मनोविज्ञान का यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि ‘‘जैसा कोई सोचता है वैसा ही हो जाता है‘‘ इसलिये कुछ भी सोचने के पहले बहुत ही सावधान रहने की आवश्यकता होती है। इस सिद्धान्त पर मनन करने पर यह स्पष्ट होता है कि हमें अपनी सोचने ओर विचार करने पर नियंत्रण होना चाहिये क्योंकि यदि कोई पदार्थ के संबंध में सोचता है तो धीरे धीरे वह पदार्थ ही होता जायेगा । आध्यात्म में यह प्रमाणित किया गया है कि ‘मन‘ का स्वभाव यह है कि वह सोचने वाले विषय या वस्तु का आकार ग्रहण कर लेता है। मानलो कोई व्यक्ति धन या किसी तुच्छ वस्तु का चिंतन करता है तो एक समय बाद वह उसी का आकार प्राप्त कर लेता है। इसी लिये भगवद्गीता में भी कहा गया है ‘ यादृशी भावना यस्य सिर्द्धिभवति तादृशी‘ अर्थात् जिसकी जैसी भावना होती है उसे वैसा ही फल भी मिलता है। अर्थात् मानलो कोई खाने का ही शौकीन है और जब भी मौका मिलता है खाने को प्राथमिकता देता है तो यह अधिक संभव है कि वह अगले जन्म में सुअर का शरीर पाये, ऐसे ही यदि कोई सबसे तेज दौड़ने की इच्छा करता रहता है तो वह आगे हिरन का शरीर पाये। इसलिये, एक सेकेंड से अधिक किसी इच्छा पर विचार करते हुए देर की गयी तो उसकी प्रतिक्रिया अवश्य उत्पन्न हो जाती है। चोरों के बारे में कोई लगातार सोचता रहे तो कुछ समय के बाद चोरी करने के विचार उसके मन में जन्म लेने लगते हैं। इसलिये इस प्रकार के अवाॅंछित विचारों को मन में उत्पन्न ही नहीं होने देना चाहिये, यदि कभी भूल से इस प्रकार के निकृष्ट विचार आ ही जायें तो तत्काल उन्हें परमपुरुष की ओर प्रेषित करते हुए कहना चहिये हे प्रभु तुम्हारी इच्छा ही पूरी हो। हमेशा ही आध्यात्मिक भक्तिभाव का ही आदर्श सामने रखना चाहिये परंतु दुर्भाग्य यह है कि इस पूंजीवादी युग में सभी लोग अपने मन को नाम, यश, द्वेष, तनाव, क्रोध, भय, शत्रु , बीमारी, पर ही सोचने में लगाये रहते हैं अतः मन की आधी ऊर्जा तो इसी की उधेड़ बुन में खर्च हो जाती है । स्पष्ट है कि मन जितना पतन की ओर जायेगा समस्या उतनी ही गंभीर होती जायेगी।
अनियंत्रित सोच और अनावश्यक चिंतन मानसिक और भौतिक व्याधियों का भी कारण बनता है। इसलिये सभी को इस बात को अवश्य ध्यान में रखना चाहिये कि हम जैसा सोचते हैं वैसा ही हो जाते हैं अतः क्या सोचना चाहिये और क्या नहीं इसकी समझ गंभीरता से विकसित कर लेना चाहिये। आपकी सोच आपके पूरे अस्तित्व को ही बदल देती है। इसलिये इस समस्या के दूसरे पक्ष की सहायता लेकर ही समीकरण संतुलित किया जा सकता है और वह है अपने सभी विचारों को केन्द्रित कर प्रत्येक समय परमपुरुष की ओर प्रेषित करते जाना। इस विधि से मन के अनेक भ्रम और बंधन नष्ट होने में देर नहीं लगती और मन भी परमपुरुष की ओर आगे बढ़ने लगता है। वास्तव में मन के केन्द्रित प्रवाह को जब परमपुरुष की ओर प्रेषित कर दिया जाता है तो इसे ही आध्यात्मिक चिंतन कहते हैं। इससे मन में धनात्मक विचार आते हैं और मन अपने लक्ष्य से पृथक नहीं हो पाता। इस चिंतन में ब्रेन सैल, उच्चतर स्तर का मनोविज्ञान, केन्द्रीकृत मानसिक प्रवाह, गुरुचक्र और भक्ति भाव ये सभी जुड़ जाते हैं। अनेक लोग प्रकृति के विभिन्न रूपों को पूजते हैं उन्हीं के आकार प्रकार का चिंतन करते हैं अतः इस सिद्धान्त के अनुसार अन्त में वे प्रकृतिलीन अवस्था में आ जाते हैं। वे पत्थर, लकड़ी या धातु के रुप में असीमित समय तक बने रहते हैं, बोलो ! यह कितनी भयावह स्थिति है। चंूकि हमारे विचार हमारी प्रगति को प्रभावित करते हैं अतः हमें अपने विचार प्रत्येक क्षण परमपुरुष के भावों में ही जोड़े रहना चाहिये ताकि अन्त में हम परमपुरुष को ही प्राप्त हों जो कि मानव जीवन का लक्ष्य है।
स्पष्टतः, अपने मानसिक विषय को बड़ी ही सावधानी से ही चुनना चाहिये। आज कल हम सभी ‘योग‘ के संबंध में अनेक प्रकार की वार्तायें सुनते और प्रदर्शन देखते हैं परंतु वे केवल भौतिक अभ्यासों अर्थात् फिजीकल ट्रेनिंग के अलावा कुछ नहीं होते, इसी प्रकार प्राणायाम की भी अनेक क्रियाएं दिखाई जाती हैं और बड़ी बड़ी बातें की जाती हैं। ‘योग‘ वह नहीं है जैसा आजकल प्रचारित किया जा रहा है या टीव्ही में दिखाया जाता है, वास्तव में योग के संबंध में प्रमाणित परिभाषा है‘‘ संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः‘‘ अर्थात् इकाई चेतना का परमचेतना के साथ मिल जाना ही योग कहलाता है। यह तभी हो सकता है जब कोई व्यक्ति परमपुरुष के साथ अपना मधुर प्रेम संबंध बना लेता है। इसी प्रकार प्राणायाम केवल एक ओर से साॅंस खींचकर दूसरी ओर छोड़ना और लेना ही नहीं है उसका अर्थ है प्राणों को आन्दोलित करना अर्थात् नया आयाम देना । इसमें, किस प्रकार श्वास छोड़ना या लेना, मन का चिंतन कहाॅं और क्या होना और कितनी संख्या तक किस वातावरण में किया जाना यह सब महत्वपूर्ण विचारणीय विंदु होते हैं जिन्हें इसके कुशल जानकार से ही सीखना चाहिये।
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