पहले स्तर पर अहंकेन्द्रित लोग होते हैं जो यह मानते हैं कि ‘‘ मैं हॅूं और मेरे भगवान भी हैं।‘‘ इसमें मुख्य बिन्दु अपने को प्राथमिकता देना है और भगवान को दूसरा।
दूसरे स्तर पर भक्त का मन समाज सेवा और साधना के प्रभाव से ईश्वर के अधिक पास आ जाता है और वह उनकी कृपा से उनके ही बारे में अधिक सोचता है और अपने बारे में कम। यह तभी होता है जब वह ईश्वर से प्रेम करने लगता है ठीक उसी प्रकार जैसे माॅं अपने शिशु के बारे में अपने से अधिक सोचने लगती है। वह अनुभव करने लगता है कि , मेरे प्रभु हैं और मैं भी हॅूं।
जब साधना करते करते ध्यान में स्थिरता आ जाती है तब भक्त अपने अस्तित्व को भूल जाता है और अनुभव करता है कि केवल परमपुरुष का ही अस्तित्व है। यही भक्ति का अंतिम तीसरा स्तर है। तीनों ही स्थितियों में परमपुरुष का होना अनिवार्य होता है। जहाॅं पहले स्तर पर अहंभाव को प्रथमिकता दी गई होती है वहीं दूसरे स्तर पर अनुभव होता है कि परमपुरुष ही मुख्य हैं और चरम स्तर पर परमात्मा के प्रति असीम प्रेम स्थापित हो जाने के कारण भक्त अपने अस्तित्व को भूल जाता है और परमपुरुष के साथ एक हो जाता है।
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