Tuesday, 17 February 2015

6.7 मन और मानव तन की ऊर्जा ग्रंथियाॅं।

6.7 मन और मानव तन की ऊर्जा ग्रंथियाॅं।
मन जड़ की ही सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है, यह सूक्ष्मतर सत्ता ही स्तर भेद के अनुसार कहीं अस्तित्व बोध के साथ जड़ का संबंधीकरण करती है और कहीं वह जड़ का भाव रूप ग्रहण करती है।
1. जिस सत्ता के द्वारा अस्तित्व बोध जागता है वह सबसे सूक्ष्म है इसे महत तत्व कहते हैं। उन्नत श्रेणी के जीव इस कोटि में  आते हैं।
2. जिस सत्ता से अस्तित्व बोध के साथ जड़ के संबंध का निर्णय होता है वह अपेक्षतया स्थूल होता है इसे अहंतत्व कहते हैं।
3. जिस सत्ता से जड़ का भाव रूप ग्रहण होता है इस स्थूलतम अंश  को चित्त कहते हैं। इस से जड़ भाव ग्रहीत होता है पर अस्तित्व बोध नहीं।
   उदाहरणः- अवनत श्रेणी के लता गुल्म या जीव। इनमें महततत्व जाग्रत न होने से स्थूल देह काट कर दो टुकड़े कर देने पर भी वे दो अलग अलग प्राणियों में परिणत हो जाते हैं। चैत्तिक संघर्ष के बढ़ने से अहं और महत, आयतन में बढ़ते जाते हैं।

दार्शनिक  चर्चाओं में  मानस (mind) उसे कहते हैं जब अहं का आयतन चित्त के आयतन से कम होता है, मनीषा (intellect) उसे कहते हैं जब अहं का आयतन चित्त के आयतन से अधिक होता है और बोधि (intuition) उसे कहते हैं जब महत का आयतन अहं के आयतन से अधिक होता है।

मानसिक प्रगति एक्टोप्लाज्म और एन्डोप्लाज्म के धरातल में होती है जबकि आध्यात्मिक प्रगति संज्ञानात्मक संकाय (cognitive faculty) में होती है जिसमें सभी इच्छायें और वृत्तियाॅं परम सत्ता की ओर भेज दी जाती हैं। एन्डोप्लाज्म, एक्टोप्लाज्म का बाहरी आवरण है । एक्टोप्लाज्म का सामूहिक रूप ‘‘मैं हूॅं‘‘ की भावना जाग्रत करता है । एक्टोप्लाज्म में बृद्धि होने पर उसका आयतन और प्रभावी क्षेत्र बढ़ता जाता है। एक्टोप्लाज्म की सामूहिक बृद्धि होने पर एन्डोप्लात्म भी क्रमशः  फैलते हुए टूट जाता है और ‘‘ इकाई मैं ‘‘ ‘‘ ब्राह्मिक मैं‘‘ में मिल जाता है। वास्तव में एक्टोप्लाज्म मानसिक संकाय प्रदान कारता है जब कि एन्डोप्लाज्म ‘‘मैं‘‘ की भावना। एन्डोप्लाज्मिक संरचना में ‘‘मैं‘‘ की भावना न्यूनतम होती है वह एक सामूहिक संरचना और प्रकृति का होता है जबकि एक्टोप्लाज्मिक संरचना इकाई संरचना और प्रकृति का होता है, इसे ही इकाई अस्तित्व संकाय और ज्ञान संकाय कहते हैं। संज्ञानात्मक संकाय दोनों संरचनाओं से सामान्य अर्थात् ‘प्रोतयोग‘ और विशेष अर्थात् ‘ओतयोग‘, दोनों प्रकार से संपर्क बनाये रखता है। जटिल संरचनाओं में मैंपन का बोध सामूहिक ‘‘मैं‘‘ होता है जबकि इकाई संरचना में प्रोटोजोइक ‘मैं‘ होता है। इसलिये समग्र विश्व  के साथ परम सत्ता का संबंध होना प्रोत योग ही है। एक्टोप्लाज्म की प्रकृति इकाई संरचना और एन्डोप्लाज्म की प्रकृति सामूहिक संरचना की होती है। उन्नत जीवों का मैंपन बोध जटिल होता है उसे विभिन्न कोणों और प्रकारों से समझाया जाता है। सामूहिक मानसिक संरचना इकाई ‘मैं‘ की भावना देती है जिसमें अनेक एक कोषीय, बहुकोषीय, प्रोटोजोइक और मेटाजोअक  सैल होते हैं जो अनेक प्रकार के संवेदन, विचार और ज्ञान संसूचित करते हैं। पौधों के प्रोटोप्लाज्मिक सैलों और मनुष्य के प्रोटोप्लाज्मिक सैलों में  अधिक अंतर नहीं होता । पौधों के सैलों में एन्डोप्लाज्मिक आवरण नहीं होता मनुष्यों में होता है। एन्डोप्लाज्मिक सैलों कार्य यह होता है कि वे मनुष्यों की संवेदनाओं के परावर्तन और अपवर्तनों को अंकित कर सकें। यही कारण है कि मानव मन अधिक सूक्ष्म और ग्राही होता है। यदि मन अनेक दिशाओं में गति करता रहता है तो वह परम सत्ता के साथ सामंजस्य नहीं कर पाता पर यदि सभी वृत्तियों को केन्द्रित करके उन्हें परम पुरुष की ओर प्रवाहित कदिया जाता है तो वह परम पुरुष के साथ एकाकार होकर अपना पृथक अस्तित्व समाप्त कर देता है और सगुण या निर्गुण समाधिप्राप्त करता है। अब प्रश्न  यह है कि मनुष्य अपनी वृत्तियों को एक विंदु पर एकत्रित कर परम सत्ता की ओर किस प्रकार प्रवाहित कर सकता है? इसका उत्तर पाने के लिये वायोसाइक्लाजी को जानना आवश्यक  है। इसके कुछ तथ्य नीचे दिये जा रहे हैं।

लिंफ (lymph) या लसिकाः  यह मानव शरीर का महत्वपूर्ण  घटक है जिस पर शरीर की विभिन्न ग्रंथियाॅं निर्भर होती हैं। लिंफ वास्तव में जो कुछ हम खाते हैं उसकी क्रीम है और इसके प्रभावी होने के लिये सात्विक भोजन आवश्यक  है। लिंफ का  अंततः अस्थि मज्जा में परिवर्तन हो जाता है जिसे सब क्रीमों की क्रीम कहा जा सकता है। लिंफ एक प्रकार के हारमोन्स हैं जो अनेक लिंफ ग्रंथियों के द्वारा निर्मित किये जाते हैं। इसकी सहायता से ही अन्य सक्रिय ग्रंथियाॅं अपने अपने लिये नये हारमोन बनाती हैं। इसी से त्वचा पर चमक बनी रहती है। सभी देशों  में सोलह से अठारह वर्ष की आयु में युवावस्था के आरंभ होते ही लिंफेटिक ग्रंथियाॅं सक्रिय हो जाती हैं यह वह समय होता है जब प्रत्येक युवा के मन में कुछ अनोखा करने का उत्साह होता है । यदि उचित मार्गदर्शन  और वातावरण नहीं मिला तो इस अवस्था में युवा पथभ्रमित हो जाते हैं। टेस्टिस ग्रंथि लिंफ को सीमेन में परिवर्तित करती है, यदि यह ग्रंथि सही ठंग से काम करे और लिंफेटिक ग्रंथियों में कोई व्यवधान न हो तो बुद्धि उत्पन्न होती है। टेस्टिस के विना सौर ग्रंथि विकसित नहीं हो पाती अतः बुद्धि भी कम हो जाती है। लिंफ मस्तिष्क के सैलों का भोजन भी है, यदि इन सैलों को उचित मात्रा में लिंफ नही मिल पाता तो व्यक्ति का बौद्धिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। सभी मानवीय गुण लिंफ से ही प्राप्त होते हैं अतः ब्रह्मचर्य का महत्व समझना चाहिये। जब लिंफेटिक ग्रंथी और टेस्टिस एक साथ क्रियाशील होते हैं तो वे उचित प्रकार से सक्रिय रह कर, टेस्टिस द्वारा लिंफ को सीमेन में बदल दिया जाता है जो पुरुषों में बच्चों के प्रति प्रेम और कुछ भाग शरीर में उचित ऊर्जा और आकर्षण और महिलाओं में अंडाणु तथा दूध का निर्माण करने में प्रयुक्त होता है। आध्यात्मिक साधकों में यह परम पुरुष के प्रति प्रेम जाग्रत करता है और छाती कोमल तथा दाढ़ी सघन हो जाती है। इस प्रकार लिंफ मानसिक परिवर्तन का प्रमुख कारण बनता है। लिंफ के अधिकाधिक निर्माण के लिये क्लोरोफिल बहुत सहायक है। शाकाहारी भोजन जिसमें हरी सब्जियाॅं प्रचुर मात्रा में होती हैं वे लिंफ के निर्माण में त्वरित सहयोग करती हैं। माॅंसाहारी बालकों की तुलना में शाकाहारी बालकों की बुद्धि इसी लिये तेज होती है। मांसाहार तेज गति से लिंफ को सीमेन में बदलता है जबकि लिंफ का उत्पादन कम करता है इस लिये बुद्धि का विकास रुक जाता है। भौतिक और मानसिक अच्छा वातावरण, सात्विक भोजन, सात्विक पुस्तकों  का अध्ययन, सात्विक विचार और सत्संगति आदि लिंफ के उत्पादन में धनात्मक उत्प्रेरक और इसके विपरीत ऋणात्मक उत्प्रेरक का काम करते हैं। साधकों और आध्यात्मिक प्रगति करने वालों का अधिकाॅंश  लिंफ शरीर में ही रहता है जो अधिक होता है वह मस्तिष्क के भोजन के रूपमें प्रयुक्त हो जाता है यही कारण है कि साधारण लोगों की अपेक्षा साधकों का बौद्धिक स्तर अधिक ऊंचा होता है।

कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथियाॅं (glands) :-  मानव शरीर में अनेक ग्रंथियाॅं और उप ग्रंथियाॅं पाई जाती हैं जो विशेष प्रकार के ऊर्जा केन्द्र या (plexus) निर्मित करती हैं और उसी केन्द्र के द्वारा नियंत्रित की जाती है। बालक जब गर्भ में होता है तो सभी ग्रंथियाॅं माता की प्रणाली  द्वारा ही नियंत्रित होती हैं , जन्म के समय सभी plexus होते हैं पर सभी सक्रिय नहीं होते वे तभी सक्रिय होते हैं जब वह अपनी प्रणाली से श्वाश  लेने लगता है। प्लेक्सी के सक्रिय होते ही भौतिक शरीर, नर्व और हारमोन संरचना आदि सब कुछ बदलने लगते हैं। ग्रंथियों के अधिक या कम स्रवित होने पर पिट्युटरी ग्रंथि प्रभावित होती है जो दूसरी ग्रंथियों को भी प्रभावित करती है और पूर्व जन्म की वृत्तियाॅं भी प्रभावित होती हैं। ठंडे देश  के लोगों में इन ग्रंथियों में धीमे और गर्म देश  के लोगों में यह परिवर्तन तेजी से होता है। जन्म के समय जन्मजात प्रवृत्तियों के कारण केवल 10 नाडि़यों की सक्रियता होती है पर पाॅंच वर्ष की आयु होने तक अन्य ग्रंथियों के हारमोन्स का स्राव होने से  अधिक संकाय सक्रिय होजाते हैं कुल मिलाकर मानव संरचना में 1000 ग्रंथियाॅं होती हैं पर यहाॅं कुछ महत्वपर्ण ग्रंथियों का ही उल्लेख किया जा रहा है।

यौनग्रंथियाॅं (gonads): टेस्टिस अथवा ओवरी के विकास के साथ बच्चे की त्वचा में कुछ परिवर्तन आ जाते हैं वह कुछ मोटा हो जाता है और क्रोध, लोलुपता, आज्ञाकारिता, भाई बहिनों और मित्रों के प्रति प्रेम बढ़ने लगता है। विचारों में भी परिवर्तन होने लगता हे। 13 वर्ष  की आयु में टेस्टिस से निकलने वाले हारमोन, लिंफ को सीमेन में बदलने लगते हैं और यदि सामान्य रूपसे यह स्राव होता है तो मन में सेक्स संबंधी विचार आने लगते हैं । यदि टेस्टिस अधिक सक्रिय हो जाते हैं तो विवेकपूर्ण भावना मन में आती है यह मनोवैज्ञानिक है। 15 वर्ष की आयु में टेस्टिस के चारों ओर और 17 वर्ष की आयु में कंधों की संधियों में बाल आ जाते हैं। बालक इस अवस्था में आने तक अपने माता पिता का बहुत आज्ञाकारी हो जाता है पर इसके बाद वह अपने विचारों के साथ तर्क करने लगता है। यदि टेस्टिस से हरमोन्स का स्रवित होना कम होता है तो इन स्थानों के बाल कम होते है। यदि 13 से 15 वर्ष की आयु के दौरान सेक्स हारमोन उचित रूपसे नहीं स्रवित होते तो  17 वर्ष की आयु तक बालक असामाजिक हो जाता है। इस प्रकार के बच्चे कीडे़ मकोड़ों को बड़ी निर्दयता से उनके एक एक अंग को खींच खींच कर मारने में आनन्द पाते हैं। जब तक पीनियल ग्रंथी कार्य करना प्रारंभ नहीं करती लिंफ का परिवर्तन सीमेन में नहीं होता। 17 वर्ष की आयु में टेस्टिस के अधिक स्रवित होने पर सार्वभौमिक प्रेम और परमपुरुष के प्रति प्रेम जा उठता हैं। हारमोन्स के कम स्रवति होने पर संधि स्थल पर कम बाल होना, दुष्टता और भीरुता के साथ संकीर्ण विचारों और रूढि़वादी हो जाना, और नये विचारों को सहन नहीं कर पाना जैसे गुण उत्पन्न हो जाते हैं। यदि टेस्टिस / ओवरी को शरीर से अलग कर दिया जाता है तो मृत्यु नहीं होती पर नपुंसकता, कर्तव्यहीनता और गैरजिम्मेदारी जैसी आदतें बढ़ जाती हैं।

पौरुष ग्रंथियाॅं(prostrate): तीन, चार या पाॅंच वर्ष की आयु तक बच्चों में शर्म  नहीं होती परंतु पौरुष ग्रंथियों के सक्रिय होते ही यह आ जाती है। यहाॅं हारमोन्स का सामान्य स्राव होने पर मनीपुर चक्र की प्रथम उपग्रंथी द्वारा लज्जा और शरमीलेपन की भावना उत्पन्न होती हैं। पाॅंचवी और छठवीं उपग्रंथी का एकसाथ अधिक स्रवित होना अवसाद उत्पन्न करता है। नवीं और दसवीं उपग्रंथी का कम स्रवित होना भीरुता पैदा करता है और मानसिक विभ्रम के कारण भूत दिखने जैसा आभास होता है। सभी ग्रंथियाॅं लिंफ से ही कच्चा माल पाकर अपनी आपनी उन्नति करते हैं अतः उस पर अधिक आश्रित  होते हैं जबकि लिंफेटिक ग्लेंड अन्यों पर आश्रित नहीं होता है। लिंफ की अधिक आपूर्ति मस्तिष्क के तंतुओं को भोजन देने का कार्य करती है।

सौर ग्रंथी (solar plexus)  सौर ग्रंथी में हारमोन्स का सामान्य प्रवाह बच्चों, मित्रों और भाई बहिनों में प्रेम उत्पन्न करता है। यह सभी स्तनपायी जीवों में होता है पर वे प्राणी जिनके काट देने पर अलग अलग भी जीवित बने रहते हैं उनमें यह ग्रंथी नहीं होती इस लिये उनमें बच्चों के प्रति प्रेम नहीं होता । लिंफेटिक ग्रंथी और टेस्टिस के उचित कार्य करते हुए सौर ग्रंथी का विकास होने पर पुरुषों में दाढ़ी मूछ और महिलाओं में स्तनों की बृद्धि होने लगती है और सबके प्रति प्रेम जाग्रत हो जाता है। महिलाओं में लिंफ, दूध निर्माण करता है। सौर ग्रंथी में अधिक स्राव होने ने से दाढ़ी मूछ और छाती के बाल घने हो जाते हैं और परमपुरुष के प्रति प्रेम बढ़ जाता है। सौर ग्रंथी अन्य सब ग्रंथियों का आधार है अतः यदि इसको शरीर से अलग कर दिया जाये तो  जीवन समाप्त हो जाता है। यथार्थता यह है कि किसी भी प्राणी के शरीर से एक भी ग्रंथी अलग कर दी जावे तो वह जीवित नहीं रहता।

पेराथायरायड ग्रंथीः इस ग्रंथी के सक्रिय होने पर पुरुषों के गले की आवाज मोटी और मूछें घनी हो जाती हैं। महिलाओं में आवाज मोटी नहीं होती और न ही मूछे होती है पर इनमें विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता है क्योंकि महिलाओं में इस ग्रंथी का विकास पुरुषों से कम होता है। इसके उचित रूप से विकसित न होने पर या इसके हारमोन्स का उचित स्राव न होने पर पुरुषों में आत्मविश्वाश  की कमी, तानाशाही प्रवृत्ति और आत्मश्लाघा  करने की आदतें और महिलाओं में झगड़ा करने और स्वार्थी होने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। गर्म देशों  में यह ग्रंथी 24 और ठंडे देशों  में 25 वर्ष की आयु में विकसित होती है। 39 वर्ष की आयु के बाद शरीर का विकास कम होने लगता है पर मानसिक विकास 54 वर्ष की आयु तक जारी रहता है, 60 वर्ष की आयु में सोचने की क्षमता भी कम होने लगती है।

पिट्यूटरी ग्रंथीः  शिव के समय योगियों और बायोसाक्लाजिस्टों  ने हिमालय की ठंडी जलवायु को परामनोविज्ञान के शोधकार्य करने के लिये प्राथमिकता दी। उनका मुख्य विषय था ज्ञानात्मक संकाय का संप्रेषण करना , परामनोविज्ञान उसकी छोटी सी शाखा है। इस ग्रंथी का दाॅंया भाग वाॅयें भाग को और  वाॅयां भाग दाॅयें भाग को नियंत्रित करता है। वाॅयें भाग की वृत्तियाॅं 400 से कुछ अधिक होती हैं जो अधोगति और अवसाद , लज्जा और उन्हीं जैसे गुणों को उत्पन्न करती हैं और दाॅयें भाग की वृत्तियाॅं भी 400 से कुछ अधिक होती हैं जो परासत्ता की ओर ले जाने का रास्ता बतातीं हैं। पिट्यूटरी परा और अपरा ज्ञान दोनों  पर नियंत्रण रखती है और संतुलन बनाती है। यदि दायाॅं भाग विकसित होता है और वाॅंया भाग अविकसित रहता है तो मनुष्य को अगले जन्म में मनुष्य का शरीर मिलता है पर उसका सेक्स बदल जाता है, नर से मादा और मादा से नर हो जाता है, पर आत्म ज्ञानी रहता है जिससे साधना कर सके। यदि दायाॅं भाग अविकसित और वांयाॅं भाग विकसित होता है तो  उसे अगले जन्म में मनुष्य शरीर नहीं मिलता वरन् उन्नत जीवों जैसे गाय बैल , कुत्ता , बंदर आदि का शरीर मिलता है। इस अवस्था में वह अपने पूर्व जीवन को याद रखता है परंतु ज्योंही यौन ग्रंथियाॅं विकसित होने लगती हैं वह भूल जाता है और यदि नहीं भूलता तो मृत्यु हो जाती है। इस ग्रंथी के दोनों पक्ष अच्छी तरह विकसित हो जाने पर व्यक्ति आत्म ज्ञानी हो जाता है यदि इस जन्म में वह मुक्त नहीं हो पाता तो अगले जन्म में संस्कारों के क्षय करने के लिये वह परामनोविज्ञान द्वारा मार्गदर्शित  होता है और ज्योंही यौन ग्रंथियाॅं विकसित होती हैं वह सब कुछ छोड़कर अच्छा साधक बन जाता है और जीवन में सफल होता है। यदि कोई अपने जीवन में साधना करते हुए मुक्त नहीं हो पाता तो उसे पुनः मनुष्य जन्म मिलता है वह अपने पिछले जन्म को याद रख सकता है और नहीं भी । पर यदि कोई जीवन के अतिम भाग में साधना प्रारंभ करता है और पिट्यूटरी ग्रंथी का दायां  भाग विकसित हो जाता है तो पिछला जीवन याद रहता है। अच्छा यह है कि सब को जितने जल्दी हो सके यौन ग्रंथियों के विकसित होते ही साधना करना प्रारंभ कर देना चाहिये। सबसे अच्छी आयु  13 वर्ष है। जिन्होंने पिट्यूटरी से पीनियल ग्रंथी की ओर  जाने का अभ्यास करते हुए साधना की होती है और वे मुक्त नहीं होते तो उन्हें अगले जन्म में मनुष्य शरीर मिलता है और वे परामनोविज्ञान के द्वारा मार्गदर्शित  होते हैं और 13 से 15 वर्ष तक की आयु तक पिछले जन्म का स्मरण रखते हेैं पर यौन ग्रथियों के सक्रिय होते ही वह भूल जाते हैं। जिन्हें मुक्ति मिल जाती है वे अपने पूर्व जीवन को अपनी इच्छानुसार याद रख सकते हैं या नहीं रख सकते। कुछ विशेष मामलों में यौन ग्रंथियों के सक्रिय हो जाने के बाद भी पुराना जीवन याद बना रहता है और मृत्यु भी नहीं होती पर वे अच्छे आध्यात्मिक संत हो जाते हैं क्योंकि पारिवारिक जीवन में वे संतुलन स्थापित नहीं कर पाते हैं। इस लिये पिट्यूटरी ग्रंथी बहुत ही महत्वपूर्ण है और उसका दाॅंया भाग बहुत महत्व रखता है। यदि दोनों भाग अच्छी तरह विकसित कर लिये जावें तो व्यक्ति आत्मज्ञानी अवश्य  हो जाता है भले ही सर्व ज्ञाता न हो।

पीनियल ग्रंथी:  यह शुद्ध रूपसे आध्यात्मिक ग्रंथी है, इस के ऊपरी भाग को सहस्त्रार और निचले भाग को गुरु चक्र कहते हैं। यह जीवन के अंतिम भाग में पूर्णतः विकसित होती है । यदि कोई अपने जीवन में इस पर मन केन्द्रित करते हुए साधना करता है तो वह अवश्य  ही मुक्त होता है। यदि कोई साधना कर केद्रित मन विकसित कर लेता है तो वह मुक्त हो जाता है अन्यथा फिर से जन्म पाता है। अतः साधक तब मुक्त होता है जब वह मन को केन्द्रित कर इस ग्रंथी पर आघात करता है। इसलिये मनुष्य को साधना जल्दी ही प्रारंभ कर देना चाहिये ताकि पीनियल ग्रंथी के विकसित होते ही वह मुक्त हो जावे। यदि कोई  इसी जीवन में साधना करते हुए मुक्त नहीं हो पाता तो उसे अगले जन्म में उन्नत पीनियल और पिट्यूटरी ग्रंथी  प्राप्त होती है। साधक को पूरी ताकत से गुरु चक्र पर अपने मनको केन्द्रित करके ध्यान करना  चाहिये क्योंकि वही सहस्त्रार और सम्पूर्ण पीनियल ग्रंथी को नियंत्रित करता है। जब पीनियल ग्रंथी का स्राव पिट्यूटरी को अभिभूत कर लेता है तो आध्यात्मिक अखंडता अर्थात् समाधि की स्थिति में इसे तीसरा नेत्र कहते हैं। जहाॅं तक पीनियल और पिट्यूटरी ग्रंथी का प्रश्न  है नर और नारियों के लिये इनमें कोई भिन्नता नहीं है पर अन्य ग्रंभ्थियों के लिये भिन्नता पाई जाती है। अतः यह कहना गलत है कि महिलायें मुक्ति के लिये पात्रता नहीं रखती। मनुष्य परमपुरुष के हाथों में एक खिलोने की तरह है , साधना और ध्यान उन्हीं को प्रसन्न करने के लिये किया जाता है। वे ही परम गुरु हैं अतः गुरुचक्र  पर मन और सभी वृत्तियाॅं केन्द्रित कर उनका ध्यान करने से वे संतुष्ठ होकर आवागमन से मुक्त कर देते हैं ।

चक्र और माक्रोवाइटाः आध्यात्मिक प्रगति के लिये चक्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है यथार्थतः चक्रों की शुद्धि और नियंत्रण करना। चक्र क्या है? ग्रंथियों और उपग्रंथियों का  समूह। सभी प्राणियों में इन चक्रेां की अलग अलग स्थितियाॅं होती हैं। मनुष्यों में सूक्ष्म ऊर्जा नाडि़यों इडा, पिंगला और सुषुम्ना के परस्पर संपर्क बिंन्दुओं पर इनकी स्थिति होती है। मनुष्यों के मन में अनेक प्रकार के विचार आते जाते रहते हैं जो उनके संस्कारों द्वारा जनित वृत्तियों से निर्मित होते हैं। इन वृत्तियों का नियंत्रण और प्रवाह इन चक्रों पर निर्भर होता है। मुख्यतः 50 वृत्तियाॅं भीतर और बाहर इन्हीं चक्रों के कंपनों द्वारा कार्यरत रहती हैं। इन्हीं कंपनों के कारण विभिन्न ग्रंथियाॅं हारमोन्स का स्राव करती हैं और सामान्य या असामान्य वृत्तियों का उत्पन्न होना इन हारमोनों के सामान्य या असामान्य स्राव पर निर्भर होता है। मानव मन तभी तक कार्य करता है जब तक ये वृत्तियाॅं प्रदर्शित  होती हैं, इनके समाप्त होते ही मन भी समाप्त हो जाता है।विभिन्न चक्रों के नाम और उनके क्षेत्र इस प्रकार हैं।

मूलाधार चक्र- भौम मंडल। स्वाधिष्ठान चक्र-तरल मंडल। मणिपूर चक्र-अग्नि मंडल। अनाहतचक्र’-सौर मंडल। विशुद्ध  चक्र- नक्षत्र मंडल। आज्ञाचक्र-चंद्रमंडल। संस्कृत में मंडल को वृत्त, थायरायड ग्लेंड को बृहस्पति ग्रंथी, हारमोन्स को ग्रंथी रस, पैराथायरायड को बृहस्पति उपग्रंथी, पिट्यूटरी ग्लेंड को मायायोगिनी ग्रंथी और पीनियल ग्लेंड को सहस्त्रार ग्रंथी कहते हैं। चक्र अपने भीतर अनेक वृत्तियों और उनके ध्वन्यात्मक बीजों  को समेटे रहते हैं।जैसे,
मूलाधार चक्र में चार वृत्तियाॅं धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की होती हैं और उनके ध्वन्यात्मक बीज  क्रमशः  व,श ,ष और स होते हैं।
स्वाधिष्ठान चक्र में छः वृत्तियाॅं अवज्ञा, मूर्छा, प्रणाश , अविश्वाश , सर्वनाश , क्रूरता आदि होती हैं इनके ध्वन्यात्मक बीज  क्रमशः  ब, भ, म, य, र, ल होते हैं।
मनीपुर चक्र में दस वृत्तियाॅं लज्जा, पिशूनता, ईर्ष्या , सुसुप्ति, विषाद, क्षय, तृष्णा, मोह, घृणा और भय की होती हैं और उनके ध्वन्यात्मक बीज  क्रमशः  दा, धा, ना, त, थ, द, ध, न, प, फ होते हैं।
अनाहत चक्र में बारह वृत्तियाॅं आशा , चिंता, चेष्टा, ममता, दम्भ, विवेक, विकलता, अहंकार, लोलता, कपटता, वितर्क, अनुताप की होती हैं इनके ध्वन्यात्मक बीज  कंमशः  क, ख, ग, घ, डॅ., च, छ, ज, झ, ´, ता, था, आदि होते हैं। यह चक्र श्वशन  प्रणाली को प्रभावित करता हैं यहाॅं पर धनात्मक माइक्रोवाईटा अधिक प्रभावी हो जाते हैं जो आध्यात्मिक प्रगति में सहायक होते हैं इससे नीचे के चक्रों पर नकारात्मक माइक्रोवाइटा प्रभावी होते हैं जो आध्यात्मिक प्रगति में बाधक होते हैं।
विशुद्ध चक्र में सोलह वृत्तियाॅं षडज, ऋषभ, गाॅंधार, मध्यम, पंचम, धैवत्, निषाद, ओम, हुंम, फट्, वौषट, वषट्, स्वाहा, नमः, विष और अमृत की होती हैं। प्रत्येक प्राणी अपनी लाक्षणिक विशेषताओं से नियंत्रित होते हैं अतः इस चक्र की प्रथम सात ध्वनियाॅं संबंधित प्राणियों से ली गई हैं। वाॅंये कान के नीचे से दाॅंये कान के नीचे तक का क्षेत्र इस चक्र का होता है इसमें धनात्मक माइक्रोवाईटा संपर्क में आते हैं। विशुद्ध चक्र में 16 उपग्रंथियाॅं होती हैं जो चारों  दिशाओं में 4, 4, 4, 4 की संख्या में होती हैं , इनके माध्यम से मित्र और शत्रु दोनों प्रकार के माइक्रोवाइटा  सक्रिय होते हैं।
आज्ञाचक्र में दो वृत्तियाॅं अपरा और परा होती हैं इनके ध्वन्यात्मक बीज  क्रमशः  क्ष और ह होते हैं। दोनों नेत्रों के बीच अर्थात् त्रिकुटी का क्षेत्र इस का प्रभावी क्षेत्र होता है । मानव शरीर के ऊपरी भाग और नाभि के नीचे का भाग चंद्रमा के परावर्तित प्रकाश  से प्रभावित होता हैं । आज्ञा चक्र का वायाॅं भाग नाभि से नीचे वाह्य प्रभावों से संबंधित होता है और उसका स्वर क्ष होता है। दायाॅं भाग शरीर के ऊपरी भाग से संबंधित वाह्य प्रभावों से संबद्ध होता है और उसका बीज  ह होता है। चंद्रमा का विशेष बीज  ‘‘था‘‘ है जो ह और क्ष को नियंत्रित करता है आज्ञाचक्र को नहीं।

मानव शरीर में असंख्य नाडि़याॅं और सैल होते हैं जिनका नियंत्रण चक्रों द्वारा होता है चक्रों में होने वाले कंपनों से ग्रंथियों में हारमोन्स का निस्सारण संतुलित होता है जिससे शरीर और मन संतुलित रहता है पर यदि किसी कारण से इनमें  असंतुलन हो जाता है तो अनेक समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं । जैसे यदि इफेरेन्ट और अफेरेन्ट नाडि़यों में असंतुलन उत्पन्न हो जाये तो व्यक्ति की विभेदन क्षमता प्रभावित होती है और वह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या करे। स्वप्न में भयभीत होने पर जाग्रत अवस्था  में भी डर बना रहता है। यदि योगासनों को नियमित रूप से सही ढंग से किया जाये तो मनुष्य निरोगी रहने के साथ साथ अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण रख सकता है क्योंकि आसनों से चक्रों पर या तो दबाव बढ़ता है या घटता है अतः हारमोन्स का संतुलन बनाये रखकर वे संबंधित वृत्तियों को कम या अधिक कर सकते है। जैसे किसी को भाषण देने में डर लगता है और वह मयूरासन नियमित रूप से करने लगे तो वह मनीपुर चक्र को प्रभावित कर हारमोन्स में संतुलन लाकर भय वृत्ति को कम कर देगी। हारमोन्स के अधिक स्राव होने पर वृत्तियाॅं बढ़ती हैं और कम होने पर घट जाती हैं। अनाहत चक्र हृदय को, लिंफेटिक ग्लेंड भौतिकता को और थायरायड तथा पैराथायरायड ग्लेंड मानसिक और बौद्धिक स्तर को प्रभावित करते हैं। गुरु चक्र पर ध्यान करने से शरीर और मन दोनों पर नियंत्रण हो जाता है। जब कोई महापुरुष आशीष देता है तो वह अपना हाथ सहस्त्रार चक्र पर रखता है जिसका अनुकूल प्रभाव पड़ता है इससे उच्च वृत्तियाॅं बढ़ जाती हैं। यदि मौखिक ही बोलकर आशीर्वाद दिया जाता है तो भी अच्छा प्रभाव पड़ता है। किसी महान व्यक्तित्व को साष्टाॅंग प्रणाम करने पर उसके द्वारा हाथ से स्पर्श  कर या बोलकर ध्वनि से ही आशीष दिया जाता है तो उसका धनात्मक प्रभाव पड़ता है। आप जिन्हें चाहते हैं उन्हें ही आशीष देंवे, यदि जिन्हें नहीं चाहते और उनके प्रणाम स्वीकार कर आशीष देते हैं तो उसके नकारात्मक संस्कार और कुवृत्तियाॅं आपके मन में आ सकते हैं । इसलिये आपको यह अधिकार नहीं है कि जिस चाहे को आशीष दे दो और जिस चाहे का प्रणाम स्वीकार कर लो। महिलाओं का क्रेनियम पुरुषों से थोड़ा छोटा होता है अतः उसमें नर्व सैल भी संख्या में कम होते हैं अतः यदि समान स्तर के महिला और पुरुष एक सी गति और सच्चाई से साधना करते हैं तो महिला के 99 प्रतिशत नर्व सैल प्रयुक्त होते हैं जब कि पुरुष के अपेक्षतया कम, पर महिलाओं में संतान के प्रति पुरुषों की अपेक्षा अधिक प्रेम होता है। किसी भी एक वृत्ति की अधिकता हानिकारक होती है अतः सब को चाहिये कि सभी वृत्तियों को परमपुरुष की ओर संम्प्रेषित करता जाये जिससे सभी कुछ संतुलन में बना रहेगा और समाज की अग्रगति होगी।

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