Friday 13 February 2015

6.3 साधारण और असाधारण स्मृति

6.3 साधारण और असाधारण स्मृति
मन के द्वारा पूर्व से अनुभव में लाई गई वस्तुओं की प्रतिक्रिया को स्मृति कहते हैं।स्मृति को भीतरी और बाहरी दो प्रकार की विधियों से सक्रिय किया जा सकता है। भीतरी विधि में, नर्व सैलों के द्वारा प्रारंभिक स्तर पर संचित किये गये कंपन अलग अलग सैलों जैसे, ज्ञान के अलग और कर्म के अलग, व्याप्त रहते हैं अतः तन्मात्राओं द्वारा मन में लाये गये विचारों को मस्तिष्क में उत्पन्न होने में कोई कठिनाई नहीं होती। जैसे पहले किसी गाय को देखा हो और फिर उसके बारे में पूछे जाने पर थोड़े से प्रयास से ही याद आ जाता है कि गाय इस प्रकार की थी पर अधिक दिन बीतने के बाद मस्तिष्क पर अधिक जोर लगाने पर भी वह पूर्व की तरह वर्णन नहीं कर सकेगा क्यों कि मस्तिष्क के सैलों में संचित गाय के चित्र धूसर हो चुकते हैं। स्मृति के तरो ताजा बने रहने के लिये वाह्य घटकों को अपरिवर्तित बने रहना भी सहायक होता है। जैसे जिस स्थान पर गाय को देखा था यदि वहाॅं वह व्यक्ति जाये तो उसे याद आ जायेगा कि इस स्थान पर गाय को देखा था, पर बहुत उिनों बाद यदि बाहरी घटक नष्ट हो जाये तो मस्तिष्क को घटना की याद करने में कठिनाई जाती है। इस अवस्था में घटना के स्मरण करने के लिये इकाई मन के चित्त में प्रवेश  करना होता है और एक बार स्मरण में आ गया तो फिर कुछ समय तक याद बना रहता है। इसलिये मस्तिष्क और कुछ नहीं मानसिक स्मरण करने की साॅंसारिक मशीन है। उसके विभिन्न अवयव उसे याद करने में सहायता करते हैं पर स्मृति का स्थायी आवास चित्त में होता है। जब मस्तिष्क के तंतु याद करने में सहायता करके स्मरण कराते हैं तो इसे साधारण स्मृति कहते हैं।   मानव मन के तीन स्तर होते हैं क्रूड, सूक्ष्म और कारण तथा मानव अस्तित्व के भी तीन स्तर होते हैं जाग्रत, स्वप्न और सुसुप्ति। जाग्रत अवस्था में क्रूड मन और सुसुप्ति अवस्था में कारण मन सक्रिय होते हैं। कारण मन में अनन्त ज्ञान और स्मृतयों का भंडार होता है। जाग्रत अवस्था के सभी प्रकार के संस्कार कारण मन में संचिंत होते जाते हैं। कारण मन के सो जाने को मृत्यु कहते हैं। मरने के बाद शरीरहीन मन अपने संस्कारों को लादे अपार अन्तरिक्ष में भटकता है ताकि उसे फिर से अपने उन संस्कारों का भोग करने के लिये उचित शरीर  मिले। प्रकृति की राजसिक शक्ति से उसे अनुकूल परिस्थितियों वाला शरीर उपलब्ध करा देने पर पुराने जीवन की स्मृति पाॅंच वर्ष की आयु तक बनी रहती है । भले ही उसे नया शरीर मिल गया होता है पर वह मानसिक रूप से पूर्व जन्म के सुख और दुखों में ही उलझा रहता है। यही कारण है कि बच्चे सोते सोते कभी रोने लगते हें और कभी अचानक ही हॅंसने लगते हैं। पूर्व जन्म की स्मृतियों के लिये पुराने मस्तिष्क की आवश्यकता  नहीं होती और नये मन और मस्तिष्क में निकट संबंध बन नहीं पाता है अतः इस प्रकार की समृतियों का स्मरण में आना असाधारण स्मृति कहलाता है। क्रूड मन के अनुभव सूक्ष्म मन में परावर्तित नहीं हो पाते। बच्चों के मामले में तो क्रूड मन के अनुभव थोड़े से होते हैं और सूक्ष्म मन बिलकुल शांत  होता है अतः कारण मन से तरंगे उसके सूक्ष्म मन में सरलता से आ जाती है, अतः पिछले जन्म की स्मृतियाॅं बच्चों के मन में सरलता से आ जाती हैं। चूॅंकि बच्चों का क्रूड मन पर्याप्त प्रबल नहीं हो पाता है अतः वे अपने स्वप्नों को जाग्रत अवस्था में नहीं बता पाते हैं। यह असाधारण स्मृति 5वर्ष की आयु के बाद घटने लगती है, जैसे जैसे बच्चे की आयु बढ़ती जाती है वह नये वातावरण के संपर्क में आकर नये प्रश्न  पूछता और अपने अनुभवों को बढ़ाने लगता है  और भौतिक जगत के संबंध में जानकारी को संग्रह करने लगता हेै, और क्रूड मन के अनुभव स्वप्न अवस्था में परावर्तित होने लगते हैं । इस कारण मन के कंपन और तरंगे क्रूड मन की सतह तक नहीं आ पाती हैं जिससे आयु बढ़ने के साथ पिछले जन्म की स्मृतियाॅं वह भूलता जाता है। कुछ बच्चों के मन पर वाहरी वातावरण का प्रभाव नहीं पड़ पाने से वे 5 वर्ष की आयु से अधिक तक भी पिछले जन्म की स्मृतियाॅं बनाये रखते हैं पर यह 12 वर्ष की आयु तक ही रह पाता है । यदि वह इससे अधिक पिछले जन्म की स्मृतियाॅं बनाये रखता है तो उसे दो मनों को एक शरीर में रखपाना और उनके साथ संतुलन बनाये रखपाना कठिन होजाता है अतः इस अवस्था में उसकी मृत्यु हो जाती है। इसलिये भूलना ईश्वरीय विधान ही है। यदि भूलना एक वरदान न होता तो, मनुष्य जबकि एक जन्म के बोझ में ही इतना दबा रहता है अनेक जन्मों का बोझ एक साथ  इस जीवन में  कैसे उठाता? मनुष्य का इतिहास,  आशायें , शोक निराशायें सब कुछ सूक्ष्म मन में संचित रहता हैक्रूड और सूक्ष्म मन के बेचैन बने रहने के कारण कारण मन अपना दावा नहीं करता, पर पिछले सभी जन्मों का पूरा पूरा लेखा क्रमागत रूपसे कारण मन में संचित होता जाता है। इस  प्रकार प्रत्येक संचित सतह प्रत्येक जीवन की होती है और चित्रमाला की तरह बनी रहती है जब तक कि वे सब संस्कार भोगकर समाप्त नहीं हो जाते हैं। साधना के द्वारा जब क्रूड मन को सूक्ष्म मन में और सूक्ष्म मन को कारण मन में निलंबित करने का अभ्यास हो जाता है तो साधक अपने पिछले जन्मों का क्रमशः  द्रश्य  देख सकता है बिलकुल सिनेमा की तरह। दूसरों के पिछले जन्म को देख पाना स्वयं के पिछले जन्मों को देख पाने से सरल होता है, पर क्या यह करना उचित होगा? नहीं । यह भी ईश्वरीय विधान है, पिछले जन्म को जानने पर आगे बढ़ने के लिये मिल रहे अवसरों का लाभ नहीं मिल पाता और अवसाद में ही जीवन निकल जाता है।
पिछले जन्मों की स्पष्ट स्मृति केवल तीन प्रकार की स्थितयों में ही हो सकती है, 1, उनमें जिनका व्यक्तित्व अच्छी तरह उन्नत हो, 2, जो स्वेछा से पूर्ण सचेत होकर मरे हों, 3, जो दुर्घटना में मरे हों। इस स्थिति में भी 12 या 13 वर्ष की आयु तक ही यह स्मरण रह पाता है अन्यथा उस व्यक्ति को दुहरा व्यक्तित्व जीना पड़ता है जो पुनः मृत्यु का कारण बनता है। जो 12/13 वर्ष  तक पिछले जन्म की घटनाओं को याद रख पाते हैं वे संस्कृत में यतिस्मर कहलाते हैं। यदि कोई अपने मन को केन्द्रित कर एक विंदु में रूपान्तरित कर दे तो उसे अपने पिछले जन्म का सब कुछ याद आ सकता है यदि उसके पिछले संस्कार अपूर्ण रहे हैं। पर इस प्रकार का परिश्रम करने का कोई उपयोग नहीं बल्कि उस पराक्रम को परमपुरुष को अनुभव करने में ही लगाना चाहिये उसे जान लेने पर सब कुछ ज्ञात और प्राप्त हो जाता है, पिछले इतिहास को जान लेने से क्या मिलेगा?

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