Friday 27 February 2015

6.9 वेद में ब्रह्मविज्ञान …लगातार विंदु क्र. 8 से आगे



6.9 वेद में ब्रह्मविज्ञान …लगातार  विंदु क्र. 8 से आगे

(9 ) ‘‘अराइव रथनाभौ कला यस्मिन् प्रतिष्ठिताः, तं वेद्यं पुरुषं वेद यथा मा वो मृत्युः परिव्यथाः।‘‘ जिस प्रकार रथ नाभि अरसमूह को नियंत्रित करती है ठीक उसी प्रकार परम ब्रह्म इस संसार की सोलह कलाओं का नियंत्रण करते हैं। सोलह कलाओं अर्थात् दस इंद्रियाॅं, पांच च प्राण और अहंतत्व ये सब उन्हीं पर आश्रित हैं। यही सोलह कलायें जन्म मृत्यु का कारण है। उन्हें जानने की चेष्टा करो , उन्हें पराज्ञान के सहारे पहचान लो। उन्हें पहचान लेने पर तुम मृत्यु अर्थात् सब प्रकार की अधोगति से सहज ही बच जाओगे। मृत्यु का प्रतिषेध करने वाले वही अमृतस्वरूप ब्रह्मरस हैं। हे परम ब्रह्म ! तुम हमें इस मृत्यु लोक से अमृत लोक में जाने का पथ निर्देशित करो। परमब्रह्म  स्वयं प्रकाश  के श्रोत हैं , हमारे प्राण हैं, मैं का मैं और आत्मा की आत्मा हैं। वे गुहाचर अर्थात् अंतःकरण या हृदय के निवासी हैं। एक मात्र वे ही जीवों के चरम आश्रय हैं। जो विराट् प्रकृति, पुरुष सत्ता को स्थूल द्रष्टि से असद वस्तु में परिणत करती है वह प्रकृति भी वही हैं, प्रकृति और पुरुष का सम्मिलित नाम ब्रह्म है। ‘‘ त्वमेको द्वित्वमापन्नो शिवशक्ति विभागशः ‘‘। वे सर्वश्रेष्ठ हैं लौकिक ज्ञान से उन्हें नहीं जाना जा सकता वे ज्ञानातीत हैं। वे तुम्हारे अहंबोध के ज्ञाता हैं उन्हें जानने की चेष्टा करो। वे इतने सूक्ष्म हैं कि मन उनकी सूक्ष्मता को आॅंक नहीं सकता और वे इतने विराट हैं कि समस्त ब्रह्माण्ड उनके बीच ही स्थित है। वे अक्षर हैं, साधना के द्वारा ही अनुभव में आते हैं। साधना पद्धति ही तुम्हारा महास्त्र धनुष है, उपासना के द्वारा अपना मन रूपी वाण तीक्ष्ण कर उस पर संधान करो। अब चित्त को उनके भाव में लीन कर धनुष में टंकार कर दो और अपने लक्ष्य उस अक्षर परमात्मा को विद्ध करो। यही है सविकल्प समाधि की अवस्था।  प्रणव अर्थात् ओंकार ही धनुष का मूर्त रूप है, यहाॅं धनुष्टंकार का अर्थ है प्राणायाम की क्रिया जिसका अर्थ है प्राण और आत्मशक्ति को आन्दोलित करना। यदि तुम वाण  के रूप में आत्मा का व्यवहार करो और अनन्यचित्त होकर ब्रह्म रूपी लक्ष्य की ओर उसे चलाओ तब अवश्य  ही जैसे साधारण वाण अपने लक्ष्य पर अटक जाता है उसी प्रकार तुम्हारा आत्मा भी परमात्मा के साथ एकीकृत हो जायेगा। जिनसे आकाश , पृथ्वी और अन्तरिक्ष जकड़े हुए हैं, मन, पंच प्राण और इंद्रिय समूह जिनके बीच ही स्थित हैं उन्हें ही जानने की चेष्टा करो अन्य सभी बातों को त्याग दो। तुम हो मरणशील मृत्यु के दास , अमृतत्व में प्रतिष्ठित होने की तुम्हारी इच्छा वही पूरी कर सकते हैं।

(10 ) ‘‘ यः सर्वज्ञः सर्वविद् यस्यैषमहिमा भुवि, दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्नात्मा प्रतिष्ठिता।मनोमयः कामशरीरनेता प्रतिष्ठिते अन्ने हृदयं सन्निधाय, यद्विज्ञानेन परिपशयन्ति  धीरा आनन्दरूपम्मृतम् यद्विभाति।" जो सर्वज्ञ हैं सर्व विद हैं सब लोकों  में जिनकी महिमा सुप्रतिष्ठित है वे विराट पुरुष आनन्दमय लोक में अपने स्वरूप में दैदीप्यमान हैं। वे जीवों के प्राणस्वरूप हैं और काममय तथा मनोमय लोकों के नेता हैं। जीव के हृदय में अर्थात् महत्तत्व में अर्थात् ‘‘मैं हॅू‘‘ इस बोध के साथ इसके ज्ञाता के रूप में  वे ही प्रतिष्ठित हैं। ‘‘भिद्यते हृदय ग्रंथिश्छिद्यन्ते  सर्व संशयः, क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तसिमन द्रष्टे परावरे।‘‘ वे परावर अर्थात् कार्यरूप में प्रधान और कारण रूपमें अप्रधान हैं, वे चैतन्यस्वरूप हैं, जो उन्हें देखते हैं उनके हृदयग्रंथी के पुंजीभूत संस्कार दूर हो जाते हैं और मन के सब संशय दूर हो जाते हैं। ‘‘हृरण्यमये परे कोशे  विरजं ब्रह्म निष्कलं, तच्छुभ्रम् ज्योतिषां ज्योतिस्तद् यदात्मविदो विदुः‘‘।  इस पंचकोशात्मक शरीर में हिरण्यमय कोश  के ऊपर वे निष्कल अक्षर ब्रह्म रहते हैं। वे विकार रहित हैं उनकी ज्योति शुभ है सभी ज्योतिष्मान वस्तुओं के पीछे वे ही ज्योतिस्वरूप होकर विद्यमान हैं। अनके सामने अन्य सब ज्योतियाॅं मलिन हो जाती हैं। ‘‘ न तत्र सूर्यो भाति न चंद्र तारकं, नेमा विद्युतो भान्ति कुतो अयमग्निः, तमेव भान्तमनुभातिसर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।‘‘
(11 ) साधना के पथ पर आगे बढ़ता हुआ साधक क्रमशः  उस ज्योतिर्मय पुरुष को प्राप्त करता है। यह पुरुष, अक्षरभाव से नश्वर  वस्तु के कर्ता या नियन्ता हैं। इस क्षर -अक्षर को लेकर ही ब्रह्म हैं और इस क्षर-अक्षरात्मक ब्रह्म के प्राणकेन्द्र के रूप में,  विन्दु के रूप में जो ब्रह्मचक्र के कारण स्वरूप हो गये हैं वही हैं ब्रह्मयोनि। पुरुषोत्तम के बारे में इस प्रकार समझाया जा सकता है, मानलो तुम मन ही मन दिल्ली की कल्पना करते हो, अब तुम्हारी आत्मिक सत्ता का एक अंश  मानस धातु में परिवर्तित हो जाता है और वही मानस धातु दिल्ली का रूप धारण कर लेता है। मानस धातु के बाकी अंश  उस मनःस्रष्ट दिल्ली के दर्शक  रहते हैं। अब मानसिक सत्ता का जो अंश  द्रश्य  या द्रष्टा दोनों में से किसी भाग को नहीें लेता वही भाव ब्रह्तगत में व्यवहार होने पर पुरुषोत्तम कहलायेगा। ब्रह्म की इस ज्योतिर्मय सत्ता को जान लेने पर निरंजन ब्रह्म को भी जाना जा सकता है। स्थितधी जीवात्मा उस समय पाप और पुण्य दोनों  का त्याग कर निरंजनस्वरूप हो जाता है। जिसने इस ज्योतिस्वरूप को जान लिया वह अतिवादी नहीं रहता, वह किसी विषय को लेकर अवान्तर तर्क करके अपना समय नष्ट नहीं करना चाहता , बह आत्मा को लेकर ही क्रीड़ामग्न रहता है और साॅंसारिक क्रिया के रूपमें जो कुछ भी उसका संवेदन प्रकाशित होता है वह समस्त कल्याणधर्मी ही होता है। ब्रह्म, सत्य, तप, पराज्ञान और नित्य ब्रह्मचर्य के द्वारा ही प्राप्त होते हैं। जो इस भाव से साधना करते हैं वे अन्तःलोक में परमब्रह्म की शुभ्र ज्योति का साक्षात्कार करते हैं। जो यम नियम में प्रतिष्ठित हैं वे उनका इस प्रकार दर्शन  करते हैं कि निष्कलुष हो जाते हैं। सत्य की विजय होती है और सत्य उसे कहते हैं जिसके पीछे परहित की भावना होती है। मिथ्या की जीत कभी नहीं होती उसे सामयिक सफलता यदि मिल भी जाये तो वह दारुण पराजय का ही सूचक है। सत्य के द्वारा ही कण्टकाकीर्ण मोक्ष पथ प्रशस्त तथा सुसंस्कृत होता है जिसका अनुसरण कर आप्तकाम ऋषि सत्य के परम निधान परमपुरुष का संग लाभ करते हैं।
क्रमशः

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