Tuesday, 8 September 2020

332 भाभुकता और भक्ति


भाभुकता और भक्ति के बीच अन्तर यह है कि भाभुकता में मन किसी विधि विशेष का पालन नहीं करता परंतु सनक में कहीं भी किसी भी दिशा में बहने लगता है, जबकि भक्ति में वह किसी निर्धारित विधि का पालन करते हुए विशेष रास्ते से अनुशासन में चलता है। इस एकीकृत व्यवस्था का पालन करने वाले लोग मानते हैं कि बौद्धिक सह बोधि, क्रियात्मकता तथा भक्ति सह भाभुकता में पारस्परिक उत्तम मेल होना चाहिये। इनमें से कोई भी महत्वहीन नहीं है, परंतु अन्तिम रूप से भक्ति ही सबका सार निकलता है। एक बात और ध्यान में रखना चाहिये कि भक्ति से बहने वाले आंसु आनन्द देते हैं और यह आनन्द स्थायी होता है जबकि भाभुकता के आंसु उदासी और हानि पर आधारित होते हैं। अपने भूतकाल में बहाये गये आंसुओं की विवेचना करके हम जान सकते हैं कि कौन से आंसु भक्ति में और कौन से भाभुकता में बहे थे। विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि
(1) जिनमें धनात्मक स्थायी परिणाम नहीं मिला वे निर्णय अवश्य ही भाभुकता में लिये गये होगे। जैसे दूसरों को देखकर कार खरीद तो ली परंतु उसका कोई अधिक उपयोग नहीं , एक स्थान पर रखी है ।
(2) जो दीर्घस्थायी और लाभदायी उपलब्धियों से भरे होते हैं वे निर्णय निश्चय ही भक्ति अथवा दिव्यता पर आधारित होते हैं। जैसे किसी ने यह निर्णय ले लिया कि बस अब तो उन्हीं का साथ करेंगे जो सात्विक हैं भक्तिभाव से प्रेरित हैं और मुक्ति मार्ग पर चल रहे हैं तो उनके जीवन में आने वाला परिवर्तन स्थायी आनन्द और भविष्य की उज्ज्वलता लाता है। 
एक और बात यह भी है कि कोई भी केवल तर्क और कारण के आधार पर सक्रिय नहीं होता जब तक कि उसके हृदय में भावना नहीं उठती। जैसे समाचार पत्र में भूकम्प के बारे में पढ़ कर कोई तब तक सक्रिय नहीं होता जब तक उसे यह न बताया जाये कि उस भूकम्प वाले क्षेत्र में उसका अपना निकटतम संबंधी है। इसलिये जीवन के अधिकाॅंश निर्णय भाभुकतावश या फिर दिव्य प्रेम अर्थात् भक्ति भाव से लिये जाते हैं। जैसे , आधी रात में कोई माॅं अपने बीमार बच्चे को अस्पताल ले जा रही है, कोई बच्चा अपने अन्य मित्रों के साथ मिठाई पाने के लिये दौड़ रहा है, किसी अत्यधिक प्रिय की प्रतीक्षा में देर से घूप में खड़े हैं, इन सभी स्थितियों में लोग तभी सक्रिय होते हैं और उपलब्धि पाते हैं जब उनके मन में अपने लक्ष्य के प्रति लगाव और हृदय से भावना जागृत होती है। हृदय की यह भवना भाभुकता वश है या भक्ति के द्वारा मार्गदर्शित, इसी अन्तर के आधार पर महानता फलित होती है। भावनाओं में बह कर लिये गये निर्णय अल्प कालिक होते हैं उनसे सार्वभौमिक कल्याण की आशा नहीं की जा सकती। भक्ति में भक्त का हृदय स्थायी प्रवाह में होता है जो आजीवन अपने लक्ष्य की ओर जाने में सहायता करता है । भक्त की सभी भावनायें परमपुरुष से जुड़ी होने के कारण उसके मन में दुख या क्षोभ प्रवेश ही नहीं कर पाते। इस प्रकार भक्ति और भाभुकता में बहुत अंतर होता है।

भाभुकता प्रेय की ओर अर्थात् भौतिक जगत की ओर मन को खींचती है जबकि भक्ति श्रेय की ओर अर्थात् परमपुरुष की ओर ले जाती है, इसलिये यह कहा जा सकता है कि परमपुरुष की ओर ले जाने वाली भाभुकता ही भक्ति है। भक्ति पूर्णतः व्यावहारिक होती है और वास्तविक जीवन का आनन्द देती है क्योंकि  परमपुरुष आनन्द स्वरूप हैं। भक्ति और भाभुकता में एक बात समान होती है वह है दोनों में आंसुओं का आना । अब प्रश्न यह है कि आंसुओं के आधार पर कैसे जाना जाय कि यह भक्ति के हैं या भाभुकता के? भक्ति के आंसु आनन्दाश्रु कहलाते हैं क्योंकि वे आनन्द प्राप्त होने के  फलस्वरूप आते हैं और आंखों में ये बाहरी किनारों की ओर से गालों पर टपकते हैं। जब किसी कष्ट के कारण या किसी बात से मन के दुखी होने पर मन भावना प्रधान होने लगता है तब आंसु आंखों के भीतरी किनारों से सीधे नीचे गिरने लगते हैं इन्हें शोकाश्रु कहते हैं। भौतिक वस्तुएं कितनी ही प्रिय क्यों न हों वे क्षणभंगुर ही होती हैं, कभी हॅंसाती हैं कभी रुलाती हैं परंतु एक दिन वे तुम्हें छोड़कर चली ही जाती हैं सदा नहीं रहती । इसलिये परमपुरुष से प्रेम करना ही बाॅंछनीय है यही स्थायी आनन्द दे सकता है क्योंकि वह अजर अमर हैं।

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