6.6 ज्ञान संकाय
याॅंत्रिक क्षेत्र में जानना या ज्ञान का क्रियात्मक पक्ष प्राप्त करना प्रकाश , ध्वनि या स्पर्श तरंगों के परावर्तन या अपवर्तन के द्वारा ही संभव होता है परंतु मानसिक क्षेत्र में यह, वस्तुनिष्ठता का व्यक्तिकरण करने के परिणामस्वरूप प्राप्त होता है। ज्ञान शब्द का उद्गम संस्कृत की क्रिया ‘ज्ञा‘ अर्थात जानना से हुआ। वैदिक संस्कृत में यह उतना प्रचलित नहीं था। रूस के मध्य क्षेत्र से आकर आर्य जहाॅं तहाॅं यात्रा करते हुए भारत आये और उन्होंने अपने शब्द भंडार को बढ़ाया। आर्य लोग ज्ञान के अर्थ में विद् क्रिया का उपयोग करते थे भारत में आने के बाद संस्कृत के प्रभाव से वैदिक भाषा में विद् और ज्ञा दोनो ही स्वीकृत हो गये। कोई भी भाषा प्ररंभ में कुछ ही शब्दों में होती है पर जैसे जैसे समाज एक स्थान से दूसरे और तीसरे स्थान पर जाता है उसके अनुभवों के बढ़ने के साथ साथ शब्द ज्ञान भी बढ़ता है। आर्यों के शब्द भंडार में इसी प्रकार बहुत बृद्धि हुई। आसपास का वातावरण भी ज्ञान बृद्धि में सहायक होता है। ‘ज्ञा‘ पुरानी लेटिन में ‘केनो‘ और अंग्रेजी में ‘नो‘ हो गया यद्यपि उच्चारण में ‘के‘ छोड़ दिया जाता है पर लिखने में नहीं। भाषायें इसी प्रकार एक दूसरे के संपर्क में आने से समृद्ध होती हैं। जिन्होंने शिव से राजयोग और तंत्र की शिक्षा ली उन्होंने भौतिक और मानसिक दोनों पक्षों का उपयोग ज्ञानवर्धन में किया इस लिये शैव व ज्ञानमार्गी कहलाये। और अशैव प्रपत्तिमार्गी अथवा भक्तिमार्गी कहलाये ।इन दोनों में क्या अंतर है यह जानना आवश्यक है। ज्ञानमार्गी किसी को जानने के पहले प्रथम प्रश्न करते हैं यह क्या है? इसका श्रोत क्या है? आदि। इस प्रकार प्रश्न करते करते जब उनका मन एक विंदु पर आकर रुक जाता है और किसी भी प्रकार का विश्लेषण नहीं कर पाता उसे परम विंदु कहते हैं और इसी प्रकार अधिकाधिक ज्ञानार्जन करते जाते हैं। यह ज्ञान ही मनुष्यों को पशुओ से पृथक करता है। ज्ञान का स्थायी प्रयास उन्नत चेतना और अन्तर्वोध को प्रदान करता है । यही कारण है कि साधना के इस क्षेत्र में अंधानुकरण और रूढि़वाद का कोई स्थान नहीं होता। दूसरी ओर प्रपत्तिवादी प्रारंभ से ही यह कहने लगते हैं कि जो कुछ भी हो रहा है सब उस परमपुरुष की इच्छा से हो रहा है घास की पत्ती भी उसकी इच्छा के बिना नहीं हिलती। इसे गलत सिद्ध करते हुए ज्ञानमार्गी तर्क देते हैं कि यह बिलकुल सत्य है कि परमपुरुष की इच्छा के बिना घास की पत्ती भी नहीं हिल सकती परंतु यह जानने का प्रयास करने में क्या हानि है कि परमपुरुष की इच्छा, किस प्रकार सब कुछ कार्य करती है। यही इन दोनों पद्धतियों में अंतर है।
अब प्रश्न यह है कि क्या सामान्य ज्ञान पदार्थों तक ही सीमित है या मानसिक स्तर तक या आधा पदार्थ और आधा मानसिक स्तर तक? यदि आधा मानसिक और आधा पदार्थिक स्तर तक है तो क्या कोई असाधारण ज्ञान भी है जो पदार्थिक स्तर पर बिलकुल संबद्ध न हो पर मानसिक स्तर पर विशिष्ट स्तर पर संबंधित हो? वास्तव में वह विधि जिससे कोई अपने आपको भौतिक घटकों से पृथक करता है, निर्धारण करती है कि ज्ञान पाने की क्रिया किस प्रकार हो रही है। ‘‘ यच्छेद वाॅममनसि प्रज्ञस्तद यच्छेदज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महतीनियच्छेद तदयच्छेच्छान्तात्मनि ‘‘। अर्थात् विचारित वस्तु को इंद्रियों में , इंद्रियों को कर्ता मैं में, कर्ता मैं को आस्तित्विक या ज्ञाता मैं में, आस्तित्विक मैं को इकाई चेतना में और इकाई चेतना को परम चेतना में मिलाना चाहिये । बाह्य संसार से आने वाले किसी भी प्रकार के कंपन चाहे वे प्रकाश , घ्वनि, स्पर्श आदि के हों सबसे पहले संबंधित इंद्रिय द्वारा ग्रहण किये जाते है, जैसे इमली, बेर और नीबू खाने पर सभी के खट्टे होने का पृथक पृथक अनुभव होता है क्योंकि जीभ के भिन्न भिन्न हिस्सों पर उनके स्पंदन ग्रहण होकर मन को मस्तिष्क के तन्तुओं द्वारा सबके अलग अलग स्वाद की अनुभूति कराते है। बस्तु से मस्तिष्क तक कंपनों के जाने की क्रिया सूक्ष्म होती है पर वह भौतिक क्षेत्र में ही होती है, यह तीन प्रकार के कंपन मन को अलग अलग अनुभव होने से ही तीनों के स्वादों में अंतर समझ में आता है यह मन का क्षेत्र कहलाता है। मस्तिष्क में इन कम्पनों की छाप बनी रहती है जो कभी बाद में इसी प्रकार की वस्तु के स्वाद से कंपित होने पर ज्ञान करा देती है कि यह नीबू या बेर या इमली है, इसे स्मृति कहते हैं। इसी प्रकार अन्य स्वादों के संबंध में होता है। मानव मन में दो विपरीत प्रकार की प्रवृत्तियाॅं पाई जाती हैं एक संग्रह करने की और दूसरी त्याग करने की। जब कोई उन्नति के पथ पर बढ़ने लगता है तो त्याग करने की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। ध्वनि के द्वारा भी ज्ञान ग्रहण किया जाता है, ध्वनि तरंगें कान के परदे पर कंपन उत्पन्न कर श्रवण तन्त्रिकाओं के द्वारा मस्तिष्क तक पहुंचते हैं जो विश्लेषण कर मन को सूचना देता है। कंपनों की मस्तिष्क तक की यात्रा भौतिक और मस्तिष्क से मन तक की यात्रा मानसिक क्षेत्र में आती है। एक बार सुनी हुई ध्वनि या राग मस्तिष्क में अपनी छाप लगा देती है जो बाद में उसी प्रकार के कंपन अनुभव होने पर बता देती है कि यह किसकी घ्वनि है। किसी संगीत सभा में किसी संगीत ध्वनि को सुनकर कुछ लोगों को पैर हिलाते सब ने देखा है यह उस ध्वनि के प्रति उनकी पूर्व स्मृति को प्रकट करता हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान प्रक्रिया का अधिकाॅंश भाग भौतिक और थोड़ा सा भाग मानसिक होता है। मन के दो कार्य होते हैं सोचना और याद करना। पुराने अनुभवों पर आधारित निष्कर्षों को स्मृति कहतेे हैं , जब यह अच्छी तरह स्थापित होकर त्वरित और सफलता दायक हो जाती है तो इसे ध्रुवास्मृति कहते हैं। आध्यात्मिक समाधि का अनुभव करने में ध्रुवास्मृति अनिवार्य आवश्यकता मानी जाती है।
जब कोई जानने की क्रिया मन के भीतर होती है तो मन का कुछ भाग व्यक्तिगत या ‘‘सब्जेक्टिव‘‘और दूसरा बस्तुगत या ‘‘आब्जेक्टिव ‘‘ भूमिका निभाता है। मन का वस्तुगत भाग एक्टोप्लाज्मिक स्टफ से और व्यक्तिगत भाग स्वयं को जानने से संबद्ध होता है। जैसे किसी हाथी की मन में कल्पना करने पर मन का अधिकाॅंश भाग मानसिक हाथी के रूप में बदल जाता है जागते हुए यह अनुभव होता है कि कि मैं हाथी को देख रहा हॅूं पर इस का आभास बिल्कुल नहीं होता कि मन का अधिकाॅंश भाग हाथी में बदल चुका है। स्वप्न में देखा गया हाथी सत्य प्रतीत होता है क्योंकि वहाॅं वास्तविक संसार नहीं रहता। स्वभावतः स्वप्न में व्यक्ति अपनी जाग्रत अवस्था के अनुभूत तथ्यों के ही जाल बुनलेता है और उन्हें सत्य समझता है। परंतु चाहे स्वप्न हो या जागरण मन के संतुलन में विघ्न आने पर सब कुछ छिन्न भिन्न हो जाता है। शरीर की तुलना में मन की गति अधिक तेज होने के कारण मन से किसी कार्य करने का स्वप्न देखना कम समय में ही संभव हो जाता है। जब कल्पना का विषय निर्पेक्ष रूप से वास्तविक दिखाई देने लगता है तो व्यक्तित्व भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। जैसे भूत से प्रभावित व्यक्ति सोचता है कि वह भूत है या कोई देवता है, ऐंसी स्थिति में उनके मन पर बहुत जोर की चोट करना होती है और उनका मानसिक भूत दूर हो जाता है। कभी कभी किसी बाहरी वस्तु का गहरा चिंतन, मन के वस्तुगत भाग में स्थान बना लेता है और व्यक्ति का एक्टोप्लाज्मिक स्टफ इतना केन्द्रित हो जाता है कि उसका विभिन्न प्रकार से उपयोग या दुरुपयोग किया जा सकता है। कुछ लोग दुरुपयोग करते हुए अपने शत्रुओं के घर हड्डियाॅं , ईंट पत्थर आदि फेकने लगते हैं और लोग समझते हैं कि यह भूत कर रहा है। पर यदि सतर्कता से देखा जावे तो यह व्यक्ति वहीं कहीं आसपास अपनी द्रढ़ आसन जमाये बैठा यह सब करता रहता है। यदि उसे जोर से हिला कर मन में असंतुलन पैदा कर दिया जावे तो सभी रहस्य पता चल जाता है। इसे राक्षसी विद्या कहते हैं। एक कहानी में बताया गया है कि रावण के दरवार में इंद्रजीत और अठारह मंत्री बैठे थे, उन्हें पता चला कि अंगद रावण से मिलने आ रहा है। मंत्रियों ने अंगद को परेशान करने के उद्देश्य से अपने अपने एक्टोप्लाज्मिक स्टफ से रावण का रूप बना लिया, इंद्रजीत को यह जानकारी नहीं थी अतः वह अपने रूप में ही रहा। अंगद बहुत परेशान हुए पर राक्षसी विद्या का तोड़ जानते थे अतः बोले क्यों इंद्रजीत तुम्हारे क्या 19 पिता हैं? यह सुन कर सभी मंत्रियों का मानसिक संतुलन बिगड़ गया और अपने मूल रूप में आगये। वस्तुगत या आब्जेक्टिव मन के संबंध में और भी बहुत तथ्य जान लेना चहिये। अनेक मनोरोग भी इसी से उत्पन्न होते हैं। ध्यान रहे मस्तिष्क की बीमारी और मानसिक बीमारी में बहुत अंतर है। मस्तिष्क के किसी भाग में अव्यवस्था होने पर या समतुल्य दोष होने या वंशानुगत ये रोग हो सकते हैं पर मनोरोग आब्जेक्टिवेटेड मन में अव्यवस्था होने पर होते हैं। इस असंतुलन के कारण इस प्रकार के मनुष्य बार बार अपने मन में भय या कमजोरी के कारण एक जैसा प्रतिबिंब बना लेते हैं इसे फोबिया कहते हैं। कंस ने मृत्यु के एक सप्ताह पहले से अपने वस्तुगत मन में कृष्ण का प्रतिबिंब बना लिया था और सोचने लगा था कि कृष्ण मुझे मार डालेगा और वह हर जगह कृष्ण को देखने लगा था अतः उसका आव्जेक्टिवेटेड मन सब्जेक्टिवेटेड मन से प्रबल हो गया और उसकी मानसिक मृत्यु पहले ही हो गयी। हाइड्रोफोबिया भी इसी प्रकार की बीमारी है कुत्ते के काटे जाने पर रेबीज के कारण भयग्रस्त वस्तुगतमन उस कुत्ते को हर जगह देखता है। अतः इन समस्याओं से बचने के लिये वस्तुगत मन पर नियंत्रण रखना आवश्यक हैं। बहुधा देखा जाता है कि मानसिक कमजोरी के कारण कुछ प्रतिबिंब बार बार मन में दिखाई देते हैं इसे ‘‘मीनिया‘‘ कहते हैं, जैसे स्पर्श मीनिया में कुछलोग नीची जाति के लोगों को छूते नहीं हैं अन्यथा अशुद्ध हो जाना मानते हैं। इसी प्रकार कुछ लोग स्वस्थ होते हुए भी अपने को कुछ न कुछ बीमारी होने का अनुभव करते रहते हैं, कुछलोग अवसाद से घिर
जाते हैं, कुछ लोग सुपीरियरटी और इनफीरियरटी काॅंप्लेक्स से ग्रस्त हो जाते हैं। अतः अधिकाॅंश मानसिक बीमारियाॅं वस्तुगत मन पर उचित नियंत्रण न होने से हो जातीं हैं। अतः जो नियमित रूपसे ईश्वर प्रणिधान और ध्यान करते हैं उनका मन संतुलित बना रहता है और वे मानसिक बीमारियों से कोसों दूर रहते है।
व्यक्तिगत मन और वस्तुगत मन से बहुत सी वस्तुओं का निर्माण किया जा सकता है जो बाहरी संसार से संबंधित नहीं होती। वे भीतरी मन की सीमा तक ही सीमित रहती हैं और मानसिक वस्तुओं की तरह रहती हैं और बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के वस्तुगत हो सकती हैं। पिछले अनुभव को पुनः प्रकट करना स्मृति कहलाता है। जैसे किसी राग को सुना और जानकार ने बताया कि यह अमुक राग है अब फिर कभी वही घ्वनि सुनने पर याद आ जाता है कि यह वह राग है जो उस स्थान पर सुना था। इसी प्रकार देखकर सुन कर सूंघकर या स्वाद लेकर जो भी कम्पन इंद्रियों के द्वारा मन को भेजे जाते हैं मन का आव्जेकिटवेटेड भाग उन्हें अपने में अंकित करता है और सव्जेक्टिवेटेड भाग उसका साक्ष्य देता है। मानसिक रचनायें वे हैं जिनमें सब्जेक्टिवेटेड मन के आमंत्रण पर आब्जेक्टिवेटेड मन उन्हें अपने में अंकित कर रोक लेता है। जैसे किसी गीत या कविता को सुनने पर उसका भाव और लय ग्रहण कर लिया जाता है और वह याद बनी रहती है। पढ़ते समय भी शब्दों के अर्थो को समझते जाने पर उनका चित्राॅंकन आब्जेक्टिव मन में हो जाता है यदि जोर से बोलकर पढ़ा जाये तो याद रखने में सरलता होती है क्योंकि आॅंखें और कान दोनों के माध्यम से तरंगे मन के पास पहुंचने लगती हैं। लय छंद और अलंकार की सहायता से याद रखने में सरलता होती है इसी लिये वेदों की सभी ऋचाऐं लयबद्ध और अलंकारिक हैं ।
जानने के लिये तीसरा घटक व्यक्तिगत मन और दूसरा घटक वस्तुगत मन तथा पहला और तात्विक घटक वह परम सत्ता है जिसकी उपस्थिति हर कार्य में अपरिहार्य रहती है। यह उसी प्रकार है जैसे रासायनिक क्रियाओं में उत्प्रेरक। यह उत्प्रेरक क्रिया में भाग नहीं लेता पर उसकी उपस्थिति के बिना क्रिया नहीं हो सकती। इस तरह व्यक्तिगत मन तथ्यात्मक मन का साक्ष्यी भाग होता है जो भीतरी मानसिक और बाहरी भौतिक संसार दोनों से तथ्यों को ले सकता है। वह तथ्य को उसी के भीतर निर्मित कर सकता है और स्वयं को तथ्य में परिवर्तित भी कर सकता है। जैसे, पहला, बाहर हाथी को देखा, आब्जेक्टिव मन ने उसका रूप लिया और सब्जेक्टिव मन ने साक्ष्य दिया। दूसरा, मन पहले कभी देखे गये हाथी की कल्पना कर उसे आकार दे सकता है और तर्क वितर्क कर उसके छोटे बड़े या अन्य किसी प्रकार की कमी को बता कर पूर्व में देखे गये हाथी के समान काल्पनिक हाथी का निर्माण कर सकता है। तीसरा, ‘‘उस दिन रामबाबू ने मुझे बहुत खरी खोटी सुनाई , मैं चुप रहा और सहता रहा पर अब यदि भविष्य में यह हुआ तो मैं चूकॅंगा नही,‘‘ इस सोचने में सोचने वाला वही बन जाता है जो वह आभास पाता है। इस प्रकार प्रश्न उठता है कि क्या इकाई सब्जेक्टिव मन कभी जान पाता है या सोचता है कि परम सत्ता क्या है? जैसे किसी बड़े आयोजन में विभिन्न लोग अपनी अपनी ड्युटी करते हैं परंतु आयोजनकर्ता को याद करते रहते हैं क्योंकि यदि ठीक तरह काम नहीं किया तो कहीं वह नाराज न हो जाये । बिना कुछ काम किये आयोजनकर्ता की व्यर्थ प्रशंसा करने पर भी वह प्रसन्न नहीं हो सकता उलटे डाॅंट पड़ सकती है। इसे मनोवैज्ञानिक तरीके से समझने पर हम देखते हैं कि सब्जेक्टिव मन, आब्जेक्टिव मन का सब्जेक्टिव भाग है अर्थात् आब्जेक्टिव मन ‘‘ज्ञात‘‘ और और सब्जेक्टिव मन ‘‘ज्ञाता‘‘ है। इसी प्रकार इकाई सत्ता और परम सत्ता के बीच संबंध के अनुसार भी इकाई सत्ता ‘‘ज्ञात‘‘ और परम सत्ता ‘‘ज्ञाता‘‘ है। साॅंप, मेंढक को देखता है साॅंप सब्जेक्ट और मेंढक आब्जेक्ट। मेंढक , मच्छर को देखता है मेंढक सब्जेक्ट और मच्छर आब्जेक्ट। पर साॅंप अपने आपमें यह भूला रहता है कि उसे मोर देख रहा है, मोर भूल जाता है कि उसे बहेलिया देख रहा है। इस प्रकार कोई भी अपने सब्जेक्ट को नहीं देखता है। यदि सब अपने अपने सब्जेक्ट को देखना प्रारंभ कर दें तो सब कुछ ब्यवस्थित हो जाये। स्पष्ट है कि सब कुछ उस परम सत्ता के मन में घटित हो रहा है और आब्जेक्टिव भाग भी उसी के भीतर है, यथार्थतः संसार के सब आब्जेक्टिव एक साथ परम सत्ता के आब्जेक्ट हैं। यदि कोई परीक्षा देने के लिये तैयारी करे और पढ़ते समय आधा मन इधर उधर की बातें सोचे और आधे मन से याद करे तो उसे कुछ भी याद नहीं होगा । याद करने के लिये आॅंखों से शब्दों को सही सही देखना , जीभ से उन्हें जोर से उच्चारित करना और कानों से उन्हें सुनने पर सरलता से याद किया जा सकता है और बाहरी विचार भी मन में नहीं आ सकते क्यों कि आॅंखे, जीभ और कान सब मिलकर याद करने के काम में लग जाते हैं। याद रखने के लिये विशुद्ध मनोवैज्ञानिक विधि यह है कि याद की जाने वाली सामग्री को लयबद्ध बनाया जाये क्यों कि लय आब्जेक्टिव मन पर स्थायी अंकन करता हैं और दूसरी विधि है मनोआत्मिक पद्धति, इसमें बुद्धि व्यापक होकर स्मृति को बढ़ा देती है। इसके द्वारा स्थायी स्मृति लाने का अच्छा उपाय यह है कि उसका चिंतन/ ध्यान किया जाये जिसे आप जानते हों या सुना हो कि उसकी स्मरण शक्ति अतुलनीय और फोटोग्राफिक है। यह तो परम सत्ता की शक्ति ही हो सकती है, पर उसे कैसे जान सकते हैं? इसके लिये यह सोचना पर्याप्त है कि वह परम सत्ता मेरे द्वारा किए जाने वाले हर काम को देख रही है, इस प्रकार हम उसे याद करने के साथ साथ चिंतन भी कर रहे होंगे अतः यह बिचार आब्जेक्टिवेटेड हो जायेगा। परम सत्ता आब्जेक्टिवेट नहीं होती पर उसका विचार आब्जेक्टिवेट हो जाता है। अतः सर्वोत्तम तरीका यही है कि परमपुरुष का हमेशा , हर काम में चाहे छोटा हो या बड़ा सोते, जागते, स्वप्न और यथार्थ सब में चिंतन करते हुये सचेत रहा जाये कि वह लगातार स्थायी रूपसे देख रहे हैं। इस प्रकार जब परम सत्ता का चिंतन करते करते वह स्थिर और स्थायी हो जायेगा तो एक दिन उस परम सत्ता के साथ एकीकरण भी हो जायेगा जो कि ज्ञान प्राप्त करने का अंतिम स्तर है।
याॅंत्रिक क्षेत्र में जानना या ज्ञान का क्रियात्मक पक्ष प्राप्त करना प्रकाश , ध्वनि या स्पर्श तरंगों के परावर्तन या अपवर्तन के द्वारा ही संभव होता है परंतु मानसिक क्षेत्र में यह, वस्तुनिष्ठता का व्यक्तिकरण करने के परिणामस्वरूप प्राप्त होता है। ज्ञान शब्द का उद्गम संस्कृत की क्रिया ‘ज्ञा‘ अर्थात जानना से हुआ। वैदिक संस्कृत में यह उतना प्रचलित नहीं था। रूस के मध्य क्षेत्र से आकर आर्य जहाॅं तहाॅं यात्रा करते हुए भारत आये और उन्होंने अपने शब्द भंडार को बढ़ाया। आर्य लोग ज्ञान के अर्थ में विद् क्रिया का उपयोग करते थे भारत में आने के बाद संस्कृत के प्रभाव से वैदिक भाषा में विद् और ज्ञा दोनो ही स्वीकृत हो गये। कोई भी भाषा प्ररंभ में कुछ ही शब्दों में होती है पर जैसे जैसे समाज एक स्थान से दूसरे और तीसरे स्थान पर जाता है उसके अनुभवों के बढ़ने के साथ साथ शब्द ज्ञान भी बढ़ता है। आर्यों के शब्द भंडार में इसी प्रकार बहुत बृद्धि हुई। आसपास का वातावरण भी ज्ञान बृद्धि में सहायक होता है। ‘ज्ञा‘ पुरानी लेटिन में ‘केनो‘ और अंग्रेजी में ‘नो‘ हो गया यद्यपि उच्चारण में ‘के‘ छोड़ दिया जाता है पर लिखने में नहीं। भाषायें इसी प्रकार एक दूसरे के संपर्क में आने से समृद्ध होती हैं। जिन्होंने शिव से राजयोग और तंत्र की शिक्षा ली उन्होंने भौतिक और मानसिक दोनों पक्षों का उपयोग ज्ञानवर्धन में किया इस लिये शैव व ज्ञानमार्गी कहलाये। और अशैव प्रपत्तिमार्गी अथवा भक्तिमार्गी कहलाये ।इन दोनों में क्या अंतर है यह जानना आवश्यक है। ज्ञानमार्गी किसी को जानने के पहले प्रथम प्रश्न करते हैं यह क्या है? इसका श्रोत क्या है? आदि। इस प्रकार प्रश्न करते करते जब उनका मन एक विंदु पर आकर रुक जाता है और किसी भी प्रकार का विश्लेषण नहीं कर पाता उसे परम विंदु कहते हैं और इसी प्रकार अधिकाधिक ज्ञानार्जन करते जाते हैं। यह ज्ञान ही मनुष्यों को पशुओ से पृथक करता है। ज्ञान का स्थायी प्रयास उन्नत चेतना और अन्तर्वोध को प्रदान करता है । यही कारण है कि साधना के इस क्षेत्र में अंधानुकरण और रूढि़वाद का कोई स्थान नहीं होता। दूसरी ओर प्रपत्तिवादी प्रारंभ से ही यह कहने लगते हैं कि जो कुछ भी हो रहा है सब उस परमपुरुष की इच्छा से हो रहा है घास की पत्ती भी उसकी इच्छा के बिना नहीं हिलती। इसे गलत सिद्ध करते हुए ज्ञानमार्गी तर्क देते हैं कि यह बिलकुल सत्य है कि परमपुरुष की इच्छा के बिना घास की पत्ती भी नहीं हिल सकती परंतु यह जानने का प्रयास करने में क्या हानि है कि परमपुरुष की इच्छा, किस प्रकार सब कुछ कार्य करती है। यही इन दोनों पद्धतियों में अंतर है।
अब प्रश्न यह है कि क्या सामान्य ज्ञान पदार्थों तक ही सीमित है या मानसिक स्तर तक या आधा पदार्थ और आधा मानसिक स्तर तक? यदि आधा मानसिक और आधा पदार्थिक स्तर तक है तो क्या कोई असाधारण ज्ञान भी है जो पदार्थिक स्तर पर बिलकुल संबद्ध न हो पर मानसिक स्तर पर विशिष्ट स्तर पर संबंधित हो? वास्तव में वह विधि जिससे कोई अपने आपको भौतिक घटकों से पृथक करता है, निर्धारण करती है कि ज्ञान पाने की क्रिया किस प्रकार हो रही है। ‘‘ यच्छेद वाॅममनसि प्रज्ञस्तद यच्छेदज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महतीनियच्छेद तदयच्छेच्छान्तात्मनि ‘‘। अर्थात् विचारित वस्तु को इंद्रियों में , इंद्रियों को कर्ता मैं में, कर्ता मैं को आस्तित्विक या ज्ञाता मैं में, आस्तित्विक मैं को इकाई चेतना में और इकाई चेतना को परम चेतना में मिलाना चाहिये । बाह्य संसार से आने वाले किसी भी प्रकार के कंपन चाहे वे प्रकाश , घ्वनि, स्पर्श आदि के हों सबसे पहले संबंधित इंद्रिय द्वारा ग्रहण किये जाते है, जैसे इमली, बेर और नीबू खाने पर सभी के खट्टे होने का पृथक पृथक अनुभव होता है क्योंकि जीभ के भिन्न भिन्न हिस्सों पर उनके स्पंदन ग्रहण होकर मन को मस्तिष्क के तन्तुओं द्वारा सबके अलग अलग स्वाद की अनुभूति कराते है। बस्तु से मस्तिष्क तक कंपनों के जाने की क्रिया सूक्ष्म होती है पर वह भौतिक क्षेत्र में ही होती है, यह तीन प्रकार के कंपन मन को अलग अलग अनुभव होने से ही तीनों के स्वादों में अंतर समझ में आता है यह मन का क्षेत्र कहलाता है। मस्तिष्क में इन कम्पनों की छाप बनी रहती है जो कभी बाद में इसी प्रकार की वस्तु के स्वाद से कंपित होने पर ज्ञान करा देती है कि यह नीबू या बेर या इमली है, इसे स्मृति कहते हैं। इसी प्रकार अन्य स्वादों के संबंध में होता है। मानव मन में दो विपरीत प्रकार की प्रवृत्तियाॅं पाई जाती हैं एक संग्रह करने की और दूसरी त्याग करने की। जब कोई उन्नति के पथ पर बढ़ने लगता है तो त्याग करने की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। ध्वनि के द्वारा भी ज्ञान ग्रहण किया जाता है, ध्वनि तरंगें कान के परदे पर कंपन उत्पन्न कर श्रवण तन्त्रिकाओं के द्वारा मस्तिष्क तक पहुंचते हैं जो विश्लेषण कर मन को सूचना देता है। कंपनों की मस्तिष्क तक की यात्रा भौतिक और मस्तिष्क से मन तक की यात्रा मानसिक क्षेत्र में आती है। एक बार सुनी हुई ध्वनि या राग मस्तिष्क में अपनी छाप लगा देती है जो बाद में उसी प्रकार के कंपन अनुभव होने पर बता देती है कि यह किसकी घ्वनि है। किसी संगीत सभा में किसी संगीत ध्वनि को सुनकर कुछ लोगों को पैर हिलाते सब ने देखा है यह उस ध्वनि के प्रति उनकी पूर्व स्मृति को प्रकट करता हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान प्रक्रिया का अधिकाॅंश भाग भौतिक और थोड़ा सा भाग मानसिक होता है। मन के दो कार्य होते हैं सोचना और याद करना। पुराने अनुभवों पर आधारित निष्कर्षों को स्मृति कहतेे हैं , जब यह अच्छी तरह स्थापित होकर त्वरित और सफलता दायक हो जाती है तो इसे ध्रुवास्मृति कहते हैं। आध्यात्मिक समाधि का अनुभव करने में ध्रुवास्मृति अनिवार्य आवश्यकता मानी जाती है।
जब कोई जानने की क्रिया मन के भीतर होती है तो मन का कुछ भाग व्यक्तिगत या ‘‘सब्जेक्टिव‘‘और दूसरा बस्तुगत या ‘‘आब्जेक्टिव ‘‘ भूमिका निभाता है। मन का वस्तुगत भाग एक्टोप्लाज्मिक स्टफ से और व्यक्तिगत भाग स्वयं को जानने से संबद्ध होता है। जैसे किसी हाथी की मन में कल्पना करने पर मन का अधिकाॅंश भाग मानसिक हाथी के रूप में बदल जाता है जागते हुए यह अनुभव होता है कि कि मैं हाथी को देख रहा हॅूं पर इस का आभास बिल्कुल नहीं होता कि मन का अधिकाॅंश भाग हाथी में बदल चुका है। स्वप्न में देखा गया हाथी सत्य प्रतीत होता है क्योंकि वहाॅं वास्तविक संसार नहीं रहता। स्वभावतः स्वप्न में व्यक्ति अपनी जाग्रत अवस्था के अनुभूत तथ्यों के ही जाल बुनलेता है और उन्हें सत्य समझता है। परंतु चाहे स्वप्न हो या जागरण मन के संतुलन में विघ्न आने पर सब कुछ छिन्न भिन्न हो जाता है। शरीर की तुलना में मन की गति अधिक तेज होने के कारण मन से किसी कार्य करने का स्वप्न देखना कम समय में ही संभव हो जाता है। जब कल्पना का विषय निर्पेक्ष रूप से वास्तविक दिखाई देने लगता है तो व्यक्तित्व भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। जैसे भूत से प्रभावित व्यक्ति सोचता है कि वह भूत है या कोई देवता है, ऐंसी स्थिति में उनके मन पर बहुत जोर की चोट करना होती है और उनका मानसिक भूत दूर हो जाता है। कभी कभी किसी बाहरी वस्तु का गहरा चिंतन, मन के वस्तुगत भाग में स्थान बना लेता है और व्यक्ति का एक्टोप्लाज्मिक स्टफ इतना केन्द्रित हो जाता है कि उसका विभिन्न प्रकार से उपयोग या दुरुपयोग किया जा सकता है। कुछ लोग दुरुपयोग करते हुए अपने शत्रुओं के घर हड्डियाॅं , ईंट पत्थर आदि फेकने लगते हैं और लोग समझते हैं कि यह भूत कर रहा है। पर यदि सतर्कता से देखा जावे तो यह व्यक्ति वहीं कहीं आसपास अपनी द्रढ़ आसन जमाये बैठा यह सब करता रहता है। यदि उसे जोर से हिला कर मन में असंतुलन पैदा कर दिया जावे तो सभी रहस्य पता चल जाता है। इसे राक्षसी विद्या कहते हैं। एक कहानी में बताया गया है कि रावण के दरवार में इंद्रजीत और अठारह मंत्री बैठे थे, उन्हें पता चला कि अंगद रावण से मिलने आ रहा है। मंत्रियों ने अंगद को परेशान करने के उद्देश्य से अपने अपने एक्टोप्लाज्मिक स्टफ से रावण का रूप बना लिया, इंद्रजीत को यह जानकारी नहीं थी अतः वह अपने रूप में ही रहा। अंगद बहुत परेशान हुए पर राक्षसी विद्या का तोड़ जानते थे अतः बोले क्यों इंद्रजीत तुम्हारे क्या 19 पिता हैं? यह सुन कर सभी मंत्रियों का मानसिक संतुलन बिगड़ गया और अपने मूल रूप में आगये। वस्तुगत या आब्जेक्टिव मन के संबंध में और भी बहुत तथ्य जान लेना चहिये। अनेक मनोरोग भी इसी से उत्पन्न होते हैं। ध्यान रहे मस्तिष्क की बीमारी और मानसिक बीमारी में बहुत अंतर है। मस्तिष्क के किसी भाग में अव्यवस्था होने पर या समतुल्य दोष होने या वंशानुगत ये रोग हो सकते हैं पर मनोरोग आब्जेक्टिवेटेड मन में अव्यवस्था होने पर होते हैं। इस असंतुलन के कारण इस प्रकार के मनुष्य बार बार अपने मन में भय या कमजोरी के कारण एक जैसा प्रतिबिंब बना लेते हैं इसे फोबिया कहते हैं। कंस ने मृत्यु के एक सप्ताह पहले से अपने वस्तुगत मन में कृष्ण का प्रतिबिंब बना लिया था और सोचने लगा था कि कृष्ण मुझे मार डालेगा और वह हर जगह कृष्ण को देखने लगा था अतः उसका आव्जेक्टिवेटेड मन सब्जेक्टिवेटेड मन से प्रबल हो गया और उसकी मानसिक मृत्यु पहले ही हो गयी। हाइड्रोफोबिया भी इसी प्रकार की बीमारी है कुत्ते के काटे जाने पर रेबीज के कारण भयग्रस्त वस्तुगतमन उस कुत्ते को हर जगह देखता है। अतः इन समस्याओं से बचने के लिये वस्तुगत मन पर नियंत्रण रखना आवश्यक हैं। बहुधा देखा जाता है कि मानसिक कमजोरी के कारण कुछ प्रतिबिंब बार बार मन में दिखाई देते हैं इसे ‘‘मीनिया‘‘ कहते हैं, जैसे स्पर्श मीनिया में कुछलोग नीची जाति के लोगों को छूते नहीं हैं अन्यथा अशुद्ध हो जाना मानते हैं। इसी प्रकार कुछ लोग स्वस्थ होते हुए भी अपने को कुछ न कुछ बीमारी होने का अनुभव करते रहते हैं, कुछलोग अवसाद से घिर
जाते हैं, कुछ लोग सुपीरियरटी और इनफीरियरटी काॅंप्लेक्स से ग्रस्त हो जाते हैं। अतः अधिकाॅंश मानसिक बीमारियाॅं वस्तुगत मन पर उचित नियंत्रण न होने से हो जातीं हैं। अतः जो नियमित रूपसे ईश्वर प्रणिधान और ध्यान करते हैं उनका मन संतुलित बना रहता है और वे मानसिक बीमारियों से कोसों दूर रहते है।
व्यक्तिगत मन और वस्तुगत मन से बहुत सी वस्तुओं का निर्माण किया जा सकता है जो बाहरी संसार से संबंधित नहीं होती। वे भीतरी मन की सीमा तक ही सीमित रहती हैं और मानसिक वस्तुओं की तरह रहती हैं और बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के वस्तुगत हो सकती हैं। पिछले अनुभव को पुनः प्रकट करना स्मृति कहलाता है। जैसे किसी राग को सुना और जानकार ने बताया कि यह अमुक राग है अब फिर कभी वही घ्वनि सुनने पर याद आ जाता है कि यह वह राग है जो उस स्थान पर सुना था। इसी प्रकार देखकर सुन कर सूंघकर या स्वाद लेकर जो भी कम्पन इंद्रियों के द्वारा मन को भेजे जाते हैं मन का आव्जेकिटवेटेड भाग उन्हें अपने में अंकित करता है और सव्जेक्टिवेटेड भाग उसका साक्ष्य देता है। मानसिक रचनायें वे हैं जिनमें सब्जेक्टिवेटेड मन के आमंत्रण पर आब्जेक्टिवेटेड मन उन्हें अपने में अंकित कर रोक लेता है। जैसे किसी गीत या कविता को सुनने पर उसका भाव और लय ग्रहण कर लिया जाता है और वह याद बनी रहती है। पढ़ते समय भी शब्दों के अर्थो को समझते जाने पर उनका चित्राॅंकन आब्जेक्टिव मन में हो जाता है यदि जोर से बोलकर पढ़ा जाये तो याद रखने में सरलता होती है क्योंकि आॅंखें और कान दोनों के माध्यम से तरंगे मन के पास पहुंचने लगती हैं। लय छंद और अलंकार की सहायता से याद रखने में सरलता होती है इसी लिये वेदों की सभी ऋचाऐं लयबद्ध और अलंकारिक हैं ।
जानने के लिये तीसरा घटक व्यक्तिगत मन और दूसरा घटक वस्तुगत मन तथा पहला और तात्विक घटक वह परम सत्ता है जिसकी उपस्थिति हर कार्य में अपरिहार्य रहती है। यह उसी प्रकार है जैसे रासायनिक क्रियाओं में उत्प्रेरक। यह उत्प्रेरक क्रिया में भाग नहीं लेता पर उसकी उपस्थिति के बिना क्रिया नहीं हो सकती। इस तरह व्यक्तिगत मन तथ्यात्मक मन का साक्ष्यी भाग होता है जो भीतरी मानसिक और बाहरी भौतिक संसार दोनों से तथ्यों को ले सकता है। वह तथ्य को उसी के भीतर निर्मित कर सकता है और स्वयं को तथ्य में परिवर्तित भी कर सकता है। जैसे, पहला, बाहर हाथी को देखा, आब्जेक्टिव मन ने उसका रूप लिया और सब्जेक्टिव मन ने साक्ष्य दिया। दूसरा, मन पहले कभी देखे गये हाथी की कल्पना कर उसे आकार दे सकता है और तर्क वितर्क कर उसके छोटे बड़े या अन्य किसी प्रकार की कमी को बता कर पूर्व में देखे गये हाथी के समान काल्पनिक हाथी का निर्माण कर सकता है। तीसरा, ‘‘उस दिन रामबाबू ने मुझे बहुत खरी खोटी सुनाई , मैं चुप रहा और सहता रहा पर अब यदि भविष्य में यह हुआ तो मैं चूकॅंगा नही,‘‘ इस सोचने में सोचने वाला वही बन जाता है जो वह आभास पाता है। इस प्रकार प्रश्न उठता है कि क्या इकाई सब्जेक्टिव मन कभी जान पाता है या सोचता है कि परम सत्ता क्या है? जैसे किसी बड़े आयोजन में विभिन्न लोग अपनी अपनी ड्युटी करते हैं परंतु आयोजनकर्ता को याद करते रहते हैं क्योंकि यदि ठीक तरह काम नहीं किया तो कहीं वह नाराज न हो जाये । बिना कुछ काम किये आयोजनकर्ता की व्यर्थ प्रशंसा करने पर भी वह प्रसन्न नहीं हो सकता उलटे डाॅंट पड़ सकती है। इसे मनोवैज्ञानिक तरीके से समझने पर हम देखते हैं कि सब्जेक्टिव मन, आब्जेक्टिव मन का सब्जेक्टिव भाग है अर्थात् आब्जेक्टिव मन ‘‘ज्ञात‘‘ और और सब्जेक्टिव मन ‘‘ज्ञाता‘‘ है। इसी प्रकार इकाई सत्ता और परम सत्ता के बीच संबंध के अनुसार भी इकाई सत्ता ‘‘ज्ञात‘‘ और परम सत्ता ‘‘ज्ञाता‘‘ है। साॅंप, मेंढक को देखता है साॅंप सब्जेक्ट और मेंढक आब्जेक्ट। मेंढक , मच्छर को देखता है मेंढक सब्जेक्ट और मच्छर आब्जेक्ट। पर साॅंप अपने आपमें यह भूला रहता है कि उसे मोर देख रहा है, मोर भूल जाता है कि उसे बहेलिया देख रहा है। इस प्रकार कोई भी अपने सब्जेक्ट को नहीं देखता है। यदि सब अपने अपने सब्जेक्ट को देखना प्रारंभ कर दें तो सब कुछ ब्यवस्थित हो जाये। स्पष्ट है कि सब कुछ उस परम सत्ता के मन में घटित हो रहा है और आब्जेक्टिव भाग भी उसी के भीतर है, यथार्थतः संसार के सब आब्जेक्टिव एक साथ परम सत्ता के आब्जेक्ट हैं। यदि कोई परीक्षा देने के लिये तैयारी करे और पढ़ते समय आधा मन इधर उधर की बातें सोचे और आधे मन से याद करे तो उसे कुछ भी याद नहीं होगा । याद करने के लिये आॅंखों से शब्दों को सही सही देखना , जीभ से उन्हें जोर से उच्चारित करना और कानों से उन्हें सुनने पर सरलता से याद किया जा सकता है और बाहरी विचार भी मन में नहीं आ सकते क्यों कि आॅंखे, जीभ और कान सब मिलकर याद करने के काम में लग जाते हैं। याद रखने के लिये विशुद्ध मनोवैज्ञानिक विधि यह है कि याद की जाने वाली सामग्री को लयबद्ध बनाया जाये क्यों कि लय आब्जेक्टिव मन पर स्थायी अंकन करता हैं और दूसरी विधि है मनोआत्मिक पद्धति, इसमें बुद्धि व्यापक होकर स्मृति को बढ़ा देती है। इसके द्वारा स्थायी स्मृति लाने का अच्छा उपाय यह है कि उसका चिंतन/ ध्यान किया जाये जिसे आप जानते हों या सुना हो कि उसकी स्मरण शक्ति अतुलनीय और फोटोग्राफिक है। यह तो परम सत्ता की शक्ति ही हो सकती है, पर उसे कैसे जान सकते हैं? इसके लिये यह सोचना पर्याप्त है कि वह परम सत्ता मेरे द्वारा किए जाने वाले हर काम को देख रही है, इस प्रकार हम उसे याद करने के साथ साथ चिंतन भी कर रहे होंगे अतः यह बिचार आब्जेक्टिवेटेड हो जायेगा। परम सत्ता आब्जेक्टिवेट नहीं होती पर उसका विचार आब्जेक्टिवेट हो जाता है। अतः सर्वोत्तम तरीका यही है कि परमपुरुष का हमेशा , हर काम में चाहे छोटा हो या बड़ा सोते, जागते, स्वप्न और यथार्थ सब में चिंतन करते हुये सचेत रहा जाये कि वह लगातार स्थायी रूपसे देख रहे हैं। इस प्रकार जब परम सत्ता का चिंतन करते करते वह स्थिर और स्थायी हो जायेगा तो एक दिन उस परम सत्ता के साथ एकीकरण भी हो जायेगा जो कि ज्ञान प्राप्त करने का अंतिम स्तर है।
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