कर्म अच्छा हो या बुरा उसके कारण मन पर विरूपण उत्पन्न होता है और जब वह अपनी मूल अवस्था में लौटता है तो प्रतिक्रिया के फलस्वरूप अच्छे कामों का अच्छा और बुरे कामों का बुरा परिणाम भोगता है। मुत्यु के बाद मन इकाई चेतना का आश्रय लेता है जहाॅं पर प्रतिक्रियात्मक यह विरूपण अपने पोटेंशियल रूप में अर्थात् सुप्तावस्था में रहता है, इन्हें ही संस्कार कहते हैं। इकाई चेतना को इन संस्कारों को प्रकट करने अर्थात् भोग करने के लिए ही दूसरा शरीर ग्रहण करना होता है। मानलो मिस्टर ‘ए’ के मरने के बाद उनकी इकाई चेतना में कर्मफल के रूपमें सुप्त संस्कार के अनुसार आठ साल की आयु में हाथ टूूटने के बराबर कष्ट भोगना है और दस वर्ष की आयु में भाग्योदय का सुख भोगना है और ग्यारह वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु का कष्ट भोगना है तो उन्हें यह सब अपने मन के विरूपण को समाप्त करते करते मूल अवस्था में लाते हुए अनुभव करना होगा।
यह भी महत्वपूर्ण है कि किसी कष्ट के वास्तविक रूप को पहले से नहीं बताया जा सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि किसी विशेष क्रिया की वास्तव में क्या प्रतिक्रिया होगी। जैसे , यह पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता कि किसी ने चोरी की है तो प्रतिक्रिया के कारण उतने ही मूल्य की उसकी चोरी होगी। वास्तव में प्रतिक्रिया में होने वाला कष्ट मानसिक कष्ट के अनुसार घटित होता है, जैसे किसी की चोरी करने से उसको जितना मानसिक कष्ट हुआ है उतना ही मानसिक कष्ट चोरी करने वाले को प्रतिक्रिया में भोगना पड़ता है। इसलिए कर्मफल को ‘‘मानसिक कष्ट या सुख’’ के अनुसार भोगना पड़ता है और अनुभव का वास्तविक स्वरूप अपेक्षतया महत्वहीन होता है।
इसलिये मिस्टर ‘ए‘ को प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मानसिक कष्ट या सुख अनुभव कराने के लिए उनकी इकाई चेतना उन परिस्थितियों को खोजकर वहाॅं ही उन्हें नया जन्म देकर नया शरीर दिलाएगी जहाॅं पर पिता के संस्कारों के अनुसार उसके पुत्र की ग्यारह वर्ष आयु होने पर मृत्यु हो जाएगी, आठ साल की आयु में पुत्र का हाथ टूटेगा आदि, और उन्हें इसका मानसिक कष्ट भोगना पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो वे अपना कर्मफल नहीं भोग पाऐंगे। अतः स्पष्ट है कि इकाई चेतना और कर्मफल बिना सोचेसमझे किसी भी शरीर में पुनर्जन्म नहीं ले लेते। उसे संस्कार भोगने के लिए पुनर्जन्म, उचित शरीर और कर्मफल भोगने के लिये उचित क्षेत्र तलाशना होता है।
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