शरीर के किसी भाग में कमजोरी या दोष होने पर प्राण और अपान वायु में असंतुलन हो जाता है। इसकारण समान वायु इन दोनों में संतुलन स्थापित नहीं कर पाता है यही कारण है कि नाभी के चारों ओर और गले में इन तीनों में तेज संघर्ष होने लगता है। शरीरविज्ञान में इसे नाभिश्वास कहते हैं। जब समान वायु अपना नियंत्रण खो देता है तो प्राण अपान और समान मिलकर एक हो जाते हैं और उदान वायु पर आक्रमण करते हैं। जिस क्षण उदान वायु अपना पृथक अस्तित्व खो देता है तो व्यान वायु भी सभी आन्तरिक वायुओं के सम्मिलित बल के साथ जुड़कर एक हो जाता है। यह सम्मिलित बल भौतिक शरीर में सभी अंगों पर अपना आघात करता है और कमजोर भाग से बाहर चला जाता है। केवल धनन्जय नामक वायु बचा रहता है। धनन्जय वायु नींद का कारक होता है अतः जब तक मृतशरीर जल नहीं जाता या अन्य प्रकार से नष्ट नहीं होता, धनन्जय बना रहता है । शरीर के पूर्णतः नष्ट हो जाने पर धनन्जय अन्तरिक्ष में रहता है और प्रकृति की इच्छा से फिर से नये भौतिक शरीर में प्रवेश करता है। इससे यह स्पष्ट है कि मानसिक और भौतिक तरंगों के बीच साम्य के नष्ट हो जाने पर मृत्यु होना कहलाता है। अर्थात् शरीर की भौतिक मृत्यु के समय धनन्जय को छोड़कर उसमें से नौ प्रणवायु आकाश में चले जाते हैं , मानसिक तरंगें भी संतुलन के अभाव में शरीर को छोड़कर आकाश में चली जाती हैं जिनके साथ इस जीवन के अभुक्त संस्कार बने रहते हैं, इसे ही सूक्ष्म शरीर कहते हैं। अभुक्त संस्कार या रीएक्टिव मूमेंटा भोग करने के लिए प्रकृति के सार्वभौमिक नियम के अनुसार उसका रजोगुण नया शरीर देकर साम्य स्थापित कर देता है। ऐसा वह इस सूक्ष्म मानसिक शरीर को नयी भौतिक संरचना में प्रवेश कराकर संभव बनाता है। इस प्रकार जन्म मृत्यु का क्रम चलता रहता है जब तक कि सभी नये और पुराने संस्कारों का क्षय नहीं हो जाता । जब सभी संस्कार क्षय हो जाते हैं तो इसे अन्तिम मृत्यु कहते हैं क्योंकि फिर किसी भी संस्कार को भोगने के लिए शरीर नहीं लेना पड़ता। संस्कार विहीन शुद्ध इकाई चेतना परमचेतना में मिल जाती है जो मृत्यु की भी मृत्यु कहलाती है क्योंकि वहाॅं मृत्यु भी मृत हो जाती है अर्थात् फिर नया शरीर नहीं लेना पड़ता। मानव मात्र का लक्ष्य इसी अमृतत्व को पाना ही है। यही पुरुषोत्तम अवस्था है, यही परमपुरुष परमसत्ता हैं।
प्रश्वास के बाद प्रत्येक रिक्त अवधि में इकाई जीव की मृत्यु होती है परन्तु अगली श्वास के साथ जीवनी शक्ति पा लेते हैं। परन्तु यदि एक श्वास और प्रश्वास का चक्र पूरा होते ही भौतिक यान्त्रिकता रिक्त अवधि से जीवनी शक्ति नहीं पा पाती है तो अगली श्वास लेना कठिन हो जाता है, सामान्यतः इसे ही मृत्यु होना कहते हैं। इस प्रकार इकाई जीव हर प्रश्वास के साथ रोज हजारों बार मरता है। इसलिए मृत्यु वैसी ही सामान्य घटना है जैसे श्वास लेना और छोड़ना। यह कुछ लोगों को दागदार हो जाती है जब वे एक शरीर से निकली अन्तिम प्रश्वास को दूसरे शरीर की प्रथम श्वास के साथ सम्बंधित नहीं कर पाते।
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