Wednesday, 2 September 2020

331 पाप, कष्ट और भाग्य

 

इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि किसी को प्राप्त होने वाले कष्ट का वास्तविक प्रकार पूर्व निर्धारित नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि किसी प्रतिक्रिया की मूल क्रिया क्या है। यह पूर्वनिर्धारित नहीं होता कि यदि किसी ने कोई वस्तु चुराई है तो प्रतिक्रिया स्वरूप उसे भी उतने मूल्य की चोरी का सामना करना होगा। कष्ट का निर्धारण उस मानसिक कष्ट के तुल्य आंका जाता है जो किसी की चुराई गई वस्तु से उस व्यक्ति को प्राप्त हुआ है। इसलिए क्रिया की प्रतिक्रिया का माप, मानसिक रूप से प्राप्त होने वाले सुख या दुख के स्तर के अनुसार अनुभव होता है। अतः वास्तविक शारीरिक सुख या दुख के अनुभव के प्रकार का अपेक्षतया कोई महत्व नहीं होता। 

एक अन्य परिदृश्य के अनुसार कुछ धर्मो के लोग रास्ते में पड़े किसी व्यक्ति को कष्ट पाते देखकर कहते हैं कि उन्हें इस मामले में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है वह तो अपने संस्कारों को भोग रहा है उसे भोगने दो। पर यह उचित नहीं है, हमें अधिक से अधिक लोगों के शारीरिक कष्ट दूर करने के लिए उन्हें मदद करना चाहिए क्योंकि वह अपने संस्कारों का भोग तो पूर्णतः मानसिक रूप में कर रहा होता है। इसलिए भले ही हम कितने ही प्रयास कर किसी को मदद करें परन्तु उसके संस्कारों का चक्र तो आगे चलता रहेगा चाहे वह जिस किसी प्रकार और आकार में हो जैसे, अपमान , अवसाद , हताशा , क्रोध, निराशा या अन्य किसी प्रकार से। 


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