Tuesday 24 February 2015

6.9 वेद में ब्रह्म विज्ञान----लगातार ( पिछले विंदु से आगे )


6.9 वेद में ब्रह्म विज्ञान----लगातार ( पिछले  विंदु  से आगे )

( 5  ) सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति, संचर क्रिया और स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति, प्रतिसंचर क्रिया कहलाती है दोनों को मिलाकर ब्रह्म चक्र कहलाता है। जीव, विद्या के द्वारा ब्रह्म की ओर  अग्रसर होकर उनकी प्रतिसंचर क्रिया को तेज कर देता है,  और अविद्या के द्वारा प्रभावित होकर  उनकी संचर क्रिया को धीमा कर देता है। विद्या ज्ञानप्रधान कर्म  और अविद्या ज्ञानवर्जित कर्मप्रधान होती है। साधक के जीवन में ज्ञान और कर्म दोनों की समता होना आवश्यक  है अन्यथा ब्रह्माभिमुखी गति होना दुष्कर है। जो केवल अविद्या की उपासना करते हैं वे क्रमशः  अंधकार की ओर बढ़ते हैं और जो केवल विद्या की उपासना करते हैं वे उससे भी अधिक अंधकार में पहुंचते हैं ‘‘ अंधं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यामुपासते, ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः।‘‘ व्यावहारिक जगत में अविद्या को पूर्णतः नहीं त्यागा जा सकता अतः वस्तु भोगकाल में सामंजस्यपूर्ण आचरण करना चाहिये अर्थात् यथायथ भाव से कर्म साधना कर प्रज्ञा द्वारा अमृतत्व लाभ करना चाहिये। जो प्रत्येक वस्तु को अपने में और अपने को सब वस्तुओं में देखते हैं उनके मन में किसी के प्रति घृणा का भाव नहीं रह सकता । ब्रह्मज्ञों का सबसे बड़ा लक्षण घृणा त्याग ही है। सर्वभूतों को समभाव से देखने पर कोई पाप कर्म नहीं हो पाता। जब स्पष्टतः यह बोध हो जाता है कि हमारा आत्मा सर्वभूतों में परिव्याप्त है तब कुछ पाने की भूख और कुछ खो जाने का भय नहीं रहता । मोह और शोक भी चले जाते हैं।
( 6 ) उस परमब्रह्म का स्वरूप सर्वव्यापक है, साधक उन्हीं के मध्य रहते है और उन्हीं का भाव लेकर अन्त में वही हो जाते हें। उनके उसी भाव में सर्वार्थसिद्धि तथा सर्वज्ञता का बीज रह जाता है। परमात्मा का कोई स्थूल  शरीर नहीं है, वे हर द्रष्टि से दोष रहित , शुद्ध, निष्पाप, तेजस्वी, द्रष्टा, ज्ञाता, आत्मजयी तथा स्वयंभू हैं। उनकी कोई प्रतिमा नहीं हो सकती।  उनमें अनन्त क्षमा है आदि काल से वे सब को सब कुछ देते आये हैं और देते जायेंगे।  जो उनके इस स्वरूपको नहीं देखकर उनकी सृष्टि  की झलक देख उन्हीं की वस्तुओं की  ओर दौड़ते हैं और उसके पीछे उस महान स्रष्टा को भूल जाते हैं उनलोगों की यह क्या मूर्खता नहीं है? संभूति अर्थात् स्रष्टि की झलक देखकर जो केवल उसी की ओर दौड़ते हैं और असंभूति अर्थात् विनाश  की संभावना से जो भयभीत हो उसी की चिंता करते हैं इन दोनों की गति अंधकारमय लोक में होती है। अतः दोनों के बीच सामंजस्य रखकर चलने वाले ही अमृत्व को प्राप्त होते है। स्रष्टि और विनाश  को जो भलीभांति जान लेते हैं वे मृत्यु से परे स्थान पाते हैं। इस ब्रह्मोपलब्धि के पथ का अंतिम प्रतिबंध हिरण्यमय कोश  है, जब तक यह कोश  रहता है परमात्मा को नहीं पाया जा सकता, सृष्टि की झलक और विनाश  का भय सदा ही लगा रहेगा, परमात्मा हृरण्यमय कोश  के ऊर्ध्व  में अपने स्वरूप में रहते हैं। ‘‘ हृरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्, तत्वं पूशन्नपावृणु सत्यझर्माय दृष्टये।‘‘ हे परम ब्रह्म! हमलोग सत्यलोक में, तुम्हारे लोक में स्थिति लाभ करें, इसके लिये इस हृरण्यमय कोश  का चमकता आवरण हमलोगों से दूर हटा दो जिससे हम लोगों का मन  हृरण्यमय कोश  की झलक से आकृष्ट न हो। साधना के द्वारा जब मनुष्य स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने लगता है तब उसके सभी बंधन धीरे धीरे ढीले होकर गिर जाते हैं तथा उस शुद्ध आत्मस्वरूप को पाने के लिये तीब्र इच्छा जाग जाती है और हृरण्यमय कोश  विनष्ट हो जाता है।
( 7 ) वेद शब्द का व्युत्पत्तिगत अर्थ है ज्ञान, जब यह ज्ञान देश  काल और पात्र पर निर्भर करता है तो सापेक्षिक या परा ज्ञान और जब सभी निर्भरताओं से मुक्त आत्म संपूर्ण स्वरूपानुभूत होता है तो इसे पारमार्थिक या परा ज्ञान कहते हैं। जिस प्रकार रथ के अर समूह अर्थात् ‘स्पोक्स‘ चक्र नाभिमें गुंथे रहते हैं ठीक उसी प्रकार विश्व  ब्रह्माॅंड की प्रत्येक वस्तु ब्रह्म केन्द्रित होकर स्थित है। ‘‘अराइव रथनाभौ प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम, ऋचो यजूंसि सामानि यज्ञःक्षत्रं ब्रह्म च।‘‘ प्रजा शब्द का अर्थ है सृष्ट वस्तु। इस अर्थ में ब्रह्म ही प्रजापति हैं क्योंकि वे ही प्रत्येक सृष्ट वस्तु के नियंत्रक हैं। इंद्रियों के लिये मेरुदंड जिस प्रकार चरम आश्रय है उसी प्रकार समस्त ब्रह्माॅंड के लिये ब्रह्म हैं। ब्रह्म को छोड़ देने पर समस्त विश्व  अस्तित्वहीन हो जाता है। ऋषि शब्द उन महानुभावों के लिये प्रयुक्त किया जाता है जिन्होंने  अपनी अपनी साधना द्वारा नई नई वस्तुओं की उद्भावना कर मानव सभ्यता की अग्रगति को त्वरित किया है। इन ऋषियों के द्वारा  सत्य को व्रत के रूप में अपने जीवन में ग्रहण
किया जाता है क्यों कि सत्य का आश्रय न लेने पर मनीषा का श्रेयोमुखी विकास नहीं होता। सामान्यतः सत्य, तथ्य, सम्यक और ऋत इन चारों का अर्थ एक ही प्रकार लिया जाता है परंतु इन चारों में बहुत अंतर है। तथ्य का अर्थ है (fact) प्रकृत घटना, सम्यक का अर्थ है  ठीक (correct) या भूलरहित, ऋत का अर्थ है (truth) यथार्थ या सच्चा और सत्य का अर्थ है अपरिणामी अर्थात् देश , काल और पात्र की भिन्नता से अप्रभावित यानि चित्स्वरूप पुरुष। कल्याणधर्मी ऋषि को सत्याश्रयी होना ही पड़ेगा। सत्य का प्रतिशब्द किसी भी भाषा में नहीं है।
(8) इन्द्र शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ अथवा राजा। जीव समूह में प्राणशक्ति के ब्रह्म ही नियंत्रक हैं अतः वे ही इंद्र हैं । दारुण विनाश  से रक्षा करते समय वे ही रुद्र कहलाते हैं जो सब जगह पाये जाते हैं। ऊपर से जो शून्य  दिखता है वहाॅं भी वे पाये जाते हैं ।  इस जगत में सूर्य भी उन्हीं की महिमा गाता है अतः वे जो स्नयुपुंज  के मेरुदंड, पितृपुरुषों की स्वधा, ऋषियों के सत्य, इंद्र , सूर्य आदि है क्या अलग अलग सत्ताये हैं? नहीं , नहीं, सब कुछ वही हैं। जैसे किसी का नाम श्री ‘क‘ है, उनका पुत्र उन्हें बाबूजी कहता है क्योंकि वह उनमें पिता रूपी विकास देखता है, स्कूल के विद्यार्थी उन्हें मास्टरजी कहते हैं क्योंकि वे उनमें शिक्षक रूपी विकास देखते हैं और रास्ते में चलते समय ताॅंगे वाला उन्हें ‘ए टोपी‘ कहता है क्योंकि वह उनकी टोपी को ही प्रमुखता से देखता है। परंतु बाबूजी, मास्टरजी, ए टोपी क्या पृथक पृथक व्यक्ति हैं? नहीं वह तो श्री ‘क ‘ को विभिन्न द्रष्टिकोणों से देखने का परिणाम है। संसार में जड़ नाम की कोई वस्तु नहीं सब कुछ चेतन ही है यह चेतन कही सघन है तो कहीं विरल। जहाॅं चैतन्य की सघनता है उसे चेतन और जहाॅं विरल अर्थात् प्रकृति की प्रधानता अधिक है उसे जड़ कहते हैं। ब्रह्म की कृपा वर्षा सभी पर समान रूप से होती है उनके सामने चेतन अचेतन का कोई भेद नहीं।
अचेतन स्वयं कोई कार्य नहीं करता अतः शुभ कार्य के लिये पुण्य और अशुभ के लिये प्रत्यवाय का भागी नहीं होता पर चेतन अपने कर्म के अनुसार शु भ या अशुभ फल पाता है। ब्रह्म अवर्ण हैं , मनुष्य में जब तक वर्णगत अर्थात् जाति, अर्थ, देश , शिक्षा या अन्य किसी भी प्रकार का वैषम्य रहता है तब तक वह अभेदात्मक अखंडैकरस ब्रह्म को अनुभव नही कर सकता। यही ब्रह्म एक ओर अपनी कल्पना से जगत की उत्पत्ति करते हैं और दूसरी ओर ठीक उसी प्रकार निर्ममता से उसका नाश  भी करते हैं। जगत की सभी वस्तुएं , सभी सत्तायें उनका भक्ष्य हैं, उनका अन्न हैं , सब को एक दिन अपनी अपनी सत्ता की आहुति उनमें देना होगी। लोग उन्हें क्या दान करते हैं? अपना अहम बोध , अपनी व्यथा विडम्बित सत्ता। मातरिश्वा  अर्थात् वायु जीवों का प्राण है और ब्रह्म हैं इस मातरिश्वा  के परिचालक। वायु जीव का प्राण है और ब्रह्म हैं प्राणों के भी प्राण। हे करुणामय ब्रह्म ! तुम्हारी प्रेरणा से हमारी गति शुभ और शिवत्व की ओर उन्मुख हो , हम जो कुछ बोलें, जो कुछ सुने, जो कुछ देखें, तुम्हारी भावना से भावित होकर श्रेयवस्तु में परिणत हो जिससे किसी हीन सत्ता को हम न देख सकें और न ही विचार कर सकें जिससे हम प्रतिक्षण यह समझें कि हमारा द्रष्टब्य, श्रोतव्य और वक्तव्य सब कुछ तुम्हीं हो। हे परब्रह्म , तुम हमारे प्रति कृपण न होना। तुम हमें कल्याण के पथ पर ले चलो।

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