का पालन करते हुए विशेष रास्ते से अनुशासन में चलता है। इस एकीकृत व्यवस्था का पालन करने वाले लोग मानते हैं कि बौद्धिक सह बोधि, क्रियात्मकता तथा भक्ति सह भाभुकता में पारस्परिक उत्तम मेल होना चाहिये। इनमें से कोई भी महत्वहीन नहीं है, परंतु अन्तिम रूप से भक्ति ही सबका सार निकलता है। एक बात और ध्यान में रखना चाहिये कि भक्ति से बहने वाले आंसु आनन्द देते हैं और यह आनन्द स्थायी होता है जबकि भाभुकता के आंसु उदासी और हानि पर आधारित होते हैं। अपने भूतकाल में बहाये गये आंसुओं की विवेचना करके हम जान सकते हैं कि कौन से आंसु भक्ति में और कौन से भाभुकता में बहे थे। विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि
(1) जिनमें धनात्मक स्थायी परिणाम नहीं मिला वे निर्णय अवश्य ही भाभुकता में लिये गये होगे। जैसे दूसरों को देखकर कार खरीद तो ली परंतु उसका कोई अधिक उपयोग नहीं , एक स्थान पर रखी है ।
(2) जो दीर्घस्थायी और लाभदायी उपलब्धियों से भरे होते हैं वे निर्णय निश्चय ही भक्ति अथवा दिव्यता पर आधारित होते हैं। जैसे किसी ने यह निर्णय ले लिया कि बस अब तो उन्हीं का साथ करेंगे जो सात्विक हैं भक्तिभाव से प्रेरित हैं और मुक्ति मार्ग पर चल रहे हैं तो उनके जीवन में आने वाला परिवर्तन स्थायी आनन्द और भविष्य की उज्ज्वलता लाता है। 
एक और बात यह भी है कि कोई भी केवल तर्क और कारण के आधार पर सक्रिय नहीं होता जब तक कि उसके हृदय में भावना नहीं उठती। जैसे समाचार पत्र में भूकम्प के बारे में पढ़ कर कोई तब तक सक्रिय नहीं होता जब तक उसे यह न बताया जाये कि उस भूकम्प वाले क्षेत्र में उसका अपना निकटतम संबंधी है। इसलिये जीवन के अधिकाॅंश निर्णय भाभुकतावश या फिर दिव्य प्रेम अर्थात् भक्ति भाव से लिये जाते हैं। जैसे , आधी रात में कोई माॅं अपने बीमार बच्चे को अस्पताल ले जा रही है, कोई बच्चा अपने अन्य मित्रों के साथ मिठाई पाने के लिये दौड़ रहा है, किसी अत्यधिक प्रिय की प्रतीक्षा में देर से घूप में खड़े हैं, इन सभी स्थितियों में लोग तभी सक्रिय होते हैं और उपलब्धि पाते हैं जब उनके मन में अपने लक्ष्य के प्रति लगाव और हृदय से भावना जागृत होती है। हृदय की यह भवना भाभुकता वश है या भक्ति के द्वारा मार्गदर्शित, इसी अन्तर के आधार पर महानता फलित होती है। भावनाओं में बह कर लिये गये निर्णय अल्प कालिक होते हैं उनसे सार्वभौमिक कल्याण की आशा नहीं की जा सकती। भक्ति में भक्त का हृदय स्थायी प्रवाह में होता है जो आजीवन अपने लक्ष्य की ओर जाने में सहायता करता है । भक्त की सभी भावनायें परमपुरुष से जुड़ी होने के कारण उसके मन में दुख या क्षोभ प्रवेश ही नहीं कर पाते। इस प्रकार भक्ति और भाभुकता में बहुत अंतर होता है।

भाभुकता प्रेय की ओर अर्थात् भौतिक जगत की ओर मन को खींचती है जबकि भक्ति श्रेय की ओर अर्थात् परमपुरुष की ओर ले जाती है, इसलिये यह कहा जा सकता है कि परमपुरुष की ओर ले जाने वाली भाभुकता ही भक्ति है। भक्ति पूर्णतः व्यावहारिक होती है और वास्तविक जीवन का आनन्द देती है क्योंकि  परमपुरुष आनन्द स्वरूप हैं। भक्ति और भाभुकता में एक बात समान होती है वह है दोनों में आंसुओं का आना । अब प्रश्न यह है कि आंसुओं के आधार पर कैसे जाना जाय कि यह भक्ति के हैं या भाभुकता के? भक्ति के आंसु आनन्दाश्रु कहलाते हैं क्योंकि वे आनन्द प्राप्त होने के  फलस्वरूप आते हैं और आंखों में ये बाहरी किनारों की ओर से गालों पर टपकते हैं। जब किसी कष्ट के कारण या किसी बात से मन के दुखी होने पर मन भावना प्रधान होने लगता है तब आंसु आंखों के भीतरी किनारों से सीधे नीचे गिरने लगते हैं इन्हें शोकाश्रु कहते हैं। भौतिक वस्तुएं कितनी ही प्रिय क्यों न हों वे क्षणभंगुर ही होती हैं, कभी हॅंसाती हैं कभी रुलाती हैं परंतु एक दिन वे तुम्हें छोड़कर चली ही जाती हैं सदा नहीं रहती । इसलिये परमपुरुष से प्रेम करना ही बाॅंछनीय है यही स्थायी आनन्द दे सकता है क्योंकि वह अजर अमर हैं।

Wednesday 2 September 2020

331 पाप, कष्ट और भाग्य

 

इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि किसी को प्राप्त होने वाले कष्ट का वास्तविक प्रकार पूर्व निर्धारित नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि किसी प्रतिक्रिया की मूल क्रिया क्या है। यह पूर्वनिर्धारित नहीं होता कि यदि किसी ने कोई वस्तु चुराई है तो प्रतिक्रिया स्वरूप उसे भी उतने मूल्य की चोरी का सामना करना होगा। कष्ट का निर्धारण उस मानसिक कष्ट के तुल्य आंका जाता है जो किसी की चुराई गई वस्तु से उस व्यक्ति को प्राप्त हुआ है। इसलिए क्रिया की प्रतिक्रिया का माप, मानसिक रूप से प्राप्त होने वाले सुख या दुख के स्तर के अनुसार अनुभव होता है। अतः वास्तविक शारीरिक सुख या दुख के अनुभव के प्रकार का अपेक्षतया कोई महत्व नहीं होता। 

एक अन्य परिदृश्य के अनुसार कुछ धर्मो के लोग रास्ते में पड़े किसी व्यक्ति को कष्ट पाते देखकर कहते हैं कि उन्हें इस मामले में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है वह तो अपने संस्कारों को भोग रहा है उसे भोगने दो। पर यह उचित नहीं है, हमें अधिक से अधिक लोगों के शारीरिक कष्ट दूर करने के लिए उन्हें मदद करना चाहिए क्योंकि वह अपने संस्कारों का भोग तो पूर्णतः मानसिक रूप में कर रहा होता है। इसलिए भले ही हम कितने ही प्रयास कर किसी को मदद करें परन्तु उसके संस्कारों का चक्र तो आगे चलता रहेगा चाहे वह जिस किसी प्रकार और आकार में हो जैसे, अपमान , अवसाद , हताशा , क्रोध, निराशा या अन्य किसी प्रकार से। 


330 प्रतिभा का शोषण

 330 प्रतिभा का शोषण

शक्तिशाली और धनी लोग साहित्यकों, लेखकों और वक्ताओं को उनकी गरीबी का लाभ उठाकर क्रय कर लेते हैं और अनेक प्रकार से शोषण करते हैं। उनका यह कार्य प्राचीनकाल से चला आ रहा है। राजा और सम्राट लोग अपने राज्य में कर रहित भूमि और सम्पदा देकर दरवारी कवियों को रखा करते थे और इस प्रकार वे केवल उनके कहने के अनुसार साहित्य रचनाएं लिखा करते थे। इसलिए प्रतिभाशाली साहित्यकार और कलाकार अपने संरक्षकों को खुश रखने के लिए परिस्थितियों के दबाव में अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करने के लिए विवश रहते थे। यही कारण है कि उन्हें अश्लील साहित्य और मूर्तियों की रचना करना पड़ती थी। अपने संरक्षकों को श्रेष्ठ और उनके शत्रुओं को तुच्छ प्रदर्शित करने के लिए उन्हें असत्य का सहारा लेना पड़ा। इतना ही नहीं अपने संरक्षकों की पोशाक, रंग, जाति, पूर्वज, और उनके परिवारों को ईश्वरतुल्य प्रदर्शित करने के लिए निराधार तथ्यों का सहारा भी लेना पड़ा। कुछ अपवादों को छोड़ दंे तो अधिकाॅंश साहित्यिक लोग, समाज के निम्न आर्थिक स्तर के ही होते पाए जाते हैं। स्वतंत्र रूप से कार्य करने की इच्छा होने के बावजूद, द्रव्य के अभाव ने ही उन्हें किसी संगठन या व्यक्ति विशेष के साथ काम करने के लिए उकसाया है। इतना तक कि वे जो अपने लेखों में साहसी और उत्साही दिखाई देते हैं इन्हीं परिस्थितिजन्य दबावों के कारण राजनैतिक पार्टियों के हाथ के खिलोनंे बनते देखे जाते हैं। स्पष्ट है कि सदा से ही शक्तिशालियों के द्वारा साहित्य, कला और बुद्धि के क्षेत्र में प्रवीण लोगों का शोषण किया जाता रहा है और इन लोगों ने अपनी योग्यता को उनके गुणगान तक ही सीमित कर दिया। दुख तो यह है कि यह सब आज भी जारी है।


Wednesday 12 August 2020

329 आध्यात्म के नाम पर शोषण


भूतकाल में राजा और महाराजा लोग ‘ यज्ञ ‘ करके यह दर्शाया करते थे कि वे कितने बहादुर हैं परंतु यह भी शोषण करने की एक कला थी। उन्होंने बड़े बड़े मंदिरों का निर्माण अपने कुकर्मों को छिपाने के लिये कराया न कि भक्ति भाव से। बौद्धिक शोषण करने वाले तथाकथित पंडितों और भौतिक शोषण करने वाले राजाओं के बीच अपवित्र समझौता हुआ करता था जिसके अनुसार पंडित और पुजारीगण हर युग में अपने अपने राजाओं के गुणगान किया करते थे। इतना ही नहीं, उन के द्वारा राजा को ईश्वर का रूप घोषित कर दिया गया था। पंडिताई करना शोषण करने का दूसरा रूप ही था। यही कारण है कि पूंजीवाद इन पंडितों और पंडितलोग पूंजीवादियों के विरुद्ध कभी नहीं जा सकते। आज भी वे एक दूसरे का महिमामंडन और पूजन करते नहीं थकते। जन सामान्य के मन में हीनता का बोध कराने वाली और उनकी भावनाओं से खिलवाड़ करने वाली अनेक अतार्किक कहानियाॅं और मिथक उन्होंने अपनी कल्पना से बना रखे हैं जिसका स्पष्ट उदाहरण इस श्लोक में दिया गया है-

ब्राह्मणस्य मुखमासीत वाहुराजनो भवत्, 

मध्य तस्य यद् वैश्यः पदभ्याम शूद्रोजायत।

अर्थात् ब्राह्मण ईश्वर के  मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य मध्यभाग से और और शूद्र पैरों से जन्मे। वे यदि सार्वजनिक हित साधन का चिंतन करते होते तो इसी बात को वे इस प्रकार भी कह सकते थे कि ईश्वर, बुद्धि और विवेक के रूप में सभी के मुह में, आत्म रक्षा हेतु शक्ति के रूप में भुजाओं में, शारीरिक पोषण हेतु व्यावसायिक कर्म करने के लिये शरीर के मध्य भाग में और सब के प्रति सेवा भाव रखने के लिये पैरों में निवास करता है।

यदि मानव संघर्ष के इतिहास में विप्रों को दूसरों पर आश्रित होकर आपने जीवन को चलाने की भूमिका निभाने वाला कहा जाये तो वैश्यों की भूमिका पारिभाषित करने के लिये तो शब्द ही नहीं मिलेंगे। विप्र और वैश्य दोनों ही समाज का शोषण करते हैं परंतु वैश्य शोषणकर्ता अधिक भयंकर होते हैं। वैश्य तो समाज वृक्ष के वे घातक परजीवी होते हैं जो उस वृक्ष के जीवन तत्व को ही चूसते जाते हैं जब तक वह सूख न जाये। यही कारण है कि पूंजीवादी संरचना में उद्योग या उत्पादन लोगों के ‘‘उपभोग की मात्रा‘‘ द्वारा नियंत्रित न किया जाकर  ‘‘लाभ की मात्रा‘‘ के द्वारा नियंत्रित होता है ।

 परंतु वैश्य परजीवी यह समझते हैं कि यदि पेड़ ही मर जायेगा तो वे किस प्रकार बच सकेंगे इसलिये वे समाज में अपना जीवन बचाये रखने के लिये कुछ दान का स्वांग रचकर मंदिर, मस्जिद, चर्च , यात्री धरमशालायें, बोनस वितरण और गरीबों को भोजन आदि कराते हैं। विपत्ति तो तब आती है जब वे अपना सामान्य ज्ञान त्याग कर प्रचंड लोभ के आधीन होकर समाज वृक्ष के पूरी तरह सूख जाने तक शोषण करने लगते हैं। एक बार समाज का ढाॅंचा अचेत हो गया तो वैश्य भी अन्यों के साथ मर जायेंगे । नहीं, तो उनके द्वारा, इस प्रकार समाज को अपने साथ ले डूबने से पहले शोषित शूद्र, क्षत्रिय और विप्र मिलकर वैश्यों को नष्ट कर सकते हैं, प्रकृति का यही नियम है। 


यह कितना आश्चर्य है कि समाज की समुचित व्यवस्था बनाये रखने के लिये ही व्यक्तिगत गुणों और कर्मों के अनुसार उसे चार भागों में विभाजित किया गया था ( चातुर्वर्णं मया सृष्टा गुणकर्म विभागशः ) परंतु स्वार्थवश हमने ही उनकी क्या गति कर डाली है। यहाॅं यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि गुणों और कर्मों के आधार पर किये गये  इस प्रकार के सामाजिक विभागों में कोई भी किसी भी विभाग में जन्म लेकर अपने कर्मों में परिमार्जन कर अन्य विभागों में सम्मिलित हो सकता था और इस कार्य को सामाजिक मान्यता भी थी। इस बात की पुष्टि में यह उद्धरण पर्याप्त है ‘‘ जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते‘‘ अर्थात् जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं परंतु दिये गये संस्करों के अनुसार ही इसी जीवन में उनका फिर से जन्म होता है और उन्हें द्विजन्मा कहा जाता है। एक अन्य उद्धरण यह है कि एक ही वंश में उत्पन्न गर्ग, वसुदेव और नन्द परस्पर चचेरे भाई थे परंतु गर्ग ने विप्रोचित संस्कारों को ग्रहण कर अपने को ऋषि का, वसुदेव ने क्षत्रिय संस्कार उन्नत कर अपने को सेनापति और नन्द ने वैश्योचित संस्कार पाकर पशुपालक का स्तर अपनाया और निभाया। आज के समाज ने एक ही विभाग में लाखों प्रकार की जातियों का समावेश कर शोषण की प्रवृत्ति को क्या और अधिक गहरा नहीं किया है? अब, यदि मानव समाज को अपना अस्तित्व बचाना है तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप में  ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों नैसर्गिक गुणों को एक समान उन्नत कर आत्मनिर्भर होना होगा तभी वह अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सकता है अन्यथा नहीं। जिस किसी में इन चारों गुणों का  उचित सामंजस्य है उन्हें ही सदविप्र कहा जाना चाहिये।



Friday 7 August 2020

328 ‘ब्रह्म‘ कहाॅ पाए जाते हैं?


उस दिन मेरे एक मित्र ने आकर बडा़ विचित्र प्रश्न पूछ डाला। कहने लगे, ये ‘ब्रह्म’ कहाॅं पाया जाता है? 

उनसे अप्रत्याशित प्रश्न सुनकर अचरज तो हुआ पर उत्तर भी उचित और उनके अनुकूल हो इसके लिए मैंने ‘उन’ सबके पिता से से ही निवेदन किया कि अब तुम्हीं बताओ इन्हें क्या उत्तर दूॅं? मुझे पता नहीं कब पढ़ा, रसखान कवि का एक सवैया, याद आ गया। जिसमें वे कहते हैं कि,

 ‘‘मैं ने वेदों और पुराणों में ‘ब्रह्म’ को ढूड़ा पर सभी ने मन में पहले से चार गुना भ्रम पैदा कर दिया। वेद कहते हैं कि उस ब्रह्म को कभी भी कहीं भी देखा नहीं जा सकता, सुना नहीं जा सकता, वह कैसे स्वरूप और स्वभाव का है यह कोई नहीं जानता। मैं तो सभी जगह उन्हें ढूंड़ता फिर पर किसी महिला या पुरुष ने मुझे उसका पता नहीं बता पाया। पर आश्चर्य, कि जब थक कर हार गया तो एक फूलों की लताओं से बनी झोपड़ी में सुस्ताने बैठना चाहा तो देखा, वहाॅं राधिका के पैरों के पास ‘वह’ बैठा था।’’

‘ब्रह्म’ मैं ढूड़्यो पुरानन वेदन, भेद कियो चित चैगुन चारुन ।

देेखो सुनो न कहूं कबहूं वह कैसो स्वरूप व कैसो सुभायन।

ढूंड़त ढूंड़त ढूड़ि फिर्यो ‘रसखान’ बतायो न लोग लुगाइन।

पायो कहाॅं, वह कुंज कुटीर में बैठो पलोटत ‘राधिका’ पायन।

यह सुनकर मित्र महोदय खिन्न हुए, बोले, वाह! यह भी कोई बात हुई, राधिका के पैरों में बैठा मिला ब्रह्म? 

मैं ने उन्हें धैर्य से सोचने को कहा कि यदि आप राधा को कोई लौकिक जगत की सुंदर महिला को समझते हैं तो भूल करते हैं। ‘‘राधा’’ का अर्थ है भक्त के भक्तिभाव की चरम अवस्था अर्थात् क्लाइमेक्स आफ डिवोशनल सेंटीमेंट आफ ए डिवोटी। ‘राधा’ है अपने ‘इष्ट’ के प्रति प्रेम की उत्तुंता का भाव, समर्पण की पराकाष्ठा। 

और, भक्त कौन है? भक्त है ‘उन्हें’ पाने के लिए उत्कट हुआ व्यक्ति जिसे उनके अलावा किसी की चाह नहीं होती। 

वे बोले, कुछ समझ में नहीं आया। मैंने कहा, पुराणों में एक दृष्टान्त देकर इसे इस प्रकार समझाया गया है-

नारद जी ने एकबार भगवान विष्णु से पूछा, प्रभो! आप कहाॅं रहते हैं, बैकुंठ में, योगियों के हृदय में या कहीं और? विष्णु जी बोले नहीं नारद! न तो मैं बैकुंठ में रहता हॅूं और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहाॅं रहता हॅूं जहाॅं मेरे भक्त मुझे पाने की उत्कट इच्छा से गाते हैं, पुकारते हैं।

‘‘ नाहं वसामि वैकुंठे योगिनाम् हृदये न च।

मद्भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद!’’

इसलिए उन्हें कहीं दूर जाकर तलाश करने की आवश्यकता नहीं है, उन्हें पाने के लिए जब मन मेें उत्कट इच्छा जागेगी इतना कि उनके बिना रहना मुश्किल हो जाएगा, वे स्वयं ही आपके सामने प्रकट हो जाएंगे। 


Saturday 1 August 2020

327मामेकम् शरणम् ब्रज



संस्कृत में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने अर्थात् ‘चलने’ के अर्थं में प्रयुक्त किये जाने वाले अनेक शब्द हैं जैसे,
गच्छ= गच्छति, सामान्यतः चलना या जाना।
चल्= चलति, सामान्य रूप में चलना। 
चरति= खाते हुए चलना। 
अट्= अटति, पर्यटति, ज्ञान पाने के लिए चलना। 
ब्रज्= ब्रजति, आनन्द पूर्वक चलना।
संसार के सभी दार्शनिक विचार उस परमसत्ता की ओर जाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जिसने इस समग्र सृष्टि को रचा है। कुछ कहते हैं वह स्वर्ग में रहता है और हम सबसे श्रेष्ठ है, हमें उसे प्रसन्न रखना चाहिए अन्यथा वह हमें दंडित कर नर्क की यातनाएं देगा । कुछ कहते हैं कि वह मंदिरों या तीर्थों में रहता है वहाॅं जाकर हमें अपनी सुख समृद्धि की प्रार्थना करना चाहिए। कुछ कहते हैं कि वह तो सर्वव्यापी हैं उन्हें कहीं ढूॅंड़ने की जरूरत नहीं है। कुछ के अनुसार वह हमारे भीतर ही हैं अतः उन्हें अपने मन की गहराई में ही खोजना चाहिए। कुछ कहते हैं कि यह समग्र ब्रह्माॅंड उन परमपुरुष की विचार तरंगे है अतः हम सभी उनकी ही विचार तरंगों के छोटे से भाग हैं इसलिए उनसे पृथक नहीं हैं उन्हीं के भीतर हैं। 
जब सब कुछ उन्हीं के भीतर है बाहर कुछ नहीं तो वह तो हमारे परमपिता हुए अतः, हमें अपना पृथक अस्तित्व भूलकर उनकी ओर प्रेमपूर्वक प्रसन्नता से चलने का प्रयास करना चाहिए । मनुष्य जीवन का एकमात्र यही लक्ष्य है। सच है, अपने पिता से डरने का क्या कारण? आनन्दपूर्वक उनका चिन्तन, मनन और निदिद्यासन (अर्थात् उनकी समीपता का अनुभव करना और ध्यान करना) करते हुए उनकी ओर जाने का कार्य ही कीर्तन, भजन, पूजन, साधन, उपासन और आराधन कहलाता है, अन्य सब व्यर्थ है। 
इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् ब्रज’’ अर्थात्, पृथकता, चिन्ता, भय और रोना (द्वितीयक धर्म, यानी सभी उपधर्म) छोड़कर, केवल मेरी ओर (प्राथमिक धर्म, यानी प्रधान धर्म) आनन्दपूर्वक चले आओ । यदि चलते हुए गिरने से चोट लग जाए तो तुम्हारा पिता गुणकारी मरहम लगा कर ठीक कर देगा, धूल को पोंछ कर स्वच्छ कर देगा, चिन्ता की कोई बात नहीं । 
यही समझाने के लिए उन्होंने पूर्वोक्त लगभग समानार्थी शब्दों में से  ‘‘ब्रज्’’, ब्रजति अर्थात् ‘‘आनन्द पूर्वक चलना’’ को ही अपने कथन में प्रयुक्त किया है।
परन्तु, देखो तो! वह लगातार बुला रहे हैं और हम, डरकर उनसे दूर भागते जा रहे हैं प्रकृति के हर क्षण बदलते मायावी स्वरूपों से आकर्षित होकर । इस विचित्र दुनिया के सतत रूपान्तरित होते वर्णक्रम को हमने सबकुछ मान लिया है! ! !

Wednesday 15 July 2020

326 दस प्राण, श्वास और प्रश्वास


शरीर के किसी भाग में कमजोरी या दोष होने पर  प्राण और अपान वायु में असंतुलन हो जाता है। इसकारण समान वायु इन दोनों  में संतुलन स्थापित नहीं कर पाता है यही कारण है कि नाभी के चारों ओर और गले में इन तीनों में तेज संघर्ष होने लगता है। शरीरविज्ञान में इसे नाभिश्वास  कहते हैं। जब समान वायु अपना नियंत्रण खो देता है तो प्राण अपान और समान मिलकर एक हो जाते हैं और उदान वायु पर आक्रमण करते हैं। जिस क्षण उदान वायु अपना पृथक अस्तित्व खो देता है तो  व्यान वायु भी सभी आन्तरिक वायुओं के सम्मिलित बल के साथ जुड़कर एक हो जाता है। यह सम्मिलित बल भौतिक शरीर में सभी अंगों पर अपना आघात करता है और कमजोर भाग से बाहर चला जाता है। केवल धनन्जय नामक वायु बचा रहता है। धनन्जय वायु नींद का कारक होता है अतः जब तक मृतशरीर जल नहीं जाता या अन्य प्रकार से नष्ट नहीं होता, धनन्जय बना रहता है । शरीर के पूर्णतः नष्ट हो जाने पर धनन्जय अन्तरिक्ष में रहता है और प्रकृति की इच्छा से फिर से नये भौतिक शरीर में प्रवेश करता है। इससे यह स्पष्ट है कि मानसिक और भौतिक तरंगों के बीच साम्य के नष्ट हो जाने पर मृत्यु होना कहलाता है। अर्थात् शरीर की भौतिक मृत्यु के समय धनन्जय को छोड़कर उसमें से नौ प्रणवायु आकाश में चले जाते हैं , मानसिक तरंगें भी संतुलन के अभाव में शरीर को छोड़कर आकाश में चली जाती हैं जिनके साथ इस जीवन के अभुक्त संस्कार बने रहते हैं, इसे ही सूक्ष्म शरीर कहते हैं। अभुक्त संस्कार या रीएक्टिव मूमेंटा भोग करने के लिए प्रकृति के सार्वभौमिक नियम के अनुसार उसका रजोगुण नया शरीर देकर साम्य स्थापित कर देता है। ऐसा वह इस सूक्ष्म मानसिक शरीर को नयी भौतिक संरचना में प्रवेश कराकर संभव बनाता है। इस प्रकार जन्म मृत्यु का क्रम चलता रहता है जब तक कि सभी नये और पुराने संस्कारों का क्षय नहीं हो जाता । जब सभी संस्कार क्षय हो जाते हैं तो इसे अन्तिम मृत्यु कहते हैं क्योंकि फिर किसी भी संस्कार को भोगने के लिए शरीर नहीं लेना पड़ता। संस्कार विहीन शुद्ध इकाई चेतना परमचेतना में मिल जाती है जो मृत्यु की भी मृत्यु कहलाती है क्योंकि वहाॅं मृत्यु भी मृत हो जाती है अर्थात् फिर नया शरीर नहीं लेना पड़ता। मानव मात्र का लक्ष्य इसी अमृतत्व को पाना ही है। यही पुरुषोत्तम अवस्था है, यही परमपुरुष परमसत्ता हैं।

प्रश्वास के बाद प्रत्येक रिक्त अवधि में इकाई जीव की मृत्यु होती है परन्तु अगली श्वास के साथ जीवनी शक्ति पा लेते हैं। परन्तु यदि एक श्वास और प्रश्वास का चक्र पूरा होते ही भौतिक यान्त्रिकता रिक्त अवधि से जीवनी शक्ति नहीं पा पाती है तो अगली श्वास लेना कठिन हो जाता है, सामान्यतः इसे ही मृत्यु होना कहते हैं। इस प्रकार इकाई जीव हर प्रश्वास के साथ रोज हजारों बार मरता है। इसलिए मृत्यु वैसी ही सामान्य घटना है जैसे श्वास लेना और छोड़ना। यह कुछ लोगों को दागदार हो जाती है जब वे एक शरीर से निकली अन्तिम प्रश्वास को दूसरे शरीर की प्रथम श्वास के साथ सम्बंधित नहीं कर पाते।

Saturday 11 July 2020

325 छोटे बच्चों की आध्यात्मिक शिक्षा

325 छोटे बच्चों की आध्यात्मिक शिक्षा
बच्चों को सृष्टि और इस जगत की उत्पत्ति के संबंध में इस प्रकार समझाया जाना चाहिये कि उनके मन पर अनावश्यक काल्पनिकता का बोझा न लद जाये। जैसे, परमपुरुष ने सृष्टि को क्यों रचा ? इसके उत्तर में उनसे कहा जा सकता है कि परमपुरुष बिलकुल अकेले थे, अन्य कोई नहीं था, स्वभावतः उन्हें किसी साथी की आवश्यकता हुई जिसके साथ वह खेल सकें। सच भी है कौन चाहेगा सदा ही अकेला रहना? हम सभी अपने परिवार और मित्रों को अपने आस पास ही रखना चाहते हैं तभी हमें आनन्द मिलता है। इसी प्रकार परमपुरुष भी किसी को अपने साथ में चाहते थे जिसके साथ वे हॅंस सकें, खेल सकें। परंतु था तो कुछ नहीं इसलिये वह कुछ रचना चाहते थे जिससे वे अकेले न रहें। यदि तुम कोई खिलौना बनाना चाहो तो कुछ पदार्थ चाहिये होगे कि नहीं? जैसे, प्लास्टिक, लकड़ी, कागज, धातु ,रबर आदि जिससे तुम अपने मन पसंद खिलौने को बना सकते हो। परमपुरुष तो अकेले थे निर्माण करने के लिये कोई पदार्थ नहीं था इसलिये उन्होंने अपने मन के ही कुछ भाग का उपयोग करते हुए वाॅंछित पदार्थ पाया और विभिन्न प्रकार की रचना करने लगे जिसे ‘‘संचर’’ कहा जाता है।
जब वह पदार्थ तैयार हो गया तो उन्होंने पौधे और जन्तुओं को बनाया, छोटे बड़े पक्षी ,कुत्ते, बंदर चिंपांजी और अंत में मनुष्य। इस संरचना में उन्होंने सभी को मन दिया कुछ में अधिक उन्नत और किसी किसी का कम उन्नत, परंतु सभी उनके सार्वभौमिक परिवार के अभिन्न अंग हैं। इस प्रकार उनका अकेलापन दूर हो गया । जड़ पदार्थों से मनुष्य के निर्माण करने की पद्धति ‘‘प्रतिसंचर’’ कहलाती है। इस तरह परमपुरुष ही सबके पिता हैं वे सभी को अपने प्रेम और आकर्षण से अपनी ओर वापस बुला रहे हैं। अपने दिव्य आकर्षण से वह प्रत्येक को खींच रहे हैं। इस ब्रह्माॅंड की यह प्राकृतिक कार्य प्रणाली है।
बच्चे जब इस प्रकार से स्पष्ट रूप से यह जानंेगे कि वे कौन हैं और कहाॅं से आये हैं तो निश्चय ही वे अनुभव करेंगे कि वे सब परमपुरुष की ही संताने हैं, उन्हीं की बेटे बेटियाॅं हैं । इस प्रकार की धारणा उनके मन में बन जाने पर वे अपने जीवन में पूर्ण आत्मविश्वास भर कर कार्य कर सकेंगे। वे अपने लक्ष्य को स्पष्टतः समझेंगे और उसे पाने के लिये यहाॅं वहाॅं नहीं भटकेंगे, वे यह सदा ही अनुभव करते रहेंगे कि परमपुरुष उन्हें लगातार देख रहे हैं। वे इस विश्व को समझ सकेंगे कि यह सब विभिन्न रचनायें, उन्हीं के आकार और प्रकार हैं और वे सब परमपुरुष केन्द्रित विश्व में ही रहते हैं। इस प्रकार वे दूसरों के साथ में अपने संबंधों को भी पसंद करेंगे क्योंकि स्वाभाविक रूपसे वे परमपुरुष को पिता और संसार की छोटी बड़ी सभी रचनाओं और अस्तित्वों को अपने परिवार का हिस्सा मानेंगे। इसलिये वे सभी पेड़ पौधों और प्राणियों के साथ अपना मधुर व्यवहार बनायेंगे। इस प्रकार वे धर्म के रास्ते पर सरलता से बढ़ते जायेंगे तथा एक महत्वपूर्ण बात उनके मन में बस जायेगी वह यह कि ‘हम परमपुरुष से आये हैं और उनके पास ही लौटकर जाना है इसके लिये साधना करना घर वापस लौटने की प्रक्रिया है उसे अवश्य करना चाहिये।’

Monday 22 June 2020

324 सामान्य भक्ति का बहक जाना


सभी प्राणियों में सामान्य भक्ति के बीज होते हैं। भक्ति के पीछे मूल मनोविज्ञान यह है कि जब कोई  व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु में अपने से अधिक आश्चर्यजनक महानता देखता है तो उसके अपने गुण निलम्बित हो जाते हैं और वह उस व्यक्ति के प्रति अपना विशेष प्रकार का भाव बना लेता है इसे ही भक्ति कहा जाता है। इस प्रकार सभी को किसी न किसी में आश्चर्यजनक गुण दिखाई देते हैं जैसे, किशोर युवक युवतियों को अपनी पसंद का गायक, खिलाड़ी या फिल्म का हीरो आदि में, अपने से कुछ अधिक महानता के गुण दिखाई देते हैं अतः उनके स्टेज पर आते ही वे तालियाॅं बजाने लगते हैं। इसे सामान्य भक्ति कहा जाता है। वास्तव में वे चाहते तो परमसुख या आनन्द को हैं परन्तु वे इसे जान नहीं पाते अतः उनकी यह सामान्य भक्ति अपनी दिशा बदल लेती है। यथार्थतः सामान्य भक्ति में भौतिक चीजों की चाह  या उनके प्रति अपनापन बढ़ा लेने की प्रवृत्ति पाई आती है। यही कारण है कि अनन्त आनन्द पाने की चाह इन भौतिक जगत की वस्तुओं या व्यक्तियों के पा जाने पर  कभी भी पूरी नहीं होती क्योंकि ये सब सीमित होते हैं। 
सच्चाई तो यह है कि परमपुरुष के ध्यान करने को ही भक्ति कहा जाता है; परन्तु अधिकाॅंश लोग धनवानों, गुणीजनों और प्रसिद्ध लोगों को पूजते दिखाई देते हैं इस तरह उनका भक्ति भाव परमपुरुष से हट जाता है, बहक जाता है। जब छोटा बच्चा भूखा होता है तो उसके हाथ में जो कुछ भी पकड़ में आ जाता है उसे वह मुंह में डालकर चबाना शुरु कर देता है पर इन पदार्थों से क्या उसकी भूख मिटती है ? नहीं। सभी  मनुष्य महान बनना चाहते हैं उनके भीतर सामान्य भक्ति होती है, परन्तु वे यह नहीं जानते कि महान बनने के लिये कहाॅं जाना चाहिए। अनन्त की चाह को सन्तुष्ठ करने के प्रयासों में परमपुरुष का ध्यान न कर वे पद, प्रतिष्ठा, मान और धन को ही आश्चर्यजनक मानने लगते हैं और अन्धे होकर उन्ही की ओर दौड़ पड़ते हैं। ये लोग उसी बच्चे के समान हैं जो भूख मिटाने के लिए जो भी हाथ मेें आ जाता है उसे खाने लगता हैं और उसकी चाह एक वस्तु से दूसरी पर बदलती रहती है। परन्तु जब कोई व्यक्ति अपनी सामान्य भक्ति को परमपुरुष की ओर मोड़ देता है तो उसकी भक्ति में लगातार वृद्धि होती जाती है और वह उस परमसत्ता की कृपा पाकर सन्तुष्ठ हो जाता है।

Sunday 21 June 2020

323 बड़ों का मूल्य



यह एक तथ्य है कि हर दिन हम  बड़े होते  जाते हैं - हमारे भौतिक शरीर की  उम्र, शिकनभूरे बाल आदि बड़े होने की सूचना देते  हैं। यह एक सामान्य घटना है। फिर भी कोई भी "बूढ़ा हो जाना पसंद नहीं करता।" साथ ही योग में  विभिन्न पद्धतियां हैं जो इस उम्र बढ़ने की प्रक्रिया से जूझकर  शरीर को युवा और जीवंत रखने के लिए प्रयुक्त हो सकती हैं।  इसके अलावा , अधिक उम्र अर्थात बुजुर्ग होना एक सम्मानित विशेषता है। और एक अन्य बिंदु यह है कि हमारा  अंतर्ज्ञान संकाय कालातीत रहता है  - पूरी तरह से काल अर्थात टाइम  से अप्रभावित।
भौतिकवादी युग में विभिन्न देशों में बुजुर्ग या वरिष्ठ नागरिकों के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण हैं। लेकिन दुनिया भर में आम भावना यह है कि कोई भी "पुराने" के रूप में वर्णित होना पसंद नहीं करता है। यही कारण है कि यदि कोई व्यक्ति किसी  को "बूढ़ा" कहता है, तो वह व्यक्ति नाखुश हो सकता है या अंदरूनी परेशानी  महसूस कर सकता है। यही कारण है कि यदि कोई बड़े व्यक्ति के प्रति सम्मान करना चाहता है, तो एक बहुत ही विनम्र और सम्मानजनक तरीके से "वरिष्ठ  नागरिकइस तरह के शब्द का उपयोग करना होगा। यह , सामान्य समाज के सदस्यों के साथ काम करते समय  विशेष रूप से आवश्यक होता है

उन जगहों पर जहां भौतिकवाद अधिक हावी है, बूढा होना  बहुत तनाव और निराशा लाता है क्योंकि ऐसी जगहों में अक्सर, परिवार अपने वृद्ध सदस्यों को साथ में रखना पसंद नहीं करता है।  नतीजतन, उन बुजुर्ग व्यक्तियों के  जीवन का  अवमूल्यन हो जाता है। इसलिए, बुजुर्गों को "पुराना" कहा जाना पसंद नहीं है क्योंकि  यह पुराना , बेकार समझा जाता  है। भौतिकवादी समाज में उन आम लोगों की यह दुखद और दोषपूर्ण मानसिकता है। 
इसके अलावा, भौतिकवादी देशों में जहां "सेक्स " प्रभावशाली होता है, बुढ़ापा  यौन अपील की हानि का प्रतीक है, जिससे उस का अस्तित्व  लगभग बेमानी हो जाता है। भौतिकवादी समुदायों में महिलायें  इस रोग से पीड़ित हैं। इसके  सीधे विपरीत, हमारी  आध्यात्मिक जीवन शैली में, परिदृश्य पूरी तरह से अलग है। "एजिंग" सम्मान और गरिमा का प्रतीक माना जाता  है . भारत के प्राचीन इतिहास को देखते हुए, हम पाते हैं कि "वरिष्ठ नागरिकों" का बहुत सम्मान था - युवाओं की तुलना में कहीं   ज्यादा। यह परंपरा एक तांत्रिक परंपरा है और विभिन्न महासम्भूतियों ने  भी इसी गुण का सम्मान किया है । यही कारण है कि हमारे विभिन्न समारोहों और कार्यक्रमों में चर्याचर्य  में उल्लिखित निर्देशों के अनुसार ,  वरिष्ठ व्यक्तियों को अधिक से अधिक सम्मान दिया जाता है  ।